2020 Archives — समयांतर https://www.samayantar.com/category/2020/ विचार और संस्कृति का मासिक Tue, 26 May 2020 08:44:18 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.5.2 https://www.samayantar.com/wp-content/uploads/2020/03/cropped-Screen-Shot-2020-03-29-at-8.29.51-PM-3-32x32.png 2020 Archives — समयांतर https://www.samayantar.com/category/2020/ 32 32 कोरोना वायरसः बीमारी का सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ https://www.samayantar.com/%e0%a4%95%e0%a5%8b%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%a8%e0%a4%be-%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%b0%e0%a4%b8%e0%a4%83-%e0%a4%ac%e0%a5%80%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%b8/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%95%e0%a5%8b%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%a8%e0%a4%be-%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%b0%e0%a4%b8%e0%a4%83-%e0%a4%ac%e0%a5%80%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%b8/#respond Tue, 14 Apr 2020 01:01:53 +0000 https://www.samayantar.com/?p=224 दुनिया के सामने स्पष्ट हो चुका है कि कोरोना वायरस से पहले की दुनिया, कोरोना वायरस के बाद की दुनिया में , बहुत फर्क आ चुका है। कोरोना का डर दिखा कर जिस तरह से पूरी दुनिया में तानाशाही की रिहर्सल हो रही है यह लंबे समय तक इस तरह नहीं टिक पाएगी। कोरोना के नाम पर साम्राज्यवाद अपना आर्थिक संकट टाल नहीं पाएगा।

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रंजोत

 

दुनिया के सामने स्पष्ट हो चुका है कि कोरोना वायरस से पहले की दुनिया, कोरोना वायरस के बाद की दुनिया में , बहुत फर्क चुका है। कोरोना का डर दिखा कर जिस तरह से पूरी दुनिया में तानाशाही की रिहर्सल हो रही है यह लंबे समय तक इस तरह नहीं टिक पाएगी। कोरोना के नाम पर साम्राज्यवाद अपना आर्थिक संकट टाल नहीं पाएगा।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार चीन में पहला नोवेल कोरोना (कोविड-19) केस आठ दिसंबर, 2019 को हुबेई प्रांत के वुहान शहर में दर्ज किया गया। लेकिन चीन के एक जानेमाने दैनिक के अनुसार देश में पहला मामला (पेशेंट जीरो) 17 नवंबर को सामने आया था। दिसंबर से पहले वुहान के जीनयीनतान अस्पताल में कुछ रोगियों के इलाज के दौरान इस संक्रमण का पता लगा था। इस बात की पुष्टि चिकित्सा विज्ञान की पत्रिका लासेंट 1 ने भी की है। लेकिन चीन और अमेरिका दोनों ही एक दूसरे पर कोरोना वायरस (विषाणु) को इजाद करने का आरोप लगाते रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इसे ‘वुहान वायरस’ या ‘चीनी वायरस’ कह रहे हैं, वहीं चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजियन ने बयान जारी किया था कि अमेरिकी सेना द्वारा वुहान में वायरस लाया गया है।

अब कोरोना किसने फैलाया और किसने इजाद किया और क्यों किया या यह प्राकृतिक रूप से मौजूद था या कृत्रिम रूप से तैयार किया गया, और क्या यह जैविक हथियार के रूप में पैदा किया गया, इस पर इतना जल्दी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता। इसके बारे में दुनिया के सामने सच्चाई आने में बहुत लंबा समय लगेगा और बहुत बार ऐसी सच्चाई कभी सामने आती ही नहीं है। इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि साम्राज्यवाद अपने मुनाफे के लिए ऐसा कर सकता है। इसके साक्ष्य इतिहास में दर्ज हैं और अपने आर्थिक संकट से उबरने के लिए, राजनीतिक रूप से अपनी सत्ता को स्थिर बनाए रखने के लिए मरणासन्न पूंजीवाद किसी भी हद तक जा सकता है।

दुनिया के सामने यह स्पष्ट हो चुका है कि कोरोना वायरस से पहले की दुनिया और कोरोना वायरस के बाद की दुनिया में बहुत फर्क आ चुका है। कोरोना का डर दिखा कर जिस तरह से पूरी दुनिया में तानाशाही की रिहर्सल हो रही है यह लंबे समय तक इस तरह नहीं टिक पाएगी। कोरोना के नाम पर साम्राज्यवाद अपना आर्थिक संकट नहीं टाल पाएगा। अवश्य ही कोरोना के बाद दुनिया अभूतपूर्व महामंदी का सामना करेगी और महामंदी या तो फासीवाद पैदा करेगी या फिर क्रांतियां।

इस लेख में कोरोना के कालक्रम को समझने की कोशिश करेंगे और मजदूर वर्ग या उसकी मुक्ति के लिए कार्यरत संगठनों, पार्टियों, कार्यकर्ताओं की क्या जिम्मेदारियां बनती हैं, इस पर चर्चा करेंगे। क्योंकि विडंबना यह है कि क्रांतिकारी होने का दंभ भरने वाले लोग भी ‘स्टे होम’ (घर में रहें) का नारा लगा रहे हैं और यह भूल रहे हैं कि जनता की सेवा करते हुए जो मौत आती है वह हिमालय से भी भारी और कायरों की तरह दुबक कर जो मौत आती है वह पंख से भी हल्की होती है।

 

कोरोना वायरस क्या है?

विज्ञान की भाषा में नोवेल कोरोना विषाणुओं (वायरसों) का एक समूह है जो स्तनधारी (मैमल्स) प्राणियों और पक्षियों में पाया जाता है। इस विषाणु के कारण श्वास तंत्र (रेस्पेरेटरी सिस्टम) में संक्रमण (इंफेक्शन) पैदा हो सकता है जिसमें हल्की सर्दी-जुकाम से लेकर मौत तक हो जाती है। यह उन लोगों को अधिक निशाना बनाता है जिनमें पहले से ही फेफड़े संबंधी रोग होते हैं या किडनी या दिल की बिमारियां होती हैं। अभी तक के शोधों के मुताबिक मरने वालों में अधिक संख्या 60 साल से ऊपर के बुजुर्गों की होती है।

चीन के वुहान शहर के डॉक्टर जब दिसंबर 2019 में कुछ मरीजों का इलाज कर रहे थे तब उनको यह नया वायरस समझ में आया। कोरोना वायरस पहले भी होता था लेकिन यह उससे भिन्न था, इसलिए इसका नाम नोवेल  (नया) कोरोना वायरस या कोविड-एन19 पड़ा। लैटिन भाषा में ‘कोरोना’ का मतलब ‘क्राउन’ यानी ताज होता है और इस वायरस की आकृति ताज पर उगे कांटों जैसी थी इसलिए इसको कोरोना कहा गया। किसी भी तरह के विषाणुओं से लड़ने के लिए शरीर की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यून सिस्टम) ही काम आती है। इसलिए इस वायरस का इलाज रोग के लक्षणों के आधार पर किया जाता है, ताकि रोगी की प्रतिरक्षा प्रणाली मजबूत रहे। इसके अलावा विषाणुजनित रोग जैसे स्वाइन फ्लू, सार्स-दो, इंफ्लुएंजा, एचआईवी और मलेरिया रोग में दी जाने वाली दवाएं भी इस विषाणु के मरीजों पर असरकारी

रही हैं। सबसे बड़ा खौफ इस बात का फैलाया जा रहा है कि इसकी कोई दवाई नहीं है। यह बात आधी सच है। क्योंकि दुनिया में अब तक (इस लेख के प्रकाशित होने तक) इस विषाणु से 185 देशों में 18 लाख 28 हजार से ज्यादा लोग ग्रसित हुए हैं जिसमें से चार लाख से ज्यादा लोग ठीक हो चुके हैं और एक लाख 13 हजार से ज्यादा की मौत हुई है। भारत में 9191 लोग इसके शिकार हैं, वहीं 600 से ज्यादा लोग ठीक हुए हैं और 326  की मृत्यु हुई है। अगर दवा नहीं होती तो इतने लोग ठीक नहीं होते। इस बीमारी में कई दवाएं काम कर रही हैं। पर यह बात भी ठीक है कि इसका वैक्सिन (टीका) नहीं है। लेकिन प्रचार इस तरह से किया जा रहा है कि इसकी दवा नहीं है।

 

दवा और टीके (वैक्सिन) का अंतर ?

बड़े पैमाने पर वैक्सिन का इस्तेमाल 16वीं सदी के दौरान चीन में दिखाई देता है। इसके बाद 1796 में ब्रिटिश डॉक्टर एडवर्ड जेनेर ने छोटी माता का टीका तैयार किया था जो सर्वाधिक प्रचलित हुआ। शरीर के अंदर रोग प्रतिरक्षा प्रणाली होती है। अगर हमारे शरीर में कोई हानिकारिक विषाणु या किटाणु (बेक्टरिया) प्रवेश कर जाता है तो शरीर अपने आप उसके विरुद्ध रोग प्रतिरोध क्षमता उत्पन्न कर लेता है और हानिकारक विषाणु या किटाणु को नष्ट कर देता है। लेकिन शरीर को नए विषाणु या जीवाणु के विरोध में अपने अंदर प्रतिरोध क्षमता विकसित करने में कई दिन लग जाते हैं, अगर रोगी की उस दौरान मृत्यु न हो तो प्रतिरक्षा प्रणाली और विकसित हो जाती है। यह निर्भर करता है रोगी की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली यानी उसके ‘इम्यून सिस्टम’ पर। इसलिए कोई भी दवाई किसी बीमारी का इलाज नहीं करती बल्कि वह शरीर की रोग प्रतिरोध क्षमता बढ़ाने, बनाए रखने में शरीर की मदद करती है। रोग को शरीर अपने आप नष्ट करता है। इसके विपरित टीके का मुख्य कार्य रोग पैदा होने से पहले ही वैक्सिन देकर उसको खत्म कर देना होता है। टीके का निर्माण इस आधार पर किया गया था कि बहुत सारे रोग ऐसे होते हैं जो एक बार होकर फिर बहुत समय बाद होते हैं, जैसे कुछ रोग बचपन में हो जाएं तो वे आगे चल कर जवानी में नहीं होते हैं। वैज्ञानिकों ने खोज लिया कि यह शरीर के अंदर विषाणु या किटाणुओं के खिलाफ पैदा हुई रोग प्रतिरोध क्षमता का नतीजा है और इस आधार पर पहले ही शरीर के अंदर वे मृत विषाणु, कीटाणु प्रवेश करवा दिए जाते हैं जिससे वह रोग पैदा ही न हो।

दवाई का कार्य तात्कालिक होता है, मुख्य रूप से शरीर की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूती देने के लिए बाहर से दिए जाने वाले सहारा के रूप में है। इसके विपरीत वैक्सिन लंबी अवधि तक कार्य करती है, बीमारी होने ही नहीं देती। इसलिए हमें दवा और वैक्सिन का अर्थ पता होना चाहिए। दवा लक्षणों के आधार पर मरीज का इलाज करती है और दवा से भी कोरोना का मरीज बच सकता है। यह जरूरी नहीं है कि जब वैक्सिन आएगी तभी रोगी का इलाज होगा। बिना वैक्सिन के भी कोरोना के मरीज ठीक हो रहे हैं। कोरोना के मरीज दवा या उनकी खुद की रोग प्रतिरोध क्षमता, पौष्टिक आहार, अंडा, दूध, पनीर आदि के बल पर ठीक हो रहे हैं। साठ के पार जिन रोगियों की रोग प्रतिरोध क्षमता कमजोर होती है, जिनमें पहले से कोई लंबी बीमारी होती है वे इसका शिकार आसानी से हो रहे हैं।

चेचक की रोकथाम के लिए बचपन में ही चेचक की वैक्सिन लगा दी जाती है। इस वैक्सिन के अंदर चेचक के मरे हुए विषाणु होते हैं। उसे बच्चे के शरीर में टीके के तौर पर प्रवेश करवा दिया जाता है। शरीर में जब चेचक के मरे हुए कीटाणु पहुंचते हैं तो शरीर कुछ दिनों में उनके खिलाफ रोग प्रतिरोध क्षमता विकसित कर लेता है। वह उन कीटाणुओं के असर को समाप्त कर देता है। अगर जिंदा कीटाणु प्रवेश करवाए जाएं तो व्यक्ति रोगी हो जाता है फिर रोगी के शरीर को उनके खिलाफ लड़ने के लिए रोग प्रतिरोध क्षमता विकसित करने में अधिक समय लग जाता है। अगर वैक्सिन के रूप में दे दी जाए तो शरीर यह क्षमता पहले ही विकसित कर लेता है। वैक्सिन नाक के जरिए बूंद के रूप में या टीके के रूप में शरीर में प्रवेश करवाई जाती है।

 

