Covid-19 Archives — समयांतर https://www.samayantar.com/tag/covid-19/ विचार और संस्कृति का मासिक Mon, 20 Sep 2021 02:52:41 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.5.2 https://www.samayantar.com/wp-content/uploads/2020/03/cropped-Screen-Shot-2020-03-29-at-8.29.51-PM-3-32x32.png Covid-19 Archives — समयांतर https://www.samayantar.com/tag/covid-19/ 32 32 महामारियों का राजनीतिक अर्थशास्त्र (भाग – 2) https://www.samayantar.com/%e0%a4%ae%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%a8%e0%a5%80%e0%a4%a4%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%85-2/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%ae%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%a8%e0%a5%80%e0%a4%a4%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%85-2/#respond Mon, 20 Sep 2021 02:52:41 +0000 https://www.samayantar.com/?p=709 जीव वैज्ञानिक रॉब वालेस से जिप्सन जॉन और जितीस पीएम की बातचीत

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जीव वैज्ञानिक  रॉब वालेस से  जिप्सन जॉन और  जितीस पीएम की बातचीत का दूसरा हिस्सा

 

अनुवांशिक रूप से संशोधित (जीएम) बीज और एक फसली खेती

प्रश्न : भारत में जीएम फसलों और एक फसली खेती के बहुत से पैरोकार हैं। मोसेंटो पहले ही भारतीय बाजार में प्रवेश कर चुकी है। खेती के निगमीकरण के आयाम के अलावा आपने बढ़ती हुई एक फसली कृषि संस्कृति से जुड़ी प्रतिरोधी क्षमता के कमजोर होने की समस्या को भी उठाया है। रोगाणुओं के मनुष्यों को संक्रमित करने और त्वरित प्रसार करने के संदर्भ में इससे जुड़ी क्या चुनौतियां हैं?

रॉब वालेस : एक नस्ली पशुबाड़े महामारी जनित जिस बर्बादी का प्रतिनिधित्व करते हैं, वह फसलों में भी पायी जाती है- इसमें वह ऊर्जा और परिश्रम की बर्बादी भी शामिल है जो खासतौर पर बाड़ों में पाले जा रहे पशुओं के चारे के लिए लाखों एकड़ में फसल उगाने में लगता है। एक फसली खेती कीटों और खरपतवारों को पूरे इलाके का सफाया करने का मौका देती है। कंपनियां किसानों को एक दिशा में निर्देशित उत्पादन के लिए बाध्य करती हैं- एक लागत, दूसरी लागत की ओर ले जाती है और दूसरी लागत तीसरी के लिए बाध्य करती है- इस तरह कंपनियों द्वारा पैदा की गई कीटों और खरपतवार की समस्या से निपटने की कोशिश में कीटनाशकों और खरपतवार नाशकों पर किसान की लगभग पूरी जमा पूंजी खर्च हो जाती है।

फसलों और पशुधन की ज्यादा विविधता वाला परिदृश्य ऐसे कीटों और खरपतवारों के खिलाफ प्राकृतिक बाधा का काम दे सकता है। इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि इसके बाद कभी संक्रमणों या बीमारियों का फैलाव नहीं होगा, लेकिन देश-काल में फैली जैव-विविधता वाली सुनियोजित कृषि एक घातक रोगाणु या कीट के समक्ष एक ऐसी जटिल गुत्थी पेश करती है जिसे वह अपने प्रतिरूपों को जन्म देने के लिए निर्धारित अल्पकाल में नहीं सुलझा पाता। अक्सर केवल ‘कमजोर’ रोगाणु ही उस विलम्ब को बर्दाश्त कर पाते हैं जो इन गुत्थियों को सुलझाने में होता है और इस तरह शरीर में जाकर वे एक प्राकृतिक टीके की तरह काम करते हैं, और रोग प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ाकर ज्यादा घातक किस्मों से लडऩे में हमारी मदद करते हैं।

इस तरह आज जो चुनौती है वह पूरी तरह प्रशासनिक स्तर पर है और किसान की स्वायत्तता को बनाये रखने की है जिसे बड़ी कंपनियां गटक जाना या सिक्कों में ढालना चाहती हैं। जो ग्राम समुदाय सूदखोर बिचैलियों और फसलों के खरीददारों के चंगुल से बाहर आ सकते हैं वे सहकारी समितियों का समर्थन कर सकते हैं क्योंकि वे जरूरी लागतों को कम करती हैं, और जो लागतें जरूरी हैं उनकी कीमत कम कर देती हैं। सरकार और स्थानीय किसान संघों द्वारा मिलकर इलाकाई स्तर पर तैयार की गई योजना को लागू करके और उसे समय-समय पर तराश कर रोगाणुओं और कीटों को खेतों और पशुबाड़ों तथा फार्मों के बाहर रोकने के लिए जरूरी जैव-विविधता हासिल की जा सकती है।

क्यूबा की कृषि-पारिस्थितिकी में बदलाव के प्रयासों का वर्णन करते हुए पारिस्थितिकी विशेषज्ञ रिचर्ड लेविस उन विविध तरीकों के बारे में बताते हैं जिनकी मदद से कृषि के परिमाण को समाज की जरूरतों, भौगोलिक और पारिस्थितिकीय वास्तविकताओं और इलाके में उपलब्ध संसाधनों के हिसाब से अनुकुलित किया जा सकता है। नदी तटों पर प्रतिरोधी वनों की मौजूदगी, नये वनों, संरक्षक फसलों और कीटों को जाल में फंसाने वाली फसलों का रोपण उन पारिस्थितिकी सेवाओं के प्राकृतिक उभार को बढ़ावा दिया जा सकता है जो न्यूनतम खर्च में नकदी फसलों को उगाने और पशुधन का पेट भरने में मदद करती हैं। पीने का साफ पानी, कीटों को खाने वाली पक्षियों की संख्या बढ़ाना और मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ाना, इन सेवाओं में से कुछ एक हैं। इलाकाई स्तर पर तैयार की जाने वाली यह योजना किसानों को एक अलग-थलग आर्थिक इकाई की स्थिति से बाहर निकालकर एक ऐसे सार्वजनिक उद्यम का हिस्सेदार बना देती जो सबके साझे हित में काम करता है।

इस रास्ते में, इलाकाई खाद्य व्यवस्था कृषि से जुड़े ज्यादा विविधतापूर्ण पेशों के चुनाव का मौका देती है- उदाहरण के लिए स्थानीय बूचडख़ानों और खाद्य-प्रसंस्करण इकाइयों को बढ़ावा मिलता है जो राजस्व और मुनाफे के इलाके में प्रसार और खपत में मदद करते हैं और इस तरह, दुनिया के दूसरे छोर पर स्थित बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुख्यालयों की ओर उनके प्रवाह को रोकते हैं। सबसे बदतर रोगाणुओं के उभार को रोकने हेतु सबसे ज्यादा व्यावहारिक हस्तक्षेपों के क्रियान्वयन के लिए सामुदायिक नियंत्रण अपेक्षित होगा और यह ग्रामीण क्षेत्रों को कृषि व्यवसाय के लिए मात्र बलि का बकरा समझने की प्रवृत्ति पर भी लगाम लगायेगा।

भारत पहले ही जानता है कि इसे कैसे करना है। ऐसे प्रयास बहुत लम्बे समय से भारतीय इतिहास का हिस्सा रहे हैं और वे भारत के वर्तमान का भी अंश हैं। राजस्थान के एक स्थानीय संगठन तरुण भारत संघ ने पेयजल का संग्रह करने के लिए जल स्रोतों और उनके वाटरशेड1 इलाके के जीर्णोदार की पहल की जो अब हजार से ज्यादा गांवों में फैल चुकी है। इस संगठन के जोहड़ों को फिर से निर्मित किया जो परम्परागत तौर पर पानी के संग्रह के लिए कच्ची मिट्टी की दीवारों से घेरकर बनाये जाते हैं और भूजल का स्तर बढ़ाने और वनों के विकास में सुधार करने के साथ-साथ सिंचाई, जंगली जानवरों, पालतू पशुओं और घरेलू इस्तेमाल के लिए पानी का संरक्षण करने में सहायक होते हैं। ग्राम पंचायतों के साथ मिलकर की गई इन कोशिशें से 1940 के दशक से सूखी पड़ी अरावरी नदी फिर से बहने लगी और स्थानीय पक्षियों को नया जीवन मिला।

 

 

सोयाबीन गणराज्य

आपने इसका अध्ययन किया है कि कैसे ‘’पारिस्थितिकी तंत्रों और राजनीतिक सीमाओं के भीतर लचीले ढंग से जड़ें जमा चुकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों को बनाने वाले देशों की एक पूरी की पूरी कतार उत्पादन की इस प्रक्रिया में नये महामारी-विज्ञानों को भी जन्म दे रही हैं।‘’ कृपया इस प्रक्रिया में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भूमिका के बारे में हमारे साथ कुछ ब्योरे और उदाहरण साझा करें।

 

सरकारें अभी भी भूमि-अधिग्रहण और व्यापार में प्रवेश को नियंत्रित करती हैं लेकिन इसके समानान्तर एक नयी प्रादेशिकता भी आकार ले रही है। कुछ कृषि व्यवसाय अपनी गतिविधियों को पुन: संगठित कर रहे हैं ताकि वे देश की सीमाओं के बाहर भी कारोबार बढ़ा सकें। उदाहरण के लिए ‘सोयाबीन गणराज्य’ कहे जाने वाले बोलीविया, पारागुए, अर्जेण्टीना और ब्राजील इस तरह कतारबद्ध हैं मानो इन तमाम देशों में हो रहे उत्पादन के मामले से जुड़ी हुई निर्णय प्रक्रिया में इन देशों की सरकारों की बस सतही भूमिका हो। जिस तरह स्टार फिश खाने के लिए अपने पेट को उलट देती है, वैसे ही बहुराष्ट्रीय निगम उन देशों का अतिक्रमण कर रहे हैं जिन्होंने उनका संरक्षण किया। कंपनी प्रबंधन की संरचना, पूंजीकरण, उप-ठेकों, आपूर्ति शृंखला प्रतिस्थापन, जमीन के पट्टों और जमीनों के राष्ट्रपारीय संयोनों में बदलावों के साथ नये भूगोल का आविर्भाव हो रहा है। दूरियां मीलों में नहीं डालर में नापी जा रही हैं। यह कुछ इस तरह है कि जैसे पैसे को ही सब कुछ समझा जा रहा है और उसकी तुलना में कहीं ज्यादा वास्तविक उस जैव-भौतिक भौगोलिक परिदृश्य की कोई कीमत नहीं जिस पर हमारे असली पारिस्थितिकी-तंत्र निर्भर हैं।

ये अनोखी भू-आकृतियां किसी इलाके में कंपनियों की गतिविधियों और मजदूरों की साझेदारी का पुनर्गठन करती हैं। साथ ही, इलाके का भौगोलिक परिदृश्य भी बदलता है। ब्राजील में कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग पर आधारित सोयाबीन, गन्ना और मक्का की निर्यातोन्मुख बड़े पैमाने की खेती और चारागाहों में बड़े पैमाने पर पशुपालन ने कृषि में माल-उत्पादन को व्यापक स्तर पर फैलाया है जबकि चावल, सेम और कसावा जैसी प्रमुख खाद्य फसलों का छोटे जोतदारों द्वारा होने वाला उत्पादन सिकुड़ता जा रहा है। लेकिन यह महज फसलों और पशुपालन में बदलाव नहीं है। एक भौगोलिक इलाके में क्या उगाया जाएगा और क्या नहीं, ऐसे निर्णय अब उन स्थानीय छोटे किसानों, जो वहीं रहते हैं जहां वे खेती करते हैं, के हाथ से निकलकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उन क्षेत्रीय प्रबंधकों के हाथ में चले गए हैं जो केवल अपने आका विदेशी निवेशकों के प्रति कृतज्ञ होते हैं और कभी-कभार ही स्थानीय परिस्थितियों पर ध्यान देते हैं।

बीमारी के फैलाव को लेकर शहर और गांव का बंटवारा भी इन इलाकों में खत्म हो जाता है जो महामारी विशेषज्ञों के नजरिये में प्रमुखता से पाया जाता है। हां, यह लम्बे समय से ज्ञात यथार्थ है कि जैसे-जैसे छोटे किसान अपनी जमीनों से बेदखल होते जाते हैं, उनकी आबादी ग्रामीण इलाकों से शहरों की झुग्गियों की ओर पलायन करने लगती है। यह प्रक्रिया दुनिया भर में चल रही है। लेकिन दूसरी परिस्थितियां भी सामने आ रही हैं। ऐसी नयी खेत मजदूरों की आबादी अब ग्रामीण इलाकों में प्रवेश कर रही है जो कृषि से केवल उस वेतन के चलते जुड़ी है जो कंपनी उन्हें देती है। यह श्रमिक आबादी ग्रामीण इलाकों में कस्बों के तीव्र विकास को जन्म दे रही है जो एक ओर स्थानीय उत्पादों को बाजार मुहैया करते हैं तो दूसरी ओर वैश्विक कृषि उत्पादों के निर्यात के लिए क्षेत्रीय केंद्रों का काम करते हैं।

परिणामस्वरूप, जंगलों से फैलने वाली बीमारियों के प्रसार की गतिकी, महज आन्तरिक इलाकों तक ही सीमित नहीं रहती। बहुत से नये रोगाणुओं का उभार जंगलों से होता है और क्योंकि जंगलों की सीमाओं पर स्थित माल-उत्पादक क्षेत्र इन क्षेत्रीय केंद्रों से जुड़े होते हैं (और आगे माल-उत्पादन शृंखला में बड़ी क्षेत्रीय राजधानियों से), ये नये रोगाणु गहनतम जंगलों से निकलकर सीधे वैश्विक यात्रा-मार्गों और व्यापार-नेटवर्क के अंदर तेजी से फैल जाते हैं। जैसा कि हमने पहले भी कहा था, इबोला, पीला-बुखार और कोरोना वायरस इन हालात का फायदा उठाकर अचानक आज दुनिया भर में इस कदर खतरनाक ढंग से फैल रहे हैं, जैसा पहले कभी साफ तौर पर नहीं देखा गया।

दूसरी ओर, विशिष्ट रूप से शहरी बीमारी समझा जाने वाला डेंगू शहर की सीमाओं के रूप में जाने वाले इलाकों से काफी आगे बढ़ गया प्रतीत होता है। उदाहरण के लिए वह हो-ची मिन्ह शहर के आस-पास 50-100 किमी के अर्द्ध-शहरी और ग्रामीण परिवेशों में भी लोगों को अपनी चपेट में ले रहा है। पेरू के अमेजन के इलाके में स्थित सबसे बड़े शहर इक्वीटॉस के आसपास के ग्रामीण इलाके में 19 किमी दूर मनुष्यों में संक्रमण फैलाने वाला मच्छर एंडीज इजिप्ट पाया गया है, जो आम तौर पर शहरों में रहने वाली मच्छरों की एक किस्म है। एक अन्य टीम ने केंद्रीय और पश्चिमी फिलीपींस के 7 बड़े द्वीपों में स्थित खासकर सबसे व्यस्त बंदरगाहों के आसपास मच्छरों की इसी प्रजातियों में वैसी ही सूक्ष्म अनुवांशिक संरचनाओं का पता लगाया जो बड़े पैमाने पर रोगाणुओं के इधर से उधर प्रवासन का द्योतक है। पेरू और फिलीपींस द्वीप समूहों में रोगाणुओं के प्रसार के सबसे बड़े वाहक समुद्री मालवाहक जहाज ही प्रतीत होते हैं।

 

अमरीका, स्वाइन फ्लू का सबसे बड़ा निर्यातक

जब 2009 में स्वाइन फ्लू (एच 1 एन 1) फैला तो आपने उसे ‘नाफ्टा फ्लू’ की संज्ञा दी थी। क्या आप इस मामले पर और वायरसों को पैदा करने वाले और उन्हें फैलाने वाले इस व्यापार की भूमिका के बारे में भी और बोलना चाहेंगे?

 

नव उदारवाद के तहत मुक्त व्यापार को मिलने वाले प्रोत्साहन के चलते पूंजी के वैश्विक प्रवाह चक्रों के फैलाव और संबद्धता में गुणात्मक वृद्धि हुई है। किसी इलाके में होने वाला उत्पादन उत्तरोत्तर संबंधपरक भूगोलों से निर्धारित हो रहा है जिसमें किसी स्थानीय इलाके में होने वाला उत्पादन आधी दुनिया में स्थित देशों में होने वाले पूंजी संचय से सम्बद्ध रहता है जो उसे जंगलों के कटान और विकास के लिए वित्त की आपूर्ति करते हैं।

पूंजी के ये प्रवाहचक्र रोगाणुओं के उभार और फैलने के मार्ग में मेल खाते हैं। अनुवांशिक विकास के अध्येता जीवविज्ञानियों की एक टीम इसी आधार पर स्वाइन फ्लू के संक्रमण के एक देश से दूसरे देश में फैलाव का अंदाजा लगा सकी जब उसने स्वाइन फ्लू के सभी विकास वृक्षों का, उनकी सभी जीन शाखाओं और सभी वंशावलियों के विभिन्न स्थानों में फैलाव का अध्ययन किया। टीम ने दर्शाया कि पशुपालन और सुअर पालन के व्यापक विस्तार के बावजूद चीन स्वाइन इन्फ्लुएंजा के वैश्विक स्तर पर फैलाव का महत्त्वपूर्ण स्रोत नहीं है क्योंकि उसके अधिकांश सुअरों की खपत घरेलू बाजार में ही होती है। दूसरी तरफ दुनिया का सबसे बड़ा सुअर निर्यातक होने के चलते अमरीका स्वाइन फ्लू का भी सबसे बड़ा निर्यातक है।

नाफ्टा एक क्षेत्रीय उदाहरण पेश करता है। इस मुक्त व्यापार समझौते ने अमरीका, मैक्सिको और कनाडा के बीच की आर्थिक सीमाओं को ढहा दिया था। मेक्सिको की घरेलू कंपनियों को व्यापार से बाहर करने के लिए अमरीकी कृषि कंपनियों ने सस्ता मांस (और दूसरे खाद्य-उत्पाद) घाटा उठाकर मेक्सिको के बाजारों को पाट दिया। इसने मेक्सिको के पशुपालन क्षेत्र की संरचना का पूरा कायापलट कर दिया। मेक्सिको की कंपनियां या तो सफेद झंडा फहराकर अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सामने आत्मसमर्पण कर सकती थीं और अपने सभी व्यापारिक क्रियाकलापों को उन्हें बेच सकती थीं या फिर खुद को संगठित करके अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा में खड़ी रहने लायक बड़ा कर सकती थीं। स्मिथफील्ड जैसी अमरीकी कंपनियों ने अपने सुअरों को जहाज पर लादकर मेक्सिको भेजना और वहां भी अपने सुअर बाड़े बनाना शुरू कर दिया था।

अनुवांशिक विकास के अध्येता जीव विज्ञानियों की इस टीम ने इसी पद्धति से प्रवासन की उन घटनाओं का पता लगाया जिन्होंने इस नयी कृषि से होने वाले स्वाइन फ्लू के उभार को जन्म दिया था। उन्होंने दर्शाया कि अमरीका और कनाडा, मेक्सिको के जेलिस्को, प्यूबला और सोनारा जैसे राज्यों में अपने सुअरबाड़ों की संख्या बहुत ज्यादा बढ़ाकर बहुत सारे जीनोम खण्डों में इस नये फ्लू के बीज बो रहे थे। दूसरे शब्दों में, मेरे द्वारा 2009 में प्रस्तावित नाफ्टा फ्लू की अवधारणा को बाद में खुद इस वायरस के अनुवांशिक-अनुक्रमों ने सही ठहराया।

हम इन रुझानों का सामान्यीकरण कर सकते हैं। पूंजी के ये प्रवाह-चक्र जीवित जानवरों, कृषि-उपजों, प्रसंस्कृत भोजन और अनुवांशिक संरचनाओं के वाहक जर्मप्लाज्मा के व्यापार में तीव्र वृद्धि को बढ़ावा देकर पशुओं और खाद्य-पदार्थों से फैलने वाले रोगाणुओं की दुनिया भर में फैलने में मदद करते हैं। खाये जाने वाले जानवर एक देश से दूसरे में होकर गुजरते हुए जितनी लम्बी यात्रा करते हैं, रोगाणु उतने ही विविध अनुवांशिक विकास की दर और संयोजनों के प्रकार भी उतनी ही तेजी से बढ़ते जाते हैं। रोगाणुओं की अनुवांशिकी में जितनी ज्यादा विविधता होगी, उतनी ही तेजी से उनका विकास होगा और उनकी और ज्यादा घातक किस्में विकसित होती जाएंगी।

 

देशज् समूहों पर दोष मंढऩा

चीन में कोविड-19 के विस्फोट के बाद से ही दुनिया भर में नस्लवादी और जोनोफोबिक (अनजान लोगों से भय खाने की मानसिक ग्रंथि) वारदातों में उभार आया है। फिर ट्रम्प ने कोरोना वायरस को ‘चीनी वायरस’ कह दिया। बहुत से लोग आरोप लगा रहे हैं कि जंगली गोश्त खाने की चीनी लोगों की ‘बेहूदा’ संस्कृति इस वायरस के त्वरित प्रसार का कारण बनी। जब नये रोगाणु अफ्रीकी देशों में फैलते हैं तब भी इसी तरह की घिसी-पिटी बातें की जाती हैं। आपने इस पर लिखा है कि किस तरह ‘’देशज् आबादियों और उनकी तथाकथित ‘गंदी सांस्कृतिक प्रथाओं’ को वायरस के प्रसार के लिए दोषी ठहराया जाता है।“ क्या आप इसका खुलासा करेंगे?

 

जरूर, मैं इस पर बात करना चाहूंगा। औद्योगिक खेती के विकास और खनन तथा लकड़ी के लट्ठों के लिए पूंजीवाद द्वारा अन्तिम वर्षा वनों और सवाना मैदानों के अतिक्रमण को पूर्ण स्वामित्वहरण के रूप में परिभाषित किया गया है। जंगली जानवरों और पक्षियों की आबादी में तेजी से गिरावट आ रही है क्योंकि न सिर्फ उनके आशियाने उजाड़े जा रहे हैं बल्कि मांस, अंगों और चमड़े के लिए अधिकाधिक संख्या और प्रकार के जानवर मारे जा रहे हैं। इस तरह के पसंदीदा जानवरों की आबादी में गिरावट वैकल्पिक संसाधनों के दोहन की ओर ले जा रही है और इस तरह एक के बाद एक प्रजाति का सफाया होता जा रहा है।

हां, चमगादड़, चींटी खाने वाले पेंगोलिन, कस्तूरी बिलाव, रेकून कुत्ते, बांस चूहे और ऐसे तमाम जानवरों का चीन में महंगे रेस्तराओं और परम्परागत औषधियों के लिए शिकार किया जाता है, उनकी तस्करी होती है और उन्हें फार्मों में पाला जाता है, लेकिन यह सिर्फ चीन की बात नहीं है। शुतुरमुर्ग, साही और मगरमच्छ उन बहत-सी नयी प्रजातियों में से हैं जिन्हें फार्मों पर बड़ा करके दुनिया भर में अवैध

खरीद-फरोख्त की जाती है। अपेक्षाकृत ज्यादा परम्परागत कृषि का समर्थन करने वाली कई वित्तीय कंपनियां अब ‘जंगली गोश्त’ के इस लगातार औपचारिक होते जा रहे कारोबार को भी समर्थन दे रही हैं। हमें खुद से पूछना चाहिए कि ‘तामसिक भोजन’ का यह क्षेत्र इस मुकाम पर क्योंकर पहुंच पाया कि वह वूहान के सबसे बड़े बाजार में अपेक्षाकृत ज्यादा परम्परागत पशुओं के साथ अपने माल को खड़ा करके बेचने लगा। इन जानवरों को किसी ट्रक के पिछले दरवाजे से चोरी छिपे या किसी गली-कूचे में नहीं बेचा जा रहा था।

बहुत सी जगहों पर बहुत बार इस बात को दर्ज किया गया है कि जब कोई जंगल या खान जिसका उपयोग पहले स्थानीय आबादी करती थी, बहुराष्ट्रीय निगमों के हाथ में आ जाता है तो खाने की जरूरत के लिए मांस की घरेलू खपत रातोंरात एक बाजार अर्थव्यवस्था का रूप ले लेती है जिसका मकसद नयी निर्यात उन्मुख अर्थव्यवस्थाओं के लिए भाड़े पर काम करने वाले मजदूरों का पेट भरना होता है। अत: संक्षेप में कहें तो जंगली मांस खाने का मामला कोई सांस्कृतिक मामला नहीं है। यह ऐसा लाभप्रद बाजार है जो हर आला दर्जे की अर्थव्यवस्था में फल-फूल रहा है।

लेकिन वनों को उजाडऩे के लिए जिम्मेदार इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों में कुछ सबसे ज्यादा तबाही मचाने वाली कंपनियों की भाड़े की कुछ पश्चिमी पर्यावरण पर काम करने वाले एनजीओ (गैर सरकारी संस्थाएं) अपनी पूरी ताकत केवल ‘सांस्कृतिक पहलू’ को सामने लाने में लगा रहे हैं ताकि नीतियों और कानूनों का निशाना फिर से उन्हीं देशज समूहों और छोटे किसानों को बनाया जा सके। अक्सर ये समूह बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा की जाने वाली जमीन की लूट-खसोट के खिलाफ प्रतिरोध की आखिरी लड़ाई लडऩे वाले समूह होते हैं। उन्हीं के ऊपर महामारी फैलाने का दोष मंढऩा, दरअसल, लोकोपकारी-पूंजीवाद की पतनशीलता का एक नया पायदान है। पिछले साल कोविड-19 पर अपने काम के बारे में सुर्खियां बटोरने वाली न्यूयार्क की एनजीओ, इको हेल्थ एलायंस का पूरा काम ठीक इसी रणनीति पर केंद्रित है।

 

‘मृत महामारी विशेषज्ञ’

आपकी ताजा किताब डेड एपीडेमोलोजिस्ट्स:ऑन द ओरीजिन्स ऑफ कोविड-19 महामारी की उत्पत्ति के कारणों के बारे में एक गहरा और वैकल्पिक नजरयिा पेश करती है। महामारी की राजनीतिक-आर्थिक पारिस्थितिकी पर एक बेहतरीन किताब होने के साथ-साथ यह किताब मुख्यधारा के महामारी विशेषज्ञों को मुर्दा घोषित करते हुए उनकी आलोचना करती है। क्या इससे आपका तात्पर्य महामारी की उत्पत्ति के पीछे के व्यवस्थागत कारणों को समझने में उनकी सफलता से है?

 

बहुत से महामारी विशेषज्ञ प्रतिभाशाली हैं और इस खतरनाक पर जरूरी काम को करने के लिए कठोर परिश्रम कर रहे हैं। मेरे खुद के लेख इस तरह के शोध के उद्धरणों से भरे पड़े हैं जिसका मकसद कोई शोहरत या लाभ कमाना नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य से, सत्ता-प्रतिष्ठान से जुड़े ऐसे बहुत से वैज्ञानिक हैं जिन्हें इस बात का भी प्रशिक्षण प्राप्त है कि उनके वित्त-दाताओं द्वारा पीछे छोड़ी गई गड़बडिय़ों को कैसे साफ किया जाय। उनको सेवा में लगाने वाली सरकारों से लेकर बहुराष्ट्रीय निगमों तक, सत्ता के सभी केंद्र गरीब लोगों और वन्य पारिस्थितिकी तंत्रों से आखिरी अविकसित जमीन का टुकड़ा भी छीन लेना चाहते हैं। इसके परिणामस्वरूप होने वाली तबाही, जिसमें नयी-नयी बीमारियों का उभार और तीव्र प्रकार शामिल है, पर लीपापोती का काम इन महामारी विशेषज्ञों पर छोड़ दिया जाता है, मानो जब कोई बीमारी क्षेत्रीय स्तर पर फैल चुकी हों या दुनिया भर में फैल कर महामारी का रूप ले चुकी हो, तो कोई अकेला महामारी विशेषज्ञ उस पर काबू पा लेगा।

महामारी के इन विस्फोटों को रोकने और शासकों और आकाओं की सेवा करने की दोहरी कोशिश में जुटे ये व्यवस्था-परस्त वैज्ञानिक, जैसा कि मैंने अभी कहा, देशज समूहों और छोटे किसानों और उनके भूमि-उपयोग के तौर-तरीकों पर दोष मंढऩा शुरू कर देते हैं। अर्थात, ये वैज्ञानिक नीचे की ओर इन कमजोर और शक्तिहीन लोगों को निशाना बनाते रहते हैं। कभी-कभी यह स्पष्ट द्वेषपूर्ण रणनीति होती है, जैसे कि एनजीओ इको हेल्थ एलायंस के मामले में। लेकिन अधिकांश महामारी विशेषज्ञ मुर्दे जैसे हैं क्योंकि वे इस दुनियावी सच्चाई, इस राजनीतिक अर्थशास्त्र को देख नहीं पाते जो भूमि-उपयोग को बदलने के लिए मजबूर करने वाले पूंजी के इन प्रवाह चक्रों को व्यवस्थित करता है। साथ ही वे यह भी नहीं समझ पाते कि कैसे उनके गणितीय मॉडल इन पूंजी-चक्रों की घुसपैठ के आगे नाकाम साबित होते हैं।

तो हां, एक पेशेवर के रूप में अपने वजूद को कायम रखने की पूर्वशर्त के तौर पर, वे इन व्यवस्थागत कारणों को समझने और आत्मसात् करने में बुरी तरह असफल रहते हैं।

विज्ञान को इस तरह काम करने की जरूरत नहीं। वैज्ञानिक पद्धति केवल उन साधनों के बारे में बात करती है जिनके आधार पर किसी परिकल्पना का परीक्षण किया जाता है। वह उन सवालों के बारे में खामोश होती है जो हमारे मन में होते हैं। कोई वैज्ञानिक प्रातिनिधिक नमूने लेकर और उनका अधुनातन सांख्यिकीय विश्लेषण करके इस परिकल्पना का परीक्षण कर सकता है कि ‘कोई खास कंपनी या औद्योगिक क्षेत्र भूमि-उपयोग को बदलने वाली प्रमुख ताकत है अथवा नहीं जिसके चलते घातक रोगाणुओं को उभरने का अवसर प्राप्त होता है।‘ ऐसी कोई भी पद्धति-सम्बन्धी बाधा नहीं है जो लोगों के लिए इस तरह का काम करने से विज्ञान को रोके। इस तरह की कुछ शोध परियोजनाओं को भी पैसा दिया जाना चाहिए। लेकिन जिनके पास पैसा है वे यह सुनना पसंद नहीं करते कि उनकी आय अनुचित ढंग से कमाई गई है या फिर वे महामारियों के उन विस्फोटों को ला रहे हैं जो जल्द ही एक न एक दिन एक अरब से ज्यादा लोगों को मार डालेंगे।

 

लडख़ड़ाती हुई सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था

नव उदारवादी पूंजीवाद ने न सिर्फ कोविड-19 को दुनिया भर में आवाज से भी तेज रफ्तार से फैलाने में मदद की है बल्कि आम लोगों पर इसके दुष्प्रभावों की गंभीरता को भी बढ़ाया है। बहुत से प्रतिष्ठित लोगों की दलील है कि स्वास्थ्य व्यवस्था का निजीकरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था का ढहना, और पिछले कई दशकों से अमल में लाये जा रहे सार्वजनिक खर्चों में मितव्ययिता बरतने जैसे बहुत से नवउदारवादी उपायों ने महामारी के झटके को और तेज कर दिया। एक मजबूत सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था का आपकी नजर में कितना महत्त्व है?