कोरोना साम्राज्यवाद को उसकी महामंदी से नहीं निकाल पाएगा

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ के आर्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग (डीइएसए)2 द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि कोविड-19 के विस्तार ने वैश्विक आपूर्ति व्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय व्यापार को नुकसान पहुंचाया है। सौ देश अपनी सीमाएं बंद कर चुके हैं। लोगों की आवाजाही और पर्यटन बुरी तरह से प्रभावित हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था 2020 में 0.9 प्रतिशत पर सिमट सकती है। फिलहाल दुनिया की विकास दर 2.5 प्रतिशत है। यह 2009 की वैश्विक मंदी से भी खतरनाक स्थिती होगी जब दुनिया की विकास दर 1.7 प्रतिशत पर सिमट गई थी। रिपोर्ट का कहना है कि – इन देशों के लाखों मजदूरों के अंदर अपनी नौकरी खोने का डर देखा जा रहा है। सरकारें अर्थव्यवस्था को ठीक करने के लिए बड़े प्रोत्साहन तरीकों पर विचार कर रही हैं और सहायता के ये कार्यक्रम (रोलआउट पैकेज) वैश्विक अर्थव्यस्था को संभावित गहरी मंदी में डूबो सकते हैं।

दुनियाभर के साम्राज्यवादी देश, खासकर अमेरिका 2008 के बाद से ही लगातार आर्थिक मंदी से घिरा हुआ है। चीनी सामाजिक साम्राज्यवाद अफ्रीका, एशिया के छोटे-छोटे देशों की अथाह प्राकृतिक संपदा का दोहन कर और अपने देश की सस्ती श्रम शक्ति को निचोड़ कर उभर कर सामने आ रहा है। योरोपीय संघ टूट रहा है और उनके अंतरविरोध भी तेज हो रहे हैं। खास बात यह देखने को मिल रही है कि दुनिया के बाजार पर कब्जा जमाने के लिए आपा-धापी मची हुई है। अमेरिका ने ईरान, इराक, अफगानिस्तान, सीरिया, लैटिन अमेरिका आदि देशों को नर्क बना दिया है। चीन अफ्रीकी देशों को अपने कर्ज और सहायता के जाल में फंसा रहा है। अमेरिका और चीन के बीच लगातार स्थिति व्यापार युद्ध जारी है। इसका मुख्य मकसद दुनिया के बाजारों पर अपनी-अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करना है।

दुनिया की आर्थिक मंदी के चलते लगातार नौकरियों में कटौती होती जा रही है। बड़े पैमाने पर बेरोजगारी फैल रही है। सरकारें नए-नए टैक्स लगा रही हैं और नागरिक सुविधाओं में कटौती कर रही हैं। अमेरिका, चीन जैसे देश अपनी मंदी से उबरने के लिए नए-नए बाजार तलाश रहे हैं जिसके चलते विकासशील देशों में तीव्र आर्थिक संकट पैदा हो रहा है। भारत के सार्वजनिक उद्योग धंधे बुरी तरह से तबाह हुए हैं। बैंकिंग सेक्टर जिस तरह से डूब रहा है इसका असर अर्थव्यवस्था पर गहरा पड़ने वाला है। पिछले साल बैंकों का बट्टाखाता यानी

डूबा हुआ पैसा (एनपीए या नान परफार्मिंग एसेट्टस) रु 8,06,412 करोड़ था जिसमें लगातार बढ़ोतरी देखी जा रही है। इतना ही नहीं, बैंकों की संख्या विलय के बाद चार रह गई है। इसका मतलब है कि ये सभी मिलाए गए  बैंक डूब चुके थे। सरकार लीपापोती कर उनको बनाए रखे हुए है।

इस सबका बड़ा कारण यह है कि देश की बड़ी-बड़ी कंपनियों और पूंजीपतियों ने बैंकों से जो उधार लिया है उसको चुकता नहीं कर रहे हैं। देश में बढ़ी बेरोजगारी और कृषि में जारी संकट के चलते मांग नहीं बढ़ रही है और कंपनियां लगातार अपना उत्पादन घटा रही हैं। उत्पादन घटने से मजदूर बेरोजगार हो रहे हैं। बेरोजगार मजदूर, किसान, नौजवान क्या करेंगे। यह सरकार को भी पता है और उनके आकाओं को भी है। देश के कृषि, विनिर्माण क्षेत्र, यातायात, रियल इस्टेट, मोटर-गाड़ी उद्योग, बैंकिंग क्षेत्र आदि लगातार पिछड़ते जा रहे हैं।

 

बढ़ता असंतोष

पूरी दुनिया में आर्थिक संकट के चलते लगातार मजदूर, किसान, नौजवान और छात्र अपने-अपने देशों की सरकारों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। पिछले साल से यह सिलसिला लगातार जारी रहा। सबसे ज्यादा खतरे की घंटी चीन के लिए तब बजी जब हांगकांग में लोग अपनी स्वायत्तता को लेकर प्रदर्शन पर प्रदर्शन कर रहे थे। उनको रोकने में चीन की साम्राज्यवादी सरकार नाकाम हो रही थी। इसी तरफ फ्रांस, अल्जीरिया, लैटिन अमेरिका, सीरिया, ईरान, इराक, तुर्की हर जगह लोग अपने देशों की सरकारों के खिलाफ लड़े। भारत में दशकों बाद राष्ट्रव्यापी आंदोलन देखा गया। एनपीआर, एनआरसी और सीएए जैसे कानूनों के खिलाफ पूरा देश एकजुट होकर सरकार के खिलाफ विद्रोह कर उठा था। इस विद्रोह को कुचलने के लिए दक्षिणपंथी सरकार द्वारा किया गया दमन, छात्रों पर किए गए हमले और मुस्लिम बस्तियों पर किए गए हमले भी काम नहीं आए। लोग रुक नहीं रहे थे। अमेरिका में भी लगातार ट्रंप की लोकप्रियता घट रही थी। अफगानिस्तान में तालिबान के साथ समझौता नहीं हो पा रहा था, नतीजतन वह अपने सैनिकों को नहीं निकाल पा रहा था। वहीं चीन के साथ ट्रंप द्वारा छेड़ा गया व्यापार युद्ध अमेरिका के लिए घाटे का सौदा साबित होता जा रहा था। व्यापार युद्ध के चलते चीन की अर्थव्यवस्था पिछले तीस सालों में सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। वहां की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की दर महज 6.1 प्रतिशत रह गई है। ऑक्सफोर्ड इकनॉमिक्स  के मुख्य अर्थशास्त्री लाउस कूजिस कहते हैं कि 2019 में अमेरिका के साथ व्यापार युद्ध के चलते चीन की विकास दर उल्लेखनीय रूप से प्रभावित हुई है, उसका निर्यात घट गया है और  कमजोर भी हो रहा है। साथ ही विनिर्माण क्षेत्र में निवेश घटा है।3

 

कोरोना के बाद की दुनिया

यह कोरोना से पहले का घटनाक्रम है। दुनिया भर में की सरकारें अपनी जनता से डरी हुई थीं। उन की लोकप्रियता गिरती जा रही थी। खासकर चीन, भारत, अमेरिका आदि देश लोगों की आकाक्षाओं को दबाने के लिए फासीवादी हथकंडे अपना रहे थे। कोरोना ने काले कानूनों को लागू और लोकतांत्रिक मूल्यों को समाप्त करके  सरकार के विरोध में कुछ भी बोलनेवालों को कुचलने के रास्ते खुल गए हैं। एक तरह से देखा जाए तो कोरोना फासीवाद को मजबूत करने के लिए साम्राज्यवादियों और देश के शासक वर्गों के हाथ में एक मजबूत हथियार बनकर सामने आ रहा है।

बीबीसी संवादाता रेहान फजल ने अपनी रिपोर्ट4 में जिक्र किया है कि इसके बाद शायद कुछ देश उतने लोकतांत्रिक नहीं रहेंगे जितने वे मार्च 2020 से पहले हुआ करते थे।  उनका इशारा इस बात की तरफ है कि दुनिया भर की सरकारें जिस तरह से अंधाधुंध घोषणाएं कर रही हैं, प्रतिबंध लगा रही हैं, पुलिस और फौज को खुली छूट दे रही हैं, पुलिस-फौज बेकसूर लोगों को मार-पीट रही है, एक तरह से नागरिक प्रशासन की जगह पुलिस और फौज ने ले ली है। शायद यह आने वाले समय में स्थाई हो जाए। लोगों को इस बात का एहसास करवाया जा रहा है कि यह सब आपकी सुरक्षा के लिए जरूरी है।

 

भारत में मुंह मांगी मुराद

भारत में जब प्रधानमंत्री द्वारा लॉकडाउन और कर्फ्यू की घोषणा की गई तो ऐसा लग रहा था जैसे देश की सरकार की मुंह मांगी मुराद पूरी हो गई हो। जिस राजनीतिक आक्रोश को, संघर्ष को वह कुचल नहीं पा रही थी, देशव्यापी विरोध प्रदर्शनों की नई रीत से जैसी वह डरी हुई थी, उसको कोरोना के संकट ने एक झटके में बदल दिया। पैदल घरों की तरफ लौट रहे मजदूरों को दवा, पानी, राशन देने की बजाए उन पर पुलिस को खुले सांडों की तरह छोड़ दिया गया जैसे कि मजदूर ही इस बीमारी का मुख्य कारण हों। इसके बाद तबलीगी जमात के तौर पर शासक वर्गीय सत्ताधारी पार्टी को अपना मनपसंद दुश्मन भी मिल ही गया।

ऐसा लगता है जैसे नाक के नीचे दिल्ली में जमावड़ा बनाए रखना और कर्फ्यू के चरम पर उनका दिल्ली से निकल कर पूरे देश में फैलाना, किसी साजिश का हिस्सा रहा हो। इसके बाद दक्षिणपंथी पार्टी द्वारा उनको मुख्य दुश्मन के तौर पर प्रचारित करना, पूरे सोशल मिडिया पर छाया रहा। बीबीसी अपनी रिपोर्ट में कहती है मानवाधिकारों पर पाबंदी से लोकतंत्र कमजोर हुए हैं।“कोरोना वायरस के आने से कहीं पहले दुनिया के कई देशों में लोकतंत्र की जड़ें कम हो रही थीं। प्रजातांत्रिक मूल्यों के लिए काम करने वाली संस्था ‘फ्रीडम हाउस’ की बात मानी जाए तो पिछले साल 64 देशों में लोकतांत्रिक मूल्य पहले की तुलना में कम हुए हैं। ‘‘ जब दुनिया के बहुत से देश इस महामारी से निपटने के लिए असाधारण कदम उठा रहे हैं, तानाशाह और प्रजातांत्रिक-दोनों तरह के देशों में मानवाधिकारों को बड़े स्तर पर संकुचित किया जा रहा है। व्यापार को बंद करना, सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग)को लागू करने पर जोर देना, लोगों को सड़क से दूर रखने और उनके जमा होने पर रोक और कर्फ्यू लगाने जैसे कदम इस बीमारी को रोकने के लिए बेशक जरूरी कदम हैं लेकिन इस बात के भी गंभीर खतरे हैं कि इससे तानाशाही की नई लहर को भी बढ़ावा मिल सकता है।”

ये आशंकाएं नजरंदाज नहीं की जा सकतीं। खासकर भारत में जहां सत्ताधारी पार्टी के सांसद खुल कर घोषणा करते हैं कि 2025 के बाद चुनावों की जरूरत नहीं होगी। सोशल मीडिया पर यह संदेश भी प्रचारित हो रहे हैं कि देश के प्रधानमंत्री का विरोध करना देश का विरोध करना है, या देशद्रोह है। एक संदेश फैल रहा है कि जिस प्रकार चीन और उत्तर कोरिया जैसे देशों में आजीवन प्रधानमंत्री होते हैं, भारत में भी ऐसा ही होना चाहिए। प्रधानमंत्री की गैर वैज्ञानिक नौटंकी को एक तबके का पूरा समर्थन मिल रहा है। यानी भारतीय फासीवाद अपने साथ एक तबके को लगाने में कामयाब होता जा रहा है। सोशल मीडिया और जमीनी स्तर पर ऐसी फौज तैयार हो रही है जो कि सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ कुछ नहीं सुनना चाहती। जिन राज्यों में सत्ताधारी पार्टी की सरकारें हैं वहां पर खासतौर से आपतकालीन कानूनों को अपनी पकड़ मजबूत करने, अपने मनपसंदीदा दुश्मन को निशाना बनाने, लोकतांत्रिक, क्रांतिकारी संघर्षों को कुचलने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।

 

गुनाह पासपोर्ट का था, दरबदर राशनकार्ड हो गए

कोरोना को देश में लाने के लिए मुख्य रूप से वह तबका जिम्मेदार है जो विदेशों में अपने ऐशो-आराम, कारोबार तथा काम-धंधों के लिए आना-जाना करता है। सबसे पहले देश में कोरोना का मरीज जो पाया गया वह केरल में था। वह विदेश से आई युवती थी। गायिका अभिनेत्री कनिका कपूर ने भी इस मामले में खूब वाही-वाही लूटी।