 

भारत से लेकर अमरीका तक और दुनियाभर में तेजी से या तो सार्वजनिक स्वास्थ्य को नजरअंदाज किया जा रहा है या फिर उसे डाक्टर और रोगी व्यक्ति के बीच नगद-नारायण पर आधारित एक तरह का निजी रिश्ता मान लिया गया है जिसमें डाक्टर उनका इलाज करेगा जो उसकी फीस दे सकते हैं। निश्चय ही, लाखों-करोड़ों लोग जो डाक्टर की फीस चुकाने में असमर्थ हैं, वे कोविड-19 और दूसरे वायरसों के आसान शिकार हो सकते हैं क्योंकि इन वायरसों को बाजार से जुड़ी आबादियों और निजीकरण के व्यावसायिक मॉडल की रत्ती भर भी परवाह नहीं।

फिर भी, हालांकि एक व्यक्ति या परिवार के लिए स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच जरूरी है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं। सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रादेशिक स्तर से लेकर शहर के गली-मोहल्ले और गांव के स्तर तक साथ मिलकर काम करने वाली संस्थाओं की साझा कोशिशों का परिणाम होता है। विविध प्रकार के औपचारिक और अनौपचारिक सहकारी समूहों की गतिविधियों का संगठन परस्पर व्याप्त तरीकों से किया जाना चाहिए ताकि कोई गरीब या कोई पैसे वाला भी स्वास्थ्य व्यवस्था की खामियों के चलते बीमारी के सम्पर्क में न आ सके। अत:, इस मामले में हमें पारिस्थितिकी तंत्रों और उन पर निर्भर अर्थव्यवस्थाओं के बीच की उपापचयी दरार को भरना होगा। लोगों के स्वास्थ्य और उनकी खुशहाली को एक ऐसे साधन में तब्दील किया जाना चाहिए जिसके जरिये हम अपने को सामाजिक तौर पर पुनरुत्पादित कर सकें। मेरा मतलब, उसी मानवाधिकारों की उदारवादी बुर्जुआ मांग से है जिसका हर कोई सम्मान करता है लेकिन वे खुद ही उस पर अमल नहीं करते। इसके साथ-साथ, जो भी हो, निपट व्यावहारिक नजरिये से ही सही, हमारे स्वास्थ्य की नियतियां एक दूसरे से जुड़ी हैं। ठीक है कि अक्सर गरीब लोग ही बीमारी के फैलने पर सबसे बुरी तरह से शिकार होते हैं, किन्तु संक्रामक बीमारियां सम्पर्क के जरिये फैलती हैं और नवउदारवादियों का मुनाफे पर आधारित व्यक्तिगत स्वास्थ्य का मॉडल भी संपूर्ण रूपसे सार्वजनिक स्वास्थ्य पर ही निर्भर करता है।

इसी समझदारी के चलते एक दूसरे से एकदम अलग तरह के देश जैसे चीन और न्यूजीलैण्ड, वियतनाम और आइसलैण्ड, कोविड-19 के विस्फोट पर कुछ ही हफ्तों में काबू पाने में सफल रहे या उसके उद्गम स्थल पर ही उसे रोक कर रखने में कामयाब रहे – भले ही उनके तरीके कितने ही दोषपूर्ण क्यों न रहे हों। यह इसलिए हो सका क्योंकि उन्होंने मुनाफे और उत्पादकता की बजाय उन लोगों की बेहतरी को सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता माना जिनका वे जाहिरा तौर पर प्रतिनिधित्व करते हैं। मेरा मतलब है – हाथ कंगन को आरसी क्या। आज कीवी लोगों का रहन-सहन अलग तरह का है। एक साल पहले ही ऐसा हो गया था कि रग्बी मैचों को देखने लौट आये प्रशंसकों के मास्क उतर चुके थे, जबकि दूसरी ओर ”आजादी की जमीन” के वाशिंदे अमरीकी, जो इलाज का खर्च उठाने में सक्षम हैं, आज एक साल से ऊपर समय गुजर जाने के बाद भी अपने घरों में कैद हैं। बड़ी तस्वीर यह है कि जो सरकारें नवउदारवादी रास्ते पर चल पड़ी हैं, वे लोगों को सिर्फ उपभोक्ता के तौर पर देखती हैं और उनकी जरूरतों पर ध्यान देना बंद कर चुकी हैं गोया कि इस तरह की परस्पर सहायता राष्ट्र राज्य का मूल न होकर कोई पराई अवधारणा हो। इसके बजाय, सामूहिक अन्तिम संस्कार की चिताओं से उठते धुंए से काले पड़ चुके आसमान तले हम अरबपतियों की सबसे पहले सेवा-अर्चना होते देखते हैं मानो वे इहलोक के देवता हों।

 

आप सरीखे महामारी विशेषज्ञों के दशकों के शोध ने यह साबित कर दिया है कि कृषि में माल-उत्पादन, जो कि पूंजीवाद का एक अनिवार्य पहलू है, घातक रोगाणुओं के जानवरों से निकलकर मनुष्यों को संक्रमित करने और मानवता को खतरे में डालने के अर्थ में भयावह परिणाम लेकर आता है। कृषि में माल-उत्पादन के विकल्प के तौर पर आप क्या व्यवहारिक सुझाव देना चाहेंगे?

 

काश: ऐसा होता। वास्तव में, माल-उत्पादन, भूमि-उपयोग और रोगों की पारिस्थितिकी के बीच अन्तर-सम्बन्ध के अध्ययन से बचने के लिए सत्ता-प्रतिष्ठान से जुड़े विज्ञान ने अपना अच्छा-खासा समय और ऊर्जा खर्च की है। वैज्ञानिक शोधों को धन की उपलब्धता को इस तरह संगठित किया गया है उसका मकसद अपने स्रोतों- राज्य सरकार और निजी कंपनियों – को बीमारियों के फैलाव में उनकी भूमिका की जिम्मेदारी लेने से बचाना होता है।

यह उल्लेखनीय है कि पूंजीवाद ही आज सामाजिक संगठन का प्रमुख रूप है, लेकिन अगर एक प्राकृतिक विज्ञानी को इसे बीमारी फैलने के एक परीक्षण योग्य कारण के रूप में सामने लाना हो तो हो सकता है कि उसकी वस्तुगतता पर पकड़ थोड़ी बहुत ढीली पड़ जाय। विज्ञान भी उसी का अनुसरण करेगा। उदाहरण के लिए दार्शनिक लारेन कोड ने पर्यावरण पर शोध करने वालों में बड़े पैमाने पर मौजूद संप्रभु ज्ञान-मीमांसक व्यक्तिवाद के संकेत चिन्हित किए। वैज्ञानिकों के पूरे हुजूम को इस निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है कि विज्ञान एक सर्वश्रेष्ठ पेशा है और मानो हम दुनिया से अलग हैं। लारेन के काम को माइकल डोन ने आगे बढ़ाया और उन्होंने वैज्ञानिकों में सामूहिक कार्रवाइयों के खिलाफ एक संशयवादी प्रतिक्रियावादी का पता लगाया।

लेकिन आखिरकार अब दूसरी दिशा में भी काम हो रहा है। हमारी टीम ने एक स्वास्थ्य की उस अवधारणा से परे जाकर सोचना शुरू किया है जो महामारियों के विस्फोट को जन्म देने वाले भूमि-उपयोग के बदलावों के लिए देशज समूहों और छोटे किसानों पर दोषारोपण करती है। हमने ‘ढांचागत एक स्वास्थ्य’ की अवधारणा प्रस्तावित की है जो पूंजी के उन प्रवाह चक्रों को भी अध्ययन का विषय बनाती है जिन्होंने न्यूयार्क, लंदन और हांगकांग जैसी जगहों को महामारी के सबसे बुरे गढ़ में तब्दील कर दिया है। ये पूंजीवाद के वही केंद्र हैं जो वनों के कटान और विकास के लिए वित्त उपलब्ध करवाते हैं और बीमारियों के मनुष्यों में संक्रमण फैलाने के पीछे की मुख्य चालक शक्ति हैं।

कुछ और लोग भी शोध के लिए इस तरह के सवालों को ले रहे हैं। पारिस्थितिकी-अर्थशास्त्री एम.ग्राजियानो सेडिया ने दिखाया है कि बाजार के लिए माल के रूप में उगायी जाने वाली फसलों से होने वाला मुनाफा ही वनोन्मूलन का प्रमुख कारक है। लातिन अमरीका और दक्षिण-पूर्व एशिया में जंगलों की तबाही की कीमत पर होने वाली कृषि-मालों के उत्पादन में 2.4-10 प्रतिशत के बीच वृद्धि (फसल और उसके क्षेत्रफल के अनुसार) निवेशकों की दौलत में 1 प्रतिशत बढ़ोत्तरी के साथ जुड़ी रहती है। रोग-पारिस्थितिकी विशेषज्ञ लुईस शावेज ने स्थानीय मालिकाने और पूंजी-संचय में होने वाले ऐसे बदलावों को पशुजनित संक्रामक लीशमैनिता जैसी बीमारियों के साथ सम्बद्ध किया है।

लेकिन यह बात शोध के विषय से कहीं ज्यादा मायने रखती है। अपने पशुओं के लालन-पालन और फसलों को उगाने के लिए छोटे किसान जो कुछ करते हैं, उसमें से अधिकांश ठीक वही चीजें हैं जो नयी संक्रामक बीमारियों से खुद को बचाने के लिए हमें करनी चाहिए। कृषि-पारिस्थितिकी कृषि को वापस एक प्राकृतिक अर्थव्यवस्था की ओर लौटाना चाहती है जो पारिस्थितिकी-तंत्र की बहुत सी ऐसी सेवाओं को हमें मुफ्त में मुहैया करवाती है जिनकी हमें बेहद जरूरत है। औद्योगिक एकल खेती में कीटों और रोगाणुओं के सामने केवल एक फसल या केवल एक नस्ल को ही संक्रमित करने की चुनौती होती है। अगर कृषि से जुड़ी जैव-विविधताओं को फिर से अपना लिया जाय तो कीटों और रोगाणुओं के सामने विविध फसलों और नस्लों को संक्रमित करने की चुनौती होगी जो उन्हें तेजी से फैलने से रोकेगी और किसानों को उतने सारे रोगाणुरोधियों, कीटनाशकों और फफूंद नाशकों की जरूरत नहीं रह जाएगी।

छोटे खेतों और पशुबाड़ों में रोजाना अपनाये जाने वाले दूसरे तौर-तरीके भी सुरक्षा प्रदान करते हैं। औद्योगिक उत्पादन के तहत पशु धन का पुनरुत्पादन (जन्म) फार्म पर नहीं हो सकता। सुपर मार्केट की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए प्रजनन से सम्बन्धित सभी काम फार्म से दूर दादा-दादी की पीढ़ी के द्वारा करवाये जाते हैं। उदाहरण के लिए बाजार को ज्यादा दूध देने वाले और तेजी से बढऩे वाले जानवर चाहिए। इसलिए जब कोई रोगाणु किसी मुर्गी-फार्म पर हमला बोलता है और मुर्गियों का सफाया कर देता है तो वे थोड़े से मुर्गे-मुर्गियां जो अपनी जीन प्रतिरोधक क्षमता के चलते बचे रह गए, उन्हें अगली पीढ़ी के लिए प्रजनक के तौर पर इस्तेमाल में नहीं लिया जा पाता हालांकि उनमें अभी भी संक्रमण फैला रहे रोगाणु के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता होती है और वे भावी पीढ़ी को बचा सकते हैं। इसके विपरीत एक कृषि पारिस्थितिकी वाले फार्म पर पशुपालन और मुर्गीपालन के दौरान प्रजनन की गतिविधियां भी अनिवार्यत: फार्म पर ही संचालित की जाती हैं।

दूसरे शब्दों में, हमें एक ज्यादा मैत्रीपूर्ण जैव-पारिस्थितिकी की ओर पीछे लौटने की जरूरत है जिसमें किसी रोगी को दवा की जरूरत न पड़े और पूरा इलाका इसके बहुत पहले ही स्वस्थ हो जाय। लेकिन यह सिर्फ किसी इलाके की जमीन और पुनरुत्पादन से जुड़ा मामला नहीं है। इस प्रकार के हस्तक्षेप उत्पादन के उन साधनों में आमूल-चूल बदलाव की अपेक्षा रखते हैं जिनसे कोई समुदाय अपने को सामाजिक तौर पर पुनरुत्पादित करता है। मसलन, निर्णय-प्रक्रिया पर किसका नियंत्रण है? क्या किसी समुदाय से लिया जाने वाला राजस्व मुख्यत: उस समुदाय पर ही खर्च होता है? किसानों की खुदमुख्तारी, सामुदायिक स्तर पर सामाजिक-आर्थिक लचीलापन, पैसे को घुमाती रहने वाली अर्थव्यवस्थाएं, सामुदायिक जमीनों के प्रबंधक ट्रस्ट, एकीकृत सहकारी आपूर्ति तंत्र, खाने का न्यायपूर्ण बंटवारा, इतिहास की अन्धी दौड़ को पलट देना और उसके नुकसान की भरपायी, वर्गीय और लैंगिक मनोग्रंथियां कुछ आधारभूत चीजें हैं जो न सिर्फ सामुदायिक जीवन, अच्छे पोषक आहार और साफ पानी बल्कि महामारी के रोगाणुओं की विभिन्न किस्मों के उभार को उसके उद्गम स्थल पर रोकने के लिए भी जरूरी हैं।

महामारियों और पर्यावरण की तबाही को संचालित करने वाली पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था के बीच की दरार को भरने के लिए आसमान पर एक नये राजनीतिक दर्शन की इबारत लिखनी होगी।

 

मौजूदा महामारी से मानवता को कौन से सबक सीखने हैं और भावी चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए कैसी तैयारी करनी है?

 

क्योंकि मैं पहले ही कुछ राजनीतिक हस्तक्षेपों के बारे में बात कर चुका हूं, इसलिए मैं अब संक्षेप में सार रखना चाहूंगा। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नमूने पर पशुधन उत्पादन के औद्योगीकरण की प्रक्रिया में हमने उन रोगाणुओं का औद्योगीकरण कर डाला है जो उनके बीच फैलते हैं। इसलिए पहले से हमारे घरों में घुस चुकी घातक रोगाणुओं की कतार को रोकने के लिए हमें माल-उत्पादन पर आधारित मौजूदा कृषि-व्यवसाय का अन्त करना होगा। मनुष्य जाति को फिर से खुद को उसी पारिस्थितिकी के साथ एकीकृत करना होगा, जिस पर वह हमेशा किसी न किसी तरह से निर्भर रहेगी। उन जंगलों और सवाना के घास के मैदानों की रक्षा करनी होगी जिनसे होकर घातक रोगाणु अपने जंगली आश्रय स्थलों में संचरित होते हैं। जंगलों को प्राकृतिक तौर पर पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे लिए काम करने दें, पारिस्थितिकी सम्बन्धों की जटिलता को रोगाणुओं के प्रसार में बाधा बनने दें, उसमें खलल डालने से हम खुद को बचायें। अब भी हम अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संसाधनों का दोहन करते रह सकते हैं, लेकिन अगर हम अपने अस्तित्व को कायम रखना चाहते हैं तो हमें प्रकृति के स्वत्वहरण की कोशिशों से बाज आ जाना चाहिए।

भविष्य कोई पत्थर की लकीर नहीं है बल्कि यह बहादुरी, साहस और कौशल के साथ ऐतिहासिक क्षणों का सामना करने के लिए सबका आह्वान कर रहा है। यह आह्वान केवल उन भूगर्भीय ताकतों के जिन्न का मुकाबला करने के लिए ही नहीं है, जिन्हें हमने ढक्कन खोलकर आजाद कर दिया है बल्कि उन धन्नासेठों और उनके ऊंची तनख्वाह पाने वाले सेवकों को मुंह तोड़ जवाब देने के लिए भी है जो सैद्धान्तिक तौर पर तो समाज कल्याण के हामी हैं लेकिन अपने अमल में पूंजीवाद को बढ़ावा देने और उसकी रक्षा के लिए उसी ग्रह को तबाह कर देना चाहते हैं जो हमारे जीवन का आधार है। क्या हम विद्रोह के लिए तैयार है?

 

अनु.: ज्ञानेंद्र सिंह

साभार: फ्रंटलाइन

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जीव वैज्ञानिक रॉब वालेस से  जिप्सन जॉन और  जितीस पीएम की बातचीत

 

रॉब वालेस अमेरिका में रहने वाले जीव वैज्ञानिक हैं जिन्होंने आनुवांशिक विकास और जन स्वास्थ्य से जुड़ी जीनों की भौगोलिक विविधताओं को अपने अध्ययन का विषय बनाया है। घातक कोविड-19 महामारी के दौरान आए उनके शोधपरक लेखों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान खींचा है। वह उन महामारी विशेषज्ञों में से हैं जो इस सदी की शुरुआत से ही घातक महामारियों के विस्फोट के खतरे से दुनिया को आगाह करते रहे हैं। उनके लेख बीमारियों की उत्पत्ति और संक्रमण के फैलाव के बारे में दकियानूसी नजरिये की बखिया उधेड़ देते हैं। वह गहराई में जाकर उन समाज वैज्ञानिक कारकों को सामने लाते हैं जो रोगाणुओं को जंगलों से निकालकर हमारे समाज में फैला रहे हैं। वह लिखते हैं, ”कोविड-19 और उसके जैसे दूसरे रोगाणुओं के फैलने की वजह केवल एक संक्रामक एजेंट या उसके इलाज की कार्यवाही में नहीं ढूंढ़ी जा सकती, बल्कि इसके लिए पारिस्थितिकीय संबंधों के उन क्षेत्रों का भी अध्ययन करना होगा जिनका इस्तेमाल पूंजी और पूंजीवादी व्यवस्था से जुड़े दूसरे कारक अपने फायदे के लिए करते हैं।‘’ वालेस और उनके सहयोगियों ने पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली की तीखी आलोचना पेश की है। महामारी विशेषज्ञ के तौर पर उन्होंने इबोला, जीका और स्वाइन फ्लू (एच1एन1) जैसी दूसरी घातक बीमारियों के संक्रमण के बारे में भी शोध किया है। वालेस ने बड़ी दवा कंपनियों, मुक्त व्यापार समझौतों, पूंजी के वैश्विक प्रवाह चक्रों और जंगलों के विनाश सेबड़े फ्लूऔर दूसरी घातक बीमारियों की उत्पत्ति और प्रसार पर व्यापक शोध किया है।

वालेस और उनके सहयोगी लेखकों की किताबडेड एपिडेमोलाजिस्ट्सः आन ओरेजिंस आफ कोविड-19’के स्रोतों के बारे मेंवर्तमान महामारी के कारणों पर सबसे सारगर्भित पुस्तकों में से एक है। इस किताब में उन्होंने लिखा, ”कोविड-19 महामारी ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। ऐसा नहीं होना चाहिए था। इस सदी की शुरुआत में ही महामारी विशेषज्ञों ने नई संक्रामक बीमारियों के बारे में आगाह किया था। फिर भी, अपनी खुद की चेतावनी के बावजूद उनमें से बहुतेरे शोधकर्ता महामारी के वास्तविक कारणों को समझने में वैसे ही असमर्थ रहे जैसे कोई मुर्दा खुली आंखों के बावजूद नहीं देख पाता।‘’  उन्होंने इसके बरक्श खुलासा किया, ”महामारी के पीछे की तल्ख हकीकत वैश्विक पूंजी द्वारा संचालित वनों का कटान और विकास परियोजनाएं हैं जिन्होंने हमें नए रोगाणुओं का चारा बना दिया है।‘’

वालेस की 2016 की आई किताब ‘बिग फार्म्स मेक बिग फ्लू’ अपने शीर्षक की तरह ही सोचने पर मजबूर करने वाली है। इसकी समीक्षा करते हुए लेखक माइक डेविस ने लिखा, ”राजनीतिक अर्थशास्त्र की व्यापक दृष्टि का इस्तेमाल करते हुए रॉब वालेस ने दर्शाया है कि एवियन फ्लू और पूरी दुनिया को थर्रा देने वाली दूसरी महामारियों के उभार में औद्योगिकृत कृषि उत्पादन और फास्ट फूड उद्योग की केंद्रीय भूमिका है। ‘’

2009 में स्वाइन फ्लू के विस्फोट को उत्तरी अमेरिकी मुक्त व्यापार समझौते से जोड़ते हुए अपने लेखों में वालेस ने उसेनाफ्टा फ्लू’’ की संज्ञा दी। यहां उन्होंने नवउदारवादी मुक्त व्यापार समझौतों, पूंजी के प्रवाह चक्रों और रोगाणुओं के बीच के अंतर संबंध का उद्घाटन किया। वालेस कहते हैं कि बड़े कृषि व्यवसायी सार्वजनिक स्वास्थ्य के सबसे बड़े दुश्मन हैं और मानवता का भविष्य पृथ्वी के उपापचय की प्राकृतिक स्थिति को फिर से बहाल करने में है।

वालेस ने न्यूयार्क के सिटी विश्वविद्यालय के ग्रेजुएट सेंटर से जीव विज्ञान में पीएचडी की है और कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय में आणविक जीन अनुक्रम (मॉलिक्युलर फाइलोजीनी) के जनक वाल्टर फिच के साथ पोस्ट डॉक्टोरल काम किया है। आजकल वहकृषि पारिस्थितिकी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था’ शोध दल के साथ महामारियों के आनुवांशिक विकास पर एक वैज्ञानिक के तौर पर काम कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन और अमेरिकी रोग नियंत्रण एवं रोकथाम केंद्र के साथ भी विचारविमर्श में वह शामिल रहे हैं। वालेस ‘डिजीज कंट्रोल: केपिटल-लेड डेफिनिशन, पब्लिक हैल्थ आस्टेरिटी, एंड वेक्टर बॉर्न इनफैक्शन्स’ नामक पुस्तक के सह लेखक भी हैं।

भारतीय मीडिया को दिए गए इस साक्षात्कार में वालेस ने कोविड-19 की उत्पत्ति और उसके भविष्य, सार्वभौमिक टीकाकरण का मुद्दा, बड़े कृषि व्यवसाय और सार्वजनिक स्वास्थ्य, पूंजी के दुनियाभर में फैले प्रवाहचक्रों, रोगाणुओं के पशुओं से मनुष्यों में संक्रमण फैलाने और मानवता के भविष्य पर बेबाकी से अपनी राय रखी है।

 

प्रश्न : दुनिया को कोरोना वायरस की चपेट में आए एक साल से ऊपर हो चुका है। हालांकि आज कई तरह के टीके उपलब्ध हैं, फिर भी कोरोना पर काबू पाने में दुनियाभर के देश असफल रहे हैं। आप कैसा भविष्य देख रहे हैं?

रॉब वालेस: कोविड-19 आने वाले कई सालों तक कहर ढाता रहेगा और उसके नए-नए प्रकार सामने आते जाएंगे। अंत में, यह रोगाणु कमजोर पड़ जाएगा और उसका इलाज करना अपेक्षाकृत आसान हो जाएगा लेकिन इसमें सालों, यहां तक कि दशकों लग सकते हैं। इस वायरस के बारे में सबसे खतरनाक बात है कि हम इसके विकास के बारे में पूर्वानुमान नहीं लगा सकते। यह एक के बाद एक ग्रहणशील आबादी को अपनी चपेट में लेता जाएगा और अगर हम इसके बार-बार होने वाले इस प्रकोप को रोकना चाहते हैं तो पूरी दुनिया को एक होकर इस पर प्रहार करना होगा। सबसे पहले चीन, कल अमेरिका (जिसकी गरीब आबादी आज भी, टीके लग जाने के बाद भी, उसकी जद में है) और आज भारत और ब्राजील (जहां व्यापक टीकाकरण नहीं हुआ है) और आने वाले कल में वैश्विक दक्षिण के अन्य देश उसके कहर का शिकार हो सकते हैं और एक चक्र पूरा करके वह वापस चीन और अमेरिका को अपनी चपेट में ले सकता है। हमारे पास केवल एक ही विकल्प है – पूरी दुनिया साथ मिलकर काम करे।

वायरस के फैलाव के इस चक्र में फैलने के लिए कमर कस रहे सार्स (फेफड़े का एक गंभीर संक्रमण) जैसे कोरोना वायरस के अन्य प्रकारों को शामिल नहीं किया गया है (जिनमें से एक-दो तो आदमियों के बीच घूमना पहले ही शुरू कर चुके हैं)। अगली लहर इबोला की हो सकती है या निपाह वायरस की या अफ्रीकी स्वाइन फीवर (सूअरों से फैलने वाला बुखार) की, या फिर वह हमारे पुराने मित्रों — ऐविअन और स्वाइन इन्फ्लुएंजा की नई लहर हो सकती है।

फैलाव की इस प्रक्रिया के दोनों छोर पूंजीवाद की जकड़ में हैं। एक ओर बेदखली की वैश्विक मुहिम भूमि उपयोग के तरीके बदल रही है और जंगलों को उजाड़ रही है जिसके चलते नए-नए घातक रोगाणु बीमारियों को लेकर बाहर आ रहे हैं और हमें अपना शिकार बना रहे हैं। और दूसरी तरफ, यह करोड़ों लोगों को बचाने के लिए रोकथाम के और यहां तक कि मास्क और कामबंदी के दौरान का वेतन जैसे साधारण गैर-औषधीय उपायों को अपनाने से इंकार किया जाता है। पूंजीवाद जनता को केवल एक बाजार समझता है और वे बाजार जो इलाज की दवाओं और उपकरणों (या टीकों) का खर्च नहीं उठा सकते, उन्हें जनता नहीं समझा जाता।

यही वे कमजोर जगहें हैं जहां से रोगाणु घुसपैठ करते हैं। पूंजी जिन लोगों की हिफाजत से इनकार कर देती है, उनमें से किसी को भी विषाणु अपना शिकार बना लेते हैं और फिर उनके जरिये सबसे धनी आदमी तक जा पहुंचते हैं। ब्राजील के राष्ट्रपति बोलसोनारो, अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन और दुनियाभर के ऐसे बहुत से नेता दुष्टात्मा शरारती तत्व हैं, और राजनीतिक हत्यारों के संप्रदाय का निर्माण कर रहे हैं। लेकिन इनके विकल्प भी पूंजीवादी समाज के तौर-तरीकों के हिमायती है और उनसे बस थोड़े से ही बेहतर हैं। हमारे ‘प्रगतिशील’ लोग भी पूंजी के परिपथ की दहलीज पर मत्था टेक रहे हैं।

 

पूंजी का भगवान

क्या आप अपने आखिरी वाक्य का मतलब समझाएंगे?

अगर पूजा का मतलब किसी देवी-देवता के प्रति आज्ञाकारिता या आराधना का भाव रखना है, तो बहुत से उदारवादी पूंजी के भगवान के आगे शीश नवाते हैं। पूंजीवाद ही वह रहस्यमय काला सितारा है जिसके चारों ओर सभी तरह की बुर्जुआ राजनीति चक्कर काटती रहती है- उदारवाद से लेकर सबसे घिनौने फासीवाद तक। पूंजी इस राजनीति का महज एक संदर्भ बिंदु नहीं है बल्कि यह हर पल, हर घड़ी, हर रोज लोगों पर काम करती है। मैं एक और रूपक जोडऩा चाहूंगा – पूंजी तेजाब की तरह है। यह सारे मानवीय संबंधों को गला देती है, यहां तक कि परिवार को भी श्रम शक्ति के पुनरुत्पादन का जरिया बनाकर रख देती है। जबकि- मानवाधिकार, व्यक्तिवादी मानवतावाद और संसदवाद – सब अपने-आप में अच्छे हैं लेकिन उनका जन्म काफी हद तक सौदेबाजी के ऐसे अड्डों के रूप में ही हुआ था जिनके जरिये उन तमाम तरह के लोगों-सामंतवाद के जुए तले दबे किसानों, जिन्हें मजदूरों की एक विशाल भ्रमित फौज में बदल दिया गया, से लेकर प्राचीन गुलामों और अपनी जमीनों से बेदखल किए गए करोड़ों लोगों तक जिन्हें आदिम पूंजी संचय की खातिर उजाड़ा गया- को काबू में करके वापस पूंजी की खिदमत में लगाया गया जिन्होंने इस बात के खिलाफ बगावत की थी कि कोई उन्हें अपना गुलाम, अपनी संपत्ति समझे। इस बेदखली और स्वामित्व को ऐसे देखा गया जैसे यह कोई सामान्य बात हो।

मार्क्स के पहले भी बहुत से अध्येताओं ने इस तरह की व्यवस्था के सामाजिक आधार की व्याख्या पेश की थी और इस पर काम आज भी जारी है। हाल के शोधों में से एक, समाज विज्ञानी मार्क आजीज माइकल के अनुसार, दुनियाभर के करोड़ों लोगों को यह स्वीकार करवाने के लिए कड़ी मेहनत की गई कि बाजार द्वारा लोगों को बेदखल कर देना वैसी ही स्वाभाविक बात है जैसी कि हमारी ऐंद्रिय इच्छाएं- भूख या सेक्स। इस तरह दैनंदिन व्यवहार में लोगों का संपत्तिहरण होता रहे और वे चेतना शून्य, अंधे और बहरे बने रहें- इसे स्वीकार्य बनाने में तीन शताब्दियों से ज्यादा का समय लगा। यहां तक कि पुनरुत्पादन की जैविक अनिवार्यता को भी पूंजी ने अपने अधीन कर लिया और करोड़ों लोगों की जिंदगियों की भी मालिक बन बैठी। इस बुनियादी बात को समझने के लिए भारत को महामारी द्वारा की गई केवल अपनी खुद की तबाही को देखना होगा। उसे न सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की कारगुजारियों की ओर बल्कि उसके बहुत पहले, इतिहासकार तिथि भट्टाचार्य के शब्दों में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकाल को भी देखना होगा क्योंकि इन तमाम सरकारों ने पूंजी-संचय को सामाजिक कल्याण के ऊपर वरीयता दी और खुद अपने लोगों की पीठ में छुरा घोंपा।

क्या आपको लगता है कि संक्रमण की इससे भी बड़ी लहर सकती है? विभिन्न टीकों और उनके विकास के कार्यक्रमों को लेकर आप कितने आशान्वित हैं?