इसके बाद विदेश से लौटकर आने वालों की बाकी भीड़ ने इस भारी तबाही को जन्म दिया। लेकिन इसका सबसे अधिक खामियाजा मजदूर तबके को भुगतना पड़ रहा है। यह वही मजदूर तबका है जो कि केरल से लेकर कन्याकुमारी तक, रेगिस्तान से लेकर समुद्र तट तक, हड्डियां जमा देने वाली रोहतांग, लेह-लद्दाख की बर्फ तक की परवाह न करते हुए बड़ी ढांचा निर्माण परियोजनाओं से लेकर फैक्ट्रियों तक में कार्य कर रहा है। इसने आठ-आठ लेन की सड़कें बनाई हैं, पहाड़ों का सीना चीर रेल लाइने बिछाई हैं, सूरंगें खोदी हैं, गगनचूंबी इमारतें बनाई हैं। यह वही वर्ग है जो देश की अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करता है। लेकिन इस गरीब लाचार मजदूर तबके के खिलाफ शासक वर्ग के साथ मिलकर मध्य व उच्च मध्य वर्ग के बड़े हिस्से और गोदी मीडिया ने जो आरोप लगाया, उनको दोषी ठहराया, उनको गालियां दीं, वह देश के इतिहास में काले धब्बे के तौर पर अंकित रहेगा। सारा दोष उस गरीब तबके पर मढ़ा जा रहा है जो इस रोग से बहुत दूर था। जो दो वक्त की रोटी के लिए पूरे देश में दरबदर ठोकर खाने पर मजबूर है। हजारों-लाखों लोग देश में सैकड़ों किलोमीटर का सफर तय कर, चोरों की तरह छिपकर अपने घरों को जाने के लिए मजबूर हुए।

बीमारी चाहे विदेशों से आई हो और देश के उच्च-मध्यवर्ग, शासक जमातों के जरिए आई हो, लेकिन भविष्य में भी इसका शिकार सबसे अधिक देश का गरीब मजदूर, किसान वर्ग ही होने जा रहा है। क्योंकि अमीरों के लिए एक से एक अस्पताल हैं, स्वास्थ्य सुविधाएं हैं, वह अपने बंगलों में क्वॉरेंटाइन नियमों का आनंद उठा सकते हैं। पर क्या मजदूर और निम्नवर्ग के लिए यह अय्याशी संभव है? एक सरकारी अधिकारी के अनुसार गांव में लोग अपने घरों में क्वॉरेंटाइन नहीं रह सकते, सभी घरों में एक ही स्नानघर और शौचालय होता है, यहां तक की कभी-कभी पूरा परिवार एक ही तौलिए और साबुन का इस्तेमाल करता है। सवाल है, ऐसे मरीजों को गांव में कैसे रखा जाए?

बात जायज है और पूरे देश की ग्रामीण आबादी के लिए सटीक है। कोरोना वायरस सर्वाधिक निशाना उन लोगों को बनाता है जिनका ‘इम्यून सिस्टम’ या फिर रोग प्रतिरोध प्रणाली कमजोर होती है। जाहिर सी बात है कि जिस देश की 37.2 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीती हो उस देश के लोगों का इम्यून सिस्टम कैसे मजबूत हो सकता है। इसलिए कोरोना का सबसे बड़ा कहर इसी वर्ग होगा।

एक और मसला यह है कि लाकडाउन के बाद जिस तरह से भारी संख्या में असंगठित क्षेत्र के मजदूर अपने गांवों को वापस गए हैं उसके कारण वहां की अर्थव्यवस्था इनके बोझ को नहीं उठा पाएगी। अगर गांव में काम होता तो उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडिशा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड जैसे राज्यों के लाखों-करोड़ों लोग अपना घर-बार छोड़कर शहरों की ओर पलायन ही क्यों करते। यही लोग जब लौटकर गांव पहुंचेंगे तो वहां इनको किस तरह रोजगार मिल पाएगा? स्पष्ट है कि वहां इनको किसी तरह का रोजगार हासिल नहीं होगा। जो कुछ पैसा इन्होंने कमाया था वह एक-दो महीने से अधिक इनके परिवारों का पेट नहीं भर पाएगा। बहुत सारे लोग सरकार से मांग कर रहे हैं कि सरकार को इनके लिए सही पैकेज घोषित करना चाहिए। जो कंपनियां या फैक्ट्रियां बंद हो गई हैं, उत्पादन ठप पड़ गया है, ठेकेदार के पास मजदूर हैं उनके लिए सरकार प्रबंध करे। लेकिन किसी भी तरह का सरकारी पैकेज इनको स्थाई राहत नहीं दे सकता।

बीपीएल परिवारों को दो माह का राशन, कई राज्यों में दो या तीन महीने फ्री गैस सप्लाई या फिर पांच सौ या दो हजार रुपए की किस्तों से करोड़ों लोगों का पेट नहीं भर पाएगा।5 कोरोना से ज्यादा लोग भुखमरी के शिकार होकर मरेंगे। बिना पैसे स्वास्थ्य सुविधाएं खरीद पाना करोड़ों की इस आबादी के लिए दूर की कौड़ी है। इसलिए कोई भी राहत पैकेज केवल और केवल पूंजीपतियों, ठेकेदारों तक ही सीमित होगा। रिजर्व बैंक आफ इंडिया (आरबीआई) ने रिवर्स रेपो रेट या कहें बैंकों को दिए जाने वाले कर्ज पर ब्याज घटा कर जो पैंतरा चला है उससे केवल बड़ी कंपनियों तथा उद्योगों को कर्ज मिलेगा और आने वाले समय में उसका एनपीए में तब्दील होना तय है। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि बचे-खुचे चार बैंक भी दिवालिया होने की तरफ धकेल दिए गए हैं।

भारत सरकार ने कोरोना से लड़ने के लिए आंकड़ों का खेल खेलते हुए बजट के आंवटनों को फेरदबल कर 15 हजार करोड़ खर्च करने का ऐलान किया है, वहीं केरल इसके लिए 20 हजार करोड़ खर्च करेगा। इसमें अमेरिका ने भी अपने योगदान की घोषणा करते हुए 28 मार्च को 29 लाख डॉलर (21 करोड़ 71 लाख रुपए) देने का आश्वासन दिया है। यह वह राशि है जो अमेरिका ने अपने व्यापारिक हितों के मद्देनजर 64 देशों को जारी की है। अमेरिका 2,740 लाख अमेरिकी डॉलर की वित्तीय सहायता करेगा। हालांकि इसमें कहा गया है कि इमरजेंसी हेल्थ एंड ह्यूमेन फंडिंग (आपतकालीन स्वास्थ्य और मानवीय कोष) के तहत उन देशों को मदद दी जा रही है जो इस वैश्विक महामारी की सबसे ज्यादा चपेट में हैं। छह मार्च को अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने कोरोना वायरस प्रेपेयर्डनेस एंड रेस्पोन्स सप्लीमेंट एप्रोप्रिएशन एक्ट (कोरोना वायरस तैयारी तथा कार्रवाही पूरक विनियोग कानून) पर दस्तखत किए, जिसमें महामारी से लड़ रहे दुनियाभर के देशों को 130 करोड़ डॉलर देने का वादा किया गया है। वहीं चीन ने भी एलान कर दिया है कि विपत्ति के समय उसकी मदद करने वाले 19 देशों को कोरोना से लड़ने के लिए वह भरपूर मदद करेगा। भारत भी चीन की मदद की सूची में शामिल है।6 चीन ने सात अप्रैल को कोरोना वायरस के संक्रमण के इलाज में चिकित्साकर्मियों के इस्तेमाल में आने वाले निजी सुरक्षा उपकरणों (पीपीई) की 1.7 लाख किट भारत को सहायता के तौर पर दी है। इसके अलावा चीन ने 18 अफ्रीकी देशों की भी कोरोना से लड़ने के लिए मेडिकल जरूरतों की आपूर्ति की है।7 चीन और अमेरिका द्वारा विभिन्न देशों को दी जा रही यह राहत आने वाले समय में उन देशों के प्राकृतिक संसाधन हड़पने के ही काम आएगी।

जहां तक अपने-अपने गांव लौटी मेहनतकश जनता का सवाल है उसे केवल और केवल कृषि ही पर्याप्त रोजगार मुहैया करवा सकती है इसलिए उन तमाम भूमिहीन लोगों को जो कंगाली के चलते शहरों की तरफ पलायन कर मजदूर बने थे, उद्धार का एक मात्र रास्ता खेतिहर क्रांति ही बचती है। भूमिसुधार और उन लोगों को भूमि वितरण से ही रोजगार प्राप्त होगा बाकि सब पैकेज एक और धोखा साबित होंगे।

 

स्टे होमका रामबांण

जिस तरह से देश के शासक वर्ग ने लॉकडाउन और कर्फ्यू का हुक्म दिया, कोरोना से लड़ने के नाम पर ‘स्टे होम’ का नारा दिया, तो मेहनतकश की मुक्ति की बात करने वाले बहुत सारे संगठन, पार्टियां, एनजीओ तथा सामाजिक संगठन सरकार के सुर में सुर मिलाते नजर आए। यह पूंजीवाद के चंगुल में फंसने वाला नारा है। मेहनतकश की मुक्ति के लिए जी-जान लगाने, प्राणों तक को न्यौछावर करने की क्रांतिकारी भावना के खिलाफ नारा है। दुनियाभर में महामारियां पहले भी आई हैं, चाहे वह प्लेग के रूप में थीं या साम्राज्यवाद प्रायोजित अकाल के दौरान फैली महामारियां थीं। उस समय भी जान हथेली पर रखकर निकलने वाले क्रांतिकारियों के दुनिया में उदाहरण भरे पड़े हैं। आज कोरोना से सावधान रहने की जरूरत है, बचने की जरूरत है लेकिन घर पर बैठ कर तमाशा देखना बेहद शर्मनाक है। इस दौरान जब देश की जनता इस महामारी से जूझ रही है, देश की सर्वाधिक आबादी पर खतरा मंडरा रहा है, उस समय यह बेहद जरूरी हो जाता है कि हम उसके पास जाएं, उसकी सेवा करें, उसके लिए रोटी-कपड़ा-मकान-दवा का इंतजाम करें। क्योंकि सरकार के भरोसे बैठकर यह सुनिश्चित नहीं किया जा सकता कि वह इन सब पैकेजों से पूरा कर देगी।

आज फिर से जो भूमिहीन गांव में वापस जा रहे हैं उनके लिए भूमि की समस्या को उठाया जाए। सरकारी गोदामों में अनाज भरा पड़ा है, दवाएं भरी पड़ी हैं, बड़े-बड़े व्यापारी, जमींदार जमाखोरी कर मुनाफा कमाने के लिए तैयार बैठे हैं। सरकार साम्राज्यवादी आकाओं के आगे झुककर उनके लिए दवा, स्वास्थ्यकर्मियों के लिए जरूरी उपकरणों के निर्यात पर से पाबंदी हटा रही है। साम्राज्यवादी देश फिर हमारे संसाधनों का दोहन कर रहे हैं। ट्रंप की एक धमकी के आगे जिस तरह से हमारे शासक वर्ग ने घुटने टेक वह स्तब्ध करनेवाला है। विदेश भेजे जानेवाले ये सब उपकरण तथा दवाएं हमारे देश के लोगों के लिए जरूरी हैं।

दुनिया के बड़े-बड़े देश, बहुराष्ट्रीय कंपनियां, 44 से ज्यादा टीकों पर अरबों रुपए खर्च कर शोध कर रही हैं। आने वाले समय में साम्राज्यवाद इस तरह के टीकों को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करेगा। जो सबसे पहले कारोना का टीका बनाएगा वह अकूत मुनाफा कमाएगा, यह निश्चित है। जनता की जान से उसका कोई लेना-देना नहीं है। जब तक टीका नहीं आ जाता तब तक कई सारी दवाएं इसके इलाज के काम आ रही हैं। हमें लड़कर सुनिश्चित करवाना चाहिए कि वे दवाएं जनता को निःशुल्क मिलें।

निजी कंपनियों को कोरोना टेस्टिंग की अनुमति देना, बड़े-बड़े निजी कोरोना अस्पताल खोलने की अनुमति देना, यह सब सरकार अपने पूंजीपति दोस्तों का मुनाफा सुनिश्चित करने के लिए कर रही है। हमें इस बात के लिए लड़ना चाहिए कि स्वास्थ्य क्षेत्र पूरी तरह से सरकारी होना चाहिए। कोरोना के टेस्टों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए और पूरी तरफ मुफ्त होनी चाहिए। स्वास्थ्यकर्मियों के लिए जरूरी उपकरणों की सप्लाई की गारंटी होनी चाहिए। बड़े पैमाने पर निजी दवा कंपनियों को अपने हाथ में लेकर एंटी वायरल दवाओं का उत्पादन करना चाहिए खासतौर पर क्लोरोक्विन का, क्योंकि यह दवा बेहद सस्ती दवा है। भारी मात्रा में गैर जरूरी उत्पादन को रोक कर वेंटिलेटर और अन्य स्वास्थ्य मशीनों का उत्पादन होना चाहिए। तमाम निजी होटलों, रेस्तराओं, शापिंग मॉलों को, जो बंद पड़े हैं अस्पतालों में तब्दील किया जाना चाहिए। लोगों का इम्यून सिस्टम तभी मजबूत हो सकता है जब वह गरीबी रेखा से उपर उठेंगे, और इम्यून सिस्टम की कमजोरी तमाम बीमारियों की जड़ है। इसलिए यह लड़ाई आखिर में जाकर मजदूर-किसानों की जंग के रूप में तब्दील होती है। जब तक उसके पास अपनी जमीन और फैक्ट्रियों पर उसका अपना अधिकार नहीं होगा वह अपने लिए स्वास्थ्य, रोटी-कपड़ा-मकान हासिल नहीं कर सकता।

पूंजीवाद द्वारा स्थापित विकास का मॉडल ध्वस्त हो चुका है। यह जन विकास के वैकल्पिक माडल को पेश करने का समय है। इसलिए सरकार द्वारा की जा रही तानाशाही की रिहर्सल का मूल्यांकन बहुत सावधानी से करने की जरूरत है।

संदर्भ:

  1. https://www-google com/ url\sa¾ t&rct¾ j&q¾ &esrc¾ s&source¾ web&cd ¾33&cad ¾rja&uact¾8&ved¾2ahUKEwjNnquWjtPoAhX1yzgGHYtiA0IQie8BKAEwIHoECAEQAg& url¾https%3A%2F%2Fgoogle-com%2Fcovid19& map%2F%3Fhl% 3Den&usg¾AOvVaw 1m IAQj3h&rnSLqZzzE0u74
  2. https://economictimes-indiatimes-com/topic/UN&Departm ent&of &Economic &and& Social & Affairs
  3. https://fortune-com/2020/01/17/china&gdp&growth&2019&weakest&30&years&trade& war/
  4. https://www-bbc-com/hindi/international&52102995
  5. 2011 की जनगणना के अनुसार भारत मे बीपीएल जनसंख्या 21.9 प्रतिशत यानी 27 करोड़ थी जबकि 2004-05 में यह संख्या 37.2 प्रतिशत यानी 40 करोड़ 70 लाख थी। आंकड़ों के फेरबदल से 2011 में बीपीएल संख्या घटाई गई थी। https://www-google-com/url\sa¾t&rct¾j& q¾&esrc¾s&source¾web&cd ¾2& cad¾rja & ua ct¾8&ved¾2 ahUKEwjs qsf14tXo AhV1yjgGHUnBCVQQ FjABeg QIDBAE &url ¾ http %3A%2 F%2Fplanningcommission-nic-in%2Fnews %2Fpre_pov2307-pdf&usg ¾AOv Vaw2 dpPuK74j B6shw9 IL d9nRH
  6. https://www-jagran-com/world/china&coronavi rus&china&will&help& india&prevent & cor ona& virus& infection&20135166-html
  7. https://www-livehindustan-com/ national/story&coronav irus&lockdown &china& donates&17000 0&ppe&kits&to&ind ia&to&help& fight &covid19&3133362-html
  8. http://www-Ûinhuanet-com/english/2020&04/07/c_138952553_2-htm

 

लेखक एचपीयू, शिमला, के लॉ डिपार्टमेंट से संबद्ध हैं.

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एक छोटी-सी यात्रा का बड़ा-सा सवाल https://www.samayantar.com/%e0%a4%8f%e0%a4%95-%e0%a4%9b%e0%a5%8b%e0%a4%9f%e0%a5%80-%e0%a4%b8%e0%a5%80-%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%ac%e0%a5%9c%e0%a4%be-%e0%a4%b8%e0%a4%be/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%8f%e0%a4%95-%e0%a4%9b%e0%a5%8b%e0%a4%9f%e0%a5%80-%e0%a4%b8%e0%a5%80-%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%ac%e0%a5%9c%e0%a4%be-%e0%a4%b8%e0%a4%be/#respond Wed, 08 Apr 2020 04:52:15 +0000 https://www.samayantar.com/?p=129 कोरोना की छाया में की गई अपनी यात्रा पर पंकज बिष्ट

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कोरोना की छाया में की गई अपनी यात्रा पर  पंकज बिष्ट

 

ट्रेन टाइम पर थी। जैसा कि इधर हो रहा है।

सिर्फ छह मिनट देर से, इंटरनेट देख युवामित्र पुष्पराज ने बतलाया था। काल को अनंत मानने वालों के लिए छह मिनट कोई मायने रखता है, भला! मुझे याद आया कि फासिज्म को लेकर इटली में एक व्यंग्य भी था, ट्रेनें समय पर चल रही हैं। यहां भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। जहां तक बाकी आधुनिक सुविधाओं का सवाल है, वे वैसे ही लडख़ड़ा रही थीं जैसे कि शेष भारत में। डिब्बों का संकेत देने वाले इलेक्ट्रॉनिक बोर्ड मुंह लटकाए थे। नतीजा ट्रेन के आते ही लपकते हुए और पीछे की ओर जाना पड़ा। गनीमत थी कि डिब्बों में नंबर स्पष्ट थे। इसी तरह के कारण बतलाते नजर आते हैं कि मीटर गेज से एक आध दशक पहले ब्रॉड गेज हुए इस रुद्रपुर स्टेशन का आधारभूत ढांचा वैसा ही है औपनिवेशिक दौर वाला पर आधा 21वीं सदी की चाल चल रहा है।

बतलाया जाता है कुमाऊं के चंद राजाओं ने इस कस्बे को चार सौ साल पहले बसाया था, जाड़ा काटने के लिए। रुद्रपुर इधर बड़े शहर में बदल गया है। मेरे देखते यह एक ऊंघता-सा कस्बा जिस गति से बढ़ा है उसके लिए अंग्रेजी मुहावरा मजेदार है ‘ब्रेक नेक स्पीड’- यानी ‘गर्दन-तोड़ गति’। 57-58 की बात है तब स्टेशन पर मिट्टी के तेल के लैंपपोस्ट हुआ करते थे। तब मुझे यहां से गुजरने का मौका मिला था ट्रेन से। कुछ सरकारी दफ्तर थे और शायद विकास वगैरह के कुछ प्रशिक्षण के केंद्र भी। सबके सब अंग्रेजी दौर के। इस मैटामॉर्फोसिस का श्रेय जाता है उदारवाद को। नारायण दत्त तिवारी ने, जब उन्हें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से आगे बढ़ कर उत्तरांचल उर्फ उत्तराखंड का मुख्यमंत्री (सन् 2002) बनने का सौभाग्य मिला, इस पहाड़ी प्रदेश को ‘औद्योगिकृत करने में उन्होंने देर नहीं लगाई। इसी प्रक्रिया ने, इस अनजान-से, इतिहास के खड्डे में पड़े, कस्बे को निर्णायक रूप से आधुनिक कर दिया। तिवारी ने यहां से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर छह दशक पहले अमेरिकी सहयोग से स्थापित भारत के सबसे बड़े कृषि विश्वविद्यालय की एक तिहाई जमीन छीन कर मिट्टी के मोल उद्योगों के सुपुर्द कर दी। वैसे यहां यह बता देना गैरवाजिब नहीं होगा कि इस विश्वविद्यालय ने भारत की हरित क्रांति में निर्णायक भूमिका निभाई थी। खैर, पर ऐसा भी नहीं है कि यह सब उन्होंने मुफ्त में किया हो। विश्वविद्यालय को एक रुपया प्रति वर्ग मीटर की आलीशान दर से मुआवजा दिया गया। यहां उद्योग आए भी। और आते भी क्यों नहीं उन्हें हर किस्म की सुविधाएं दी जा रही थीं जैसे कि सस्ती जमीन, उदार ऋण और सबसे बड़ी बात उत्पादन कर में छूट। वह विशेष छूट जो उनके माल को सस्ता कर देती है और प्रतिद्वंद्विता में आसानी हो जाती है। यह बात और है कि यह किसकी और किस कीमत पर होता है। वैसे इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कर की यह छूट एक निश्चित अवधि के लिए होती है और जैसे ही वह पूरी होती है, कंपनियां बोरिया-बिस्तर बांध लेती हैं, पर हां सस्ती जमीन को घेरे रहती हैं। इसलिए यहां बंद कंपनियों और नई खुलने वाली कंपनियों में मुकाबला बना रहता है।

इस औद्योगीकरण ने यहां कई देसी-विदेशी कंपनियों को अपनी फैक्टरियां लगाने को प्रेरित किया और देखते-देखते रुद्रपुर ऐतिहासिक नगर से ऐसे औद्योगिक नगर में परिवर्तित हो गया जहां कंपनियों का आना-जाना लगा रहता है। और जैसा कि होना था, पूंजी के उदार और मजदूरी के असुरक्षित बाजार के चलते यहां डिग्री-डिप्लोमा होल्डरों की भीड़ मंडराने लगी जो आठ-नौ हजार से लेकर 10-12 हजार तक की पगार पर बिना किसी सुविधा या सुरक्षा के आठ से दस घंटे खटने को तैयार रहती है। कामगारों का यहां से जाना भी उसी गति से रहता है क्योंकि शायद ही कोई नौकरी स्थायी हो। शायद ही किसी को पता हो कि अगले महीने क्या हो सकता है? कब कौन-सी कंपनी बोरिया-बिस्तर बांध कर चल दे। हां, जमीन पर बोर्ड मुस्तैदी से जमा रहता है। इधर की मंदी ने रही-सही कसर पूरी कर दी है।

पर मैं रुद्रपुर नहीं आया था। बल्कि बरास्ता रुद्रपुर इस बार भी दिनेशपुर आया था, जो अगर मैं गलत नहीं कह रहा हूं तो छोटा-सा शरणार्थी कस्बा है। इसके बाशिंदे मुख्यत: बंगाली और पंजाबी हैं। मेरे यहां आने की कहानी के दो कारण हैं। पहला है पुराने मित्र पलाश विश्वास, बांग्ला में बिस्वास, जो जाने-माने हिंदी लेखक के अलावा पत्रकार हैं। वह हिंदी के कई अखबारों से जुड़े रहे हैं और जनसत्ता कोलकाता से रिटायर होने के बाद अब अपने गांव बसंतीपुर चले आए हैं। यह गांव दिनेशपुर से लगभग तीन किमी की दूरी पर है।

दूसरे सज्जन हैं युवा पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता रूपेश कुमार सिंह। सच यह है कि मेरी यह दिनेशपुर की दूसरी यात्रा थी। जब मैं पहली बार यहां आया था कोई चार-पांच साल पहले तब पलाश यहां नहीं थे। पलाश आजकल यहां से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका प्रेरणा अंशु के कार्यकारी संपादक हैं। पिछले 32 वर्षों से प्रकाशित होने वाली इस पत्रिका के संस्थापक संपादक प्रताप सिंह मास्साब थे। उन्होंने अपना जीवन एक अध्यापक के रूप में बरेली में शिशु शिक्षा मंदिर से शुरू किया और तबादला होने पर यहां आए थे। पर जल्दी ही वह विचारधारात्मक असहमतियों के कारण उससे अलग हो गए और उन्होंने यहां अपने बलबूते ‘समाजोत्थान’ नामक स्कूल की शुरुआत की, जो आज फलफूल रहा है। यह स्कूल उनके सरोकारों का भी संकेत है। उनका देहांत दो वर्ष पहले कैंसर से हो गया था। अपनी पिछली यात्रा के दौरान मुझे उनसे मिलने का सौभाग्य मिला था। तब भी समारोह प्रेरणाअंशु की स्थापना दिवस का ही था।

पत्रिका के वर्तमान संपादक रूपेश उनके पुत्र हैं। बड़े जीवट के व्यक्ति हैं, उनकी विशेषता यह है कि वह स्वयं को पूरे उत्तराखंड से जोड़कर देखते हैं और संभवत: तराई के साथ-साथ हर पहाड़ी राजनीतिक और सामाजिक गतिविधि में भी उतने ही उत्साह से भाग लेते हैं। यह समारोह इस मायने में महत्त्वपूर्ण होता है कि वह कई स्थानीय लेखकों, पत्रकारों और राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं को तो जुटाते ही हैं किसी ज्वलंत सामाजिक-राजनीतिक मुद्दे पर खुली चर्चा भी करवाते हैं। इस बार का विषय था ‘राजनीति अर्थव्यवस्था व साहित्य में कहां हैं गांव और किसानÓ। लेखक और माले के नेता इंद्रेश मैखुरी से पहला साक्षात्कार यहीं हुआ। मैं उन्हें अर्से से जानता हूं और वह समयांतर के लिए लिखते रहे हैं, यह पाठकों को बताने की जरूरत नहीं है, पर मिलना नहीं हुआ था। इसके साथ यह बात भी नोट करने लायक है कि वहां उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के संस्थापक पीसी तिवारी, युवा कवि अनलि कार्की और फिल्मकार राजीव कुमार जैसे लोग भी थे, जिनसे वर्षों में मुलाकात हो पाती है।

पर यहां पहली बार एक विशेष व्यक्ति से मुलाकात हुई जो कृषि वैज्ञानिक और गोविंद बल्लभ पंत कृषि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हैं। राजेश प्रताप सिंह का उत्तराखंड की कृषि के बारे में जैसा ज्ञान है वह आंखें खोलने वाला है। उन्होंने अपने व्याख्यान में बतलाया कि उत्तराखंड में स्थानीय फसलों को खत्मकर बिना सोचे-समझे बाहरी फसलों को थोपने ने राज्य के पहाड़ी इलाकों को उजाडऩे में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। नेतृत्व ही दृष्टिहीनता और नासमझी की इसमें मुख्य भूमिका रही है। यह भी मेरे लिए कम प्रसन्नता की बात नहीं है कि वह पिछले दो दशक से समयांतर के नियमित पाठक हैं।