कोविड-19 का भविष्य उज्जवल है। अभी यह और भी करोड़ों को अपना शिकार बनाएगा। जो टीके आए हैं वे कारगर हो सकते हैं, लेकिन जितनी जल्दी हो सके दुनियाभर के लोगों का टीकाकरण कर मानवता को बचाने के बजाय वैश्विक उत्तर के देश अपने निगमों के पेटेंटों की हिफाजत के लिए ज्यादा इच्छुक हैं। इसके बावजूद भी कि टीकों का विकास करने के लिए वैश्विक दक्षिण के लोगों पर भी उनका परीक्षण किया गया था।

जिस तरह नए-नए प्रकार के कोरोना वायरस पैदा हो रहे हैं, और फैल रहे हैं, उसी से पता चल रहा है कि जल्दी ही टीके उनके ऊपर बेअसर हो सकते हैं। बी-1.351 कोरोना वायरस का नया प्रकार है (जिसे सबसे पहले दक्षिण अफ्रीका में देखा गया और विश्व स्वास्थ्य संगठन के नए नामकरण के अनुसार जिसे बीटा प्रकार का वायरस कहा जाता है) जिस पर ऐस्ट्राजेनिका टीका लगभग पूरी तरह बेअसर है और कुछ हद तक फाइजर टीका भी। ब्राजील के पी.1 वायरस (गामा प्रकार) में भी फाइजर टीके के प्रति कुछ प्रतिरोधी क्षमता मौजूद है। अधिकांश अमेरिकी इस बात से सहमत हैं कि टीके को जन सुलभ बनाने के लिए उसकी उत्पादन सामग्री और नुस्खा भारत और दूसरे देशों को उपलब्ध करवाया जाना चाहिए। लेकिन अमेरिकी लोगों के कहने से उनकी सरकार नहीं चलती बल्कि वह तो निगमों के लिए सरकार है जो निगमों द्वारा चलाई जा रही है।

इस तरह की साजिशों से स्पष्ट हो जाता है कि क्यों महामारी विशेषज्ञ टीके की प्रभावोत्पादकता और उसकी दक्षता में फर्क करते हैं। पहले से हमें पता चलता है कि टीका किसी शरीर पर कितना असर करता है और दूसरे से पता चलता है कि वह पूरी सामाजिक संरचना पर कितना असर करता है। क्या हम पूरी दुनिया को टीका दे सकते हैं? लालची पूंजीवाद का उत्तर है – नहीं।

 

सार्वभौमिक टीकाकरण का मसला

अभी, थोड़े से ही टीके उपलब्ध हैं। हर जगह टीकाकरण अभियान चल रहे हैं। कोविड-19 के खतरे से तभी बचा जा सकता है जब इस ग्रह के लगभग हर आदमी को टीका लग जाए। आपके विचार में इस संकट का मुकाबला करने के लिए सार्वजनिक भौतिक टीकाकरण की नीति अपनाने का कितना महत्त्व है? जैसा कि आपने पहले कहा कि वैश्विक उत्तर के कुछ देश टीके केपेटेंटÓ को मुद्दा बना रहे हैं। आप इसे कैसे देखते हैं? इस ग्रह पर हर किसी के लिए टीकों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए इस समय और क्या किया जाना चाहिए?

सार्वजनिक टीकाकरण दो मायनों में महत्त्वपूर्ण है : पहला, यह प्रथम दृष्टया एक वैश्विक न्याय का मसला है कि हरेक के लिए टीका उपलब्ध हो- अब इस पर आम सहमति है। हर आदमी को इस बात का हक है कि वह बांहों पर दो टीके लगवाने जैसी आसान चीजों से कोविड-19 को मात दे सके। निश्चय ही, टीकाकरण लोगों को सुरक्षित करने का एकमात्र तरीका नहीं है। जब किसी बीमारी पर कोई डॉक्टरी इलाज उपलब्ध न हो तब भी वायरस को मात देने में लोगों की मदद करने की जिम्मेदारी सरकार की है। बहुत सी सरकारों ने, चाहे उनमें जो भी खामियां रही हों, अपनी आबादी की बेहतरी और अच्छी सेहत को तरजीह दी और कड़े कदम उठाए : महामारी के विस्फोट को कुचलने के लिए सख्त लाकडाउन किया गया, मास्क पहनना अनिवार्य कर दिया गया और रोगी के संपर्क में आए लोगों को चिन्हित करके उनकी जांच करने और उन्हें अलग रखने की व्यवस्था की गई। कुछ ही हफ्तों में उनके यहां महामारी का फैलाव नियंत्रण में आ गया। बाकी सरकारों ने अपनी अर्थव्यवस्था को लोगों के स्वास्थ्य पर वरीयता दी। अर्थात उन्होंने धनकुबेरों के मुनाफे को चुना जिसके इर्द-गिर्द काफी लंबे समय से वे अर्थव्यवस्था को संगठित करते आ रहे थे, मानो कि वह उन सरकारों का मुख्य दिशा-निर्देशक हो। ऐसे देशों में से अधिकांश ने, अंतत:, लोगों की जानों और पैसा, दोनों की भारी क्षति उठाई। नतीजों से स्पष्ट है कि लोगों को कोविड के पेट में झोंकना कोई अच्छी अर्थनीति नहीं थी।

यह भी सामने आ रहा है कि मास्क जैसे गैर-औषधि उत्पादों की आपूर्ति और वितरण की व्यवस्था की असफलता के कारण ही संभवत: टीकों की आपूर्ति और वितरण की व्यवस्था भी असफलता की शिकार हुई है। टीका कितना कारगर है, यह समझने के लिए इसके बहुत परे जाना होगा कि आपकी बांह में लगा टीका किसी एक रोगी पर काम करता है या नहीं। टीके की प्रभावशीलता किसी दी हुई आबादी पर उसके असर से मापी जाती है और यह किसी देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था और संस्थागत बोध पर निर्भर करती है- कोई देश संकट की घड़ी में कैसे निर्णय लेता है और लोगों को उस संकट से निकलने के लिए कैसे समाधान प्रस्तुत करता है। शासन के नवउदारवादी और दक्षिणपंथी नमूने का यह संगठित प्रयास होता है कि लोगों को इन क्षमताओं से वंचित कर दिया जाए।

जिस दूसरे कारण से सार्वभौमिक टीकाकरण जरूरी है, वह देखने में उसके तकनीकी पक्ष से जुड़ा लगता है लेकिन दरअसल वह वैश्विक न्याय के मुद्दे से जुड़ा एक पहलू है। महामारी की परिभाषा में ही यह निहित है कि वह सीमाओं की परवाह नहीं करती। इसलिए किसी एक जगह इसका लगातार फैलाव हर जगह संक्रमण का खतरा पेश करता है। कोविड-19 का वायरस सार्स-कोव-2 नाना प्रकार की किस्मों में तेजी से विकसित हो रहा है। इन नई किस्मों में से बहुत सी ऐसी हैं जिन्होंने टीकाकरण के बावजूद भी खुद को लगातार बढ़ाते जाने की अपनी क्षमता प्रदर्शित की है। अभी अधिकांश टीके ऐसे हैं जो इनमें से अधिकांश किस्मों का मुकाबला कर सकते हैं। जो लोग वाइरस की शुरुआती किस्मों से संक्रमित हो रहे हैं, ये टीके उनमें से अधिकांश लोगों को बुरी तरह बीमार होने से बचा ले रहे हैं। यह बहुत अच्छी बात है। लेकिन यह भी कुछ हद तक ठीक है कि कुछ टीके वायरस द्वारा अपना रूप बदलने वाले वैरिएंट्स पर उतने कारगर नहीं हैं।

और यह एक रूझान के तौर पर जारी रह सकता है यह जानकर ऐसे किसी भी आदमी को कोई आश्चर्य नहीं होगा जो इन्फ्लुएंजा और तेजी से फैलने वाले अन्य आरएनए वायरसों के बारे में रत्ती भर भी समझ रखते हैं। हमें मनुष्यों में पाए जाने वाले इन्फ्लुएंजा से लडऩे के लिए हर साल टीकों की बूस्टर डोज की दरकार होती है क्योंकि ये वायरस पिछले साल की रोग-प्रतिरोधी क्षमता के नीचे से फिर उभर आते हैं जिसे उनके प्रतिजन मानचित्रों (एंटिजेनिक कार्टोग्राफी यानी एंटीबॉडी विकसित करने वाले पदार्थों के मानचित्रों) की मदद से आसानी से समझा जा सकता है। टीका विरोधी प्रचार के जवाब में सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े अधिकारी अपनी तरफ से भी बढ़ा-चढ़ाकर प्रचार थोपने की गलती करते हैं। यह सही है कि टीका काम करता है लेकिन लगातार बदलती परिस्थितियां गहन परीक्षण की मांग करती हैं। और भले ही सार्स कोव-2 वायरस इन्फ्लुएंजा वायरस के बराबर तेजी से न फैलता हो लेकिन फिर भी यह बहुत ज्यादा लोगों को संक्रमित कर रहा है। संक्रमित लोगों का यह विशाल समूह इस वायरस को अपनी आनुवांशिक विकास की संभावनाएं तलाश करने का अवसर प्रदान करता है।

जनता के पैसे से विकसित किए गए टीकों के पेटेंट कोरोना के खिलाफ हमारी लड़ाई को न सिर्फ नुकसान पहुंचा रहे हैं बल्कि शर्मनाक हैं। राष्ट्रपति जो. बाइडन ने यह इच्छा जाहिर की है कि वह टीके से जुड़े बौद्धिक संपदा अधिकारों के बारे में अपने नियमों को ढीला करने के लिए विश्व व्यापार संगठन को कहेंगे लेकिन इसका कतई यह मतलब नहीं कि योरोपीय संघ के देश मान जाएंगे या दवा कंपनियां और तमाम क्षेत्रों के दबाव समूह इस प्रकार के बदलाव को नजीर बनने से रोकने में सफल नहीं होंगे। फिलहाल, अमेरिकी प्रशासन दुनिया को आठ करोड़ टीके देने का वादा कर रहा है, जिनमें एस्ट्राजेनिका टीके की वे 6 करोड़ खुराकें भी शामिल हैं जिन्हें अपने लोगों को लगाने से अमेरिका ने खुद इनकार कर दिया था और जिन्हें एक ऐसे कारखाने में तैयार किया गया था जिसका सुरक्षा रिकॉर्ड भयावह है। पेटेंट से छूट मिल भी गई तो भी उसमें टीका उत्पादन की सामग्री और आवश्यक तकनीकी सहायता शामिल नहीं होगी जिसके बगैर भारत की विश्व प्रसिद्ध जेनेरिक दवा कंपनियों द्वारा टीकों के उत्पादन और दुनिया को आपूर्ति का रास्ता नहीं खुल सकेगा।

दूसरी ओर, भारत की अपनी खुद की समस्याएं हैं क्योंकि उसका दवा-क्षेत्र कुछ लोगों के मुनाफे की खातिर उत्पादन की ओर खिंचता चला जा रहा है। इसके अलावा वहां ऐसा गड़बड़झाला मचा हुआ है जिसकी वजह सिर्फ और सिर्फ योजना की असफलता हो सकती है। भारत खुद सार्वभौमिक टीकाकरण की राह में रोड़ा बनता दिखाई दे रहा है। महामारी के भयावह विस्फोट के समय अपनी खुद की टीकों की मांग का सही अंदाजा लगाने में बुरी तरह असफल रहने के बाद भारत ने उन टीकों को हथियाना शुरू कर दिया जिनके ऑर्डर विश्व स्वास्थ्य संगठन के (तथा अन्य समूहों के प्रयासों से कोविड-19 के टीकों का बराबरीपूर्ण वितरण सुनिश्चित करने के लिए तैयार किए गए) अभियान ‘कोवैक्स’ के तहत भारत की घरेलू दवा कंपनियों को वैश्विक दक्षिण के देशों में टीकों की आपूर्ति करने के लिए दिए गए थे। इस तरह अब भारत ने उन देशों को टीके की कतार में पीछे धकेल दिया है।

बड़ी तस्वीर यह है कि टीकाकरण के वैश्विक अभियान की थोड़ी सी लडख़ड़ाहट उन लाखों लोगों के रोग-प्रतिरक्षा तंत्र को कोविड-19 वायरस की बढ़ती हुई किस्मों के लिए प्रयोगशाला बना सकती हैं जिनका अभी तक टीकाकरण नहीं हुआ है। अगर ऐसे लोगों का विशाल समूह बना रहता है जिन्हें टीका नहीं लग सका है तो वायरस के पास क्षमता है कि वह बारी-बारी से गैर-टीकाकृत आबादी और फिर टीकाकृत आबादी को अपना शिकार बनाते हुए अपना विकास करता रहे। यह ठीक है कि जिन्हें टीका लग चुका है उनके संक्रमित होने की कम संभावना है, लेकिन शून्य भी नहीं है। ऐसे मसले सामने आ रहे हैं जिनमें वायरस टीकों को चकमा दे रहा है और पूरी तरह टीकाकरण करवा चुके लोग भी बीमार पड़ रहे हैं। अर्थात, वायरस का दबाव बढ़ रहा है और संक्रमण का फैलाव सीमाएं तोड़ता जा रहा है। इसका सबसे सटीक उदाहरण है न्यूयार्क के एक पूरे यांकी क्लब हाउस और बेसबाल टीम का संक्रमण का शिकार हो जाना, जबकि उनका पूरी तरह टीकाकरण हो चुका था।

अगर हम चाहते हैं कि कोविड-19 हमें अपना शिकार बनाना बंद करे तो इसका एकमात्र तरीका है – कोविड वायरस की इन ‘प्रयोगशालाओं’ की संख्या में सीधे कमी लाई जाए। इसलिए, हर किसी को टीका लगाइए, विवेकशील ढंग से मास्क की अनिवार्यता लागू कीजिए, जब भी जरूरी हो लॉकडाउन कीजिए लेकिन लोगों को सरकार की तरफ से वेतन/गुजाराभत्ता भी दीजिए, संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आए लोगों की पहचान के काम को आगे बढ़ाते हुए उन लोगों को भी भत्ता दीजिए जो बीमार हैं या जिन्हें बीमारी की आशंका है और किरायों की वसूली स्थगित कर दीजिए। दूसरे शब्दों में, महामारी को रोकने के लिए रोगाणुओं के उभार की रोकथाम से लेकर महामारी के रूप में उनके संगठित हमले को नियंत्रित करने तक, किसी भी सफल हस्तक्षेप की बुनियाद सामाजिक न्याय ही होता है।

न्याय कोई पाश्र्व परियोजना नहीं होती कि दक्षिणपंथी उससे आंखें फेर लें (या उसे तबाह कर दें)। आज का यथार्थ पूंजीवादी मॉडल को हर घड़ी नकार रहा है। वैश्विक उत्तर के देश आज उस नुकसान से खुद को अलग करने का नाटक भी नहीं कर सकते जो भूमध्यरेखा के इर्द-गिर्द बसे देशों में लोगों को कंगाल बनाने वाली उत्पादन प्रणाली लागू करके उन्होंने किया। महामारियों और जलवायु परिवर्तन के रूप में यही तबाही अब हर जगह एक साथ ही सामने आ रही है। इस तरह के खतरों का सामना पूरी मानव जाति की एकजुटता से ही संभव है जो इस धारणा पर आधारित हो कि किसी एक रोगी का स्वास्थ्य सभी के स्वस्थ रहने पर निर्भर है।

आप जैसे महामारी विशेषज्ञ कई सालों से कोविड-19 जैसी पशुओं से मनुष्यों में फैलने वाली ऐसी बीमारियों के बढ़ते खतरे की चेतावनी देते रहे हैं जो घातक रोगाणुओं के कारण होती हैं। फिर भी जब कोविड-19 ने दुनिया पर धावा बोला तो सबसे ज्यादा विकसित देश भी इस चुनौती का सामना करने के लिए चाकचौबंद नहीं थे। क्या इसकी वजह यह थी कि सत्ता प्रतिष्ठान ने वैज्ञानिकों की चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया?

प्रत्यक्षत:, विज्ञान एक व्यवस्थित तरीके से यथार्थ की प्रकृति को समझने पर अपना ध्यान केंद्रित करता है। लेकिन अक्सर इस बात को नजरअंदाज कर दिया जाता है कि यथार्थ में विज्ञान की वह भूमिका भी शामिल है जो राजनीतिक सत्ता को सहारा देकर टिकाए रखती है। जब ग्रहों और नक्षत्रों की गतियों को भगवान के होने के तर्क के तौर पर इस्तेमाल किया गया, तो भौतिक विज्ञान तक ने स्थानीय पुरोहितों और शासकों के समक्ष घुटने टेक दिए थे। पश्चिम में गैलीलियो गैलीली, रेने डेकार्ते, आइजैक न्यूटन और चाल्र्स डारविन जैसे जिन दिग्गजों के कंधों पर हम खड़े हैं, उनके कदम जेल और बहिष्कार की धमकियों से थम जाते थे। शायद यही वजह है कि हम बहुत दूर तक देख पाने में असमर्थ हैं- तब भी नहीं जब संक्रामक बीमारियां हमारे सामने से मौत बनकर हमारी आंखों में झांक रही हों।

फिर भी, यह केवल राजनीतिक अनुशासन का मसला नहीं है। भूगोलविद् जेसन मूर और विश्व व्यवस्था के दूसरे सिद्धांतकारों से हमें पता चलता है कि सन 1419 में अफ्रीका के पास मदेरिया द्वीप समूह की ‘उपभोग सीमा’ में पुर्तगालियों के पदार्पण के साथ ही राजनीतिक अर्थशास्त्र में एक विशिष्ट वैज्ञानिक मत का उदय हुआ जिसने महाद्वीप के परे जाकर पूंजी संचय के लिए सामने आई इस नई श्रम शक्ति को संगठित करने और उसकी प्रकृति को समझने और सूत्रबद्ध करने के साधन के रूप में खुद को पेश किया। इसके बाद से पूंजीवाद के हर अभियान के साथ नियमित रूप से नए विज्ञान भी उभरने लगे जिन्होंने पूंजीवाद को कायम करने में मदद की और बाद में भी उसके सेवक बने रहे : व्यापारियों, गुलामों के सौदागरों, एकाधिकार, कारखाने, बहुराष्ट्रीय निगम, वित्त, नवउदारवाद, जैव तकनीक, सूचना, निगरानी और इनके विभिन्न संयोजनों – सभी ने अपनी बारी आने पर वैज्ञानिक संजीदगी की साख का फायदा उठाने की कोशिश की।

उपनिवेशवादी विस्तार में महामारी-विज्ञान की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। वैश्विक दक्षिण के देशों में खुली लूट और बेदखली ने उन हाशिये पर पड़े हुए, दूर-दराज इलाकों से बहुत से रोगाणुओं को निकाला, फलने-फूलने में मदद की और क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर फैलने का मौका दिया, जैसे मलेरिया, रिंडरपेस्ट (पशुओं की महामारी), नींद की बीमारी (ट्रिप्नोसोमाइसिस), कालाजार (लीश मनाइसिस) और एचआईवी। इस दौरान योरोप के लोगों ने इन्फ्लुएंजा, टाइफस (सन्निपात), चेचक, खसरा और हैजा फैलाया।

देश-काल के पैमाने के सिवाय कुछ खास नहीं बदला है। आज न्यूयार्क स्थित इको हेल्थ अलायंस जैसे गैर-लाभकारी संस्थान, पूंजीवाद द्वारा वित्तपोषित विकास और वनों के विनाश से उभरती महामारियों की नई विस्फोटक लहरों का इल्जाम देशज समुदायों और छोटे किसानों के मत्थे मढऩे के एवज में कॉरपोरेट दानदाताओं और अमेरिकी रक्षा विभाग से करोड़ों डालर का चंदा लेते हैं। निगमों और वित्तीय पूंजी द्वारा संचालित जमीन की छीना-झपटी के खिलाफ आखिरी लड़ाई लडऩे वाले यही दो समूह हैं (छोटे किसान और देशज समुदाय)। नए रोगाणु अब गहन जंगलों से निकलकर बड़ी आसानी से शहरों के बाहरी इलाकों में फैल सकते हैं और फिर वहां से किसी स्थानीय इलाके की राजधानी में घुसकर किसी हवाई जहाज में पहुंच सकते हैं जो मियामी के तट पर किसी कॉकटेल पार्टी तक उन्हें पहुंचा सकता है – और यह सब महज कुछ हफ्तों में हो सकता है।

मैं जो कहना चाह रहा हूं वह यह है कि सत्ता-प्रतिष्ठान उन वैज्ञानिकों की चेतावनियों पर क्यों ध्यान देगा जिनका इस्तेमाल वह हमेशा अपनी कारगुजारियों पर परदा डालने और महामारियों के विस्फोट से पैदा हुई तबाही को ढंकने के लिए, इसके एवज में उन्हें चंद पैसे देकर करता आया है। कुछ चिड़चिड़े सरफिरे वैज्ञानिकों – जिन्हें आपदा पर बनी हर फिल्म के शुरू में नजरअंदाज किया जाता है – को वे बुर्जुआ सत्ता का नाभिनाल क्यों कर काटने दे सकते हैं? ‘हर कोई’ जानता है कि संक्रामक बीमारियां वैश्विक दक्षिण के देशों की समस्या हैं। गोरे और धन्नासेठों को और धनी बनाने की कीमत का कुछ हिस्सा भूमध्यरेखा के इर्द-गिर्द के लाखों लोग हर साल अपनी जान देकर चुका रहे हैं और उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया गया है। यह ‘आश्चर्यÓ वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था का मुख्य निर्देशक तत्व बन चुका है।

 

कोविड-19 की उत्पत्ति का क्षेत्रीय सिद्धांत

कोविड-19 के बारे में सबसे पहले चीन में पता चला और उसके बाद वह पूरी दुनिया में फैल गया। इस सिद्धांत के पक्ष में मजबूत दलीलें दी गईं कि यह वायरस शुरू में वूहान के एक समुद्रीखाद्य बाजार से फैला। लेकिन इसके अलावा एक और दलील या आरोप यह भी है कि यह वायरस वूहान की एक जैवविज्ञान प्रयोगशाला से लीक हुआ। इस नए कोरोना वायरस की उत्पत्ति के बारे में आप क्या मानते हैं?

वूहान के हुनान समुद्री-खाद्य पदार्थों के थोक बाजार से कोविड-19 के जन्म की कहानी कमजोर है। बाजार से लिए गए नमूनों में से संक्रमित पाए गए नमूनों का केवल 40 प्रतिशत बाजार की उन गलियों से लिया गया था, जहां जंगली जीव-जंतुओं को रखा गया था। संक्रमित मनुष्यों के एक चौथाई न तो कभी बाजार में आए थे और न ही वहां की किसी चीज से उनका सीधा संपर्क हुआ था। कुछ ऐसे भी आनुवांशिक प्रमाण सामने आ रहे हैं जो इसके बरक्श इस संभावना का समर्थन करते हैं कि वूहान में कोविड-19 के फैलने के कई साल पहले से ही यह वायरस लोगों के बीच घूम रहा था। मैं कोविड-19 की उत्पत्ति के बारे में इस प्रकार के ‘क्षेत्रीय सिद्धांत’ का समर्थक हूं।

इस परिकल्पना के अनुसार, यह वायरस मध्य और दक्षिणी चीन में घोड़ानाल चमगादड़ों के आवासों को उजाडऩे से बाहर निकला – और भूमि उपयोग की उन श्रृंखलाओं की कडिय़ों से गुजरता हुआ, जिनकी हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं, और परंपरागत पालतू पशुओं की स्थानीय आबादी में, मारकर खाए जाने वाले जंगली जानवरों में घुसा और उनके जरिये उनके ऊपर निर्भर मजदूर आबादी को संक्रमित कर दिया। अभी भी, विभिन्न किस्मों के कोरोना वायरस चमगादड़ों से इतर जीव-प्रजातियों पर, अगर लाखों नहीं तो कम से कम हजारों की संख्या में खुद को आजमा रहे हैं और इस प्रक्रिया में वे सीख रहे हैं कि मनुष्यों के प्रतिरक्षा तंत्र को कैसे तोड़ा जाए। कोविड-19 ने भी वूहान तक के अपने सफर में कई सालों तक ऐसा किया होगा।

एक और वैकल्पिक परिकल्पना भी है। प्रयोगशाला से रिसाव का सिद्धांत यह मानता है कि सार्स जैसे वायरस की एक किस्म वूहान की दो सरकारी जैव-सुरक्षा प्रयोगशालाओं में से किसी एक के पिछले दरवाजे से निकल भागी। ये प्रयोगशालाएं हुनान बाजार से बहुत दूर नहीं हैं। इस सिद्धांत के कुछ संस्करण बेहद बचकाने हैं, जिन्हें हम खारिज कर सकते हैं। यहां अमेरिका में ट्रंप समर्थक और उनके उदारवादी विरोधी, दोनों ही चीन पर कीचड़ उछालना पसंद करते हैं। और फिर वे यह नहीं समझ पाते कि क्यों यहां की गलियों में एशियाई अमेरिकियों को पीटा जाता है। लेकिन इस परिकल्पना के कहीं ज्यादा विश्वसनीय संस्करण भी हैं। इन बेहतर संस्करणों में से एक की खुद मैंने चीर-फाड़ की है और उसकी अंतर्निहित समस्याओं (और संभावनाओं) का खुलासा किया है। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन की हालिया रिपोर्ट, जिसे खुद विश्व व्यापार संगठन के नेतृत्व ने खारिज कर दिया है, के खिलाफ जाकर मेरा मानना है कि प्रयोगशाला से रिसाव की बहुत-बहुत कम संभावना है।

2013 में प्रिंसटन विश्वविद्यालय की एक टीम ने 9/11 के बाद जैव सुरक्षा प्रयोगशालाओं के विस्तार और उसके पहले सदी के प्रथम ख्याति प्राप्त वायरस एच5एन1 की लहर के फैलने का एक मानचित्र तैयार किया। इस टीम ने दर्शाया कि दुनिया के सबसे ज्यादा घातक रोगाणुओं पर शोध करने वाली और जैव सुरक्षा स्तर बीएसएल-3 और बीएसएल-4 वाली हजारों प्रयोगशालाएं बहुत ही कम नियंत्रणों और नियामकों के साथ वूहान, पुणे और भोपाल समेत दुनिया के बड़े शहरों में या उसके नजदीक निर्मित कर दी गई हैं। जब इतने ज्यादा मौके दिए जाएं तो ऐसी विरली घटना भी अवश्यंभावी सी हो जाती है। इसका मतलब कतई यह नहीं कि वूहान में जो हुआ वह प्रयोगशाला से वायरस के रिसाव के चलते था। भले ही मैं कोविड-19 की उत्पत्ति के क्षेत्रीय सिद्धांत का समर्थक हूं, फिर भी मैं समझता हूं कि प्रयोगशाला से रिसाव एक वास्तविक संभावना है जिसकी और गहराई से जांच- पड़ताल की जानी चाहिए।

 

नव उदारवादी मोर्चों’  से मनुष्यों में प्रवेश

आपकी दलील है किकुछ रोगाणु ठीक उत्पादन के केंद्रों से उभरते हैं, जैसे अभी दिमाग में खाद्यजनित बैक्टीरिया सल्मोनेला और कैम्पिलोबैक्टर का नाम रहा है। लेकिन कोविड-19 जैसे बहुत से रोगाणुओं की उत्पत्ति पूंजीवादी उत्पादन के मोर्चों पर होती है।‘’ क्या आप इसे स्पष्ट करेंगे।

अलग-अलग देशों, प्रजातियों और उत्पादित माल पर निर्भर करता है कि रोगाणुओं का उभार किस तरह होगा। लेकिन आज हम सभी वैश्विक स्तर पर हो रही बेदखली और पर्यावरण के विनाश के एक ही जाल से जुड़े हैं जिसके आधार पर नए रोगाणुओं के कई महाद्वीपों में फैलाव की व्याख्या की जा सकती है। चीन में सार्स, मध्य पूर्व और पश्चिमी एशिया में मेर्स (मिडिल ईस्ट रेस्पीरेटरी सिंड्रोम), ब्राजील में जीका, योरोप में एच5एनएक्स, उत्तरी अमेरिका में स्वाइन फ्लू – इसके मात्र कुछ उदाहरण हैं। और यह सिर्फ खेती के औद्योगीकरण का नतीजा नहीं है। भारत और कई दूसरे देशों में बांध और सिंचाई परियोजनाएं मलेरिया के फैलाव को बढ़ावा देती हैं।

वास्तव में, लुटेरा पूंजीवाद उन बचे-खुचे वर्षा-वनों और सुदूर सवाना के मैदानों तक अपनी मुनाफे की हवस मिटाने जा पहुंचा है जो अभी तक पूंजीवादी उत्पादन के जाल में नहीं फंसे थे। और इस वैश्विक पूंजी को जहां विरोध का सामना होता है, वहां वह प्रतिरोध करने वाले देशज लोगों और छोटे किसानों के खिलाफ राज्य को उकसाकर उनका दमन करवाती है। आप छत्तीसगढ़ में ऑपरेशन ग्रीन हंट और ओडिशा की पहाडिय़ों में बाक्साइट खनन के बारे में सोच सकते हैं। परिणामस्वरूप, आज दुनिया पूंजीवादी उत्पादन के इन क्षेत्रीय परिपथों की श्रृंखला से जकड़ दी गई है। हरेक परिपथ गहनतम जंगलों से शहरों के बाहरी इलाकों में होता हुआ वहां की क्षेत्रीय राजधानी तक जाता है। एक फसली खेती, खनन और ल_ों के लिए वृक्षों की कटाई परिपथ के रास्ते में प्रकृति को चूसती चली जाती है और वहां रहने वाले लोगों को या तो बाहर धकेल दिया जाता है या उनका सर्वहाराकरण करके उन्हें सस्ते श्रम में तब्दील कर दिया जाता है।

विकास का अश्वमेधी घोड़ा जिन जंगलों तक जा पहुंचा है उनकी सीमाओं से, जिन्हें भूगोलविद् ‘नवउदारवादी मोर्चे’ कहते हैं, नए पशुजनित रोगाणु लगातार बाहर आ रहे हैं। जैसा कि हमने पहले जिक्र किया, वे हाशिये पर डाल दिए गए अपने जंगली मेजबानों की घटती आबादी से निकलकर तेजी से स्थानीय पालतू पशुओं और मारकर खाए जाने वाले जानवरों में आ रहे हैं और फिर उन पर निर्भर खेत मजदूरों या पशु-पालकों को संक्रमित कर रहे हैं। पर्यावरण को तबाह करने वाले इन स्थलों से निपाह वायरस, कोरोना वायरस और इबोला जैसी बीमारियां मनुष्यों में फैली हैं। कुछ सीमित मेजबानों तक इन रोगाणुओं के फैलाव को समेटकर रखने वाले पहले के पारिस्थितिकी-तंत्रों को पहले छिन्न-भिन्न किया जाता है और फिर उन्हें दूसरे पारिस्थितिकी-तंत्रों से इस तरह जोड़ दिया जाता है कि पूंजीवादी उत्पादन के परिपथों के रास्ते रोगाणुओं को निकास के नए द्वार मिल जाते हैं, जो पहले उपलब्ध नहीं थे। और इस तरह रोगाणु क्षेत्रीय राजधानी तक पहुंचते हैं और कुछ तो दुनिया की ओर रुख कर लेते हैं।

दूसरे रोगाणु उत्पादन के प्रवाह चक्र के दूसरे सिरे पर उभरते हैं, उदाहरण के लिए शहरों के केंद्रों में खाद्य-आपूर्ति करने वाले बाहरी इलाकों में स्थित विशाल बाड़ों में। इस तरह, उदाहरण के तौर पर खाद्य-जनित बैक्टीरिया या एवियन इन्फ्लुएंजा उन हजारों मुर्गी फार्मों और पशु बाड़ों में चक्कर लगाने लगते हैं जहां शहरी उपभोक्ताओं का पेट भरने के लिए उन्हें तैयार किया जा रहा होता है। इसके पहले कि वे आदमियों को संक्रमित करें, एक फार्म से दूसरे फार्म या बाड़ों से गुजरते वक्त कभी-कभी उनकी मारक क्षमता में छलांग लग जाती है। 1959 के बाद सामने आए एवियन इन्फ्लुएंजा के ऐसे 39 मामलों में जिनमें उनकी मारक क्षमता उत्तरोत्तर बढ़ती गई, दो को छोड़कर सभी व्यावसायिक मुर्गी पालन के दौरान घटित हुए थे और उन फार्मों में हजारों से लेकर लाखों तक पक्षी विकसित किए जा रहे थे।

कोविड-19 की उत्पत्ति कुछ-कुछ उत्पादन के इन दोनों छोरों – जंगलों और औद्योगिक फार्मों, के मेल से हुई है। दुनिया भर के चमगादड़ कोरोना वायरस की मेजबानी करते हैं। लेकिन चीन के घोड़ानाल चमगादड़ों में पाई जाने वाली वायरस की किस्म जब सफलतापूर्वक दूसरे जीवों को संक्रमित करने लगी तो उसने इंसानों पर सबसे बुरा प्रभाव डाला। अभी हाल तक उनसे कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन ये चमगादड़ जिस पर्यावरण में रहते थे, वह बुनियादी तौर पर बदल चुका है।

माओ के बाद चीन ने जब आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को अपनाया तो अपने संसाधनों के दम पर अपने लोगों की जरूरतें पूरी करने के इरादे से उसने विकास के लिए ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) का रास्ता चुना। करोड़ों लोगों को गरीबी से बाहर खींच निकाला गया। लेकिन करोड़ों लोग दौड़ में पीछे छूट गए। इस रास्ते को अपनाने के फायदे या नुकसान चाहे जो भी रहे हों, इसके परिणामस्वरूप मध्य और दक्षिणी चीन के पूरे परिदृश्य पर चीनी कृषि व्यवसायी निगमों और एक तेजी से बढ़ते पूंजीवादी ढंग के मांस-मछली के बाजार का उदय होने लगा- यही वह इलाका था जहां इन चमगादड़ों की बहुत सी प्रजातियां रहती थीं। ठीक इबोला के मामले की तरह, चमगादड़ों, पालतू पशुओं, शिकार कर खाए जाने वाले जंगली जानवरों, किसानों और खान-मजदूरों के बीच उत्पादन के इस नए मोर्चे पर होने वाली अंतर-क्रिया तेजी से बढऩे लगी और उसने सार्स जैसी कोरोना वायरस की विभिन्न किस्मों के आवागमन की रफ्तार बढ़ा दी।

 

महामारी के प्रणालीगत कारण

मुख्यधारा का नजरिया हर नए वायरस के हमले को विशुद्ध जीव वैज्ञानिक परिघटना की तरह देखता है और उन्हें सामाजिक जीवन की बुनियाद में निहित प्रणालीगत कारणों से अलग समझता है। लेकिन अपने और आपके सहकर्मियों ने इन प्रणालीगत कारणों के बारे में विस्तार से लिखा है। पूंजीवाद के आने के पहले के दौर में भी रोगाणु मौजूद थे। फिर क्यों आपपूंजीवादी युगकोमहामारियों का युगकहते हैं?

यदि आप इस व्यवस्था को पसंद करते हैं और इससे फायदा उठा रहे हैं तो आप कभी भी उस तबाही के लिए व्यवस्था को दोष नहीं देंगे जो वह ढा रही है। आप पीडि़त को दोष देते हैं, या अपने दुश्मन को या फिर मानवेत्तर कारणों को। कोविड-19 के मामले में शासकों ने तीनों को ही दोषी करार दिया है। गरीबों के लिए समुचित आवासों की व्यवस्था करने में राज्य की नाकामी को कठघरे में खड़ा करने के बजाय गरीबों को दोष दो कि वे एक साथ भीड़-भाड़ में क्यों रहते हैं। चीन (या पाकिस्तान या माओवादियों या मुसलमानों) को दोष दो। या खुद वायरस को ही दोषी ठहरा दो।

यह ठीक है कि संक्रमण वायरस से ही फैलता है लेकिन संक्रमण फैलाने वाले या उसके शिकार लोगों को ही कारण के रूप में चिन्हित करना सत्ताधीशों और उनके सेवक महामारी विशेषज्ञों को इसके व्यापक राजनीतिक अर्थशास्त्र, यानी उन कार्य-कारण संबंधों का क्षेत्र जो तय करते हैं कि किसी रोगाणु के सामने कौन से अवसर और बाधाएं मौजूद हैं, पर सवाल उठाने से बचने का मौका देता है। अंतिम तौर पर, रोगाणु बहुत कुछ वैसे ही फैलते हैं जैसे पानी बर्फ की दरारों से होकर बहता है। सत्ता संरचना सामूहिक रूप से उन निर्णयों को लेती है जो तय करते हैं कि किसी समाज रूपी बर्फ में कितनी दरारें कहां पर उभरेंगी। और यह सिर्फ महामारी के साल या किसी चुनावी चक्कर के वक्त ही नहीं होता बल्कि दशकों से यह प्रक्रिया चल रही होती है। क्या आपके पास ऐसी कोई राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा है जिसके लिए समुचित धन उपलब्ध है (जिसे बनाने में दशकों लग जाते हैं और जिसके रख-रखाव में अरबों रुपए की दरकार होती है)? क्या आपके देश में लोगों को पीने का साफ पानी और पौष्टिक खाना नसीब है? क्या आपके पास ऐसी सामाजिक सेवाएं मौजूद हैं जो आपदा के वक्त लोगों को आश्रय दे सकें और उन्हें खाने-खर्चे के लिए परेशान न होना पड़े? मास्क जैसे गैर-औषधि हस्तक्षेपों को सर्वसुलभ बनाने के बारे में आपकी स्थिति क्या है? चीन, वियतनाम, न्यूजीलैंड, क्यूबा, उरुग्वे और ताइवान जैसे देश, जहां बहुत भिन्न किस्म की राजनीतिक व्यवस्थाएं हैं, शुरुआत में बिना किसी टीके के महामारी को परास्त करने में सफल रहे। क्या भारत ने अमेरिका और ब्राजील के नक्शे कदम पर चलते हुए उदारवादी या फिर नकारवादी रास्ता अपनाया? क्या यही भारत में इसके वर्तमान विस्फोट की वजह बना?

ठीक है कि महामारियां पहले भी आई हैं। दरअसल, जब से मनुष्यों ने सभ्यता का आगाज किया, उनकी मौत की सबसे बड़ी वजह संक्रामक बीमारियां रही हैं। जब हम यायावर जीवन को त्याग कर शहरों में बस गए तो वहां की घनी और विशाल आबादी ने ज्यादा विकट संक्रमणों को फलने-फूलने का मौका दिया। लेकिन, क्योंकि बीमारियां पहले भी मानव आबादी में फैलती रही हैं, मात्र इसलिए यह मतलब नहीं निकाला जा सकता कि अब पूंजीवाद इन नए संक्रामक-विस्फोटों का कारण नहीं बन रहा है।

आदमियों की तरह रोगाणुओं का भी इतिहास होता है। उनकी उत्पत्ति होती है, दुनिया के दूसरे देशों में प्रवासी के रूप में पहुंचते हैं, उनके अपने स्वर्ण युग और अंधकार युग होते हैं और औद्योगिक क्रांतियां भी। और क्योंकि मनुष्यों को संक्रमित करने वाले रोगाणु हमारी खुद की बनाई दुनिया में अपना विकास और विस्तार करते हैं, ये काल अक्सर हमारे ऐतिहासिक युगों से मेल खाते हैं। उदाहरण के लिए हैजा के बैक्टीरिया का अधिकांश इतिहास गंगा के डेल्टा में सूक्ष्म जल जीवों को खाते हुए जीवन-यापन करने का है। केवल तभी, जब मनुष्य शहरों में बसने लगा जो बाद में 19वीं सदी में जलमार्गों से जुड़ गए, हैजा दुनियाभर के शहरों तक पहुंचने में सफल हो सका। जब नगरपालिकाएं उन्हीं जलस्रोतों से पीने का पानी लेने लगीं जिनमें शहरों का गंदा पानी और मैला फेंकती थीं, तो इस बैक्टीरिया का हाशिये का जीवन खत्म हुआ और वह दहाड़ते हुए संक्रमण फैलाने में सक्षम हो सका।

हमारी वैज्ञानिक समझ और चिकित्सा प्रौद्योगिकी में अधुनातन तरक्की के बावजूद मनुष्य जाति स्वयं को महामारी के भयावह संकट में घिरा पा रही है। हर तरह से इसका संबंध इस बात से है कि एक समाज के रूप में हम खुद को कैसे संगठित करते हैं। हम कितना ही महत्त्वपूर्ण जैव-चिकित्सकीय आविष्कार क्यों न कर लें, और वह चाहे जितना कारगर क्यों न बना रहे, उसकी तुलना में हमारी सामाजिक संस्थाएं कई तरह से ज्यादा महत्त्वपूर्ण रोग-निरोधक रहेंगी।

फिलहाल, नवउदारवादी पूंजीवाद का दुनिया भर में वर्चस्व है और वह हैजे की रोकथाम में मदद करने वाली जल-शोधन परियोजनाओं जैसी तमाम सार्वजनिक सेवाओं को खत्म करना चाहता है ताकि सरकार की जिम्मेदारियां कम होती जाएं और निगमों की उत्पादकता को बढ़ावा मिले। यह न सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर हो रहा है, वरन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सरकारें मिलकर इसे अंजाम दे रही हैं। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ), उनसे ऋण लेने वाले देशों से मांग करते हैं कि अपनी अर्थव्यवस्था के ढांचे को इस तरह से बदलें कि छोटे उत्पादकों को दी जाने वाली घरेलू मदद कम हो और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आने दें, बजट में मितव्ययिता बरतें और इसके लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च को कम करें। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बेलगाम छोड़ देने का परिणाम यह होता है कि अब खेती योग्य जमीनों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी करोड़ों लोगों का पेट भरने वाली रोटी की टोकरी की तरह नहीं बल्कि निर्यात आधारित मुनाफे के साधन के रूप में देखा जाता है। जब कंपनियां एक इलाके को तबाह कर चुकी होती हैं और उसके साथ-साथ उस कड़ी मशक्कत पर भी पानी फेर चुकी होती हैं जो स्थानीय पारिस्थितिकी-तंत्र जंगली जीवों से मनुष्यों में संक्रमण को रोकने के लिए कर रहे होते हैं, तो पूंजी दूसरे इलाके की ओर रुख करती है और उसे भी उसी तरह निचोडऩे में लग जाती है।

अत: भले ही वर्तमान विराट फार्म और पशु बाड़े बीमारियों के पिछले फैलाव की व्याख्या नहीं करते, लेकिन इसका कत्तई यह मतलब नहीं है कि वे रोगाणुओं की हमारी वर्तमान खेप के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। यह कुछ इस तरह की दलील हुई कि आज तेल युद्ध का कारण नहीं माना जा सकता क्योंकि रोमन कभी उसके लिए कहीं नहीं लड़े थे। हमें अपने ऐतिहासिक विकास को कबूलना होगा। साथ ही हमें उन रोगाणुओं को भी कबूलना होगा जिन्हें हमने फैलाया। और ठीक अभी, वैज्ञानिक साहित्य में इस बात के साक्ष्य मौजूद हैं कि पूंजीवाद के नेतृत्व में हम पहले से कहीं ज्यादा संख्या में संक्रमणों के कहीं ज्यादा व्यापक और कहीं ज्यादा तेज फैलाव के शिकार हो रहे हैं जो मुनाफे के लिए हमारे पारिस्थितिकी तंत्रों को तहस-नहस करता जा रहा है।

 

जैवआर्थिक युद्ध

आपकी किताबबिग फार्म मेक्स बिग फ्लू’ (बड़े फार्म बड़ेबड़े संक्रमण पैदा करते हैं) साहस के साथ कहती है, ”बड़े खाद्य निर्माताओं का संक्रामक इन्फ्लुएंजा के साथ रणनीतिक गठजोड़ हो चुका हैदेशीविदेशी राज्य सत्ता के समर्थन से बड़े कृषि व्यवसायी अब जितना इन्फ्लुएंजा के खिलाफ काम कर रहे हैं, उससे कहीं ज्यादा उसके लिए काम कर रहे हैं।‘’ आपका यह भी कहना है कि  ”बड़े कृषि व्यवसायी सार्वजनिक स्वास्थ्य के साथ युद्धरत हैं।‘’ कृपया खुलासा करें।

यह आक्रोश की अभिव्यक्तियां हैं! फिर भी इनका पूरी तरह से बचाव किया जा सकता है। कृषि व्यवसाय ने जान-बूझकर बहुत से नए वायरसों का उभार पैदा नहीं किया है बल्कि यह उनके द्वारा जंगलों की सरहदों पर जमीनें हथियाने और शहरों के बाहरी इलाकों में विशाल पशुबाड़े बनाने का दुष्प्रभाव है। उत्पादन को पूरी तरह मुनाफे के इर्द-गिर्द संगठित करने के दौरान बड़े कृषि व्यवसायियों ने उन साधनों का भी नियोजन कर डाला है जिनके जरिये सबसे घातक और सबसे संक्रामक रोगाणु रोग-प्रसार के लिए चुने जाते हैं।

आनुवांशिक तौर पर एक जैसे चूजों और पशुओं की विशाल और घनी आबादी एक साथ मिलकर उनकी रोग-प्रतिरोधी क्षमता को मसलकर रख देती है। परिणामस्वरूप, वे रोगाणु जो सबसे तेजी से अपने प्रतिरूप तैयार करते हैं, बढ़कर संक्रमण फैलाने के उस स्तर तक जा पहुंचते हैं कि किसी बाड़े या गोशाला में मौजूद सभी जानवर उनकी चपेट में आ जाते हैं और इस तरह वे अपने रास्ते में भारी तबाही मचाते चलते हैं। बड़े कृषि व्यवसायी हमें जिन परिस्थितियों में डाल रहे हैं, उनमें घातक रोगाणुओं की कम जहरीली किस्मों को हराकर उभर आते हैं।

महामारी के विस्फोट के गुजर जाने के बाद भी तबाही चलती रहती है। चूंकि पशुओं का प्रजनन फार्म पर नहीं होता – अधिकांशत: प्रजनन के लिए उन्हें बाड़े के बाहर किसी दादा की पीढ़ी के सांड के पास ले जाया जाता है जिससे बाजार की तेजी से बढ़वार जैसी मांगें पूरी होती हैं- इसलिए ऐसा कोई भी जानवर जो किसी संक्रामक बीमारी के हमले से बच निकला है, अगली पीढिय़ों के लिए सांड के तौर पर अपनी सेवाएं नहीं दे सकता। अर्थात, चूंकि खाद्य जानवर फार्म पर पुनरुत्पादन नहीं करते, इसलिए किसी संक्रामक रोगाणु के प्रसार के वक्त उनकी प्रतिरोधी क्षमता को फौरी तौर पर विकसित नहीं किया जा सकता। पशुओं को संक्रमणों से बचाने के लिए औद्योगिक कृषि में टीकों और रोगाणुरोधियों की जरूरत पड़ती है। जैसा कि मनुष्य जाति को इस साल पता चला, टीके के विकास में सालों नहीं तो महीनों का वक्त लग जाता है और तब तक बीमारी की लहर आकर जा भी चुकी होती है। प्रसाधन सामग्री में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने वाले रोगाणुरोधी भी उन बैक्टीरिया में औषधि के प्रतिरोध को जन्म दे सकते हैं जो मनुष्यों को संक्रमित करने लग गए हैं। संक्षेप में, पशुधन उत्पादन के औद्योगिक मॉडल में जैव-सुरक्षा जैसी कोई बात नहीं है।

मैंने अभी कहा कि कृषि व्यवसाय जान-बूझकर बीमारी नहीं फैलाता लेकिन वह अपने द्वारा पैदा किए इन संकटों का फायदा जरूर उठाता है। जब किसी इलाके में स्थित मुर्गी फार्मों और पशुबाड़ों में कोई संक्रमण फैलता है तो उससे सबसे ज्यादा प्रभावित और नुकसान उठाने वाले लोग होते हैं- उसके भिन्न-भिन्न अधिकार क्षेत्रों में काम करने वाली अधिकांश सरकारें, फार्म पर काम करने वाले मजदूर, करदाता, उपभोक्ता और स्थानीय वन्य जीव। हमेशा दूसरे लोगों को ही इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। अगर कृषि व्यवसाय नुकसान को दूसरों पर लाद सकता है, तो वह अपनी कार्यप्रणाली में सुधार क्यों करेगा? कंपनी के बही खाते में संक्रमण के नुकसान की कोई कीमत दर्ज नहीं होती और वह औद्योगिक मॉडल पर काम करती रहती है।

परिणामस्वरूप, उपेक्षा, दुर्भावनापूर्ण इरादों में बदल जाती है। इस प्रकार के जैव-आर्थिक युद्ध में, जब रोगाणु औद्योगिक फार्मों या खाद्य-प्रसंस्करण संयंत्रों से बाहर निकलकर छोटे स्तर के कार्यकलापों में लगे लोगों को संक्रमित करते हैं तो वायरस छोटे कृषि-व्यवसायियों को प्रतियोगिता में बर्बाद कर सकते हैं। अमेरिका से लेकर थाइलैंड तक के दस्तावेजों में दर्ज किया गया है कि जब ये संक्रमण फैलते हैं तो औद्योगिक क्षेत्र सरकार से मांग करने लगता है कि जैव-सुरक्षा को और कड़ा बनाने के लिए देश में कानून बनाया जाए। लेकिन अक्सर केवल बहुत बड़ी कंपनियां ही इन कड़े जैव-सुरक्षा मानकों को व्यवहार में लागू कर पाती हैं- मसलन, खुली हवा में पक्षियों को रखने पर रोक, या हर चूजे में माइक्रोचिप लगाना। बड़े कृषि व्यवसासियों के छोटे प्रतियोगियों का सफाया करने वाली बीमारियां अक्सर संक्रमणों के दौरान उन्हें अधमरा कर देती हैं।

अत:, इस अर्थ में इंफ्लुएंजा और दूसरे रोगाणुओं की सेवा में दुनिया के सबसे ताकतवर वकील लगे हुए हैं। क्योंकि कृषि-व्यवसाय के इस मॉडल को बचाया जा रहा है, यहां तक कि उसका विस्तार किया जा रहा है, इसलिए संक्रमण के फैलने पर स्थानीय और वैश्विक स्तर पर सफलता के झंडे गाड़ते रोगाणुओं को पीछे धकेलने के लिए कुछ भी नहीं किया जाता। इस अर्थ में, कृषि व्यवसाय बुनियादी तौर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था से युद्ध की स्थिति में है। और नए घातक रोगाणुओं का उभरना, सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के ढांचे को मितव्ययता के बजट के नाम पर कमजोर करना और विश्व बैंक और मुद्राकोष की शर्तों पर होने वाला अर्थव्यवस्था का ढांचागत समायोजन, इस बात का स्पष्ट संकेत है कि इस युद्ध में कृषि-व्यवसायी जीत रहे हैं।

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  • शैलेश

कोरोना ने एक वैश्विक महामारी (पैनडेमिक) का रूप धारण कर लिया है। प्राकृतिक आपदाओं और महामारियों से मानव समाज अपने शैशव-काल से ही लड़ता आ रहा है और उसने निरंतर अपनी गलतियों से सीखते हुए अपने आपदा-प्रबंधन ढांचे को और उन्नत किया है ताकि अगली बार समय रहते आवश्यक कदम उठा लिए जाएं और जन-धन की हानि को न्यूनतम स्तर पर ही रोक दिया जाए। लेकिन इस महामारी के प्रति दुनिया भर की शासन व्यवस्थाओं की प्रतिक्रिया ने उनकी प्राथमिकताओं, आधारभूत ढांचे और आपदाओं से निपटने की उनकी क्षमताओं पर सवाल खड़े कर दिए।

भारत में भी दशकों से जारी सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण के कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के जर्जर ढांचे पर कोरोना त्रासदी एक कहर साबित हुई है। इसने न केवल पहले से ही नोटबंदी और जीएसटी की मार झेल रही कमजोर अर्थव्यवस्था की चूलें हिला दीं, बल्कि पहले से ही सजग और तैयार न रहने के कारण सरकार के अदूरदर्शी तथा तालमेल-विहीन फैसलों ने ऐसी अफरा-तफरी मचाई जिसके कारण देश ने 1947 के बाद पहली बार इतने बड़े पैमाने पर सामूहिक विस्थापन देखा।

चीन के वुहान में दिसंबर, 2019 से ही फैल रही इस महामारी से बचने की तैयारी के लिए उपलब्ध काफी समय भारत ने गंवा दिया। शुरू में ही पता चल गया था कि यह वाइरस से फैलने वाली बीमारी है और चिकित्सा-विज्ञान में अभी तक वाइरस को मारने वाली कोई प्रभावी दवा ईजाद न होने के कारण इसके संक्रमण से बचने की व्यवस्था ही एकमात्र रास्ता है। यह इंसानों के बीच स्पर्श तथा नजदीकी संपर्क से एक-दूसरे में फैलने वाली बीमारी है तथा संक्रमण के बाद एक इंसान 14 दिनों तक बीमारी के लक्षणों के साथ या उनके बिना भी इन विषाणुओं का वाहक बना रह सकता है और अन्य लोगों को संक्रमित करता रह सकता है।

ऐसी स्थिति में अगर केवल अंतरराष्ट्रीय आवागमन पर ही जांच और अलगाव (क्वॉरेंटीन) की व्यवस्था कर ली गई होती तो हम इस स्थिति से बच सकते थे। दिल्ली विधानसभा चुनावों में भाजपा ने अपनी समूची राजनीतिक और सांगठनिक ताकत झोंक दी थी और पूरी सरकार अपने समूचे प्रशासनिक अमले के साथ पड़ोस में घात लगाकर बैठे कोरोना से बेखबर जनवरी के पूरे महीने और शुरुआती फरवरी तक पूरी ताकत से हवा में सांप्रदायिक गर्मी भरने में लगी रही। इसी बीच 31 जनवरी को भारत में पहले कोरोना संक्रमित मरीज की पुष्टि हो चुकी थी। लेकिन व्यवस्था इसके प्रति बेपरवाह थी।

इसके बाद तो ‘अमेरिका से आया मेरा दोस्त’। हम जानते हैं कि डोनाल्ड ट्रंप को उनके फ्रेंड ने ‘टेन मिलियन पीपुल’ से स्वागत कराने का वादा किया था। ध्यान रहे कि ‘हाउडी मोदी’ का अहसान चुकाने के लिए अमेरिकी चुनावों से पहले छवि चमकाने का इतने भारी तामझाम वाला ‘नमस्ते ट्रंप’ कार्यक्रम और उसके पहले उसकी रिहर्सल 24-25 फरवरी के इर्द-गिर्द हफ्तों चलती रही थी। अहमदाबाद में हवाई अड्डे से स्टेडियम के रास्ते में गरीबों की बस्ती छिपाने के लिए उठाई गई दीवार ने तो अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां भी हासिल कीं। हालत यह है कि यह दोस्त ट्रंप भी अपने देश में इस महामारी पर काबू पाने में फिसड्डी साबित हुआ है और शुरू में कोरोना के खतरे को खारिज करने के कारण कीमती वक्त जाया करने को लेकर अमेरिकी मीडिया की आलोचना झेल रहा है।

इसी बीच दिल्ली में जनवरी-फरवरी में ही गर्म की गई हवा में पार्टी के छुटभैयों ने चिन्गारियां फेंकना शुरू कर दिया था जो अंतत: दिल्ली में हुई नृशंसता के अंजाम तक पहुंचा। दिल्ली हफ्तों तक जलती रही। ध्यान रहे इस बीच कोरोना-संकट के प्रति कोई जागरुकता या अंतरराष्ट्रीय यात्रियों की सघन जांच जैसा कुछ नहीं चल रहा था। व्यावसायिक अंतरराष्ट्रीय उड़ानें 22 मार्च तक और घरेलू उड़ानें 24 मार्च तक चलती रहीं। इस बीच मार्च के दो-तीन हफ्ते मध्य प्रदेश में विधायकों की खरीद-फरोख्त और सरकार गिराने-बनाने में लग गए। सरकार गिराने में मिली सफलता के बाद मनाए गए जश्न और बाद में लखनऊ में एक गायिका के साथ सत्तातंत्र और उसकी महान विभूतियों की बेशर्म पार्टी की तस्वीरों ने बता दिया कि ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ ‘महज पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ वाला ही मामला था। बाद में वह गायिका भी कोरोना से संक्रमित पाई गई।

अब आते हैं स्वास्थ्य-व्यवस्था की हालत पर। कोरोना बहुत तेजी से संक्रमित होने वाली महामारी है जो बहुत कम समय में आबादी के बड़े हिस्से को अपनी चपेट में ले रही है, हालांकि संक्रमित मरीजों में मृत्युदर अन्य कई संक्रामक बीमारियों की अपेक्षा काफी कम है। फिर भी जब बड़ी आबादी इसकी चपेट में आएगी तो मरने वालों की संख्या अपने-आप बढ़ जाएगी। देश पहले से ही स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में खस्ता हाल है। स्वास्थ्य क्षेत्र अस्पताल, बेड, डॉक्टर, नर्स, फार्मासिस्ट, वार्डबॉय तथा अन्य पैरामेडिकल स्टाफ एवं चिकित्सा उपकरणों की भारी कमी से जूझ रहा है। हम जीडीपी के एक प्रतिशत से भी कम स्वास्थ्य पर खर्च कर रहे हैं, जो वैश्विक स्तर से काफी कम है। आईसीयू बेड एक लाख लोगों पर मात्र हमारे पास 1457 मरीजों पर एक एलोपैथिक डॉक्टर उपलब्ध है जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक 1:1000 से काफी खराब है। इसी तरह प्रशिक्षित नर्सों की संख्या 1:675 है जो मानक के अनुसार 3:1000 होनी चाहिए। स्वास्थ्य के पूरे बुनियादी ढांचे का यही हाल है। ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री की स्वास्थ्य बीमा की बहुप्रचारित आयुष्मान भारत योजना एक मजाक जैसी लगती है क्योंकि अतत: इलाज तो यही डॉक्टर और यही ढांचा करेंगे कोई बीमा पॉलिसी तो इलाज करेगी नहीं।

ऐसे स्वास्थ्य ढांचे वाले हमारे देश में जब कोरोना-संक्रमण के मामले अचानक बढऩे लगे तो पता चला कि एक तो नाममात्र की कीमत पर एक तरह से दान में दी गई जमीनों और सस्ते कर्जों पर दशकों से पाल-पोस कर बड़ा किया गया निजी क्षेत्र भाग खड़ा हुआ और उन्हीं सार्वजनिक क्षेत्र के अस्पतालों और चिकित्साकर्मियों के कंधों पर सारी जिम्मेदारी डाल दी गई जिन्हें लंबे समय से गाली दी जा रही थी। वैसे भी हमारे यहां के निजी क्षेत्र ने केवल मरीजों की जेबें हल्की करने का काम किया है और उसी के लिए सारा निवेश भी किया है। शोध के क्षेत्र में या ऐसी स्थितियों से निपटने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं रही है। अत: जो कुछ करना था, सरकारी क्षेत्र को ही करना था। लेकिन इतने भीषण संक्रामक रोग में काम करने के लिए आवश्यक सुरक्षा उपकरण सरकार के पास थे ही नहीं। ऐसे मरीजों के पास जाने के लिए सभी चिकित्साकर्मियों के पास हज्मत सूट (पीपीई यानी पर्सनल प्रोटेक्शन इक्विपमेंट)— बॉडी सूट, एन-95 मास्क, सर्जिकल मास्क, जूता कवर, दस्ताने, रेस्पिरेटर आदि होने चाहिए, जिनकी बेहद कमी रही। भारत के पीपीई मैन्युफैक्चररों को काफी समय तक अपने उपकरण निर्यात करने की अनुमति मिली रही। सरकारी नीति-निर्माण में तालमेल के अभाव का आलम यह था कि 31 जनवरी को इस निर्यात पर रोक लगाई गई लेकिन फिर यह रोक हटा भी ली गई। फिर बहुत आलोचना के बाद मार्च के अंतिम सप्ताह में दोबारा निर्यात पर रोक लगाई गई। इस बीच इन उपकरणों/वस्त्रों के निर्माता सरकार से देश के अंदर इस्तेमाल के उद्देश्य से इन उपकरणों के लिए मानक तय करने तथा दिशानिर्देश जारी करने का अनुरोध करते रहे लेकिन ढिलाई का आलम यह था कि लगभग दो महीने बाद 24 मार्च को स्वास्थ्य मंत्रालय ने ये मानक जारी किए, तब तक देश में 536 कोरोना मरीजों की पुष्टि हो चुकी थी।

इस बीच में देशभर में 22 मार्च को ‘जनता कफ्र्यू’ लगाने की अपील प्रधानमंत्री ने की तथा शाम पांच बजे ताली और थाली बजाकर डॉक्टरों को उनकी बहादुरी के लिए धन्यवाद ज्ञापित करने को कहा। डॉक्टर और पैरा मेडिकल स्टाफ विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर और विभिन्न कैंपेनों के माध्यम से चिल्लाता रहा कि हमारी जान जोखिम में डाली जा रही है और बिना सुरक्षा उपकरणों के इन मरीजों का इलाज करना आत्महत्या जैसा होगा लेकिन उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित हुई और प्रधानमंत्री द्वारा अभिव्यक्त भावना के उलट वर्षों से काफी लगन से तैयार किए जा रहे भीड़तंत्र ने इसे डॉक्टरों को धन्यवाद ज्ञापन की जगह ताली-थाली-घंटा-घडिय़ाल-शंख बजा कर कोरोना भगाने का मोदी जी द्वारा तैयार मंत्र मान लिया और शाम पांच बजे के समय विश्व एक गंभीर अवसर को एक विराट प्रहसन में बदलने का साक्षी बना। यहां तक कि कानपुर तथा पीलीभीत के जिलाधिकारी और एसपी तक ने ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ को धता बताते हुए घंटे-घडिय़ाल और शंख बजाती हुई उत्सवधर्मी भीड़ का नेतृत्व किया।

जब उपयोगी समय पहले ही गंवा दिया गया था तो जाहिर है कि अचानक महसूस हुआ होगा कि अब तो पानी सर ऊपर हो चुका है। तो प्रधानमंत्री जी फिर से टीवी पर प्रकट होते हैं और काफी गंभीरता से इस ‘जनता कफ्र्यूÓ को 21 दिन के लॉकडाउन के रूप में आगे बढ़ाने का निर्णय सुनाते हैं और बताते हैं कि ”यह कफ्र्यू ही होगा।” फिर क्या था? एक झटके के साथ सारी सामाजिक और आर्थिक गतिविधियां ठप कर दी गईं। जो जहां पर था वहीं पर रोक दिया गया। शायद अदूरदर्शी नीति-निर्माताओं की कल्पना में भी वे करोड़ों लोग नहीं आए जो अपने घरों से हजारों-हजार किलोमीटर दूर रह कर रोज कुंआ खोद कर रोज पानी पीते हैं। पिछले कुछ दशकों में बेलगाम होती जा रही कॉरपोरेट पूंजी और और उसके दबाव में सिकुड़ते जा रहे श्रम-कानूनों ने उन्हें एक गैर-जरूरी और अकिंचन भीड़ बना कर ठेका-प्रथा के रहमो-करम पर छोड़ दिया है। वे हमारी तथाकथित सभ्यता की दरारों में बेनाम, बेआवाज और अदृश्य जिंदगी जीते हुए चुपचाप एक संवेदनहीन समाज की पालकी ढोते रहते हैं। एक मनमाने निर्णय के साथ एक झटके में उन्हें उन दरारों से भी बेदखल कर दिया जाता है और जब वे बाहर आते हैं तो उन पर कफ्र्यू तोडऩे और कोरोना फैलाने का इल्जाम लगने लगता है।