दिनेशपुर जहां बसा है वह असल में आजादी तक तराई का जंगल हुआ करता था। बस्तियां अक्सर अपने में मानव सभ्यता का इतिहास या कहिए उसके विकास के सभी प्रमाणों को लिए होती हैं। यह बात और है कि वर्तमान अक्सर इन्हें, अपनी सक्रियता और समकालीनता के दबावों के कारण, सामने नहीं आने देता। पर चीजों को जरा-सा कुरेदिये कि जानकारियां आपको इतिहास के मालखाने के दरवाजे पर ला खड़ा करने में देर नहीं लगातीं।

तराई के घनघोर जंगलों के बीच छिपे, कुमाऊं के पिछले चार सौ वर्षों के ठहरे हुए विगत को, कुछ देर को भुला दें तो जीवंतता से भरा और मंथर गति से चलता दिनेशपुर भारत की आजादी के सात दशक पूर्व के रक्तरंजित इतिहास के अलावा उसकी सामाजिक संरचना की विसंगतियों और कुटिलताओं के परिणाम के तौर पर हमारे सामने खड़ा नजर आता है। यहां औपनिवेशिक भारत, जिसको भारतीय बर्जुआजी ‘भारत माताÓ के रूप में हासिल करना चाहती थी, पर वह उनके हाथ तीन टुकड़ों के रूप में आई थी, के उन दो छोरों के हैं, जो अपने भूगोल में शब्दश: पूर्व और पश्चिम के हिस्से हैं।

पलाश का गांव बसंतीपुर इस दिनेशपुर से पांच किमी की दूरी पर पश्चिम, यानी कार्बेट पार्क, की ओर है। पलाश से पूछें तो वह बतलाएंगे कि हमारा गांव असल में कार्बेट पार्क का ही हिस्सा था। पहाड़ी तराई के मलेरिया से लगभग उतना ही घबराते थे जितना कि आज दुनिया कोरोना से बदहवास है। पलाश का परिवार यहां शरणार्थी के रूप में पूर्वी बंगाल के खुलना जिले से आया था। इसके अलावा जैसोर और दीनाजपुर से भी लोग यहां आए थे। यहां के कई गांवों के नाम, वही नाम वाले हैं, जहां से  इनके आज के निवासी बेदखल होकर शरणार्थी बने थे। कुल मिलाकर इस इलाके को, जहां आजकल साल में तीन से चार तक धान की फसलें होती हैं, जरखेज इन्हीं लोगों ने बनाया है। पलाश के परिवार का इस जगह से कितना गहरा नाता है, इसका अंदाजा इस बात से लग जाता है कि उनके गांव का नाम उनकी माता जी के ही नाम पर बसंतीपुर है। उनके पिता पुलिन बिस्वास स्वतंत्रता सेनानी थे और बंगाल के दलितों के बड़े नेताओं में थे। वह अंत तक भारत विभाजन का विरोध करते रहे थे।

पलाश का कहना है, और इसके प्रमाण हैं, कि बंगाल का विभाजन, वहां का मुसलमान नहीं बल्कि उच्च वर्णों के हिंदू चाहते थे। इसलिए कि पहली संयुक्त बंगाल की सरकार में दलितों और मुसलमानों का गठबंधन था और सवर्णों की भूमिका उसमें हाशिये की थी। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय से लेकर श्यामाप्रसाद मुखर्जी तक के योगदान की वह याद दिलाते हैं। बंगाल का विभाजन हुआ ही इसलिए ताकि उच्च वर्णों के हाथ में सत्ता आ जाए और बंगाल का वह हिस्सा, जो आज भारत का पश्चिम बंगाल प्रांत है, उस पर उच्चवर्ण प्रभुत्व विगत सात दशकों में कभी कमजोर नहीं हुआ है। सत्ता वहां चाहे कांग्रेस के हाथ में रही हो, कम्युनिस्टों के हाथ में रही हो या फिर तृणमूल के, जातीय संरचना में जरा भी झोल नहीं आया।

तीन दशक से कुछ ज्यादा ही समय तक कम्युनिस्टों द्वारा शासित रहे इस राज्य में आज अगर भाजपा जोर मारती नजर आ रही है तो वह भी अचानक तो नहीं है! इसे आप माक्र्सवाद की असफलता नहीं बल्कि जातिवाद की विजय के रूप में देख सकते हैं जो किसी अजस्त्र विषधारा की तरह पूरे भारतीय समाज में किसी अंत:सलिला की तरह चलती रहती है। ‘भद्रलोक’ अपनी जड़ों की ओर लौट रहा है?

पलाश का असंतोष समझ में आने वाला है। अपनी जड़ों से बलात उखाड़ दिया जाना कितना पीड़ाजनक हो सकता है इसे वे लोग ही समझ सकते हैं जो इस यंत्रणा, अपमान और उपेक्षा से गुजरे हों। तब तो यह और भी अधिक यंत्रणा का कारण बनता है जब आप वर्णव्यवस्था के चौथे पायदान पर हों।

इसके बावजूद सच यह है कि इन शरणार्थियों ने इस भूमि को बदल दिया है। दिनेशपुर आज एक उभरता हुआ खातापीता कस्बा है जिसमें निर्माणाधीन कोठियां और बंगले बता रहे हैं कि यहां के निवासी अपना विगत कंधे पर नहीं लादे हैं।

मेरी वापसी अगले ही दिन थी।

आप एक रात में क्या जान सकते हैं। मेरी जानकारी कुल मिलाकर कोई बहुत गहरी नहीं है। मौका मिला तो फिर कभी थोड़ा समय निकाल कर आऊंगा। भारत के सबसे बड़े दानदाता अजीम प्रेमजी फाउंडेशन ने यहां एक भव्य स्कूल और उसके साथ शिक्षकों के लिए प्रशिक्षण केंद्र और गेस्ट हाउस बनाया हुआ है। यहीं दूसरी मंजिल पर जिस कमरे में मैं था उसमें मेरे साथ दो युवा और थे। एक थे हमारे दिल्ली के पड़ोसी नोएडा निवासी आकाश नागर जो साप्ताहिक संडे पोस्ट से जुड़े हैं और उत्तराखंड की राजनीति के ‘विशेषज्ञ’ हैं। दूसरे पुराने परिचित पत्रकार और एक्टिविस्ट पुष्पराज, जिनके गांव मैं राजेंद्र यादव के साथ गया था। वह दिनकर के गांव के निवासी ही नहीं बल्कि उसी बिरादरी से हैं, जो बेगूसराय जिले में है।

आकाश नागर अत्यंत सरल और सेवाभावी हैं। जबसे मैं रुद्रपुर उतरा उन्होंने मुझे अपना सामान छूने नहीं दिया। न कोई बर्तन उठाने दिया। यह मेरे लिए खासा असहज करने वाला अनुभव था। ऐसा तो मेरे साथ मेरे बच्चे भी नहीं करते। चूंकि गाड़ी बस आने ही वाली थी और ज्योत्स्ना और बच्चे मुझसे लगातार पूछ रहे थे कि आप सावधानी बरत रहे हैं या नहीं, मुझे याद आया कि मेरे पास एक मास्क है जिसे इस यात्रा के लिए विशेषकर खरीदा गया है, पर जिसका मैंने अभी तक इस्तेमाल नहीं किया है, क्योंकि कोई और भी नहीं कर रहा था। मुझे मजाक सूझा, जो मैं अक्सर ज्योत्स्ना से करता रहता हूं। आप समझ जाएंगे कि मैं कैसे मजाक किसकी कीमत पर करता हूं।

मैंने अपना मोबाइल पुष्पराज को देते हुए कहा कि मेरा एक फोटो खेंच दो उसे दिल्ली भेजना है। मैंने मास्क निकाला और प्लेटफार्म पर ही पहन लिया। पुष्पराज ने फोटो खेंच दिया। और मैंने फोटो ज्योत्स्ना को ‘हेयर आई एम डब्ली सेफ’  लिखकर भेज दिया। उन्होंने दो अंगूठे दिखाते हुए जवाब में लिखा: ‘वेरी गुड’।

गाड़ी के आने पर जब हमने डिब्बा देखा तो पाया कि मेरा आरक्षण दूसरे दर्जे में है। मेरे दोनों युवा साथी इस बात से क्षुब्ध हो गए। मैंने उनसे कहा, कोई बात नहीं कुछ घंटे की बात है इसलिए खास परेशानी नहीं है। वैसे भी मैं सड़क मार्ग से  रास्ते की भीड़ के कारण नहीं जाना चाहता था। पुष्पराज का आग्रह था कि हम एसी चेयरकार में चलकर सहायक से बात करें। मुझे ये सब झंझट लगा। दूसरा, डर यह था कि बेमतलब कहीं इस चक्कर में गाड़ी ही हाथ से न निकल जाए।

मेरी बेचैनी के कई कारण थे। सबसे पहला बढ़ते कोरोना वायरस का डर, ज्योत्स्ना के अकेले होने की चिंता और उस किताब की चिंता जो पिछले दो महीने से मेरे कारण छपने से रुकी हुई है। मैं हर हालत में उसे इसी माह समाप्त कर देना चाहता था क्योंकि उसके बाद अप्रैल के समयांतर का काम भी था। इस तरह से मेरे पास सिर्फ चार दिन का समय था जिसे में किसी भी तरह गंवाना नहीं चाहता था। मैं आया भी बड़े दबाव में ही था।

मैंने उन्हें समझाया भी कि जो होना था सो हो गया, बात आगे न बढ़ाएं। लेकिन जिसकी शंका थी, वही हुआ। पर वह बाद में।

गाड़ी ने इस बीच लगभग दो घंटे की यात्रा पूरी कर ली थी और अब रामपुर आने ही वाला था। डिब्बे में जिस तरह की स्थिति थी मुझे लगा इससे बेहतर क्या हो सकता है! ऐसी कोई गर्मी भी नहीं थी। इसके अलावा कुछ सीटें खाली भी थीं।

पर रामपुर में जो भीड़ घुसी उससे सीटें ही नहीं बल्कि सीटों के बीच के रास्ते में भी यात्री खड़े हो गए। यानी रिजर्वड-अनरिजर्वड सब बराबर हो चुका था। दाड़ीवाले आदमी, बुर्केवाली औरतें बता रहीं थीं कि अधिसंख्य यात्री मुसलमान हैं। कहा नहीं जा सकता था कि भीड़ दिल्ली की है या रास्ते में उतर जाएगी। आगे मुरादाबाद और अमरोहा ऐसे शहर हैं जिनमें मुस्लिम जनसंख्या खासी मात्रा में है। गाड़ी का गाजियाबाद से पहले अमरोहा ही स्टैंड है।

हमारी तीन सीटों की पंक्ति में से एक सीट खाली थी। एक आदमी उसमें आकर बैठ गया। पर थोड़ी ही देर में वह उठा और आगे की ओर चल दिया। असल में टीटी आ रहा था। जैसे ही टीटी आगे निकल गया वह फिर से वापस आ गया। तब समझ में आया कि वह बिना रिजर्वेशन वाला है। गाड़ी तब तक आगे निकल चुकी थी। मेंहदी से रंगे बालों वाला मझली उम्र का वह आदमी रोज आने-जाने वाला लग रहा था, मुझे मन ही मन हंसी भी आई कि देखो रेल में यात्रा करना हर दिन की जीवित रहने की जुगाड़ का हिस्सा है। सामने ही एक महिला अपनी ढाई-तीन साल की बच्ची को पैरों से सटाए खड़ी हो चुकी थी। वह औरत सिंदूर-विंदूर लगाए थी; हो सकता है पति भी आसपास हो; मुरादाबाद ज्यादा दूर नहीं था पर आगे जाना हो तो! तब तक उस आदमी ने बच्ची की मां को अपने पास बैठा लिया। इस तरह से हम चार लोग तीन की सीट पर जम गए।

तभी वह फोन आया, जो मेरी मूर्खता का प्रमाण था; फोन रूपेश का था। उन्होंने माथा पीटने वाले स्वर में कहा, आप सेकेंड क्लास में क्यों जा रहे हैं! आपका टिकट तो एसी का है! कैसे? उन्होंने समझाया कि मैंने आपको सुबह ही कहा था कि आपका एसी का टिकट कनफर्म हो चुका है। आप वहीं जाइए। दूसरा टिकट तो सिर्फ इमेरजेंसी के लिए था!