इस पूरी निर्णय-प्रक्रिया में कहीं कोई तालमेल नहीं है। केंद्र तथा विभिन्न राज्य सरकारों ने उनके रहने, खाने-पीने या उनकी जांच का कोई प्रबंध नहीं किया न आपस में कोई सहमति बनाई। पुलिस ने उनके साथ ‘कफ्र्यू जैसा ही’ व्यवहार किया। जो सरकार कोरोना के मरीजों को अभी हाल तक हवाई जहाजों से भर-भर कर ला रही थी और समुचित जांच भी नहीं करा रही थी उसी ने उनसे उनकी बसें और ट्रेनें भी छीन लीं। नतीजतन ये लोग सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूर अपने गांवों तक अपनी गृहस्थी अपने कंधों और सर पे लादे अपनी पत्नी और मासूम बच्चों के साथ पैदल ही निकल पड़े। इस बीच सरकार ने अपने घरों में मध्यवर्ग के मनोरंजन के लिए दूरदर्शन पर 1990 के दशक के लोकप्रिय सीरियल ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ चलवा दिए। (ध्यान रहे कि यह दशक ही भारतीय राजनीति में सांप्रदायिकता और पुनरुत्थान के उभार, मंदिर आंदोलन के जोर पकडऩे और नई आर्थिक नीति के रूप में उदारीकरण, निजीकरण वैश्वीकरण की त्रयी द्वारा लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा को विस्थापित करने का दशक रहा है। इन सारे रुझानों को वैचारिक संबल देने में इन पौराणिक आख्यानों ने भी अपनी भूमिका निभायी ही थी।)

तो एक तरफ एक केंद्रीय मंत्री अपने विशालकाय ड्राइंग रूम में एक विशाल डिजिटल टीवी स्क्रीन पर ‘रामायणÓ देखते हुए अपनी तस्वीर ट्विटर पर साझा करते हुए पूछ रहे थे कि ”मैं तो ‘रामायण’ का आनंद ले रहा हूं, क्या आप भी? ” तो वहीं लाखों मेहनतकश लोग सड़कों पर और बहुत सारे पुलिस की मार से बचने के लिए रेल की पटरियों के किनारे-किनारे लहू-लुहान पैरों के साथ अपने मासूम बच्चों को घसीटते हुए सैकड़ों किलोमीटर के विस्थापन पर निकल पड़े थे। ऐसा नहीं था कि गांवों में वे बहुत समृद्धि छोड़ कर आए थे, बल्कि यहां, शहर की लंबी अनिश्चितता और नजरों में परायेपन के बीच गुमनाम मौत के खतरे से वे भागना चाहते थे। आजादी के इतने वर्षों में भी सत्ता और समाज उनके प्रति अनचाहेपन और बेगानेपन की भावना से मुक्त नहीं हो पाया था। उनकी अहमियत अभी भी उच्च वर्ग और उसके वैचारिक अनुचर बन चुके मध्य वर्ग की सत्ता की सीढ़ी और उसकी विलासिता के विशालकाय तंत्र के गुमनाम पुर्जे से ज्यादा कुछ नहीं थी। कोरोना लाने में इन लोगों की कोई भूमिका नहीं थी लेकिन पांच सितारा मीडिया हाउसों में बैठे पत्रकार, सुविधाभोगी मध्यवर्ग का बड़ा हिस्सा और प्रशासनिक अमला इन्हें ऐसी ही हिकारत भरी नजरों से देख रहा था जैसे यही कोरोना का कारण हों।

अभी भी भारत में कोरोना के प्रभाव और तीव्रता का अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है। बहुतों की राय है कि भारतीय लोगों की जेनेटिक बनावट और विपरीत परिस्थितियों में अनुकूलन की क्षमता और इससे विकसित इम्यूनिटी के कारण शायद कोरोना यहां ज्यादा खतरनाक न साबित हो। हमारी यह सदिच्छा पूरी हो! नहीं तो हमारे स्वास्थ्य ढांचे की स्थिति को देखते हुए यहां कोरोना दुनिया के अन्य देशों से ज्यादा नुकसान पहुंचा देगा। कोरोना-संक्रमण की गंभीर अवस्थाओं से निपटने के लिए वेंटिलेटर अनिवार्य हैं, जिनकी हमारे यहां भीषण कमी है।

एक तो यहां पिछले वर्षों की घटनाओं के कारण सांख्यिकीय आंकड़ों पर भरोसा करना मुश्किल है, दूसरे सरकार में विभिन्न स्तरों पर लोगों में एक मूर्खतापूर्ण अहंकार दिखाई देता है जिससे वे विरोधी विचारों वालों से अछूत जैसा व्यवहार करते हैं। किसी से राय लेना या मानना इनके इगो को चोट पहुंचाता है। इनकी इसी प्रवृत्ति ने बुद्धिजीवी शब्द को गाली में तब्दील कर दिया है। यह प्रवृत्ति इन्हें विचार-विमर्श तथा तालमेल से दूर कर देती है। आंकड़ों में हेरफेर के कारण भविष्य के अनुसंधानों की राह भी कठिन हो सकती है।

अभी देश में कोरोना-संक्रमण को जांचने वाली किटों का बहुत अभाव है जिसके कारण मरीजों की सही संख्या पता चलना काफी मुश्किल है। चीन ने अपने यहां लॉकडाउन के द्वारा नियंत्रण किया किंतु दक्षिण कोरिया के मॉडल की दुनिया में काफी प्रशंसा हुई जिसने बड़े पैमाने पर सघन जांच के माध्यम से रोगियों को चिन्हित किया और लॉकडाउन का सहारा लिए बिना उसने अपने यहां कोरोना से जंग जीती। वहां सबसे कम मौतें हुईं। ज्यादा टेस्ट-किटों का उत्पादन करके भारत भी दक्षिण कोरिया का रास्ता अपनाए, यह ज्यादा ठीक होगा।

भारत में आपदा-प्रबंधन का एक प्रभावी ढांचा तैयार किया जाना जरूरी है। वर्तमान महामारी ने वर्तमान ढांचे की कमजोरी और प्रभावहीनता को उजागर कर दिया है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण दुनिया के पारिस्थितिकी-तंत्र में जटिल बदलाव आ रहे हैं। अत: भविष्य में कई अन्य प्राकृतिक आपदाओं व महामारियों का विस्फोट हो सकता है। सतर्कता और त्वरित कार्रवाई द्वारा ही हम नुकसान को कम कर सकते हैं। इस आपदा के कारण स्पेन ने अपने यहां निजी अस्पतालों तथा स्वास्थ्य प्रदाताओं को सार्वजनिक नियंत्रण में लाने का कड़ा कदम उठाया है। पूरी दुनिया में निजी स्वास्थ्य सेवाओं की कलई खुल गई है। भारत में भी एकसमान, सार्वजनिक तथा सार्वभौमिक स्वास्थ्य ढांचे की मांग उठने लगी है, इसके लिए एक व्यापक अभियान चलाया जाना चाहिए। जब दुनिया पूंजी और महामारियों के लिए ग्लोबल विलेज बन चुकी है तो स्वास्थ्य तथा लोक कल्याणकारी व्यवस्थाओं के लिए भी विश्व-पंचायत में एक वैश्विक ढांचा स्थापित किया जाना चाहिए। विश्व-पंचायत की भूमिका को और बढ़ाने की जरूरत है ताकि देशों की सीमाओं के गैर-जरूरी तनावों को कम करके हथियारों की होड़ समाप्त कराई जाए और इसमें लगने वाले धन को दुनिया के शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में लगाया जाए।

पूंजी के अतिसंचय की होड़ में प्रकृति को अपूरणीय क्षति हो रही है। पृथ्वी से जैव-विविधता का भीषण नुकसान हो रहा है। इससे मौसम में अकल्पनीय परिवर्तन देखे जा रहे हैं साथ ही प्राकृतिक आपदाएं भी विकराल रूप लेने लगी हैं। पृथ्वी जीवन के योग्य बनी रहे इसके लिए आवश्यक है कि पूरी दुनिया में मुनाफे की हवस के खिलाफ मजबूती से आवाज उठाई जाए।

हमारे देश में पहले से ही लडख़ड़ा रही अर्थव्यवस्था के लिए कोरोना महामारी एक बड़ा धक्का साबित होगी, लेकिन हो सकता है कि आर्थिक मोर्चे पर सरकार की नाकामी का ठीकरा कोरोना के सर पर फूट जाए और यह सरकार के लिए बिल्ली के भाग्य से ठींका टूटने जैसा साबित हो। लेकिन सेवाओं के समाजीकरण की मांग के लिए आवाज उठाने के लिए परिस्थितियां अनुकूल बन रही हैं। ऐसी मांग पूरी तरह से कॉरपोरेट हितों के लिए समर्पित व्यवस्था को निश्चित रूप से विचलित करेगी।

लॉकडाउन ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली की जरूरत को भी जेरे बहस लाया है। कालाबाजारी और जमाखोरी चरम पर है। दैनंदिन उपयोग वाली तमाम वस्तुओं की हर घर तक पहुंच की कोई प्रणाली न होने के कारण घरों में कैद लोग भारी मुसीबत का सामना कर रहे हैं। गरीब लोगों की और भी दुर्दशा है। इतनी बड़ी आबादी को बाजार के रहमो-करम पर नहीं छोड़ा जा सकता। सामान्य समय के लिए उपलब्ध और सक्रिय ढांचे को ही आपदा के समय भी इस्तेमाल किया जा सकता है नहीं तो इसी तरह की मुसीबतें पेश आती हैं।

समयांतर अप्रैल, 2020

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  • राजेश कुमार

‘‘खुलेगा क्या कुछ? मल्लब कोई ढील इस बंदी में, कोई स्ट्रेटेजिक रिलेक्सेशन…?’’ बंदी से किरोड़ी लाल का आशय शायद लॉकडाउन से था। लॉकडाउन खत्म होने की उम्मीद किसी को थी भी नहीं। कयास तो केवल इस पर था कि कितने दिन और! वह पास आते-आते रुक गए थे। बदस्तूर काले रंग के लोअर और चेक शर्ट में। पूरा ट्रैक शूट वह कभी नहीं पहनते। इजाफा यह कि कानों पर एक सर्जिकल मास्क फंसा था। कभी हल्के नीले रंग का रहा होगा। दोनों ओर लगे एलास्टिक ने कानों को ऊपर से टेढ़ा जरूर कर दिया था, पर मास्क नाक-मुंह पर नहीं, ठोढ़ी पर झूल रहा था। बोलने के लिए उन्होंने नीचे खींच लिया होगा। मैंने इधर-उधर देखा। पेच यही था कि वह मुझसे मुखातिब थे।

आते-जाते उनका दिखना आम है, इनसे, उनसे ढेर सारी बातें करना भी, पर सीधे मुझसे कभी बात हुई हो, याद नहीं। बोलते बहुत द्रुत हैं, चलने की ही तरह। छोटे-छोटे कदम लेते हैं। आप किन्हीं लोगों के साथ खड़े हों, डॉक्टर-प्रोफेसर-वकील साहब की जमात में, शर्माजी-मुकेश त्यागी-अग्रवाल साहब के साथ, या वेद जी-अग्ने-प्रवीण के पास, पता नहीं, किरोड़ी लाल जी कब अचानक नमूदार हो जाएं। आठेक महीने पहले, ऐसे ही कहीं पहुंच गए थे और अनुच्छेद 370 के खात्मे और देश में कश्मीर के टोटल इंटीग्रेशन से ज्यादा कश्मीर घाटी में जायदाद खरीद पाने के उत्साह में चहकने लगे थे। घाटी में जमीन-जायदाद बनाना तो रह ही गया, यह जरूर हुआ कि कभी-कभार सामने पड़ जाने पर जो दुआ सलाम हो जाया करती थी, वह औपचारिकता भी खत्म हो गई।

मैंने इधर-उधर देखा। कहीं कोई नहीं था।

किरोडी लाल बोले जा रहे थे, ‘‘धन्ना सेठों को क्या? और गरीब-गुरबा को भी? उसे तो राशन-अनाज सब मिल रहा है न! असल संकट तो हम व्यापारियों-कारोबारियों का है। भीख भी नहीं मांग सकते हम।’’

‘‘हां इतना सुकून में है बेचारा, कि चौदह-चौदह सौ किलोमीटर दूर अपने घर-दुआर के लिए निकल पड़ रहा है, भूखे, प्यासे, कई बार बीबी-बच्चों को कंधे पर उठाए। पुलिस की मार भी खा रहा है, चलते-चलते अधबीच कोई सगा या स्वयं, मर भी जा रहा है, पर जाना घर है। शौकिया नहीं हैं दसियो करोड़ लोग सड़क पर। मुंबई से, दिल्ली से, सूरत, कोलकाता, रायपुर, इंदौर से खब्त में नहीं निकल पडे हैं वे। किया क्या आपके चहेते पीएम ने लॉकडाउन की घोषणा से पहले उनके लिए कोई इंतजाम, उनकी कोई चिंता? उनकी छोड़िए, कोरोना से जूझ रहे डॉक्टरों के लिए ही कोई पीपीई, कोई मास्क, सेनेटाइजर की व्यवस्था? कुछ नहीं। कह दिया कि आप ताली बजाइए, थाली बजाइए और आप शुरू हो गए।’’ मेरा व्यंग्य जाया हुआ। शायद सुना ही नहीं उन्होंने। वह रौ में थे, ‘‘ढील नहीं देंगे तो कारोबार कैसे होगा। हम तो कमाएंगे, तभी खाएंगे न। ऊपर से यह जीएसटी की देनदारी। इतना थोड़े ही पड़ा है कि अंटी से निकालते जाएं, खरच करते जाएं।’’ -जवाब की उम्मीद में वह रुके।

मन हुआ, कह दूं कि छह सालों में, बल्कि उससे पहले से ही कहा तो बहुत-बहुत है, कभी किया भी है कुछ। कह भी देता पर बीच में मिस्टर पवार आ गए, ‘‘और कैसे…?’’ पार्क में पहुंचा था, तब केवल वही थे, दूर, वाकिंग ट्रैक के दूसरी ओर। लॉकडाउन के कारण बाहर जाना रुक गया होगा, वरना वह तो अशोका पार्क जाने के ही अभ्यस्त रहे हैं। इतना बाहर भी नहीं है अशोका पार्क, एक एन्ट्रेंस गेट तो मेन रोड पर, यहीं लक्ष्मीबाई कॉलेज के लगभग सामने है, एसएफएस कॉलोनी से निकले, टंकी से मुड़े और पहुंच गए। विस्तार तो इतना है कि पार्क में कहीं से भी आप, सभी लोगों को एक साथ नहीं देख सकते। आम दिनों में वहां खूब सारे लोग होते हैं, कई-कई कॉलोनियों के, कई तो अपने पेट्स के साथ, आम तौर पर लेब्रा, गोल्डन रिट्रीवर, सेंट बर्नार्ड और बीगल, पग जैसे कुत्तों के साथ। कोई-कोई तो पार्क को पेट्स की गंदगी से मुक्त रखने के लिए स्कूपर तक लिए हुए। यह नया अभ्यास है, जो आरडब्ल्यूए की सरहदों को पार करने लगा है। इन दिनों खाली पड़ा होगा- सुबह-शाम जितना भरा होता था, उससे भी ज्यादा खाली। आवारा कुत्तों का वहां एकछत्र राज होगा इन दिनों। कॉलोनियों के अपने पार्क शायद ही कभी इतने निर्जन होते हों। लॉकडाउन के इन दिनों में भी अपनी बालकनी से मैं कई बार कैप्टन मेहता को पार्क में बेंच पर देख चुका हूं। अलबत्ता आते वह सुबह नाश्ते-वास्ते के बाद ही हैं। पार्क में बेंच ही हैं, जो निरापद बचे हैं। वरना इलाके के एमएलए के फंड, बल्कि वकील साहब से उनकी नजदीकी के जलाल से जो जिमिंग अपरेटस लगे हैं और बच्चों के लिए जो प्लास्टिक के राइडर-स्लाइडर, सब नारियल की रस्सी से बेतरतीब बांध दिए गए हैं। बांधना शायद गलत शब्द है, जिमिंग अपरेटस और राइडर-स्लाइडर पर रस्सियां ऐसे लपेट दी गई हैं कि इनका इस्तेमाल न किया जा सके।

कुशल-क्षेम का अपना सवाल मिस्टर पवार ने हाथ उठाकर पूरा किया था और मैंने भी केवल सिर हिला दिया था। भाषा का यह विलोपन और भंगिमाओं का ऐसा और इतना एप्लीकेशन इस कोरोना समय की ईजाद है। पता नहीं, आवाजों के साथ कितने-कितने ड्रॉपलेट्स हवा में तैर जाएं और किस-किस को इन्फेक्ट कर दें। वह रुक गये, ट्रैक पर 4-5 फीट दूर। किरोड़ी लाल कुछ और दूर खड़े रहे। वह मोबाइल पर थे या शायद प्रतीक्षा में।

‘‘फूलों की बहार हो गई है, ऐं जी!’’ – नाक-मुंह पर रुमाल बांधे, मिस्टर पवार का अगला सवाल, बल्कि टिप्पणी थी। सवाल होता तो वह रुकते, उत्तर के लिए। जैसे किरोड़ी लाल रुके थे, पार्क के गेट के पास कदमताल करते हुए। गलत भी नहीं थे मिस्टर पवार। लोग नहीं हैं, तो फूलों की उपस्थिति और एम्फैटिक हो गई है, हॉर्टीकल्चर से लेकर आरडब्ल्यूए और मालियों तक की दखलंदाजी कम हुई है, तो प्रकुति कुछ अधिक प्राकृतिक हुई है। ऐसे-ऐसे फूल जो पहले नहीं देखे। नाम तक नहीं पता, लंबी, हरी डंडीनुमा तने के सिर पर टिका, गेंद की तरह की संरचना बनाता छोटे फूलों का गुच्छा। पार्क में लंबी हो चली, घास की चादर के ठीक बीच, विस्तृत परिधि की क्यारियां तो हैं ही – कई रंगों की पारभासी बोगनविलिया, गेंदे, गुडहल, गुलाब, पीला डैफोडिल, चमकदार गुलाबी रंग की पेटुनिया, सफेद चमेली, पीला गुलबहार, नलिनी के पौधों से भरी। अधिकतर को खूब धूप चाहिए, खूब पानी भी, बस मालती और चमेली ही है, जिसे अधिक पानी रास नहीं आता।

‘‘बाकी मोदी जी के बस में तो क्या है? यूएस, चीन, जापान, जर्मनी के सामने अपनी बिसात भी क्या!’’ – किरोड़ी लाल की ओर से यह संवाद की बहाली थी। मिस्टर पवार के जाते ही वह केवल मेरी ओर मुड़ भर गए, गेट पर खड़े-खड़े ही, जैसे बस जाने वाले ही हों। ‘‘हां, जो बस में था, वह तो किया ही। जनवरी के अंत में ही जब कोरोना के मामले आने लगे थे, तब अहमदाबाद में ‘नमस्ते ट्रंप’ के मेगा आयोजन और चीन और दूसरे देशों में विशेष विमान भेजकर इन्फेक्शन आयात करते रहे। फिर जब संक्रमण तेजी से फैलने लगा तो एक समुदाय पर इसकी जवाबदेही थोप दी गई, जबकि अब यह आम जानकारी है कि इसी समय में कैसे हरिद्वार से 1800 लोगों को वापस गुजरात भेजने के लिए अमित शाह के आदेश पर उत्तराखंड की बीसियों बसें रातो-रात सेवा में लगा दी गईं, कैसे 500 के करीब श्रद्धालु वैष्णो देवी में जा फंसे, अयोध्या में रामनवमी में हजारों लोगों ने और सीएम ने भी भाग लिया, पंजाब में छह दिन का विशाल होला मोहल्ला आयोजन हुआ, जिसमें शिरकत के लिए बड़ी संख्या में विदेश से भी श्रद्धालु आए। बाद में इन आयोजनों से जुड़े या उनके प्रत्यक्ष-परोक्ष संपर्क में आए कई लोगों की कोरोना से मौत की भी खबरें हैं। अहमदाबाद वैसे ही कोरोना-संक्रमितों की संख्या के लिहाज से देश के सभी शहरों का सिरमौर हो गया है।’’

किरोड़ी लाल जी गेट से निकल नहीं गए। उन्होंने हस्त्क्षेप किया, ‘‘हां, लेकिन इकनॉमी का क्या? बंदी में ढील के बिना कैसे शुरु होगी इकॉनॉमिक एक्टिविटीज?’’ वह अपने शुरुआती सवाल पर लौट गए थे। भोलापन यह कि वह अब भी उम्मीद में थे कि सरकार कुछ तो करेगी, कुछ तो सोचेगी रसातल में जाती अर्थव्यवस्था के बारे में, कोई तो फॉर्मूला सोचा होगा उसने भी। उन्होंने सुना ही नहीं होगा कि 14 के अपने संबोधन में पीएम आर्थिक संकट का ठीकरा कोरोना के सिर पर फोड़ कर अपना पल्ला झाड़ चुके हैं, उस संकट का ठीकरा, जो 2019 की तीसरी तिमाही में ही पूरी तरह स्पष्ट हो चुका था। ऑटोमोबाइल, टेक्सटाइल, मैन्युफैक्चरिंग-सारे सेक्टर मंदी की चपेट में थे, चार करोड़ रोजगार जा चुके थे और जिसके चलते विश्व की तमाम एजेंसियां 2020 के लिए जीडीपी विकास दर चार प्रतिशत से नीचे रहने की भविष्यवाणियां करने लगी थीं। मजा यह है कि भक्त-अंधभक्त उन्हें सुनें ही क्यों, उनके हिस्से तो अंततः ताली-थाली बजाने, दीप-धूप जलाने की ही जवाबदेही आनी है।

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सामाजिक दूरी और तालाबंदी में फंसा कामगार https://www.samayantar.com/%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%a6%e0%a5%82%e0%a4%b0%e0%a5%80-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%b2%e0%a4%be%e0%a4%ac%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a5%80/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%a6%e0%a5%82%e0%a4%b0%e0%a5%80-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%b2%e0%a4%be%e0%a4%ac%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a5%80/#respond Mon, 11 May 2020 01:49:33 +0000 https://www.samayantar.com/?p=264 महामारी पर चंद्रकला

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  • चंद्रकला

पड़ोसी की छत पर खड़ी बच्ची छतों पर जलते दियों और आसमान में पटाखों की रंगीनियां देख रही थी। उसने आवाज लगाकर पूछा कि बुआ आपने अपने घर के सारे बल्ब क्यों जलाये हैं, आप दीये क्यों नहीं जला रही हैं और पटाखें क्यों नहीं छोड़ रही हैं? सब तो बहुत खुश हैं, आप क्यों दुखी लग रही हैं? मेरे पास उस बच्ची के एक साथ पूछे गए इतने प्रश्नों का उत्तर देने जैसा कुछ भी नहीं था।

लेकिन मैं उससे बोलना चाहती थी कि ‘नन्हीं बच्ची मैं तुम्हें कैसे समझाऊं कि पूरी दुनिया में हजारों लोग मर रहे हैं, लाखों मरने के कगार पर हैं, करोड़ों बेघर हो रहे हैं इसलिए मन खुश नहीं हो सकता। टोटकों और अंधविश्वास पर टिके हमारे समाज के डर को कम करने के लिए राजाज्ञा जारी हुई है इसलिए प्रजा राजज्ञा का पालन भक्तिभाव से कर रही है। जैसे कि वह मेरे मन की बात को समझ गई हो। बोली ‘बहुत सारे लोग मर रहे हैं ना…सब डर को भगाने के लिए यह सब कर रहे हैं ना… लेकिन यह तो दु:ख की घड़ी हुई ना, फिर हम खुशियां क्यों मना रहे हैं? मैं उसकी उत्सुक्तता को शांत करना चाहती थी तभी उसकी मां ने ‘सोशल डिस्टेन्सिंग का हवाला देकर बच्ची को अपने पास बुला लिया। लेकिन छत से नीचे उतरते हुए मेरा दिमाग ढेरों सवालों में उलझ गया।

मानसिक गुलामी और भक्त

मानसिक गुलामी की जद में आते देशभक्तों ने पांच अप्रैल की रात नौ बजे घरों की रोशनी बंद करके छतों और बालकनियों में दीयों, मोमबत्ती, टॉर्चलाइटें, मोबाइल की रोशनी जलाकर इस उत्सव को यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कुछ लोगों ने तो इस जश्न में पटाखे छोडऩा और हर्ष में फायरिंग करना भी अपना पुनीत कर्तव्य समझा, जिसने जैसे चाहा इस विशेष इवेंट को सैलिबरेट किया। क्योंकि इस देश के ‘ऐतिहासिक इवेंट मैनेजर जी ने इस आयोजन का आह्वान किया था। इससे पहले 22 मार्च को जनता कर्फ्यू के बाद थाली ओर घंटी-शंख बजवा कर वह स्वयं को विश्व के समक्ष ‘ऐतिहासिक हीरो प्रस्तुत करने का बेहतरीन प्रयास कर चुके थे। देश का सम्पन्न मध्य वर्ग और धर्मभीरु प्रजा ‘ऐतिहासिक प्रयोगों का पालन करना अपना कर्तव्य समझती है। क्योंकि अधिकांश का मानना है कि जैसे परिवार के मुखिया के निर्णय का पालन करना परिवार का कर्तव्य है वैसे ही प्रजा का कर्तव्य है कि वह राजाज्ञा का पालन करे, क्योंकि इनके लिए गए निर्णय गलत नहीं हो सकते। दुनिया में हजारों मरें या लाखों गरीब और भूखे लोग सड़कों पर हों या शैल्टर होम में, इससे क्या फर्क पड़ता है बस हम अपनी चारदीवारी में महफूज रहें। अगले दिन सुबह, छह अप्रैल तक दुनियाभर में 69,527 लोगों की मौतें हो चुकी थीं और 1 लाख 277 हजार 962 लोग संक्रमित हो चुके थे। तेजी से फैलता यह संक्रमण प्रवासी भारतीयों के माध्यम से देश में प्रवेश कर चुका था और इसकी कीमत अंतत: हर तरह से गरीब और मेहनतकश को ही चुकानी होगी, यह भी तय था।

शुरुआती लापरवाही

2020 की शुरूआत में खबर आई कि चीन के वुहान शहर में कोरोना वायरस से धीरे-धीरे मौतें होने लगी हैं और आकंड़ा तेजी से बढ़ता जा रहा है। और उतनी ही तेजी से रात-दिन मरीजों के साथ लगे डॉक्टर, नर्स और अन्य कर्मचारी अवसाद में जाने लगे हैं। बाद में यह भी कि अब इस वायरस का फैलाव दुनिया के अन्य देशों में भी दिखाने लगा है। हालांकि चीन इस पर काफी हद तक काबू पाता दिख रहा है लेकिन अन्य देशों में इसका कहर कितना व्यापक होगा इसके परिणाम योरोप और अमेरिका में दिखने शुरू हो गए। जब चीन से भारतीय छात्रों को वापस लाने की प्रक्रिया शुरू हुई उस वक्त इन प्रवासियों की नाचते-गाते पार्टी मनाते तस्वीरें चर्चा में भी आई थीं। चीन से लाई गई केरल की एक छात्रा में ही पहली बार 30 जनवरी को कोरोना वायरस की पुष्टि हो गई थी। हालांकि केरल सरकार की गंभीर तैयारी के परिणामस्वरूप ही राज्य में वायरस के फैलाव पर काफी हद तक नियंत्रण पाया गया। किंतु केंद्र सरकार इस महामारी के प्रति लापरवाह बनी रही। कारण, वैश्विक महामारी में तब्दील होते वायरस के प्रति सचेत होकर अपनी स्वास्थ्य सेवाओं को दुरस्त करने से अधिक महत्वपूर्ण उस वक्त भाजपानीत केंद्र सरकार के लिए किसी भी तरह दिल्ली के चुनाव में जीत हासिल करना था।

केंद्रीय गृहमंत्री स्वयं दिल्ली के गली-मोहल्लों में जाकर जनता से वोट मांग रहे थे। इतना ही कहां, विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों, कैबिनेट मंत्रियों और सासंदों ने पूरी ताकत को दिल्ली चुनाव में झोंक दिया गया था। कट्टर हिंदूवादी एजेंडा से दिल्ली का चुनाव प्रचार चलाया गया, भाषणों की उग्रता और आह्वानों से सीधे तौर पर मुसलमानों को निशाना बनाया गया। गोली चलाने के आह्वान को लागू करने के प्रयास सीएए, एनपीआर और एनसीआर को विरोध कर रही शाहीन बाग की महिलाओं के प्रदर्शन स्थल पर हुए। क्योंकि दिल्ली की सत्ता पर काबिज होना भाजपा सरकार का ड्रीम प्रोजेक्ट बन चुका था। लेकिन 11 फरवरी को जो परिणाम घोषित हुआ उसमें दिल्ली की जनता ने केजरीवाल के नेतृत्व पर ही भरोसा जताया।

चूंकि इस चुनाव में भाजपा की साख दांव पर लगी थी और चुनाव प्रचार के दौरान मुसलमानों के खिलाफ जो जहर उगल दिया गया था वह जमीन तक पसर चुका था। भाजपा की हार होती या जीत, उसका बाहर निकलना तो तय ही था। अभी दिल्ली की सरकार बने दस दिन भी नहीं हुए थे कि 22 फरवरी को दिल्ली के उत्तर पूर्वी इलाकों में हिंसा शुरू हो गई। 25 फरवरी तक, तीन दिनों में ही चरम उन्माद ने अपना पूरा रंग दिखा दिया। हिंसा और आगजनी में कितने लोग मारे गए, कितने घर जले, कितने लापता हुए, कितने अभी भी घरों और अस्पताल में पड़े हैं, कितने ही लोग आज भी राहत शिविरों में रहने को मजबूर हैं अब उनकी खोज खबर लेने की सुध किसी को नहीं है। सत्ता के मद में चूर विचार अभी भी समाज में सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने के लिए नए तरीके तलाश रहा है।

और नीरो बांसुरी बजा रहा था

‘रोम जल रहा था और नीरो बांसुरी बजा रहा था की पंक्ति यहां पर इसलिए प्रासंगिक लगती है कि जब एक ओर कोरोना वायरस धीरे-धीरे दुनिया को अपनी चपेट में लेने की दिशा में तेजी से बढ़ रहा था तब दूसरी ओर भारत की राजधानी दिल्ली जल रही थी। लेकिन प्रधानमंत्री और गृहमंत्री सहित केंद्र सरकार की कैबिनेट गुजरात में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को खुश करने के लिए लाखों लोगों की भीड़ इक_ा करके ‘ऐतिहासिक रिकार्ड बनाने में जुटे हुई थी। और मीडिया पूरे देश की जनता को ट्रंप, उनकी पत्नी और बेटी की नजर से ताजमहल के दीदार करवाने के लिए टूट पड़ रहा था, ताकि दिल्ली के दंगों की तस्वीरों और आने वाले कोरोना वायरस के कहर की आहट से देश का ध्यान हटाया जा सके।

तीन दिन तक दिल्ली में जो हिंसा होती रही उसको रोकने के लिए कोई त्वरित कार्रवाई करने की केंद्र सरकार से तो उम्मीद क्या हो सकती थी, लेकिन दिल्ली सरकार ने भी निर्णायक हस्तक्षेप करने के बजाय अपने कदम पीछे ही खींचे। आम आदमी की बात करके भले ही केजरीवाल को पुन: सत्ता मिल गई लेकिन वह न तो कभी शाहीन बाग के प्रदर्शन पर एक शब्द बोले और न ही दिल्ली में हो रही हिंसा पर खुलकर ही अपना कोई विरोध दर्ज किया। सत्ता में आने के बाद केजरीवाल अब एक लंबी पारी खेलने की तैयारी में हैं, संभवत: अब यह ओझल प्रश्न नहीं है। आम आदमी की सीढ़ी से सत्ता हासिल कर लेने के बाद अपने वर्गीय हित ने आम से खास बनने की दिशा पकड़ ली है, यह आने वाले समय में अधिक खुलकर सामने आएगा। इसके साथ ही सैद्धांतिक रूप से यह भी स्पष्ट हो जाएगा कि किसी भी व्यवस्था के बुनियादी तंत्र को बदले बिना आम आदमी को उसके बुनियादी अधिकार मिल ही नहीं सकते।