ठीक है, मैंने कहा और मैं हंस पड़ा। हल्द्वानी से आ रहे आदमी ने, मामला क्या है वाले अंदाज में, मेरी तरफ देखा। मैंने अपनी मूर्खता के बारे में बतला दिया। भूरे बालों वाले ने मसले को लपक लिया। बोला, ”अरे… अरे… अरे आप क्यों बैठे हैं, चले जाइए। बीच में से निकल जाइएगा। ट्रेन इंटरलिंक्ड है।‘’ मैंने कहा भीड़ है। वह बोला, ”यह तो रोज का मामला है। निकल जाइए। लोग जाने देंगे। एसी का डिब्बा दो डिब्बों के बाद ही है।’’

मुझे आगे की ओर जाना था। मैंने बैग वहीं छोड़कर उठते हुए कहा, बैग मुरादाबाद ले लूंगा। किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी? जैसे ही मैंने दूसरे डिब्बे में घुसने की कोशिश की, भीड़ को देखकर छक्के छूट गए। मैं बैरंग लौटा और यह कहता हुआ कि मुरादाबाद ही बदलूंगा, वापस अपनी जगह पर बैठ गया। रामपुर से चढ़े आदमी ने मुझे फिर ललकारा, ”अरे यह तो रोज की बात है। लोग आपको जाने देते।‘’ वह मेरी बेवजह की नफासत से थोड़ा खिन्न लग रहा था। उसकी बात गलत नहीं थी। हॉकर बेधड़क चिप्स आदि के पैकेटों से लेकर लंच तक बेचते घूम रहे थे।

मैंने पूछा, मुरादाबाद कितनी दूर है! ‘’आता ही होगा’’, उसने आश्वस्त किया। मैं अपनी जगह पर बैठ गया। अचानक मुझे लगा, अपनी मां से चिपकी बच्ची मुझे रह-रह कर घूर रही है। पर यह कोई नई बात नहीं थी। छोटे बच्चे अक्सर मुझे घूरा करते हैं। मेरी दाढ़ी के कारण। पहले, जब काली थी, डरकर रोने भी लगते थे या मुंह छिपा लेते थे। हो सकता है उस बच्ची को मेरा बेमतलब आना-जाना नहीं सुहा रहा हो। खैर मुरादाबाद में डिब्बे से उतरते हुए मैंने सहयात्री से कहा, अगर सीट नहीं मिली तो लौटूंगा और जोड़ा, मेरी जगह इसे बैठा लेना; मेरा तात्पर्य  बच्ची और उसकी मां से था। बच्ची अपने सांवले रंग और चमकीली उत्सुक आंखों के कारण बहुत प्यारी थी।

डिब्बे में जब मैं अपनी सीट पर पहुंचा वहां एक युवती बैठी मिली। मेरे यह कहने पर कि सीट मेरी है वह बोली पर मुझे तो अलॉट की है। फिर उसने कहा कि आप उस सीट पर बैठ जाइए वह टीटी की ही है अभी आ जाएगा। मैंने टीटी को प्लेटफार्म पर ही पकडऩा बेहतर समझा। टीटी को जब मैंने टिकट दिखाया तो वह बोला, ”आप कहां रह गए थे!’’ मैंने यों ही बहाना किया, ”पीछे!’’ इस पर उसने कहा, ”सौभाग्य है सीट खाली है। आजकल भीड़ कम है कोरोना की वजह से। आप की सीट मैंने किसी और को दे दी है। अब आप फलां नंबर पर बैठ जाइए।‘’

जैसा उसने निर्देश किया, मैं अपनी किस्मत की जय जयकार करता सीट पर बैठ गया। तब तक गाड़ी को दिल्ली की ओर दौड़ते आधा घंटा तो ही चुका होगा। बाहरी हवा-पानी से अपनी चारदीवारी में सुरक्षित डिब्बे के सम्मानजनक माहौल में मैं इतना संतुष्ट हुआ कि बाकी सब भूल गया। तब याद आया कि रामपुर से ही पेशाब लगी हुई है पर वहां दूसरे कारण थे कि जाने की हिम्मत नहीं हो पाई थी।

पेशाब के बाद जैसे ही मैंने हाथ धोने के लिए वाश बेसिन की ओर मुंह किया, देखा कि मेरे मुंह पर पट्टी यानी मॉस्क लगा है। वही, जिसे मैंने फोटो खेंचने के लिए रुद्रपुर के स्टेशन पर पहना था। अचानक याद आने लगा। मां से लिपटी वह चमकीली बेचैन आंखों वाली बच्ची जो मुझे कनखियों से रह-रहकर  देख रही थी।

मेरी दाड़ी मास्क से छिपी हुई थी! वहां एक नई बात और थी : वाश बेसिन पर रखी सेनेटाइजर की छोटी-सी शीशी।

मैंने मॉस्क उतार कर जेब में रख लिया। सेनेटाइजर की कुछ बूंदें हाथों में मलीं और सीट पर आकर बैठ गया। दिल्ली आने तक बैठा ही रहा। स्टेशन से बाहर निकल कर भी मेरी हिम्मत नहीं हुई कि दोबारा मास्क पहन लूं।

वैसे भी मुझे टैक्सी मिलने में देर नहीं हुई।

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पूरे भारत में चल रहे लॉकडाउन की तुलना 2016 के मुद्रा के अवमूल्यन से की जा रही है। और इसका तर्क समझ में आता है। प्रधानमंत्री द्वारा की गई राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की घोषणा अचानक लिया गया निर्णय था। इसका समाज में जबर्दस्त असर पड़ेगा विशेषकर गरीबों पर। शासन करने की यह शैली जीएसटी के लागू किए जाने के दौरान भी साफ थी। यह सरकार में सर्वोच्च स्तर पर सत्ता के केंद्रित हो जाने को उसी तरह दर्शाता है जैसा कि इंदिरा गांधी के दौरान हो गया था। लेकिन 1970 में सरकार की कार्यप्रणाली की तुलना में वर्तमान व्यवस्था में राज्य ही सिकुड़ता नजर आता है।’’

क्रिस्टोफर जफरलॉटउत्सव शाह,  इंडियन एक्सप्रेस, 30 मार्च, 2020

 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 24 मार्च को देशके नाम उद्बोधन जिसमें 21 दिन के लॉक डाउन की घोषणा की गई थी ऐसा कार्यक्रम था जो भारत के टीवी के इतिहास में सबसे ज्यादा देखा गया। जैसे ही उद्बोधन समाप्त हुआ कई दर्शक भीड़ भरे बाजारों की ओर भागे जिससे की जरूरत की चीजों को जमा कर लें। मोदी को कुछ मिनट बाद ही जनता से यह आग्रह करने वाला ट्वीट करना पड़ा कि वे घबड़ाएं नहीं।

उद्बोधन ने जिसने आश्वस्त करने की जगह लोगों में और अनिश्चितता पैदा कर दी, रणनीतिगत संवाद की असफलता का अच्छा उदाहरण है।’’

संजय बारू, इकानोमिक टाइम्स , 30 मार्च, 2020

 

अंग्रेजी के 18वीं सदी के कवि एलेक्जेंडर पोप की एक कविता की पंक्ति है: फूल्स रश इन व्हेयर एंजिल्स फीयर टु ट्रीट (मूर्ख उस ओर सरपट दौड़ते हैं जहां जाने से समझदार लोग बचते हैं।)।

कोरोना वायरस (कोविड-19) के प्रकोप से भयाक्रांत माहौल में यह पंक्ति सटीक लगती है। आगे बढऩे से पहले हमें एक बात और समझ लेनी चाहिए कि कोई भी बीमारी बिना सामाजिक संदर्भ के नहीं होती। प्रश्न यह है कि जब प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय प्रसारण में 21 दिन की देश बंदी उर्फ लॉकडाउन की घोषणा की, क्या उससे पहले उन्होंने विशेषज्ञों से ठीक से सलाह-मशविरा कर लिया था? संजय बारू ने जिस बात की ओर इशारा किया है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने इतने महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर, मुख्यमंत्रियों की तो बात ही छोड़ें, यहां तक कि विशेषज्ञों से इसके विभिन्न पहलुओं पर चर्चा किए बिना देश-बंदी की घोषणा कर दी। जिन बातों पर चर्चा करना जरूरी था उनमें स्वास्थ्य व्यवस्था की क्या स्थिति है? कानून और व्यवस्था क्या होगी और सबसे बड़ी बात जिस देश में इतनी बड़ी संख्या में लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हों, उनके रहने और खाने का क्या होगा?

यहां यह याद रखना जरूरी है कि ये तीनों ही विषय राज्यों के कार्यक्षेत्र के हैं। क्या मुख्यमंत्रियों को विश्वास में नहीं लिया जाना चाहिए था?

इन बातों पर आने से पहले कुछ आधारभूत बातों को समझ लिया जाना चाहिए। पहली बात, यह बीमारी कम से कम भारत के संदर्भ में, उच्च और उच्चमध्य वर्ग की बीमारी है, जो मूलत: विदेशों से आई है। अब यह स्पष्ट है कि यह पश्चिम के रास्ते यानी खाड़ी देशों से होती हुई आई। दूसरी बात, गोकि यह अभी वैज्ञानिक स्तर पर सिद्ध नहीं हुई है पर व्यवहारिक स्तर पर देखा जा रहा है कि दक्षिणी गोलाद्र्ध में इस बीमारी की भयावहता उत्तरी गोलाद्र्ध की तुलना में कहीं कम है। इंडियन काउंसिल ऑफ मैडिकल रिसर्च (आइसीएमआर) से जुड़े डॉक्टर नरिंदर कुमार मेहरा के अनुसार भारतीय लोगों में कोविड-19 संहारक स्तर पर न पहुंचने के कई कारण हैं। जैसे कि देश की जनसंख्या में सघन माइक्रोबिएल लोड के होने से व्यापक इम्युनिटी है। भारतीय जनता का व्यापक विविधतावाले पैथोजेनों जिनमें बैक्टीरिया, पैरासाइट् और वायरस शामिल हैं जिसके कारण उनमें टी-सैल्स नामका सिस्टम बन गया है जो नए वायरसों को रोकता है। इधर प्रसिद्ध चिकित्साविज्ञान पत्रिका लेनसेट इनफेक्शन जर्नल के अनुसार इस बीमारी से होने वाली मृत्यु दर का जो अनुमान अब तक लागाया जा रहा था यह उससे कहीं कम होगा। पत्रिका के अनुसार जिन लोगों में बीमारी है या सिद्ध नहीं हुई है उनमें मृत्यु दर 0.66 प्रतिशत है और सिर्फ उन लोगों में जिनमें बीमारी निश्चित हो चुकी है 1.38 प्रतिशत है।

चीन में बीमारी दिसंबर के प्रारंभ में पैदा हुई और जनवरी में फूट चुकी थी। देखने लायक बात यह है कि वूहान से जो चार सौ छात्र भारत आए वे सब के सब क्वारंटाइन के बाद अपने घरों को सही सलामत चले गए। तथ्य यह भी है कि आइसीएमआर की ही संस्था नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वीरोलॉजी ने जनवरी के अंत में ही एक केस को पकड़ लिया था।

भारत सरकार इस बीच सोई रही। बहुत हुआ तो गोदी मीडिया और मोदी प्रशंसक सरकार के उन करतबों से गदगद थे, जिसके तहत सरकार विदेशों से भारतीय नागरिकों को स्वदेश ला रही थी। विशेषकर मध्य व उच्च वर्ग के भारतीय मैडिकल कालेजों के असफल बच्चों के मां-बाप, जो चीन आदि में पैसे के बल पर डॉक्टरी की डिग्री हासिल कर रहे थे, विशेषकर मोदी की जयजयकार कर रहे थे और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की हाय हाय कर रहे थे। ऐसा लगता है, न सरकार और न ही उसकी नौकरशाही को जरा-सा भी आभास था कि मामला इतना संगीन है। अगर होता तो क्या यह समझ में आने वाली बात है कि जनवरी से मार्च के बीच डेढ़ लाख लोग देश में आने दिए गए। निश्चय ही ये भारतीय नागरिक थे। और यह भी निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि इसमें अधिसंख्य उच्च व उच्चमध्यवर्ग का तबका था। इसका प्रमाण यह अफवाह भी है कि विदेशों से आने की पाबंदी के बावजूद कई चार्टर्ड विमान लॉक डाउन के दौरान भी भारत आते रहे। अगर ऐसा था तो साफ है कि ये वे अतिसंपन्न भारतीय थे जो योरोप या अमेरिका के नागरिक हो चुके होंगे और वहां फैलती महामारी से बचने के लिए भारत आ गए होंगे।

जहां तक सामान्य भारतीय नागरिकों का सवाल था, उनका देशके भीतरी भागों में पूर्वत आना-जाना हो रहा था (देखें : इसी अंक में प्रकाशित लेख ‘एक छोटी सी यात्राÓ)। यानी दूर-दराज की बात छोड़ें दिल्ली से लगे उत्तर प्रदेश तक में इसका कोई नामोनिशान नहीं था। अगर होता तो कम से कम रुद्रपुर से लेकर गाजियाबाद तक की 217 किलो मीटर की दूरी में लाखों आदमी इस बीमारी से पीडि़त हो चुके होते। यहां यह बात भी ध्यान रखने लायक है कि रुद्रपुर (1.54 लाख) के अलावा रामपुर (3.25 लाख), मुरादाबाद (8.9 लाख), अमरोहा (1.98 लाख) और गाजियाबाद (25 लाख की आबादी) इसके स्टेशन हैं और ये कोई छोटे शहर नहीं हैं। (इन सब शहरों की कुल आबादी 40 करोड़ से ज्यादा होती है।) इसके बाद आती है दिल्ली जिसकी अपनी आबादी ही दो करोड़ के करीब है।