स्वास्थ्य व्यवस्था की बेहाली

अब आते हैं वर्तमान में, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता कि भारत सरकार को यह मुगालता रहा कि भारत में कोरोना वायरस का खतरा नहीं बढ़ेगा। वास्तविकता तो यह है कि बेहतर और सस्ते स्वास्थ्य की दिशा में हमारे देश में गंभीरता से कभी प्रयास ही नहीं किये गए, तो कोई दूरदृष्टि हो भी कैसे। अमूमन दुनिया में स्वास्थ्य के मामले में भारत बहुत पीछे है। भले ही वह स्वयं को विश्वगुरु कहे लेकिन सबके लिए स्वास्थ्य उपलब्ध कराने में भारत थाईलैंड और श्रीलंका से भी पीछे है। भारत की सरकारों ने स्वास्थ्य को हमेशा गौण विषय ही माना है। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन अपने एक निबंध में कहते हैं कि ‘सरकार स्वास्थ्य के विषय में विचार कर भी ले तो व्यवहार में लागू करने के लिए सरकार के पास पैसा कहां है।Ó यानी स्वास्थ्य पर सरकारें खर्च ही नहीं करना चाहती बल्कि धीरे-धीरे स्वास्थ्य सेवाएं निजी हाथों में देने की तैयारी चल रही है। भारत सरकार की लापरवाही का आलम तो यहां तक है कि मार्च के शुरूआती हफ्तों में, जबकि भारत में मरीजों की संख्या सामने आने लगी थी, तब भी पर्सनल प्रोटेक्टेट इक्यूपमेंट (पीपीई) का निर्यात किया जा रहा था।

 

महामारी का साया और राजनीति

मध्य प्रदेश के कई इलाकों में कोरोना वायरस ने तेजी से पैर पसारे क्योंकि समय रहते यहां पर इसको रोकने के ठोस उपाय नहीं किए गए। लेकिन यदि यह कह दिया जाए कि भाजपा ने इस राज्य की सत्ता पाने के लिए 23 मार्च तक यहां राजनीतिक उठापटक जारी रखी हुई थी तो राजाज्ञा की अवहेलना मान ली जाएगी। 10 मार्च को ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस से अपने इस्तीफे और भाजपा में शामिल होने की घोषणा से पहले कमलनाथ सरकार के छह मंत्रियों सहित 22 विधायकों को कर्नाटक पहुंचा दिया गया। स्वास्थ्य मंत्री तुलसी राम सिलावट भी इसमें शामिल थे, तब यहां पर छह कोरोना मरीजों के संक्रमण की पुष्टि हो चुकी थी और 50 से अधिक लोग अलग-थलग यानी क्वारंटीन किए जा चुके थे। 21 मार्च को कमलनाथ ने इस्तीफा दिया, 22 मार्च को मोदी जी जनता कर्फ्यू का ऐलान करते हैं, 23 मार्च को शिवराज सिंह को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री घोषित किया जाता है। तब तक देश में लगभग 562 कोरोना से सक्रंमित मरीज पाए जा चुके थे और नौ लोगों की जान चुकी थी। इसके बाद 24 मार्च को बिना किसी पूर्व तैयारी के हमेशा की तरह रात आठ बजे प्रधानमंत्री घोषणा कर देते हैं कि रात 12 बजे से पूरे देश में लॉकडाउन शुरू हो जाएगा। अर्थात 130 करोड़ आबादी वाले देश की चलती हुई व्यवस्था को ठप्प होने के लिए महज चार घंटे का समय दिया गया। साधन सम्पन्न वर्ग साढ़े आठ बजे से ही अपने घरों में अतिरिक्त सामान भरने के लिए तेजी से दुकानों की भीड़ में शामिल हो गए, लेकिन एक बड़ी मेहनतकश आबादी के पास सिवाय अपनी बेबसी पर सोचने के अलावा कुछ भी नहीं था।

गाडिय़ां, बसें, रेलगाड़ी सभी वाहनों की आवाजाही बंद की जा चुकी थी। सरकार आपदा अधिनियम 2005 के तहत राष्ट्रीय आपदा की स्थिति में तत्काल निर्णय लेने की आधिकारी है। किंतु इसकी जो पूर्व तैयारी की जानी होती है वह किए बिना लिए जाने वाले ऐसे निर्णयों से जब देश के लाखों लोगों का जीवन महामारी से मरने से पहले भूख से मरने की नौबत आ जाए और नागरिकों की शारीरिक, मानसिक और आर्थिक क्षति हो तब निर्णय लेने वालों के विरूद्ध कानून में क्या उपचार हैं। यह सवाल अब गौण हो चुका है और इसकी जिम्मेदारी किसकी होगी यह तय करना तो यक्ष प्रश्न है।

जीवनयापन का भयावह संकट

सालों से अपने गांवों को छोड़कर शहरों में रोजगार की तलाश में पहुंचे हजारों मजदूरों, जिनकी मेहनत से ये चमचमाते शहर आबाद थे, के सामने तालाबंदी के कुछ ही घंटों में वायरस से भी कहीं अधिक भयावह संकट आ गया। ढाबे बंद हो गए तो खाने का संकट, कमाई नहीं थी तो घर का किराया देने का संकट, कोई बीमार है तो अस्पताल का संकट, घर वापस जाना है तो गाडिय़ों का संकट। इन सारे संकटों से उबरने का एकमात्र विकल्प था कि चाहे पैदल ही सही, किसी भी तरह वापस अपने गांव अपनों तक पहुंचा जाए, फिर वहां जो भी हो। लेकिन यहां फिर प्रश्न उठ गया कि क्या सरकारें जनता के हित में फैसले लेती हैं या फिर उनके अपने हित सर्वोपरि होते हैं।

हां, यही सच है कि भारत सरकार ने अपनी नाकामी और राजनीतिक महत्वाकांक्षा पर पर्दा डालने के लिए लाखों लोगों के जीवन को दांव पर लगा दिया। पहले से सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था में अचानक हुए इस लॉकडाउन से रातों-रात बड़ी संख्या में कामगारों को अपने काम से हाथ धोना पड़ गया। गांवों की ओर वापस जाने के अलावा इनके पास कोई ओर रास्ता भी नहीं बचा। लेकिन सरकार ने न केवल उनके वापस अपने घरों में जाने का अधिकार छीन लिया बल्कि भूखे-प्यासे इन मजदूरों के साथ अमानवीय व्यवहार की भी कितनी ही घटनाएं सामने आई और जो अभी तक आ रही हैं, कई जगह पर जब उनका सब्र टूट रहा है तो वह उग्र होने से भी परहेज नहीं कर पा रहे हैं। पूरे देश में अलग-अलग फंसे इन मजदूरों की मात्र एक मांग है वापस अपने घरों पर जाने की, जो कि एक मूल अधिकार है।

वास्तव में हमें इस बात को समझना होगा कि पूंजीपतियों की चाटुकार सरकारें कभी भी आम आदमी के हितों पर ध्यान दे ही नहीं सकती। देखिए, यह जानते हुए भी कि देश के भीतर लाखों मजदूर इस आपदा में सबसे अधिक प्रभावित होने वाले हैं, किसी भी राज्य या केंद्र सरकार ने कामगारों के हितों को सुरक्षित करने के लिए कोई रणनीति नहीं बनाई। बजाय इस पर कोई रणनीति बनाने के सरकार की प्राथमिकता क्या रही, विदेशों से आने और जाने वाले धनाढ्य लोगों को सुरक्षित उनके घरों तक पहुंचना। क्या इस सच्चाई पर किसी को बोलने की हिम्मत होगी कि देश में कोरोना संक्रमण के वाहक विदेश से आए अधिकांश हिंदू सम्पन्न और मध्य वर्ग के प्रवासी थे। लेकिन इसकी कीमत चुकानी पड़ी रही है गरीब और मेहनतकशों को, जो एक ही रात में सड़कों पर आ गए और जिनके लिए जाति और धर्म से ऊपर पेट की भूख है। और इसके बाद कितने और कितनी तरह के दृश्य आम होते चले गए जिनमें मजदूर भाग रहे हैं, न वे घरों में हैं,  न ही खेतों में, न कारखानों में न कहीं अन्य कार्यस्थलों में और न ही बस्तियों में। वे सिर्फ सड़कों पर हैं। किसी के कंधे में बच्चा है, पीठ पर झोला, ऊंगुली थामे दूसरा बच्चा, पीछे से एक बच्चे को गोद में लिए हुए सिर पर और हाथ पर सामान ढोती पत्नी है, तो कुछ झुंड में हैं, चप्पलों में पैर सूज गए हैं लेकिन चलना है। नहीं पता कितना, कितने दिन, कितनी रातें, बस चलना और किसी भी तरह अपने गांव पहुंच जाना है। बस चलना है, रुक गए तो मर जाएंगे। सड़कों पर भूखे-प्यासे, दौड़ते-भागते पुलिस के डंडों से पिटते जिंदा इंसान महान आजाद भारत में ब्रितानी हुकूमत के समय में फैल गए अकाल की तस्वीरों की याद दिला कर रही थी।

सड़कों पर चल पड़े इन हजारों कदमों में कामगारों की जीजीविषा ने बुरे दौर में ही सही कुछ भी कर गुजरने की वह ताकत सामने ला दी, जिसको कि 1848 में मार्क्स ने पहचाना था और कहा था-‘दुनिया के मजदूरो एक हो, तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है लेकिन पाने के लिए सारी दुनिया है।Ó संभवत: यही वह विश्वास रहा होगा जिसने इन मेहनतकश मजदूरों को सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा करने के लिए तैयार कर दिया था। ये मजदूर भारत के बड़े-बड़े शहरों के लिए अब उपयोगी नहीं रह गए मालूम पड़ते हैं। इस देश की पूरी व्यवस्था को अपने कंधों पर ढोए, खेतों, कारखानों और निर्माण इकाई में, लघु व बड़े उद्योगों में काम करने वाले कामगार, रिक्शा वाले, ठेलेवाले, गाड़ीवाले, माली, घरेलू और दुकान के नौकर, सफाईकर्मी तमाम वे लोग जो कि धनी व मध्य वर्ग के रोजमर्रा के जीवन का आसान बनाते रहे हैं। एक ही रात में अछूत बना दिए गए। इन जिंदा इंसानों की आखिरकार क्या गलती रही, सिर्फ यही न कि इनका श्रम बिकाऊ है और खरीदार ही नहीं होंगे तो अपने घरों की राह पकडऩे को मजबूर होना ही पड़ेगा। रोज कमाकर खाने वाले को अगर काम नहीं मिलेगा तो खाएगा क्या। घरों के भीतर सुरक्षित हो गए इस देश की भक्तिमय जनता ने इस अपार जन समूह की जिजीविषा की कल्पना भी नहीं की थी जो राजाज्ञा को धता बताकर चल रहे थे और चलते जा रहे थे।

सैकड़ों किलोमीटर चलने के बाद भी जब सारे कष्ट सहकर एक बड़ा हिस्सा अपने राज्यों की सीमाओं पर पहुंचा भी तो जो जहां पर थे उनको वहीं 14 दिन की क्वारंटीन की प्रक्रिया पूरी करने के नाम पर अधिकांश जगहों पर जानवरों की तरह ठूंस दिया गया, जहां पर रोते हुए बेबस स्त्री-पुरुषों के चेहरे किसी मासूम बच्चे से कम नहीं दिख रहे थे। पुलिस-प्रशासन को इन गरीबों के साथ जैसे चाहे वैसे बर्ताव करने की छूट है। कहीं पर ताले में बंद कर दिए गए, तो कहीं पर जमीन में बैठाकर पूरे समूह पर दवा छिड़काव किया गया, गोया कि इंसान न होकर कोई सामान हों। क्या जिस तरह का बर्ताव इन हजारों इंसानों के साथ किया जा रहा है, किसी एक भी धनाढ्य या सम्पन्न प्रवासी से करने का साहस कर सकते हैं पुलिस की वर्दी पहनने वाले? वास्तव में इस सामंती समाज में वर्ग और जाति ही तो वह दायरा है जो किसी भी व्यक्ति के साथ व्यवहार को तय करता है।

अपने जीवन की पूंजी को महज कुछ थैलों में समेटे, चलती-फिरती हजारों की संख्या का साहस जब सरकार की परेशानी का सबब बनने लगा तो सरकार के लिए किसी भी तरह इन अमानवीय तस्वीरों से जनता का ध्यान भटकाना आवश्यक हो गया। अब तक जहां देश में सांप्रदायिक वैमनस्य पर कोरोना वायरस प्रभावी होने लगा था और घरों के भीतर बंद देश का ध्यान मजूदरों की समस्या पर अटकने लगने था। और सरकार की तालाबंदी से पूर्व नाकाफी तैयारियों पर चौतरफा हमले होने लगे थे और उनके ‘ऐतिहासिकÓ फैसलों पर भी प्रश्न उठने लगे थे। तभी दिल्ली के निजामुद्दीन के मरकज में मिल गए तबलीगी जमात के सैकड़ों जमातियों ने सरकार के लिए संजीवनी का काम किया। और फिर आसानी से बेबस भूखे और अपने घरों को भेज देने की भीख मांगते मजदूरों की तस्वीरें नेपथ्य में जाने लगी और तबलीगी जमात यानी मुसलमान फिर निशाने पर आ गए। इस घटना पर जिस तरह से पुलिस-प्रशासन और दिल्ली सरकार ने अपना हाथ झाड़ लिया और सारा ठीकरा जमात वालों पर फोड़ दिया, उसका सच कभी देश के सामने नहीं आ पाएगा। क्योंकि देशभक्त मीडिया के कर्मठ संवादाताओं और सरकारी प्रयासों से आसानी से यह स्थापित हो चुका है कि भारत में कोरोना वायरस को फैलाने में तबलीगी जमात जिम्मेदार है। आज हिंदूवादी ताकतें सोशल मीडिया के माध्यम से आसानी से मुसलमानों को समाज से काट देने में सफल हो रही हैं। परिणामस्वरूप गरीब मेहनतकश मुसलमान दोहरी मार झेलने को मजबूर है। जबकि इस सच्चाई से लगातार ध्यान भटकाया जा रहा है कि वास्तव में मोदी-ट्रंप की जोड़ी इस महामारी को अपने देशों में फैलाने के लिए ज्यादा जिम्मेदार है। दुनिया में तेजी से फैलती इस महामारी के खतरे को समय रहते फैलने से रोकने के प्रयास करने के बजाय दोनों ही अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति में लगे रहे और इन दोनों दंभी राजनेताओं ने अंतत: अपने-अपने देश के नागरिकों को कोरोना संक्रमण और तालाबंदी में झोंक दिया।

मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश में कोरोना के प्राथमिक केस हिंदू और सम्पन्न लोग थे। उत्तराखण्ड में जो पहले तीन कोरोना संक्रमित मरीज मिले वे हिंदू आईएफएस अधिकारी थे, जो फ्रांस और स्पेन की यात्रा करके आए थे। उनकी दिल्ली एयरपोर्ट पर लापरवाह स्क्रीनिंग भी हुई थी फिर भी वे पॉजिटिव पाए गए। लेकिन मीडिया और सांप्रदायिक ताकतों के लिए यह कोई मुद्दा नहीं था बल्कि ये सब तो सहानुभूति के पात्र थे। हमें इस बात को नहीं भूलना होगा कि जनता का ध्यान भटकाने का प्रशिक्षण आज भारत की सत्ताधारी पार्टी के प्रमुख शासक अपने प्रचारक रहने के दौरान ले चुके हैं। चूंकि अब पूरा देश ही उनकी प्रयोगस्थली है तो भक्तिमय प्रजा अपने हितों के अनुसार अपने तरीके से राजाज्ञा का पालन करती है तो क्या बड़ी बात है।

‘ऐतिहासिकÓ चक्रवर्ती सम्राट द्वारा जब अपने मुखारबिंदु से लॉकडाउन की घोषणा की गई तो उनकी धनी और मध्यवर्गीय भक्तिमय प्रजा अभिभूत थी। हो भी क्यों न, घर में परिवार के साथ समय बिताने का अवसर जो मिला है, इस अवसर को भरपूर इन्जॉय तो किया ही जाना चाहिए। खाना पचाना हो तो पोज देकर जो योग और आयुष एप में नुस्खे सिखाए और बताए जा रहे हैं, उनका प्रयोग तो किया ही जाना चाहिए। सोचिए पूरा देश क्या विदेश भी चलाने वाला महज एक व्यक्ति, अपनी व्यस्तताओं के बावूजद अपनी प्रजा के लिए वह स्वयं योगा करते हों, हाथ जोड़ते हों, सोशल डिस्टेंन्सिंग की बात करते हों, क्या सबके बस की बात है यह? हिंदू धर्म के विचारों को आज देश में दृढ़ किए जाने की जरूरत आ पड़ी है, इसीलिए परिवार सहित बैठकर रामायण और महाभारत देखने की सुविधा कर दी गई है। राजाज्ञा का किसी भी हालत में पालन होना जरूरी है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि गरीब, मजलूम और उपेक्षित लोग रोजी-रोटी के लिए सड़क पर भटक रहे हैं। आखिर देश के लोगों को बचाने के लिए कुछ लोगों को अपना या अपने परिवार का बलिदान देना भी पड़े तो देना ही चाहिए न? वैसे भी गरीब मजदूरों के लिए कोई संबोधन होता है क्या? हमेशा उनसे हाथ जोड़ कर मांगा ही गया है, उनको देने की बात कभी किसी ने सुनी है क्या? कभी यह कहते सुना है कि एक गरीब परिवार अपने बच्चों का पेट कैसे भरेगा?

रेडियो, टेलीविजन, सोशल मीडिया पर कितने ही सुझाव, बहस, उपदेश और भाषण, घर पर सुरक्षित समय बिताने के अनगिनत टिप्स, इंडिया के धनी और मध्य वर्ग के लिए हमेशा उपलब्ध हैं, किंतु इस देश को चलाने वाले निम्न और गरीब वर्ग, जिसके लिए बंदी के इस दौर में अपनी जिंदगी का एक दिन चलाना मुश्किल है, उनके लिए क्या किया जाना चाहिए, बोलने वाले, सोचने वाले कितने हैं? देश की पूरी व्यवस्था को चलाने वाले मजदूर, खेतिहर मजदूर, कूड़ा बीनने वाले जो कि एक ही मास्क और दस्तानों में न जाने कितने दिन, कितने घरों की गंदगी उठाने के लिए मजबूर हैं और दिहाड़ी मजदूर की सुरक्षा के लिए कोई टिप्स या सुझाव के बजाय उनको कोरोना फैलाने वाला मानकर दुत्कारा जा रहा है। एक प्रसिद्ध शोधार्थी के शोध पत्र में इसका सटीक चित्रण दिखता है कि गरीबी और बीमारी की तुलना एक ऐसे दुष्चक्र में फंस गई है जो एक-दूसरे को बढ़ावा देते हैं। सम्पन्न भारत को विपन्न भारत की जमात केवल नौकर के रूप में जान पड़ती है। सम्पन्न भारत विपन्न भारत को निर्णय सुना देता है। यदि कोई छूत की बीमारी लगी होती तो इस वर्ग के कान में जूं तक नहीं रेंगती क्योंकि गरीबों के मरने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।

गरीबों को राशन उपलब्धता की हकीकत

ऐसा नहीं है कि देश में अनाज की कमी है और सरकार भी इस बात की दुहाई दे रही है लेकिन इस व्यापक गरीब आबादी की भूख को कैसे शांत किया जाए और उनको किसी भी तरह दो वक्त की रोटी मिले इसकी रणनीति बनाने पर लंबे लॉकडाउन के दौरान भी नहीं सोचा गया है। सच कहें तो आज इस देश के करोड़ों लोगों के लिए कोरोना वायरस से अधिक खौफनाक पेट की भूख है। गरीबों को मुफ्त राशन देने की बातें हो रही हैं। गरीब महिलाओं के जन-धन खातों में आए महज 500 रुपए निकालने के लिए उन्हें कितनी ही मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। पति या बेटा परदेश में रो रहा है पत्नी, मां और परिवार गांव में रोने को छोड़ दिया गया हैं। सरकारी राशन देने के मापदंड भी गैरबराबरी पर आधारित हैं। कितनी ही जगहों पर राशन और खाने की कतारों में लगे गरीब लोगों को अमानवीय तरीके से दुत्कारते और लाठी भांजते पुलिस के सिपाही अपनी भड़ास निकालते दिख रहे हैं। सामाजिक और कई अन्य संस्थाएं, व्यक्तिगत तौर पर भी कईं लोग खाना आदि देने के लिए आगे आए हैं। इनमें से कुछ ईमानदार और मानवीय प्रयासों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश तो सोशल मीडिया पर वाह-वाही बटोरने के लिए भी यह कार्य कर रहे हैं या फिर राजनीतिक हितों के लिए कर रहे हैं। लेकिन हम सभी को यह भी याद रखना होगा कि वे कोई भी एहसान नहीं कर रहा है, बल्कि इन्हीं मेहनतकशों के श्रम पर यह व्यवस्था टिकी है जिसमें हम ऐश कर रहे हैं। और कितनों ने इनके पेटों पर लात मार कर अपनी सम्पन्नता की सीढिय़ा चढ़ी हैं। वास्तव में तो यह सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह देश के प्रत्येक नागरिक की जीवनापयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति करे।

देश के विभिन्न शहरों में, कस्बों में, कैंपों में या खुले में, पुल के नीचे या सड़क के किनारे कहीं भी तालाबंदी खुलने का इंतजार कर रहे मजदूर, विशेषकर गुजरात, दिल्ली, मुंबई में फंस गये इन लोगों के हालात दिन-प्रतिदिन बदतर होते जा रहे हैं। भले ही कुछ समय के लिए कुछ लोगों को राशन और खाना आधा पेट ही सही मिल भी पा रहा है तो भी यह लंबे समय तक नहीं चल पाएगा। अभी ही कईं जगहों से खबरे आ रही हैं कि कितने ही लोग भूख के कारण परेशान हैं। अब सिर्फ एक वक्त का खाना पाने के लिए घंटों लाइन में लगे गरीब लोग कब तक अपने आक्रोश को दबाएंगे, वह निश्चित ही किसी न किसी रूप में फूटेगा यह तय है। गर्मी बढऩे के साथ ही कईं अन्य समस्याएं सामने आने लगेंगी। पानी और अन्य जरूरी दिनचर्या के अभाव में कोरोना वायरस के इतर बीमारियों का खतरा बढ़ सकता है। कोई भी महामारी जब लंबे समय तक और व्यापक पैमाने में फैलने लगती है तो इसका आसान निशाना अंतत: तो गरीब आदमी ही बनता है।

भारत जैसे वृहद गरीब आबादी वाले देश की सच्चाई यह है कि यहां पर कोरोना वायरस से बड़ा खतरा भूख और समय पर ईलाज न मिलने का है। इस तालाबंदी के दौरान समय से ईलाज न मिलने से कितनी मौतें होंगी, यह आंकड़े कहीं दर्ज नहीं किए जा सकेंगे। उसके साथ ही यह भी कि विभिन्न प्रकार के मानसिक दबाव से उत्पन्न अवसाद जो आत्महत्याएं होनी शुरू हो गई हैं उस समस्या पर गौर ही नहीं किया जा रहा है। रोजगारशुदा या बेरोजगार पुरुषों के घर बैठ जाने और विशेष कर आर्थिक अभाव झेलने वाले परिवारों की महिलाओं का जो शारीरिक और मानसिक बोझ तेजी से बढ़ है, उसको भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आकंड़े बता रहे हैं कि इधर के दिनों में महिलाओं के साथ होने वाली घरेलू हिंसा की घटनाएं अन्य प्रकार की महिला हिंसा के बरक्स तेजी से बढ़ रही हैं।

अंतिम बात, ‘सोशल डिस्टेन्सिंग की, कोरोना वायरस के फैल जाने से जैसे विशेषज्ञों की बाढ़ सी आ गई है। पहला दूसरे से बेहतर ‘सोशल डिस्टेन्सिंग को व्याख्यायित करता है, तो दूसरा तीसरे से स्वयं को ‘डिस्टेन्सिंग की बेहतर समझ रखने वाला विद्वान मानता है। जितनी तेजी से समाज में ‘सोशल डिस्टेन्सिंग की व्याख्या हो रही है, सामाजिक दूरी ‘रामबाढ़ है और ‘लक्ष्मण रेखा को न लांघना, कोरोना वायरस से बचने के औजार के रूप में जितनी सहजता से इस्तेमाल किए जाने लगे हैं यह भविष्य के भारत के लिए निश्चित ही चिंताजनक है। पहले से ही जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्रीयता और राष्ट्रीयताओं तथा सांस्कृतिक एवं लैंगिक विभेद में बंटे भारतीय समाज में जहां पर कि मालिक और नौकर, सवर्ण और दलित, बहुसंख्यक व अल्पसंख्यक, देव और दासी के आधार पर सामाज का आचार-व्यवहार संचालित होता है, वहां आने वाले दिनों में आम जनमानस में कितनी संकीर्णता घर कर जाएगी इसका महज अंदाजा ही लगाया जा सकता है। एक तरह से देखें तो ‘शारीरिक दूरी यानी ‘फिजिकल डिस्टेन्सिंगÓ शब्द तो समझ भी आता है लेकिन यदि हम सामाजिक दूरी, जिसका शाब्दिक अर्थ हुआ ‘एक समाज की दूसरे समाज से दूरी को मान लिया जाय तो यह मानसिकता कोरोना वायरस के संक्रमण के खतरे के टल जाने के बाद, यदि यह मान भी लें कि यह 40 दिन से अधिक नहीं होगा, तो भी दिलों के बीच में बन आई दूरियों को करीब आने में जाने कितने वर्षो लगेंगे।

 

मई 2020

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कोरोना वायरसः बीमारी का सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ https://www.samayantar.com/%e0%a4%95%e0%a5%8b%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%a8%e0%a4%be-%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%b0%e0%a4%b8%e0%a4%83-%e0%a4%ac%e0%a5%80%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%b8/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%95%e0%a5%8b%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%a8%e0%a4%be-%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%b0%e0%a4%b8%e0%a4%83-%e0%a4%ac%e0%a5%80%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%b8/#respond Tue, 14 Apr 2020 01:01:53 +0000 https://www.samayantar.com/?p=224 दुनिया के सामने स्पष्ट हो चुका है कि कोरोना वायरस से पहले की दुनिया, कोरोना वायरस के बाद की दुनिया में , बहुत फर्क आ चुका है। कोरोना का डर दिखा कर जिस तरह से पूरी दुनिया में तानाशाही की रिहर्सल हो रही है यह लंबे समय तक इस तरह नहीं टिक पाएगी। कोरोना के नाम पर साम्राज्यवाद अपना आर्थिक संकट टाल नहीं पाएगा।

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रंजोत

 

दुनिया के सामने स्पष्ट हो चुका है कि कोरोना वायरस से पहले की दुनिया, कोरोना वायरस के बाद की दुनिया में , बहुत फर्क चुका है। कोरोना का डर दिखा कर जिस तरह से पूरी दुनिया में तानाशाही की रिहर्सल हो रही है यह लंबे समय तक इस तरह नहीं टिक पाएगी। कोरोना के नाम पर साम्राज्यवाद अपना आर्थिक संकट टाल नहीं पाएगा।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार चीन में पहला नोवेल कोरोना (कोविड-19) केस आठ दिसंबर, 2019 को हुबेई प्रांत के वुहान शहर में दर्ज किया गया। लेकिन चीन के एक जानेमाने दैनिक के अनुसार देश में पहला मामला (पेशेंट जीरो) 17 नवंबर को सामने आया था। दिसंबर से पहले वुहान के जीनयीनतान अस्पताल में कुछ रोगियों के इलाज के दौरान इस संक्रमण का पता लगा था। इस बात की पुष्टि चिकित्सा विज्ञान की पत्रिका लासेंट 1 ने भी की है। लेकिन चीन और अमेरिका दोनों ही एक दूसरे पर कोरोना वायरस (विषाणु) को इजाद करने का आरोप लगाते रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इसे ‘वुहान वायरस’ या ‘चीनी वायरस’ कह रहे हैं, वहीं चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजियन ने बयान जारी किया था कि अमेरिकी सेना द्वारा वुहान में वायरस लाया गया है।

अब कोरोना किसने फैलाया और किसने इजाद किया और क्यों किया या यह प्राकृतिक रूप से मौजूद था या कृत्रिम रूप से तैयार किया गया, और क्या यह जैविक हथियार के रूप में पैदा किया गया, इस पर इतना जल्दी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता। इसके बारे में दुनिया के सामने सच्चाई आने में बहुत लंबा समय लगेगा और बहुत बार ऐसी सच्चाई कभी सामने आती ही नहीं है। इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि साम्राज्यवाद अपने मुनाफे के लिए ऐसा कर सकता है। इसके साक्ष्य इतिहास में दर्ज हैं और अपने आर्थिक संकट से उबरने के लिए, राजनीतिक रूप से अपनी सत्ता को स्थिर बनाए रखने के लिए मरणासन्न पूंजीवाद किसी भी हद तक जा सकता है।

दुनिया के सामने यह स्पष्ट हो चुका है कि कोरोना वायरस से पहले की दुनिया और कोरोना वायरस के बाद की दुनिया में बहुत फर्क आ चुका है। कोरोना का डर दिखा कर जिस तरह से पूरी दुनिया में तानाशाही की रिहर्सल हो रही है यह लंबे समय तक इस तरह नहीं टिक पाएगी। कोरोना के नाम पर साम्राज्यवाद अपना आर्थिक संकट नहीं टाल पाएगा। अवश्य ही कोरोना के बाद दुनिया अभूतपूर्व महामंदी का सामना करेगी और महामंदी या तो फासीवाद पैदा करेगी या फिर क्रांतियां।

इस लेख में कोरोना के कालक्रम को समझने की कोशिश करेंगे और मजदूर वर्ग या उसकी मुक्ति के लिए कार्यरत संगठनों, पार्टियों, कार्यकर्ताओं की क्या जिम्मेदारियां बनती हैं, इस पर चर्चा करेंगे। क्योंकि विडंबना यह है कि क्रांतिकारी होने का दंभ भरने वाले लोग भी ‘स्टे होम’ (घर में रहें) का नारा लगा रहे हैं और यह भूल रहे हैं कि जनता की सेवा करते हुए जो मौत आती है वह हिमालय से भी भारी और कायरों की तरह दुबक कर जो मौत आती है वह पंख से भी हल्की होती है।

 

कोरोना वायरस क्या है?

विज्ञान की भाषा में नोवेल कोरोना विषाणुओं (वायरसों) का एक समूह है जो स्तनधारी (मैमल्स) प्राणियों और पक्षियों में पाया जाता है। इस विषाणु के कारण श्वास तंत्र (रेस्पेरेटरी सिस्टम) में संक्रमण (इंफेक्शन) पैदा हो सकता है जिसमें हल्की सर्दी-जुकाम से लेकर मौत तक हो जाती है। यह उन लोगों को अधिक निशाना बनाता है जिनमें पहले से ही फेफड़े संबंधी रोग होते हैं या किडनी या दिल की बिमारियां होती हैं। अभी तक के शोधों के मुताबिक मरने वालों में अधिक संख्या 60 साल से ऊपर के बुजुर्गों की होती है।

चीन के वुहान शहर के डॉक्टर जब दिसंबर 2019 में कुछ मरीजों का इलाज कर रहे थे तब उनको यह नया वायरस समझ में आया। कोरोना वायरस पहले भी होता था लेकिन यह उससे भिन्न था, इसलिए इसका नाम नोवेल  (नया) कोरोना वायरस या कोविड-एन19 पड़ा। लैटिन भाषा में ‘कोरोना’ का मतलब ‘क्राउन’ यानी ताज होता है और इस वायरस की आकृति ताज पर उगे कांटों जैसी थी इसलिए इसको कोरोना कहा गया। किसी भी तरह के विषाणुओं से लड़ने के लिए शरीर की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यून सिस्टम) ही काम आती है। इसलिए इस वायरस का इलाज रोग के लक्षणों के आधार पर किया जाता है, ताकि रोगी की प्रतिरक्षा प्रणाली मजबूत रहे। इसके अलावा विषाणुजनित रोग जैसे स्वाइन फ्लू, सार्स-दो, इंफ्लुएंजा, एचआईवी और मलेरिया रोग में दी जाने वाली दवाएं भी इस विषाणु के मरीजों पर असरकारी

रही हैं। सबसे बड़ा खौफ इस बात का फैलाया जा रहा है कि इसकी कोई दवाई नहीं है। यह बात आधी सच है। क्योंकि दुनिया में अब तक (इस लेख के प्रकाशित होने तक) इस विषाणु से 185 देशों में 18 लाख 28 हजार से ज्यादा लोग ग्रसित हुए हैं जिसमें से चार लाख से ज्यादा लोग ठीक हो चुके हैं और एक लाख 13 हजार से ज्यादा की मौत हुई है। भारत में 9191 लोग इसके शिकार हैं, वहीं 600 से ज्यादा लोग ठीक हुए हैं और 326  की मृत्यु हुई है। अगर दवा नहीं होती तो इतने लोग ठीक नहीं होते। इस बीमारी में कई दवाएं काम कर रही हैं। पर यह बात भी ठीक है कि इसका वैक्सिन (टीका) नहीं है। लेकिन प्रचार इस तरह से किया जा रहा है कि इसकी दवा नहीं है।

 

दवा और टीके (वैक्सिन) का अंतर ?

बड़े पैमाने पर वैक्सिन का इस्तेमाल 16वीं सदी के दौरान चीन में दिखाई देता है। इसके बाद 1796 में ब्रिटिश डॉक्टर एडवर्ड जेनेर ने छोटी माता का टीका तैयार किया था जो सर्वाधिक प्रचलित हुआ। शरीर के अंदर रोग प्रतिरक्षा प्रणाली होती है। अगर हमारे शरीर में कोई हानिकारिक विषाणु या किटाणु (बेक्टरिया) प्रवेश कर जाता है तो शरीर अपने आप उसके विरुद्ध रोग प्रतिरोध क्षमता उत्पन्न कर लेता है और हानिकारक विषाणु या किटाणु को नष्ट कर देता है। लेकिन शरीर को नए विषाणु या जीवाणु के विरोध में अपने अंदर प्रतिरोध क्षमता विकसित करने में कई दिन लग जाते हैं, अगर रोगी की उस दौरान मृत्यु न हो तो प्रतिरक्षा प्रणाली और विकसित हो जाती है। यह निर्भर करता है रोगी की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली यानी उसके ‘इम्यून सिस्टम’ पर। इसलिए कोई भी दवाई किसी बीमारी का इलाज नहीं करती बल्कि वह शरीर की रोग प्रतिरोध क्षमता बढ़ाने, बनाए रखने में शरीर की मदद करती है। रोग को शरीर अपने आप नष्ट करता है। इसके विपरित टीके का मुख्य कार्य रोग पैदा होने से पहले ही वैक्सिन देकर उसको खत्म कर देना होता है। टीके का निर्माण इस आधार पर किया गया था कि बहुत सारे रोग ऐसे होते हैं जो एक बार होकर फिर बहुत समय बाद होते हैं, जैसे कुछ रोग बचपन में हो जाएं तो वे आगे चल कर जवानी में नहीं होते हैं। वैज्ञानिकों ने खोज लिया कि यह शरीर के अंदर विषाणु या किटाणुओं के खिलाफ पैदा हुई रोग प्रतिरोध क्षमता का नतीजा है और इस आधार पर पहले ही शरीर के अंदर वे मृत विषाणु, कीटाणु प्रवेश करवा दिए जाते हैं जिससे वह रोग पैदा ही न हो।

दवाई का कार्य तात्कालिक होता है, मुख्य रूप से शरीर की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूती देने के लिए बाहर से दिए जाने वाले सहारा के रूप में है। इसके विपरीत वैक्सिन लंबी अवधि तक कार्य करती है, बीमारी होने ही नहीं देती। इसलिए हमें दवा और वैक्सिन का अर्थ पता होना चाहिए। दवा लक्षणों के आधार पर मरीज का इलाज करती है और दवा से भी कोरोना का मरीज बच सकता है। यह जरूरी नहीं है कि जब वैक्सिन आएगी तभी रोगी का इलाज होगा। बिना वैक्सिन के भी कोरोना के मरीज ठीक हो रहे हैं। कोरोना के मरीज दवा या उनकी खुद की रोग प्रतिरोध क्षमता, पौष्टिक आहार, अंडा, दूध, पनीर आदि के बल पर ठीक हो रहे हैं। साठ के पार जिन रोगियों की रोग प्रतिरोध क्षमता कमजोर होती है, जिनमें पहले से कोई लंबी बीमारी होती है वे इसका शिकार आसानी से हो रहे हैं।

चेचक की रोकथाम के लिए बचपन में ही चेचक की वैक्सिन लगा दी जाती है। इस वैक्सिन के अंदर चेचक के मरे हुए विषाणु होते हैं। उसे बच्चे के शरीर में टीके के तौर पर प्रवेश करवा दिया जाता है। शरीर में जब चेचक के मरे हुए कीटाणु पहुंचते हैं तो शरीर कुछ दिनों में उनके खिलाफ रोग प्रतिरोध क्षमता विकसित कर लेता है। वह उन कीटाणुओं के असर को समाप्त कर देता है। अगर जिंदा कीटाणु प्रवेश करवाए जाएं तो व्यक्ति रोगी हो जाता है फिर रोगी के शरीर को उनके खिलाफ लड़ने के लिए रोग प्रतिरोध क्षमता विकसित करने में अधिक समय लग जाता है। अगर वैक्सिन के रूप में दे दी जाए तो शरीर यह क्षमता पहले ही विकसित कर लेता है। वैक्सिन नाक के जरिए बूंद के रूप में या टीके के रूप में शरीर में प्रवेश करवाई जाती है।

 

कोरोना साम्राज्यवाद को उसकी महामंदी से नहीं निकाल पाएगा

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ के आर्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग (डीइएसए)2 द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि कोविड-19 के विस्तार ने वैश्विक आपूर्ति व्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय व्यापार को नुकसान पहुंचाया है। सौ देश अपनी सीमाएं बंद कर चुके हैं। लोगों की आवाजाही और पर्यटन बुरी तरह से प्रभावित हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था 2020 में 0.9 प्रतिशत पर सिमट सकती है। फिलहाल दुनिया की विकास दर 2.5 प्रतिशत है। यह 2009 की वैश्विक मंदी से भी खतरनाक स्थिती होगी जब दुनिया की विकास दर 1.7 प्रतिशत पर सिमट गई थी। रिपोर्ट का कहना है कि – इन देशों के लाखों मजदूरों के अंदर अपनी नौकरी खोने का डर देखा जा रहा है। सरकारें अर्थव्यवस्था को ठीक करने के लिए बड़े प्रोत्साहन तरीकों पर विचार कर रही हैं और सहायता के ये कार्यक्रम (रोलआउट पैकेज) वैश्विक अर्थव्यस्था को संभावित गहरी मंदी में डूबो सकते हैं।

दुनियाभर के साम्राज्यवादी देश, खासकर अमेरिका 2008 के बाद से ही लगातार आर्थिक मंदी से घिरा हुआ है। चीनी सामाजिक साम्राज्यवाद अफ्रीका, एशिया के छोटे-छोटे देशों की अथाह प्राकृतिक संपदा का दोहन कर और अपने देश की सस्ती श्रम शक्ति को निचोड़ कर उभर कर सामने आ रहा है। योरोपीय संघ टूट रहा है और उनके अंतरविरोध भी तेज हो रहे हैं। खास बात यह देखने को मिल रही है कि दुनिया के बाजार पर कब्जा जमाने के लिए आपा-धापी मची हुई है। अमेरिका ने ईरान, इराक, अफगानिस्तान, सीरिया, लैटिन अमेरिका आदि देशों को नर्क बना दिया है। चीन अफ्रीकी देशों को अपने कर्ज और सहायता के जाल में फंसा रहा है। अमेरिका और चीन के बीच लगातार स्थिति व्यापार युद्ध जारी है। इसका मुख्य मकसद दुनिया के बाजारों पर अपनी-अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करना है।

दुनिया की आर्थिक मंदी के चलते लगातार नौकरियों में कटौती होती जा रही है। बड़े पैमाने पर बेरोजगारी फैल रही है। सरकारें नए-नए टैक्स लगा रही हैं और नागरिक सुविधाओं में कटौती कर रही हैं। अमेरिका, चीन जैसे देश अपनी मंदी से उबरने के लिए नए-नए बाजार तलाश रहे हैं जिसके चलते विकासशील देशों में तीव्र आर्थिक संकट पैदा हो रहा है। भारत के सार्वजनिक उद्योग धंधे बुरी तरह से तबाह हुए हैं। बैंकिंग सेक्टर जिस तरह से डूब रहा है इसका असर अर्थव्यवस्था पर गहरा पड़ने वाला है। पिछले साल बैंकों का बट्टाखाता यानी

डूबा हुआ पैसा (एनपीए या नान परफार्मिंग एसेट्टस) रु 8,06,412 करोड़ था जिसमें लगातार बढ़ोतरी देखी जा रही है। इतना ही नहीं, बैंकों की संख्या विलय के बाद चार रह गई है। इसका मतलब है कि ये सभी मिलाए गए  बैंक डूब चुके थे। सरकार लीपापोती कर उनको बनाए रखे हुए है।

इस सबका बड़ा कारण यह है कि देश की बड़ी-बड़ी कंपनियों और पूंजीपतियों ने बैंकों से जो उधार लिया है उसको चुकता नहीं कर रहे हैं। देश में बढ़ी बेरोजगारी और कृषि में जारी संकट के चलते मांग नहीं बढ़ रही है और कंपनियां लगातार अपना उत्पादन घटा रही हैं। उत्पादन घटने से मजदूर बेरोजगार हो रहे हैं। बेरोजगार मजदूर, किसान, नौजवान क्या करेंगे। यह सरकार को भी पता है और उनके आकाओं को भी है। देश के कृषि, विनिर्माण क्षेत्र, यातायात, रियल इस्टेट, मोटर-गाड़ी उद्योग, बैंकिंग क्षेत्र आदि लगातार पिछड़ते जा रहे हैं।

 

बढ़ता असंतोष

पूरी दुनिया में आर्थिक संकट के चलते लगातार मजदूर, किसान, नौजवान और छात्र अपने-अपने देशों की सरकारों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। पिछले साल से यह सिलसिला लगातार जारी रहा। सबसे ज्यादा खतरे की घंटी चीन के लिए तब बजी जब हांगकांग में लोग अपनी स्वायत्तता को लेकर प्रदर्शन पर प्रदर्शन कर रहे थे। उनको रोकने में चीन की साम्राज्यवादी सरकार नाकाम हो रही थी। इसी तरफ फ्रांस, अल्जीरिया, लैटिन अमेरिका, सीरिया, ईरान, इराक, तुर्की हर जगह लोग अपने देशों की सरकारों के खिलाफ लड़े। भारत में दशकों बाद राष्ट्रव्यापी आंदोलन देखा गया। एनपीआर, एनआरसी और सीएए जैसे कानूनों के खिलाफ पूरा देश एकजुट होकर सरकार के खिलाफ विद्रोह कर उठा था। इस विद्रोह को कुचलने के लिए दक्षिणपंथी सरकार द्वारा किया गया दमन, छात्रों पर किए गए हमले और मुस्लिम बस्तियों पर किए गए हमले भी काम नहीं आए। लोग रुक नहीं रहे थे। अमेरिका में भी लगातार ट्रंप की लोकप्रियता घट रही थी। अफगानिस्तान में तालिबान के साथ समझौता नहीं हो पा रहा था, नतीजतन वह अपने सैनिकों को नहीं निकाल पा रहा था। वहीं चीन के साथ ट्रंप द्वारा छेड़ा गया व्यापार युद्ध अमेरिका के लिए घाटे का सौदा साबित होता जा रहा था। व्यापार युद्ध के चलते चीन की अर्थव्यवस्था पिछले तीस सालों में सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। वहां की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की दर महज 6.1 प्रतिशत रह गई है। ऑक्सफोर्ड इकनॉमिक्स  के मुख्य अर्थशास्त्री लाउस कूजिस कहते हैं कि 2019 में अमेरिका के साथ व्यापार युद्ध के चलते चीन की विकास दर उल्लेखनीय रूप से प्रभावित हुई है, उसका निर्यात घट गया है और  कमजोर भी हो रहा है। साथ ही विनिर्माण क्षेत्र में निवेश घटा है।3

 

कोरोना के बाद की दुनिया

यह कोरोना से पहले का घटनाक्रम है। दुनिया भर में की सरकारें अपनी जनता से डरी हुई थीं। उन की लोकप्रियता गिरती जा रही थी। खासकर चीन, भारत, अमेरिका आदि देश लोगों की आकाक्षाओं को दबाने के लिए फासीवादी हथकंडे अपना रहे थे। कोरोना ने काले कानूनों को लागू और लोकतांत्रिक मूल्यों को समाप्त करके  सरकार के विरोध में कुछ भी बोलनेवालों को कुचलने के रास्ते खुल गए हैं। एक तरह से देखा जाए तो कोरोना फासीवाद को मजबूत करने के लिए साम्राज्यवादियों और देश के शासक वर्गों के हाथ में एक मजबूत हथियार बनकर सामने आ रहा है।

बीबीसी संवादाता रेहान फजल ने अपनी रिपोर्ट4 में जिक्र किया है कि इसके बाद शायद कुछ देश उतने लोकतांत्रिक नहीं रहेंगे जितने वे मार्च 2020 से पहले हुआ करते थे।  उनका इशारा इस बात की तरफ है कि दुनिया भर की सरकारें जिस तरह से अंधाधुंध घोषणाएं कर रही हैं, प्रतिबंध लगा रही हैं, पुलिस और फौज को खुली छूट दे रही हैं, पुलिस-फौज बेकसूर लोगों को मार-पीट रही है, एक तरह से नागरिक प्रशासन की जगह पुलिस और फौज ने ले ली है। शायद यह आने वाले समय में स्थाई हो जाए। लोगों को इस बात का एहसास करवाया जा रहा है कि यह सब आपकी सुरक्षा के लिए जरूरी है।

 

भारत में मुंह मांगी मुराद

भारत में जब प्रधानमंत्री द्वारा लॉकडाउन और कर्फ्यू की घोषणा की गई तो ऐसा लग रहा था जैसे देश की सरकार की मुंह मांगी मुराद पूरी हो गई हो। जिस राजनीतिक आक्रोश को, संघर्ष को वह कुचल नहीं पा रही थी, देशव्यापी विरोध प्रदर्शनों की नई रीत से जैसी वह डरी हुई थी, उसको कोरोना के संकट ने एक झटके में बदल दिया। पैदल घरों की तरफ लौट रहे मजदूरों को दवा, पानी, राशन देने की बजाए उन पर पुलिस को खुले सांडों की तरह छोड़ दिया गया जैसे कि मजदूर ही इस बीमारी का मुख्य कारण हों। इसके बाद तबलीगी जमात के तौर पर शासक वर्गीय सत्ताधारी पार्टी को अपना मनपसंद दुश्मन भी मिल ही गया।

ऐसा लगता है जैसे नाक के नीचे दिल्ली में जमावड़ा बनाए रखना और कर्फ्यू के चरम पर उनका दिल्ली से निकल कर पूरे देश में फैलाना, किसी साजिश का हिस्सा रहा हो। इसके बाद दक्षिणपंथी पार्टी द्वारा उनको मुख्य दुश्मन के तौर पर प्रचारित करना, पूरे सोशल मिडिया पर छाया रहा। बीबीसी अपनी रिपोर्ट में कहती है मानवाधिकारों पर पाबंदी से लोकतंत्र कमजोर हुए हैं।“कोरोना वायरस के आने से कहीं पहले दुनिया के कई देशों में लोकतंत्र की जड़ें कम हो रही थीं। प्रजातांत्रिक मूल्यों के लिए काम करने वाली संस्था ‘फ्रीडम हाउस’ की बात मानी जाए तो पिछले साल 64 देशों में लोकतांत्रिक मूल्य पहले की तुलना में कम हुए हैं। ‘‘ जब दुनिया के बहुत से देश इस महामारी से निपटने के लिए असाधारण कदम उठा रहे हैं, तानाशाह और प्रजातांत्रिक-दोनों तरह के देशों में मानवाधिकारों को बड़े स्तर पर संकुचित किया जा रहा है। व्यापार को बंद करना, सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग)को लागू करने पर जोर देना, लोगों को सड़क से दूर रखने और उनके जमा होने पर रोक और कर्फ्यू लगाने जैसे कदम इस बीमारी को रोकने के लिए बेशक जरूरी कदम हैं लेकिन इस बात के भी गंभीर खतरे हैं कि इससे तानाशाही की नई लहर को भी बढ़ावा मिल सकता है।”

ये आशंकाएं नजरंदाज नहीं की जा सकतीं। खासकर भारत में जहां सत्ताधारी पार्टी के सांसद खुल कर घोषणा करते हैं कि 2025 के बाद चुनावों की जरूरत नहीं होगी। सोशल मीडिया पर यह संदेश भी प्रचारित हो रहे हैं कि देश के प्रधानमंत्री का विरोध करना देश का विरोध करना है, या देशद्रोह है। एक संदेश फैल रहा है कि जिस प्रकार चीन और उत्तर कोरिया जैसे देशों में आजीवन प्रधानमंत्री होते हैं, भारत में भी ऐसा ही होना चाहिए। प्रधानमंत्री की गैर वैज्ञानिक नौटंकी को एक तबके का पूरा समर्थन मिल रहा है। यानी भारतीय फासीवाद अपने साथ एक तबके को लगाने में कामयाब होता जा रहा है। सोशल मीडिया और जमीनी स्तर पर ऐसी फौज तैयार हो रही है जो कि सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ कुछ नहीं सुनना चाहती। जिन राज्यों में सत्ताधारी पार्टी की सरकारें हैं वहां पर खासतौर से आपतकालीन कानूनों को अपनी पकड़ मजबूत करने, अपने मनपसंदीदा दुश्मन को निशाना बनाने, लोकतांत्रिक, क्रांतिकारी संघर्षों को कुचलने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।

 

गुनाह पासपोर्ट का था, दरबदर राशनकार्ड हो गए

कोरोना को देश में लाने के लिए मुख्य रूप से वह तबका जिम्मेदार है जो विदेशों में अपने ऐशो-आराम, कारोबार तथा काम-धंधों के लिए आना-जाना करता है। सबसे पहले देश में कोरोना का मरीज जो पाया गया वह केरल में था। वह विदेश से आई युवती थी। गायिका अभिनेत्री कनिका कपूर ने भी इस मामले में खूब वाही-वाही लूटी।

इसके बाद विदेश से लौटकर आने वालों की बाकी भीड़ ने इस भारी तबाही को जन्म दिया। लेकिन इसका सबसे अधिक खामियाजा मजदूर तबके को भुगतना पड़ रहा है। यह वही मजदूर तबका है जो कि केरल से लेकर कन्याकुमारी तक, रेगिस्तान से लेकर समुद्र तट तक, हड्डियां जमा देने वाली रोहतांग, लेह-लद्दाख की बर्फ तक की परवाह न करते हुए बड़ी ढांचा निर्माण परियोजनाओं से लेकर फैक्ट्रियों तक में कार्य कर रहा है। इसने आठ-आठ लेन की सड़कें बनाई हैं, पहाड़ों का सीना चीर रेल लाइने बिछाई हैं, सूरंगें खोदी हैं, गगनचूंबी इमारतें बनाई हैं। यह वही वर्ग है जो देश की अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करता है। लेकिन इस गरीब लाचार मजदूर तबके के खिलाफ शासक वर्ग के साथ मिलकर मध्य व उच्च मध्य वर्ग के बड़े हिस्से और गोदी मीडिया ने जो आरोप लगाया, उनको दोषी ठहराया, उनको गालियां दीं, वह देश के इतिहास में काले धब्बे के तौर पर अंकित रहेगा। सारा दोष उस गरीब तबके पर मढ़ा जा रहा है जो इस रोग से बहुत दूर था। जो दो वक्त की रोटी के लिए पूरे देश में दरबदर ठोकर खाने पर मजबूर है। हजारों-लाखों लोग देश में सैकड़ों किलोमीटर का सफर तय कर, चोरों की तरह छिपकर अपने घरों को जाने के लिए मजबूर हुए।

बीमारी चाहे विदेशों से आई हो और देश के उच्च-मध्यवर्ग, शासक जमातों के जरिए आई हो, लेकिन भविष्य में भी इसका शिकार सबसे अधिक देश का गरीब मजदूर, किसान वर्ग ही होने जा रहा है। क्योंकि अमीरों के लिए एक से एक अस्पताल हैं, स्वास्थ्य सुविधाएं हैं, वह अपने बंगलों में क्वॉरेंटाइन नियमों का आनंद उठा सकते हैं। पर क्या मजदूर और निम्नवर्ग के लिए यह अय्याशी संभव है? एक सरकारी अधिकारी के अनुसार गांव में लोग अपने घरों में क्वॉरेंटाइन नहीं रह सकते, सभी घरों में एक ही स्नानघर और शौचालय होता है, यहां तक की कभी-कभी पूरा परिवार एक ही तौलिए और साबुन का इस्तेमाल करता है। सवाल है, ऐसे मरीजों को गांव में कैसे रखा जाए?

बात जायज है और पूरे देश की ग्रामीण आबादी के लिए सटीक है। कोरोना वायरस सर्वाधिक निशाना उन लोगों को बनाता है जिनका ‘इम्यून सिस्टम’ या फिर रोग प्रतिरोध प्रणाली कमजोर होती है। जाहिर सी बात है कि जिस देश की 37.2 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीती हो उस देश के लोगों का इम्यून सिस्टम कैसे मजबूत हो सकता है। इसलिए कोरोना का सबसे बड़ा कहर इसी वर्ग होगा।

एक और मसला यह है कि लाकडाउन के बाद जिस तरह से भारी संख्या में असंगठित क्षेत्र के मजदूर अपने गांवों को वापस गए हैं उसके कारण वहां की अर्थव्यवस्था इनके बोझ को नहीं उठा पाएगी। अगर गांव में काम होता तो उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडिशा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड जैसे राज्यों के लाखों-करोड़ों लोग अपना घर-बार छोड़कर शहरों की ओर पलायन ही क्यों करते। यही लोग जब लौटकर गांव पहुंचेंगे तो वहां इनको किस तरह रोजगार मिल पाएगा? स्पष्ट है कि वहां इनको किसी तरह का रोजगार हासिल नहीं होगा। जो कुछ पैसा इन्होंने कमाया था वह एक-दो महीने से अधिक इनके परिवारों का पेट नहीं भर पाएगा। बहुत सारे लोग सरकार से मांग कर रहे हैं कि सरकार को इनके लिए सही पैकेज घोषित करना चाहिए। जो कंपनियां या फैक्ट्रियां बंद हो गई हैं, उत्पादन ठप पड़ गया है, ठेकेदार के पास मजदूर हैं उनके लिए सरकार प्रबंध करे। लेकिन किसी भी तरह का सरकारी पैकेज इनको स्थाई राहत नहीं दे सकता।

बीपीएल परिवारों को दो माह का राशन, कई राज्यों में दो या तीन महीने फ्री गैस सप्लाई या फिर पांच सौ या दो हजार रुपए की किस्तों से करोड़ों लोगों का पेट नहीं भर पाएगा।5 कोरोना से ज्यादा लोग भुखमरी के शिकार होकर मरेंगे। बिना पैसे स्वास्थ्य सुविधाएं खरीद पाना करोड़ों की इस आबादी के लिए दूर की कौड़ी है। इसलिए कोई भी राहत पैकेज केवल और केवल पूंजीपतियों, ठेकेदारों तक ही सीमित होगा। रिजर्व बैंक आफ इंडिया (आरबीआई) ने रिवर्स रेपो रेट या कहें बैंकों को दिए जाने वाले कर्ज पर ब्याज घटा कर जो पैंतरा चला है उससे केवल बड़ी कंपनियों तथा उद्योगों को कर्ज मिलेगा और आने वाले समय में उसका एनपीए में तब्दील होना तय है। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि बचे-खुचे चार बैंक भी दिवालिया होने की तरफ धकेल दिए गए हैं।

भारत सरकार ने कोरोना से लड़ने के लिए आंकड़ों का खेल खेलते हुए बजट के आंवटनों को फेरदबल कर 15 हजार करोड़ खर्च करने का ऐलान किया है, वहीं केरल इसके लिए 20 हजार करोड़ खर्च करेगा। इसमें अमेरिका ने भी अपने योगदान की घोषणा करते हुए 28 मार्च को 29 लाख डॉलर (21 करोड़ 71 लाख रुपए) देने का आश्वासन दिया है। यह वह राशि है जो अमेरिका ने अपने व्यापारिक हितों के मद्देनजर 64 देशों को जारी की है। अमेरिका 2,740 लाख अमेरिकी डॉलर की वित्तीय सहायता करेगा। हालांकि इसमें कहा गया है कि इमरजेंसी हेल्थ एंड ह्यूमेन फंडिंग (आपतकालीन स्वास्थ्य और मानवीय कोष) के तहत उन देशों को मदद दी जा रही है जो इस वैश्विक महामारी की सबसे ज्यादा चपेट में हैं। छह मार्च को अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने कोरोना वायरस प्रेपेयर्डनेस एंड रेस्पोन्स सप्लीमेंट एप्रोप्रिएशन एक्ट (कोरोना वायरस तैयारी तथा कार्रवाही पूरक विनियोग कानून) पर दस्तखत किए, जिसमें महामारी से लड़ रहे दुनियाभर के देशों को 130 करोड़ डॉलर देने का वादा किया गया है। वहीं चीन ने भी एलान कर दिया है कि विपत्ति के समय उसकी मदद करने वाले 19 देशों को कोरोना से लड़ने के लिए वह भरपूर मदद करेगा। भारत भी चीन की मदद की सूची में शामिल है।6 चीन ने सात अप्रैल को कोरोना वायरस के संक्रमण के इलाज में चिकित्साकर्मियों के इस्तेमाल में आने वाले निजी सुरक्षा उपकरणों (पीपीई) की 1.7 लाख किट भारत को सहायता के तौर पर दी है। इसके अलावा चीन ने 18 अफ्रीकी देशों की भी कोरोना से लड़ने के लिए मेडिकल जरूरतों की आपूर्ति की है।7 चीन और अमेरिका द्वारा विभिन्न देशों को दी जा रही यह राहत आने वाले समय में उन देशों के प्राकृतिक संसाधन हड़पने के ही काम आएगी।

जहां तक अपने-अपने गांव लौटी मेहनतकश जनता का सवाल है उसे केवल और केवल कृषि ही पर्याप्त रोजगार मुहैया करवा सकती है इसलिए उन तमाम भूमिहीन लोगों को जो कंगाली के चलते शहरों की तरफ पलायन कर मजदूर बने थे, उद्धार का एक मात्र रास्ता खेतिहर क्रांति ही बचती है। भूमिसुधार और उन लोगों को भूमि वितरण से ही रोजगार प्राप्त होगा बाकि सब पैकेज एक और धोखा साबित होंगे।

 

स्टे होमका रामबांण

जिस तरह से देश के शासक वर्ग ने लॉकडाउन और कर्फ्यू का हुक्म दिया, कोरोना से लड़ने के नाम पर ‘स्टे होम’ का नारा दिया, तो मेहनतकश की मुक्ति की बात करने वाले बहुत सारे संगठन, पार्टियां, एनजीओ तथा सामाजिक संगठन सरकार के सुर में सुर मिलाते नजर आए। यह पूंजीवाद के चंगुल में फंसने वाला नारा है। मेहनतकश की मुक्ति के लिए जी-जान लगाने, प्राणों तक को न्यौछावर करने की क्रांतिकारी भावना के खिलाफ नारा है। दुनियाभर में महामारियां पहले भी आई हैं, चाहे वह प्लेग के रूप में थीं या साम्राज्यवाद प्रायोजित अकाल के दौरान फैली महामारियां थीं। उस समय भी जान हथेली पर रखकर निकलने वाले क्रांतिकारियों के दुनिया में उदाहरण भरे पड़े हैं। आज कोरोना से सावधान रहने की जरूरत है, बचने की जरूरत है लेकिन घर पर बैठ कर तमाशा देखना बेहद शर्मनाक है। इस दौरान जब देश की जनता इस महामारी से जूझ रही है, देश की सर्वाधिक आबादी पर खतरा मंडरा रहा है, उस समय यह बेहद जरूरी हो जाता है कि हम उसके पास जाएं, उसकी सेवा करें, उसके लिए रोटी-कपड़ा-मकान-दवा का इंतजाम करें। क्योंकि सरकार के भरोसे बैठकर यह सुनिश्चित नहीं किया जा सकता कि वह इन सब पैकेजों से पूरा कर देगी।

आज फिर से जो भूमिहीन गांव में वापस जा रहे हैं उनके लिए भूमि की समस्या को उठाया जाए। सरकारी गोदामों में अनाज भरा पड़ा है, दवाएं भरी पड़ी हैं, बड़े-बड़े व्यापारी, जमींदार जमाखोरी कर मुनाफा कमाने के लिए तैयार बैठे हैं। सरकार साम्राज्यवादी आकाओं के आगे झुककर उनके लिए दवा, स्वास्थ्यकर्मियों के लिए जरूरी उपकरणों के निर्यात पर से पाबंदी हटा रही है। साम्राज्यवादी देश फिर हमारे संसाधनों का दोहन कर रहे हैं। ट्रंप की एक धमकी के आगे जिस तरह से हमारे शासक वर्ग ने घुटने टेक वह स्तब्ध करनेवाला है। विदेश भेजे जानेवाले ये सब उपकरण तथा दवाएं हमारे देश के लोगों के लिए जरूरी हैं।

दुनिया के बड़े-बड़े देश, बहुराष्ट्रीय कंपनियां, 44 से ज्यादा टीकों पर अरबों रुपए खर्च कर शोध कर रही हैं। आने वाले समय में साम्राज्यवाद इस तरह के टीकों को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करेगा। जो सबसे पहले कारोना का टीका बनाएगा वह अकूत मुनाफा कमाएगा, यह निश्चित है। जनता की जान से उसका कोई लेना-देना नहीं है। जब तक टीका नहीं आ जाता तब तक कई सारी दवाएं इसके इलाज के काम आ रही हैं। हमें लड़कर सुनिश्चित करवाना चाहिए कि वे दवाएं जनता को निःशुल्क मिलें।

निजी कंपनियों को कोरोना टेस्टिंग की अनुमति देना, बड़े-बड़े निजी कोरोना अस्पताल खोलने की अनुमति देना, यह सब सरकार अपने पूंजीपति दोस्तों का मुनाफा सुनिश्चित करने के लिए कर रही है। हमें इस बात के लिए लड़ना चाहिए कि स्वास्थ्य क्षेत्र पूरी तरह से सरकारी होना चाहिए। कोरोना के टेस्टों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए और पूरी तरफ मुफ्त होनी चाहिए। स्वास्थ्यकर्मियों के लिए जरूरी उपकरणों की सप्लाई की गारंटी होनी चाहिए। बड़े पैमाने पर निजी दवा कंपनियों को अपने हाथ में लेकर एंटी वायरल दवाओं का उत्पादन करना चाहिए खासतौर पर क्लोरोक्विन का, क्योंकि यह दवा बेहद सस्ती दवा है। भारी मात्रा में गैर जरूरी उत्पादन को रोक कर वेंटिलेटर और अन्य स्वास्थ्य मशीनों का उत्पादन होना चाहिए। तमाम निजी होटलों, रेस्तराओं, शापिंग मॉलों को, जो बंद पड़े हैं अस्पतालों में तब्दील किया जाना चाहिए। लोगों का इम्यून सिस्टम तभी मजबूत हो सकता है जब वह गरीबी रेखा से उपर उठेंगे, और इम्यून सिस्टम की कमजोरी तमाम बीमारियों की जड़ है। इसलिए यह लड़ाई आखिर में जाकर मजदूर-किसानों की जंग के रूप में तब्दील होती है। जब तक उसके पास अपनी जमीन और फैक्ट्रियों पर उसका अपना अधिकार नहीं होगा वह अपने लिए स्वास्थ्य, रोटी-कपड़ा-मकान हासिल नहीं कर सकता।

पूंजीवाद द्वारा स्थापित विकास का मॉडल ध्वस्त हो चुका है। यह जन विकास के वैकल्पिक माडल को पेश करने का समय है। इसलिए सरकार द्वारा की जा रही तानाशाही की रिहर्सल का मूल्यांकन बहुत सावधानी से करने की जरूरत है।

संदर्भ:

  1. https://www-google com/ url\sa¾ t&rct¾ j&q¾ &esrc¾ s&source¾ web&cd ¾33&cad ¾rja&uact¾8&ved¾2ahUKEwjNnquWjtPoAhX1yzgGHYtiA0IQie8BKAEwIHoECAEQAg& url¾https%3A%2F%2Fgoogle-com%2Fcovid19& map%2F%3Fhl% 3Den&usg¾AOvVaw 1m IAQj3h&rnSLqZzzE0u74
  2. https://economictimes-indiatimes-com/topic/UN&Departm ent&of &Economic &and& Social & Affairs
  3. https://fortune-com/2020/01/17/china&gdp&growth&2019&weakest&30&years&trade& war/
  4. https://www-bbc-com/hindi/international&52102995
  5. 2011 की जनगणना के अनुसार भारत मे बीपीएल जनसंख्या 21.9 प्रतिशत यानी 27 करोड़ थी जबकि 2004-05 में यह संख्या 37.2 प्रतिशत यानी 40 करोड़ 70 लाख थी। आंकड़ों के फेरबदल से 2011 में बीपीएल संख्या घटाई गई थी। https://www-google-com/url\sa¾t&rct¾j& q¾&esrc¾s&source¾web&cd ¾2& cad¾rja & ua ct¾8&ved¾2 ahUKEwjs qsf14tXo AhV1yjgGHUnBCVQQ FjABeg QIDBAE &url ¾ http %3A%2 F%2Fplanningcommission-nic-in%2Fnews %2Fpre_pov2307-pdf&usg ¾AOv Vaw2 dpPuK74j B6shw9 IL d9nRH
  6. https://www-jagran-com/world/china&coronavi rus&china&will&help& india&prevent & cor ona& virus& infection&20135166-html
  7. https://www-livehindustan-com/ national/story&coronav irus&lockdown &china& donates&17000 0&ppe&kits&to&ind ia&to&help& fight &covid19&3133362-html
  8. http://www-Ûinhuanet-com/english/2020&04/07/c_138952553_2-htm

 

लेखक एचपीयू, शिमला, के लॉ डिपार्टमेंट से संबद्ध हैं.