यह भूला नहीं जा सकता कि यह देश चरम असमानताओं का देश है। 2009-10 के आंकड़ों के मुताबिक देश में मजदूरों की कुल संख्या 46.2 करोड़ थी। इसमें सिर्फ 2.8 प्रतिशत ही संगठित क्षेत्र में थे और 43 करोड़ असंगठित क्षेत्र में। पिछले दो दशकों की उदारीकरण की नीतियों के चलते देश में असंगठित क्षेत्र का जबर्दस्त विस्तार हुआ है। अनुमान है कि दिल्ली की आधी आबादी इसी तरह के श्रमिकों की है। यानी कुछ नहीं तो लगभग एक करोड़ असंगठित क्षेत्र के मजदूर अकेल दिल्ली में ही रहते हैं। दिल्ली का उदाहरण इसलिए जरूरी है कि जो इस महानगर में हुआ उसे पूरी दुनिया ने देखा। मान लीजिए कि इसमें से भी 25 प्रतिशत ऐसे मजदूर होंगे जो तुलनात्मक रूप से बेहतर स्थिति में हों तो भी अकेले दिल्ली में ही 75 लाख लोगों की आजीविका प्रधानमंत्री की घोषणा के साथ ही ध्वस्त हो गई थी। यह बताने की जरूरत नहीं है कि उनके साथ उनके परिवार भी भुखमरी के कगार पर पहुंच गए। बहुत ही अनुदार अनुमानों के हिसाब से भी अकेले दिल्ली में ही लगभग डेढ़ करोड़ लोग सड़क पर आ गए। अपने और अपने परिवार की जान बचाने के लिए शहर छोडऩा उनकी मजबूरी हो गया। सर्वोच्च न्यायालय में सरकार ने माना है कि पांच से छह लाख मजदूर पैदल अपने गांवों को गए। निश्चय ही यह आंकड़ा स्थिति की सही जानकारी नहीं दे रहा है।

पर सरकार और उसके एकछत्र नेता ने देश के नाम जो संदेश दिया, उसमें इस तरह की कोई चिंता ही नहीं थी। उन्होंने इन छोटी-मोटी बातों का अनुमान लगाना जरूरी ही नहीं समझा। यह भी अचानक नहीं है कि उच्च वर्ग और मध्यवर्ग ने कर्तल ध्वनि से इस देश-बंदी का स्वागत किया और ताली के बाद अगले दिन जोरदार थाली वादन भी दिया। उधर रेलवे ने अचानक ही घोषणा कर दी कि 22 तारीख को जनता कर्फू के कारण कोई भी रेल सुबह सात से रात के 10 बजे तक नहीं चलेंगी। फिर से 31 मार्च तक किया और अंतत: बढ़ाकर 14 अप्रैल तक कर दिया। रेलें देश में आनेजाने का सबसे बड़ा साधन हैं। जैसे ही देश बंदी की घोषणा हुई देश में भगदड़ मच गई। इसने क्वारंटाइन के उद्देश्य को ही अर्थहीन कर दिया क्यों कि लाखों की संख्या में लोग अपने गांवों की ओर पैदल तक चल पड़े। दूसरे शब्दों में अगर कहीं उसने इस छूत के रोग को फैलाने में मदद की। अगर रेलें चल रही होतीं और उनका सही प्रबंधन किया जाता तो बीमारी के फैलने को भी रोका जा सकता था और लोगों को बेरोजगारी के दौर में अपने गंतव्य स्थल तक पहुंचाया जा सकता था। इसके दुश्परिणाम जल्दी ही समाप्त होने वाले नहीं हैं। अब होगा यह कि मजदूरों को अपने घरों से काम की तलाश में निकलने के लिए हिम्मत जुटाने में समय लगेगा और इससे उत्पादन व अन्य कामों का पटरी पर बैठना मुश्किल रहेगा।

सरकार ने और जो अक्षम्य अनदेखियां कीं उनमें से सबसे बड़ी थी करोना वायरस के फै लने के कारणों की अनदेखी। चीन में इस रोग ने दिसंबर में महामारी का रूप ले लिया था और दुनिया भर में इसे लेकर सावधानियां बरती जाने लगीं थीं। पर हमारी कर्मठ सरकार मार्च तक सोती रही। इसका सबसे बड़ा उदाहरण दिल्ली का तबलीगी सम्मेलन है जिसमें कई देशों के लोगों ने भाग लिया। क्या यह भुलया जा सकता है कि इस कथित लॉक डाउन के दौरान ही उत्तर प्रदेश के सन्यासी मुख्यमंत्री ने लॉकडाउन के प्रतिबंधों का खुले आम उल्लंघन कर पूरे लाव लश्कर के साथ अयोध्या में राम लाला की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा कर के छोड़ी। मजे की बात यह है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने, जो अपनी कर्मठता के कारण ‘छोटे मोदीÓ कहे जा सकते हैं, तबलीग को तो यह कहते हुए कोसा कि नवरात्र चल रहे हैं पर हिंदू मंदिर नहीं जा रहे हैं, लेकिन योगी के खिलाफ एक शब्द नहीं बोले। यही नहीं, उन्होंने यह हिम्मत भी नहीं की कि कहते, संकट कुल मिलाकर केंद्र की लापरवाही के कारण हुआ है जिसके पास पुलिस, सीआईडी, सीबीआई, इंटेलिजेंस ब्यूरो और रॉ है और सब कुछ वहां से एकआध किमी की दूरी पर है।

जहां तक हिम्मत का सवाल है वह तो प्रेस ने भी नहीं किया। किसी भी अखबार या समाचार चैनल ने प्रधानमंत्री के विवेकहीन निर्णय के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा। खबरें आ रही हैं कि मोदी ने पहले ही प्रेस को बुलाकर सारा प्रबंधन कर लिया था। इसी अन्योन्य सौहार्दयता का परिणाम था कि प्रधानमंत्री ने समाचारपत्रों के महत्त्व को अपने संदेशों के माध्यम से रेखांकित किया और अखबारों ने इसे पूरे-पूरे पृष्ठों पर छापा। आपातकाल में जहां इंदिरा गांधी ने प्रेसों की बिजली काट कर अखबारों को छपने से बचाया था वहां लॉकडाउन के माध्यम से उन्होंने यह सबक सीखा कि बिना अखबारों की बिजली काटे छपे-छपाए अखबारों को पाठकों तक जाने से रोका जा सकता है और वह दिल्ली में हुआ! जी दिल्ली में। हॉकरों ने अखबार बांटने ही बंद कर दिए। इसका परिणाम यह हुआ कि हिंदू जैसे अखबार ने अपना दिल्ली संस्करण का मुद्रण ही रोक दिया गया।

जहां तक इस वैश्विक महामारी का सवाल है इससे पिछले दो महीने में देश में कुल 46 लोग मरे हैं और 1,614 बीमार हैं। हमारे देश की स्थिति को देखते हुए क्या यह संख्या कोई मायने रखती है? यह हैरान करने वाला है कि वर्तमान सरकार को आखिर इस बीमारी ने किस आधार पर इतना हिलाया हुआ है कि वह अपना आपा ही खो दे रही है? प्रधानमंत्री जी यह वह देश है जिसमें प्रति दिन टीबी से ही एक हजार लोग मरते हैं। निश्चय ही वह गरीबों की बीमारी है। दुर्गति का आलाम यह है कि देश में डॉक्टरों या अन्य स्वास्थ्यकर्मियों के लिए आवश्यक सुरक्षा कवच तक नहीं हैं। बाजार में मास्क और दस्ताने नहीं मिल रहे हैं। सेनेटाइजर गायब है। बीमारी के पीडि़तों के लिए जरूरी वेंटिलेटर नहीं हैं ऐसे में बीमारी के कोई कैसे रोक पाएगा? ताजा खबरों के अनुसार सरकार 24 मार्च को जाकर यह निर्णय कर पाई कि कौन-सी कंपनियां चिकित्साकर्मियों के लिए पीपीई (पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट यानी निजी बचाव कवच)बनाएंगी।

स्पष्ट है कि सरकार और उसका मुखिया अच्छी तरह जानता था कि उनके पास इतना बड़ा कदम उठाने और उसके प्रबंधन की क्षमता है ही नहीं। न ही सरकार की ओरसे कोई कोशिश नजर आई। अब सवाल है क्या यह कोई और राजनीतिक दांव है? इसका उत्तर भविष्य ही देगा।

चीन जैसे देश ने राष्ट्रव्यापी लॉक डाउन नहीं किया। योरोप के जिन देशों में लॉक डाउन है महामारी वहां अपने चरम पर है। अमेरिका में मरने वालों की संख्या 3300 हो गई थी पर वहां अभी भी लॉक डाउन नहीं किया गया था जब कि हमारे यहां मरने का सिलसिला ही लॉकडाउन के बाद सामने आया और इस संपादकीय के लिखे जाने तक न के बाराबर (45) था।

आखिर इतना ताबड़ तोड़ लॉक डाउन प्रधानमंत्री ने कौन सी चिंता के तहत किया, यह पूछा जाना चाहिए। हमारा देश पहले ही जबर्दस्त मंदी झेल रहा है। उसे देखते हुए इस तरह के किसी निर्णय को लेने से पहले कोई भी विचारवान नेता हजार बार सोचता। मूडी के अनुसार इस वर्ष भारत की विकास की दर 5.3 से घटकर 2.5 पर पहुंचने वाली है। विदेशी निवेशकों ने भारतीय शेयर बाजार से मार्च महीने में ही 150 करोड़ 90 लाख डालर निकाल लिए हैं। मोटर गाडिय़ों की मार्च में बिक्री 40 से 80 प्रतिशत गिर गई है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि संपन्न और ताकतवर लोगों को बचाने के लिए गरीबों और असहाय लोगों को दंडित किया जा रहा है?

पर हमें भूलना नहीं चाहिए यह देश चमत्कारों का देश है। हम व्यवहारिक, तार्किक और प्रगतिशील विचारों को नहीं बल्कि चमत्कारों को और अजूबों को पसंद करते हैं। हमारे आदर्श योगी, तांत्रिक, ज्योतिषी और चमत्कारी लोग हैं। ऐसे लोग जो हमें भ्रमित रख सकें, विपदाओं दैवीय नियति सिद्ध करें और यथास्थिति को बनाए रखने में सत्ताधारियों के लिए सहायक साबित हों। परम सत्य यह है कि हम परिवर्तन और आधुनिकात नहीं परंपरा चाहते हैं।

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हिंसा की गतिकी और दिल्ली के दंगे https://www.samayantar.com/%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%82%e0%a4%b8%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%97%e0%a4%a4%e0%a4%bf%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%a6%e0%a4%bf%e0%a4%b2%e0%a5%8d%e0%a4%b2%e0%a5%80-%e0%a4%95/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%82%e0%a4%b8%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%97%e0%a4%a4%e0%a4%bf%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%a6%e0%a4%bf%e0%a4%b2%e0%a5%8d%e0%a4%b2%e0%a5%80-%e0%a4%95/#respond Sun, 29 Mar 2020 21:28:11 +0000 https://www.samayantar.com/?p=18 फरवरी के अंतिम सप्ताह में दिल्ली में जो हुआ वह किसी तरह से अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता। अगर किसी रूप में वह अप्रत्याशित था [...]