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एक छोटी-सी यात्रा का बड़ा-सा सवाल https://www.samayantar.com/%e0%a4%8f%e0%a4%95-%e0%a4%9b%e0%a5%8b%e0%a4%9f%e0%a5%80-%e0%a4%b8%e0%a5%80-%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%ac%e0%a5%9c%e0%a4%be-%e0%a4%b8%e0%a4%be/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%8f%e0%a4%95-%e0%a4%9b%e0%a5%8b%e0%a4%9f%e0%a5%80-%e0%a4%b8%e0%a5%80-%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%ac%e0%a5%9c%e0%a4%be-%e0%a4%b8%e0%a4%be/#respond Wed, 08 Apr 2020 04:52:15 +0000 https://www.samayantar.com/?p=129 कोरोना की छाया में की गई अपनी यात्रा पर पंकज बिष्ट

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कोरोना की छाया में की गई अपनी यात्रा पर  पंकज बिष्ट

 

ट्रेन टाइम पर थी। जैसा कि इधर हो रहा है।

सिर्फ छह मिनट देर से, इंटरनेट देख युवामित्र पुष्पराज ने बतलाया था। काल को अनंत मानने वालों के लिए छह मिनट कोई मायने रखता है, भला! मुझे याद आया कि फासिज्म को लेकर इटली में एक व्यंग्य भी था, ट्रेनें समय पर चल रही हैं। यहां भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। जहां तक बाकी आधुनिक सुविधाओं का सवाल है, वे वैसे ही लडख़ड़ा रही थीं जैसे कि शेष भारत में। डिब्बों का संकेत देने वाले इलेक्ट्रॉनिक बोर्ड मुंह लटकाए थे। नतीजा ट्रेन के आते ही लपकते हुए और पीछे की ओर जाना पड़ा। गनीमत थी कि डिब्बों में नंबर स्पष्ट थे। इसी तरह के कारण बतलाते नजर आते हैं कि मीटर गेज से एक आध दशक पहले ब्रॉड गेज हुए इस रुद्रपुर स्टेशन का आधारभूत ढांचा वैसा ही है औपनिवेशिक दौर वाला पर आधा 21वीं सदी की चाल चल रहा है।

बतलाया जाता है कुमाऊं के चंद राजाओं ने इस कस्बे को चार सौ साल पहले बसाया था, जाड़ा काटने के लिए। रुद्रपुर इधर बड़े शहर में बदल गया है। मेरे देखते यह एक ऊंघता-सा कस्बा जिस गति से बढ़ा है उसके लिए अंग्रेजी मुहावरा मजेदार है ‘ब्रेक नेक स्पीड’- यानी ‘गर्दन-तोड़ गति’। 57-58 की बात है तब स्टेशन पर मिट्टी के तेल के लैंपपोस्ट हुआ करते थे। तब मुझे यहां से गुजरने का मौका मिला था ट्रेन से। कुछ सरकारी दफ्तर थे और शायद विकास वगैरह के कुछ प्रशिक्षण के केंद्र भी। सबके सब अंग्रेजी दौर के। इस मैटामॉर्फोसिस का श्रेय जाता है उदारवाद को। नारायण दत्त तिवारी ने, जब उन्हें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से आगे बढ़ कर उत्तरांचल उर्फ उत्तराखंड का मुख्यमंत्री (सन् 2002) बनने का सौभाग्य मिला, इस पहाड़ी प्रदेश को ‘औद्योगिकृत करने में उन्होंने देर नहीं लगाई। इसी प्रक्रिया ने, इस अनजान-से, इतिहास के खड्डे में पड़े, कस्बे को निर्णायक रूप से आधुनिक कर दिया। तिवारी ने यहां से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर छह दशक पहले अमेरिकी सहयोग से स्थापित भारत के सबसे बड़े कृषि विश्वविद्यालय की एक तिहाई जमीन छीन कर मिट्टी के मोल उद्योगों के सुपुर्द कर दी। वैसे यहां यह बता देना गैरवाजिब नहीं होगा कि इस विश्वविद्यालय ने भारत की हरित क्रांति में निर्णायक भूमिका निभाई थी। खैर, पर ऐसा भी नहीं है कि यह सब उन्होंने मुफ्त में किया हो। विश्वविद्यालय को एक रुपया प्रति वर्ग मीटर की आलीशान दर से मुआवजा दिया गया। यहां उद्योग आए भी। और आते भी क्यों नहीं उन्हें हर किस्म की सुविधाएं दी जा रही थीं जैसे कि सस्ती जमीन, उदार ऋण और सबसे बड़ी बात उत्पादन कर में छूट। वह विशेष छूट जो उनके माल को सस्ता कर देती है और प्रतिद्वंद्विता में आसानी हो जाती है। यह बात और है कि यह किसकी और किस कीमत पर होता है। वैसे इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कर की यह छूट एक निश्चित अवधि के लिए होती है और जैसे ही वह पूरी होती है, कंपनियां बोरिया-बिस्तर बांध लेती हैं, पर हां सस्ती जमीन को घेरे रहती हैं। इसलिए यहां बंद कंपनियों और नई खुलने वाली कंपनियों में मुकाबला बना रहता है।

इस औद्योगीकरण ने यहां कई देसी-विदेशी कंपनियों को अपनी फैक्टरियां लगाने को प्रेरित किया और देखते-देखते रुद्रपुर ऐतिहासिक नगर से ऐसे औद्योगिक नगर में परिवर्तित हो गया जहां कंपनियों का आना-जाना लगा रहता है। और जैसा कि होना था, पूंजी के उदार और मजदूरी के असुरक्षित बाजार के चलते यहां डिग्री-डिप्लोमा होल्डरों की भीड़ मंडराने लगी जो आठ-नौ हजार से लेकर 10-12 हजार तक की पगार पर बिना किसी सुविधा या सुरक्षा के आठ से दस घंटे खटने को तैयार रहती है। कामगारों का यहां से जाना भी उसी गति से रहता है क्योंकि शायद ही कोई नौकरी स्थायी हो। शायद ही किसी को पता हो कि अगले महीने क्या हो सकता है? कब कौन-सी कंपनी बोरिया-बिस्तर बांध कर चल दे। हां, जमीन पर बोर्ड मुस्तैदी से जमा रहता है। इधर की मंदी ने रही-सही कसर पूरी कर दी है।

पर मैं रुद्रपुर नहीं आया था। बल्कि बरास्ता रुद्रपुर इस बार भी दिनेशपुर आया था, जो अगर मैं गलत नहीं कह रहा हूं तो छोटा-सा शरणार्थी कस्बा है। इसके बाशिंदे मुख्यत: बंगाली और पंजाबी हैं। मेरे यहां आने की कहानी के दो कारण हैं। पहला है पुराने मित्र पलाश विश्वास, बांग्ला में बिस्वास, जो जाने-माने हिंदी लेखक के अलावा पत्रकार हैं। वह हिंदी के कई अखबारों से जुड़े रहे हैं और जनसत्ता कोलकाता से रिटायर होने के बाद अब अपने गांव बसंतीपुर चले आए हैं। यह गांव दिनेशपुर से लगभग तीन किमी की दूरी पर है।

दूसरे सज्जन हैं युवा पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता रूपेश कुमार सिंह। सच यह है कि मेरी यह दिनेशपुर की दूसरी यात्रा थी। जब मैं पहली बार यहां आया था कोई चार-पांच साल पहले तब पलाश यहां नहीं थे। पलाश आजकल यहां से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका प्रेरणा अंशु के कार्यकारी संपादक हैं। पिछले 32 वर्षों से प्रकाशित होने वाली इस पत्रिका के संस्थापक संपादक प्रताप सिंह मास्साब थे। उन्होंने अपना जीवन एक अध्यापक के रूप में बरेली में शिशु शिक्षा मंदिर से शुरू किया और तबादला होने पर यहां आए थे। पर जल्दी ही वह विचारधारात्मक असहमतियों के कारण उससे अलग हो गए और उन्होंने यहां अपने बलबूते ‘समाजोत्थान’ नामक स्कूल की शुरुआत की, जो आज फलफूल रहा है। यह स्कूल उनके सरोकारों का भी संकेत है। उनका देहांत दो वर्ष पहले कैंसर से हो गया था। अपनी पिछली यात्रा के दौरान मुझे उनसे मिलने का सौभाग्य मिला था। तब भी समारोह प्रेरणाअंशु की स्थापना दिवस का ही था।

पत्रिका के वर्तमान संपादक रूपेश उनके पुत्र हैं। बड़े जीवट के व्यक्ति हैं, उनकी विशेषता यह है कि वह स्वयं को पूरे उत्तराखंड से जोड़कर देखते हैं और संभवत: तराई के साथ-साथ हर पहाड़ी राजनीतिक और सामाजिक गतिविधि में भी उतने ही उत्साह से भाग लेते हैं। यह समारोह इस मायने में महत्त्वपूर्ण होता है कि वह कई स्थानीय लेखकों, पत्रकारों और राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं को तो जुटाते ही हैं किसी ज्वलंत सामाजिक-राजनीतिक मुद्दे पर खुली चर्चा भी करवाते हैं। इस बार का विषय था ‘राजनीति अर्थव्यवस्था व साहित्य में कहां हैं गांव और किसानÓ। लेखक और माले के नेता इंद्रेश मैखुरी से पहला साक्षात्कार यहीं हुआ। मैं उन्हें अर्से से जानता हूं और वह समयांतर के लिए लिखते रहे हैं, यह पाठकों को बताने की जरूरत नहीं है, पर मिलना नहीं हुआ था। इसके साथ यह बात भी नोट करने लायक है कि वहां उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के संस्थापक पीसी तिवारी, युवा कवि अनलि कार्की और फिल्मकार राजीव कुमार जैसे लोग भी थे, जिनसे वर्षों में मुलाकात हो पाती है।

पर यहां पहली बार एक विशेष व्यक्ति से मुलाकात हुई जो कृषि वैज्ञानिक और गोविंद बल्लभ पंत कृषि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हैं। राजेश प्रताप सिंह का उत्तराखंड की कृषि के बारे में जैसा ज्ञान है वह आंखें खोलने वाला है। उन्होंने अपने व्याख्यान में बतलाया कि उत्तराखंड में स्थानीय फसलों को खत्मकर बिना सोचे-समझे बाहरी फसलों को थोपने ने राज्य के पहाड़ी इलाकों को उजाडऩे में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। नेतृत्व ही दृष्टिहीनता और नासमझी की इसमें मुख्य भूमिका रही है। यह भी मेरे लिए कम प्रसन्नता की बात नहीं है कि वह पिछले दो दशक से समयांतर के नियमित पाठक हैं।

दिनेशपुर जहां बसा है वह असल में आजादी तक तराई का जंगल हुआ करता था। बस्तियां अक्सर अपने में मानव सभ्यता का इतिहास या कहिए उसके विकास के सभी प्रमाणों को लिए होती हैं। यह बात और है कि वर्तमान अक्सर इन्हें, अपनी सक्रियता और समकालीनता के दबावों के कारण, सामने नहीं आने देता। पर चीजों को जरा-सा कुरेदिये कि जानकारियां आपको इतिहास के मालखाने के दरवाजे पर ला खड़ा करने में देर नहीं लगातीं।

तराई के घनघोर जंगलों के बीच छिपे, कुमाऊं के पिछले चार सौ वर्षों के ठहरे हुए विगत को, कुछ देर को भुला दें तो जीवंतता से भरा और मंथर गति से चलता दिनेशपुर भारत की आजादी के सात दशक पूर्व के रक्तरंजित इतिहास के अलावा उसकी सामाजिक संरचना की विसंगतियों और कुटिलताओं के परिणाम के तौर पर हमारे सामने खड़ा नजर आता है। यहां औपनिवेशिक भारत, जिसको भारतीय बर्जुआजी ‘भारत माताÓ के रूप में हासिल करना चाहती थी, पर वह उनके हाथ तीन टुकड़ों के रूप में आई थी, के उन दो छोरों के हैं, जो अपने भूगोल में शब्दश: पूर्व और पश्चिम के हिस्से हैं।

पलाश का गांव बसंतीपुर इस दिनेशपुर से पांच किमी की दूरी पर पश्चिम, यानी कार्बेट पार्क, की ओर है। पलाश से पूछें तो वह बतलाएंगे कि हमारा गांव असल में कार्बेट पार्क का ही हिस्सा था। पहाड़ी तराई के मलेरिया से लगभग उतना ही घबराते थे जितना कि आज दुनिया कोरोना से बदहवास है। पलाश का परिवार यहां शरणार्थी के रूप में पूर्वी बंगाल के खुलना जिले से आया था। इसके अलावा जैसोर और दीनाजपुर से भी लोग यहां आए थे। यहां के कई गांवों के नाम, वही नाम वाले हैं, जहां से  इनके आज के निवासी बेदखल होकर शरणार्थी बने थे। कुल मिलाकर इस इलाके को, जहां आजकल साल में तीन से चार तक धान की फसलें होती हैं, जरखेज इन्हीं लोगों ने बनाया है। पलाश के परिवार का इस जगह से कितना गहरा नाता है, इसका अंदाजा इस बात से लग जाता है कि उनके गांव का नाम उनकी माता जी के ही नाम पर बसंतीपुर है। उनके पिता पुलिन बिस्वास स्वतंत्रता सेनानी थे और बंगाल के दलितों के बड़े नेताओं में थे। वह अंत तक भारत विभाजन का विरोध करते रहे थे।

पलाश का कहना है, और इसके प्रमाण हैं, कि बंगाल का विभाजन, वहां का मुसलमान नहीं बल्कि उच्च वर्णों के हिंदू चाहते थे। इसलिए कि पहली संयुक्त बंगाल की सरकार में दलितों और मुसलमानों का गठबंधन था और सवर्णों की भूमिका उसमें हाशिये की थी। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय से लेकर श्यामाप्रसाद मुखर्जी तक के योगदान की वह याद दिलाते हैं। बंगाल का विभाजन हुआ ही इसलिए ताकि उच्च वर्णों के हाथ में सत्ता आ जाए और बंगाल का वह हिस्सा, जो आज भारत का पश्चिम बंगाल प्रांत है, उस पर उच्चवर्ण प्रभुत्व विगत सात दशकों में कभी कमजोर नहीं हुआ है। सत्ता वहां चाहे कांग्रेस के हाथ में रही हो, कम्युनिस्टों के हाथ में रही हो या फिर तृणमूल के, जातीय संरचना में जरा भी झोल नहीं आया।

तीन दशक से कुछ ज्यादा ही समय तक कम्युनिस्टों द्वारा शासित रहे इस राज्य में आज अगर भाजपा जोर मारती नजर आ रही है तो वह भी अचानक तो नहीं है! इसे आप माक्र्सवाद की असफलता नहीं बल्कि जातिवाद की विजय के रूप में देख सकते हैं जो किसी अजस्त्र विषधारा की तरह पूरे भारतीय समाज में किसी अंत:सलिला की तरह चलती रहती है। ‘भद्रलोक’ अपनी जड़ों की ओर लौट रहा है?

पलाश का असंतोष समझ में आने वाला है। अपनी जड़ों से बलात उखाड़ दिया जाना कितना पीड़ाजनक हो सकता है इसे वे लोग ही समझ सकते हैं जो इस यंत्रणा, अपमान और उपेक्षा से गुजरे हों। तब तो यह और भी अधिक यंत्रणा का कारण बनता है जब आप वर्णव्यवस्था के चौथे पायदान पर हों।

इसके बावजूद सच यह है कि इन शरणार्थियों ने इस भूमि को बदल दिया है। दिनेशपुर आज एक उभरता हुआ खातापीता कस्बा है जिसमें निर्माणाधीन कोठियां और बंगले बता रहे हैं कि यहां के निवासी अपना विगत कंधे पर नहीं लादे हैं।

मेरी वापसी अगले ही दिन थी।

आप एक रात में क्या जान सकते हैं। मेरी जानकारी कुल मिलाकर कोई बहुत गहरी नहीं है। मौका मिला तो फिर कभी थोड़ा समय निकाल कर आऊंगा। भारत के सबसे बड़े दानदाता अजीम प्रेमजी फाउंडेशन ने यहां एक भव्य स्कूल और उसके साथ शिक्षकों के लिए प्रशिक्षण केंद्र और गेस्ट हाउस बनाया हुआ है। यहीं दूसरी मंजिल पर जिस कमरे में मैं था उसमें मेरे साथ दो युवा और थे। एक थे हमारे दिल्ली के पड़ोसी नोएडा निवासी आकाश नागर जो साप्ताहिक संडे पोस्ट से जुड़े हैं और उत्तराखंड की राजनीति के ‘विशेषज्ञ’ हैं। दूसरे पुराने परिचित पत्रकार और एक्टिविस्ट पुष्पराज, जिनके गांव मैं राजेंद्र यादव के साथ गया था। वह दिनकर के गांव के निवासी ही नहीं बल्कि उसी बिरादरी से हैं, जो बेगूसराय जिले में है।

आकाश नागर अत्यंत सरल और सेवाभावी हैं। जबसे मैं रुद्रपुर उतरा उन्होंने मुझे अपना सामान छूने नहीं दिया। न कोई बर्तन उठाने दिया। यह मेरे लिए खासा असहज करने वाला अनुभव था। ऐसा तो मेरे साथ मेरे बच्चे भी नहीं करते। चूंकि गाड़ी बस आने ही वाली थी और ज्योत्स्ना और बच्चे मुझसे लगातार पूछ रहे थे कि आप सावधानी बरत रहे हैं या नहीं, मुझे याद आया कि मेरे पास एक मास्क है जिसे इस यात्रा के लिए विशेषकर खरीदा गया है, पर जिसका मैंने अभी तक इस्तेमाल नहीं किया है, क्योंकि कोई और भी नहीं कर रहा था। मुझे मजाक सूझा, जो मैं अक्सर ज्योत्स्ना से करता रहता हूं। आप समझ जाएंगे कि मैं कैसे मजाक किसकी कीमत पर करता हूं।

मैंने अपना मोबाइल पुष्पराज को देते हुए कहा कि मेरा एक फोटो खेंच दो उसे दिल्ली भेजना है। मैंने मास्क निकाला और प्लेटफार्म पर ही पहन लिया। पुष्पराज ने फोटो खेंच दिया। और मैंने फोटो ज्योत्स्ना को ‘हेयर आई एम डब्ली सेफ’  लिखकर भेज दिया। उन्होंने दो अंगूठे दिखाते हुए जवाब में लिखा: ‘वेरी गुड’।

गाड़ी के आने पर जब हमने डिब्बा देखा तो पाया कि मेरा आरक्षण दूसरे दर्जे में है। मेरे दोनों युवा साथी इस बात से क्षुब्ध हो गए। मैंने उनसे कहा, कोई बात नहीं कुछ घंटे की बात है इसलिए खास परेशानी नहीं है। वैसे भी मैं सड़क मार्ग से  रास्ते की भीड़ के कारण नहीं जाना चाहता था। पुष्पराज का आग्रह था कि हम एसी चेयरकार में चलकर सहायक से बात करें। मुझे ये सब झंझट लगा। दूसरा, डर यह था कि बेमतलब कहीं इस चक्कर में गाड़ी ही हाथ से न निकल जाए।

मेरी बेचैनी के कई कारण थे। सबसे पहला बढ़ते कोरोना वायरस का डर, ज्योत्स्ना के अकेले होने की चिंता और उस किताब की चिंता जो पिछले दो महीने से मेरे कारण छपने से रुकी हुई है। मैं हर हालत में उसे इसी माह समाप्त कर देना चाहता था क्योंकि उसके बाद अप्रैल के समयांतर का काम भी था। इस तरह से मेरे पास सिर्फ चार दिन का समय था जिसे में किसी भी तरह गंवाना नहीं चाहता था। मैं आया भी बड़े दबाव में ही था।

मैंने उन्हें समझाया भी कि जो होना था सो हो गया, बात आगे न बढ़ाएं। लेकिन जिसकी शंका थी, वही हुआ। पर वह बाद में।

गाड़ी ने इस बीच लगभग दो घंटे की यात्रा पूरी कर ली थी और अब रामपुर आने ही वाला था। डिब्बे में जिस तरह की स्थिति थी मुझे लगा इससे बेहतर क्या हो सकता है! ऐसी कोई गर्मी भी नहीं थी। इसके अलावा कुछ सीटें खाली भी थीं।

पर रामपुर में जो भीड़ घुसी उससे सीटें ही नहीं बल्कि सीटों के बीच के रास्ते में भी यात्री खड़े हो गए। यानी रिजर्वड-अनरिजर्वड सब बराबर हो चुका था। दाड़ीवाले आदमी, बुर्केवाली औरतें बता रहीं थीं कि अधिसंख्य यात्री मुसलमान हैं। कहा नहीं जा सकता था कि भीड़ दिल्ली की है या रास्ते में उतर जाएगी। आगे मुरादाबाद और अमरोहा ऐसे शहर हैं जिनमें मुस्लिम जनसंख्या खासी मात्रा में है। गाड़ी का गाजियाबाद से पहले अमरोहा ही स्टैंड है।

हमारी तीन सीटों की पंक्ति में से एक सीट खाली थी। एक आदमी उसमें आकर बैठ गया। पर थोड़ी ही देर में वह उठा और आगे की ओर चल दिया। असल में टीटी आ रहा था। जैसे ही टीटी आगे निकल गया वह फिर से वापस आ गया। तब समझ में आया कि वह बिना रिजर्वेशन वाला है। गाड़ी तब तक आगे निकल चुकी थी। मेंहदी से रंगे बालों वाला मझली उम्र का वह आदमी रोज आने-जाने वाला लग रहा था, मुझे मन ही मन हंसी भी आई कि देखो रेल में यात्रा करना हर दिन की जीवित रहने की जुगाड़ का हिस्सा है। सामने ही एक महिला अपनी ढाई-तीन साल की बच्ची को पैरों से सटाए खड़ी हो चुकी थी। वह औरत सिंदूर-विंदूर लगाए थी; हो सकता है पति भी आसपास हो; मुरादाबाद ज्यादा दूर नहीं था पर आगे जाना हो तो! तब तक उस आदमी ने बच्ची की मां को अपने पास बैठा लिया। इस तरह से हम चार लोग तीन की सीट पर जम गए।

तभी वह फोन आया, जो मेरी मूर्खता का प्रमाण था; फोन रूपेश का था। उन्होंने माथा पीटने वाले स्वर में कहा, आप सेकेंड क्लास में क्यों जा रहे हैं! आपका टिकट तो एसी का है! कैसे? उन्होंने समझाया कि मैंने आपको सुबह ही कहा था कि आपका एसी का टिकट कनफर्म हो चुका है। आप वहीं जाइए। दूसरा टिकट तो सिर्फ इमेरजेंसी के लिए था!

ठीक है, मैंने कहा और मैं हंस पड़ा। हल्द्वानी से आ रहे आदमी ने, मामला क्या है वाले अंदाज में, मेरी तरफ देखा। मैंने अपनी मूर्खता के बारे में बतला दिया। भूरे बालों वाले ने मसले को लपक लिया। बोला, ”अरे… अरे… अरे आप क्यों बैठे हैं, चले जाइए। बीच में से निकल जाइएगा। ट्रेन इंटरलिंक्ड है।‘’ मैंने कहा भीड़ है। वह बोला, ”यह तो रोज का मामला है। निकल जाइए। लोग जाने देंगे। एसी का डिब्बा दो डिब्बों के बाद ही है।’’

मुझे आगे की ओर जाना था। मैंने बैग वहीं छोड़कर उठते हुए कहा, बैग मुरादाबाद ले लूंगा। किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी? जैसे ही मैंने दूसरे डिब्बे में घुसने की कोशिश की, भीड़ को देखकर छक्के छूट गए। मैं बैरंग लौटा और यह कहता हुआ कि मुरादाबाद ही बदलूंगा, वापस अपनी जगह पर बैठ गया। रामपुर से चढ़े आदमी ने मुझे फिर ललकारा, ”अरे यह तो रोज की बात है। लोग आपको जाने देते।‘’ वह मेरी बेवजह की नफासत से थोड़ा खिन्न लग रहा था। उसकी बात गलत नहीं थी। हॉकर बेधड़क चिप्स आदि के पैकेटों से लेकर लंच तक बेचते घूम रहे थे।

मैंने पूछा, मुरादाबाद कितनी दूर है! ‘’आता ही होगा’’, उसने आश्वस्त किया। मैं अपनी जगह पर बैठ गया। अचानक मुझे लगा, अपनी मां से चिपकी बच्ची मुझे रह-रह कर घूर रही है। पर यह कोई नई बात नहीं थी। छोटे बच्चे अक्सर मुझे घूरा करते हैं। मेरी दाढ़ी के कारण। पहले, जब काली थी, डरकर रोने भी लगते थे या मुंह छिपा लेते थे। हो सकता है उस बच्ची को मेरा बेमतलब आना-जाना नहीं सुहा रहा हो। खैर मुरादाबाद में डिब्बे से उतरते हुए मैंने सहयात्री से कहा, अगर सीट नहीं मिली तो लौटूंगा और जोड़ा, मेरी जगह इसे बैठा लेना; मेरा तात्पर्य  बच्ची और उसकी मां से था। बच्ची अपने सांवले रंग और चमकीली उत्सुक आंखों के कारण बहुत प्यारी थी।

डिब्बे में जब मैं अपनी सीट पर पहुंचा वहां एक युवती बैठी मिली। मेरे यह कहने पर कि सीट मेरी है वह बोली पर मुझे तो अलॉट की है। फिर उसने कहा कि आप उस सीट पर बैठ जाइए वह टीटी की ही है अभी आ जाएगा। मैंने टीटी को प्लेटफार्म पर ही पकडऩा बेहतर समझा। टीटी को जब मैंने टिकट दिखाया तो वह बोला, ”आप कहां रह गए थे!’’ मैंने यों ही बहाना किया, ”पीछे!’’ इस पर उसने कहा, ”सौभाग्य है सीट खाली है। आजकल भीड़ कम है कोरोना की वजह से। आप की सीट मैंने किसी और को दे दी है। अब आप फलां नंबर पर बैठ जाइए।‘’

जैसा उसने निर्देश किया, मैं अपनी किस्मत की जय जयकार करता सीट पर बैठ गया। तब तक गाड़ी को दिल्ली की ओर दौड़ते आधा घंटा तो ही चुका होगा। बाहरी हवा-पानी से अपनी चारदीवारी में सुरक्षित डिब्बे के सम्मानजनक माहौल में मैं इतना संतुष्ट हुआ कि बाकी सब भूल गया। तब याद आया कि रामपुर से ही पेशाब लगी हुई है पर वहां दूसरे कारण थे कि जाने की हिम्मत नहीं हो पाई थी।

पेशाब के बाद जैसे ही मैंने हाथ धोने के लिए वाश बेसिन की ओर मुंह किया, देखा कि मेरे मुंह पर पट्टी यानी मॉस्क लगा है। वही, जिसे मैंने फोटो खेंचने के लिए रुद्रपुर के स्टेशन पर पहना था। अचानक याद आने लगा। मां से लिपटी वह चमकीली बेचैन आंखों वाली बच्ची जो मुझे कनखियों से रह-रहकर  देख रही थी।

मेरी दाड़ी मास्क से छिपी हुई थी! वहां एक नई बात और थी : वाश बेसिन पर रखी सेनेटाइजर की छोटी-सी शीशी।

मैंने मॉस्क उतार कर जेब में रख लिया। सेनेटाइजर की कुछ बूंदें हाथों में मलीं और सीट पर आकर बैठ गया। दिल्ली आने तक बैठा ही रहा। स्टेशन से बाहर निकल कर भी मेरी हिम्मत नहीं हुई कि दोबारा मास्क पहन लूं।

वैसे भी मुझे टैक्सी मिलने में देर नहीं हुई।

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