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फरवरी के अंतिम सप्ताह में दिल्ली में जो हुआ वह किसी तरह से अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता। अगर किसी रूप में वह अप्रत्याशित था तो सिर्फ अपने ‘समयÓ के लिए। वैसे भी फरवरी दिल्ली के लिए खासा घटनाओं से भरा महीना साबित हुआ है। केंद्र में तथाकथित भाजपाई चाणक्य के अलावा धनुर्धर मोदी की भी छत्रछाया थी, जिन्होंने कुछ ही महीने पहले फिर से केंद्रीय सरकार की कमान संभाली थी और इस बीच एक के बाद एक कई राज्यों में हुई हार के बावजूद, जिसने मोदी और भाजपा के कथित जादू के खुमार को थोड़ा ठंडा कर दिया था, मोदी ने पिछली बार से ज्यादा सीटें हासिल की थीं। पर दिल्ली राजधानी थी और उसका नियंत्रण प्रतिष्ठा का सवाल था। वैसे भी आम आदमी पार्टी (आप) महाबली भाजपा के आगे क्या थी? एक छोटा-मोटा कृंतक प्राणी, जिसने एक घुड़की में इधर-उधर कहीं बिल में घुस जाना था। पर नतीजा क्या हुआ? चैपलिन की किसी मूक फिल्म की तरह एक सींखची गिट्टक से आदमी ने इस महाबली को ऐसा दांव मारा कि वह चारों खाने चित हो गया।

यह अमित शाह की नहीं बल्कि वास्तव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हार है, जिनकी सहमति के बिना सरकार ही नहीं बल्कि पार्टी में भी पत्ता तक नहीं हिलता। दूसरे शब्दों में वर्तमान सरकार की लगभग हर नीति के लिए सिर्फ वही जिम्मेदार हैं। यह किसी से छिपा भी नहीं है कि वर्तमान सरकार किसी भी रूप में सामूहिक नेतृत्व का उदाहरण पेश नहीं करती है। चूंकि हर सफलता का सेहरा – सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर पुलवामा और 370 तक का -उनकी पगड़ी, जिसका मोदी चुन हुए अवसरों पर ही इस्तेमाल करते हैं, में बंधता है तो फिर असफलता ने कहां जाना चाहिए? इसलिए अगर अभी नहीं आया है तो भी जल्दी ही, भाजपा ही नहीं बल्कि संघ की भी समझ में आ जाएगा कि यह कोई बहुत स्वस्थ स्थिति नहीं है। यों भी कि संसद की इस पाली के खत्म होते न होते उनके सिर इतनी जवाबदेही हो जाएगी कि वह दीनदयाल उपाध्याय मार्ग दिल्ली से लेकर नागपुर तक के लिए बोझ बन जाएंगे। अपने पिछले कार्यकाल में उन्होंने तात्कालिक राजनीतिक लाभ के चक्कर मेंं नोटबंदी जैसी जो गलती की और जिसे जीएसटी के त्रुटिपूर्ण कार्यान्वयन ने ऐसा घातक बना दिया कि देश की अर्थव्यवस्था आज भी उससे लडख़ड़ा रही है। उधर दुनिया भर में नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण आई मंदी के कारण जगह-जगह जो आर्थिक नाकेबंदी शुरू हुई है उसने सोने में सुहागे का काम किया है। स्पष्ट है कि बढ़ती बेरोजगारी और सरकारी नौकरियों के सिमटते जाने ने मंदी को और बढ़ा दिया है। ऐसे कोई आसार नहीं हैं कि निकट भविष्य में स्थितियों में सुधार हो पाएगा।

एक बहुत ही चलताऊ अंग्रेजी कहावत है, ‘ए मैन इज नोन बाई द कंपनी ही कीप्सÓ। यानी आदमी अपने संगियों (संघियों नहीं) के कारण जाना जाता है। मोदी की लोकप्रियता चाहे जो हो बुद्धिजीवियों से उनका छत्तीस का आंकड़ा है। वह बुद्धिजीवियों से मिलना तौहीन समझते हैं क्यों कि बुद्धिजीवियों पर उनकी लोकप्रियता का आतंक नहीं चलता। इसका कारण चाहे जो हो, नतीजा सामने है। उनके साथ किसी भी क्षेत्र की उत्कृष्टतम प्रतिभा जुड़ी हुई नहीं है। हालत यह है कि रघुराम राजन और उर्जित पटेल जैसे मध्यमार्गी विशेषज्ञों तक ने उनके साथ रहने से की जगह स्कूल-कॉलेजों में सर छिपाना बेहतर समझा।

इस स्तंभ में यह एक बार फिर दोहराया जा रहा है कि भारत एक विशाल देश है। मोदी का अनुभव क्षेत्र सिर्फ गुजरात तक सीमित रहा है। और गुजरात उत्तर प्रदेश के भी तीसरे हिस्से के बराबर है। नतीजा यह है कि उन्हें कहीं से भी सही या कम से कम सटीक सलाह नहीं मिलती। आज की दुनिया कई गुना जटिल है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से आप आज के न तो अपने समाज और न ही दूसरों के समाज को समझ सकते हैं। यह तथ्य आत्महीनता से ग्रस्त आम हिंदू को भरमाने और चुनाव जीतने के लिए मुफीद हो सकते हैं पर हैं अर्थहीन। यह अचानक नहीं है कि अमेरिका और ब्रिटेन की प्रगति का एक बड़ा कारण वहां विश्व की हर तरह की प्रतिभा का स्वागत किया जाना है। कम से कम अमेरिका तो आज तक वही कर रहा है और हम हैं कि लोगों को सिर्फ नागरिकता के कानूनी आधार पर बाहर कर देना चाहते हैं। खैर ये सब लंबी बातें हैं। असली बात यह है कि केंद्र की मोदी सरकार के ऐन नाक के नीचे पैसा, कार्यकर्ता और भुजबल की इफरात के बावजूद दिल्ली में भाजपा धूल धूसरित हो गई। तो क्या यह केंद्र की सरकार पर बट्टा नहीं है? असल में दिक्कत यह है कि मोदी सरकार की असफलता के दूरगामी परिणाम होना लाजमी हैं। ये असफलताएं उनकी निजी असफलता नहीं है। निजी रूप से तो वह एक सफल आदमी हैं। हों भी क्यों नहीं, आखिर कितने चायवाले के बच्चे प्रधानमंत्री पद पर पहुंचते हैं। पर उनकी असफलता उनके राजनीतिक कौशल और दूरदृष्टि की है और इससे दिक्कत देश और समाज को है।

इसलिए दिल्ली में जो हुआ है वह पानी के नाक से भी ऊपर पहुंच जाने का प्रमाण है। इसमें शक नहीं है कि नरेंद्र मोदी के उत्थान में गुजरात के दंगों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और अक्सर ही सांप्रदायिक दंगे भाजपा के लिए लाभप्रद साबित होते हैं। पर इस सब के बावजूद ऐसे समय जब दुनिया के सबसे ताकतवर देश का राष्ट्रपति शहर में हो इस पैमाने पर दंगा होना कि जिसमें चालीस के करीब लोग मारे जाएं, कोई सहज बात नहीं है। इसलिए यह भी अचानक नहीं है कि दुनिया के मीडिया, उस पर भी विशेषकर अमेरिकी मीडिया में, भारत में ट्रंप की यात्रा की उपलब्धियां तो दब गईं पर दिल्ली के दंगों में सरकार की असफलता प्रबल तरीके से सामने आई। मोदी की अमेरिका में छवि मजबूत करने की मंशा दबी की दबी रह गई। लोग मोटेरा की सवा लाख की ट्रंप की जयजयकार करती भीड़ कहीं पृष्ठभूमि में चली गई और जो संदेश अमेरिका सहित सारी दुनिया में पहुंचा वह था मोदी सरकारी प्रशासनिक असफलता और सांप्रदायिक झुकाव का जिसे उनके दल के छुटभईय्यों ने उघाडऩे में कसर नहीं छोड़ी। वैसे भी अगर देश की राजधानी में तीन दिन तक अहर्निश दंगे चलते रहें, हजारों करोड़ की संपत्ति आग की भेंट चढ़ जाए, सैकड़ों लोग घायल हों और 50 के करीब लोग मारे जाएं तो यह सब क्या कहलाएगा?

वैसे भी यह तब हो रहा है, जबकि पुलिस व्यवस्था केंद्र के हाथ में है। पर हमें भूलना नहीं चाहिए कि चाहे जितनी भी बारूद बिछी हो उसे पलीता लगाने का काम भाजपा नेताओं ने ही किया है। आप से ऐन चुनाव से पहले भाजपा में गए और चुनाव हारे हुए कपिल मिश्रा ही नहीं बल्कि केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर और सांसद प्रवेश वर्मा के गालियों से लैस बंदूक चलाने के अह्वान निंदनीय ही नहीं अपराधिक भी थे। आखिर प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष चुप क्यों हैं? गलती स्वीकार न करने का रवैया अव्यवहारिक ही नहीं बल्कि गैर लोकतांत्रिक और अपराधिक भी है।

दूसरे शब्दों में पिछले दो महीने से दिल्ली में लगातार सांप्रदायिक शब्दावली में आरोप प्रत्यारोपों का जो आदन-प्रदान हो रहा था, वह सबके सामने था। भाजपा के शीर्ष नेताओं ने इसे रोकने की जरा भी कोशिश नहीं की। सांप्रदायिकता को कार्य में परिणित करने वाले तथाकथित नेता लोग नहीं होते। उसे कार्यरूप में परिणित करने वाले कोई और होते हैं। अपनी हार से बिलबिलाए मिश्रा ने दो बार उस इलाके में जाकर जिस तरह की आक्रामक और भड़काऊ भाषा का प्रयोग किया उसके बाद और क्या होना था!

दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, जिनका रातों-रात तबादला कर दिया गया है, का यह सवाल वाजिब था कि आखिर पुलिस ने इतने दिन से इन कथित नेताओं के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की?

अब पुलिस की बात करते हैं। 27 फरवरी के इंडियन एक्सप्रेस में दीपांकर घोष की ‘वायोलेंस इज डाउन, कॉप प्रेजेंस अप: ‘ऊपर से ऑर्डर आ गयाÓ शीर्षक रिपोर्ट ध्यान देने लायक है। रिपोर्ट के अनुसार जब संवाददाता ने गोकुलपुरी के एक सिपाही से पूछा कि आखिर रातों-रात क्या हो गया है? तो उसका सीधा-सा उत्तर था: ”ऊपर से आर्डर आ गया रात को। अब सब शांत है।ÓÓ

क्या उच्च न्यायालय के न्यायाधीश महोदय के सवाल का जवाब इसी से नहीं जुड़ा है? सच भी यह है कि दिल्ली में पुलिस जो केंद्र के अंतर्गत है वह पिछले छह वर्षों से इसी तरह का व्यवहार कर रही है। इसी माह महिलाओं के एक कॉलेज में जब शोहदों ने धावा बोला और बदतमीजियां कीं तो पुलिस ने उनके खिलाफ तब तक कार्रवाई नहीं की जब तक ‘ऊपर से ऑर्डरÓ नहीं आ गया। इससे पहले इसी महीने जनेवि में या जामिया में जो हुआ उसको लेकर अब तक कुछ नहीं हुआ है। क्यों? स्पष्ट है कि ‘ऊपर से आदेशÓ नहीं आया। कहने का तात्पर्य यह है कि वर्तमान केंद्रीय सरकार ने पुलिस को कानून और व्यवस्था बनाए रखने वाली एक एजेंसी की जगह अपना निजी चाकर बना लिया है। उसकी स्वायत्तता खत्म कर दी गई है और वह एक संवेदना विहीन मशीन में बदल गई है। स्वायत्तता विहीन संस्थाएं अपने उर्जा और स्वस्फूर्तता खो देती हैं। आज की दिल्ली पुलिस उसका उदाहरण है।

इसके बाद यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि यमुनापार में तीन दिन तक जो होता रहा वह क्यों हुआ। निश्चय ही वहां बाहर के दंगाई पहुंचे थे और यह भी स्वयं सिद्ध है कि अगर वे भाजपा की ओर से भेजे नहीं गए थे तो भी इस दल के समर्थक थे और भाजपा के नेताओं के पहले से ही दिए जा रहे गैरजिम्मेदाराना और भड़काऊ भाषणों से प्रेरित तो थे ही। दूसरी ओर दूसरे पक्ष का उतना ही उग्र वर्ग इस तरह की किसी भी स्थिति के लिए तैयार था। पुलिस चूंकि पिछले छह वर्ष में ‘ऑर्डरÓ के इंतजार में रहने की आदी हो चुकी है, उसे समझ ही नहीं आया, कब क्या करना चाहिए।

पूर्वी दिल्ली की घटनाएं इस नगर राज्य के प्रशासनिक ढांचे को भी लेकर गंभीर प्रश्न उठाती हैं। स्पष्ट है कि यहां की कानून व्यवस्था चूंकि केंद्र के पास है और उसकी अपनी जिम्मेदारियां हैं, जो ज्यादा अहम हैं इसलिए वह इस छोटे से राज्य की ओर समुचित ध्यान नहीं दे पाता। इसका एक सबक यह है कि दिल्ली में कानून-व्यवस्था को राज्य सरकार को सौंपी जाए और सिर्फ उस क्षेत्र की सुरक्षा व्यवस्था केंद्र के पास रहे जहां सरकार और उसके कार्यालय स्थित हैं।

राष्ट्रीय नेतृत्व का दीवालियापन यह है कि दंगाग्रस्त क्षेत्र में केंद्रीय प्रतिनिधि के रूप में जनता को आश्वस्त करने कोई केंद्रीय मंत्री नहीं गया बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को भेजा गया जिसका काम मूलत: विदेशी सुरक्षा से संबंधित है। आखिर गृहमंत्री या प्रधानमंत्री क्यों नहीं गए? केंद्रीय सरकार के मुख्यालय से 10 किमी की दूरी पर इतने जबरदस्त दंगे हुए जो तीन दिन चलते रहे जिसमें लगभग 50 लोग मारे गए हजारों लोग घायल हुए, क्या यह छोटी बात है? प्रधान मंत्री लिट्टी चोखा खाने दिल्ली हाट जा सकते हैं पर लाखों की संख्या में पीडि़त जनता को आश्वासन देने नहीं जा सकते? चलो गृहमंत्री ही चले जाते आखिर यह उनके विभाग का मसला था, वह क्या कर रहे हैं?

इसे कैसे समझा और देखा जाए? क्या यह किसी डर की वजह से हो रहा है या फिर यह किसी बड़ी राजनीतिक घटना का पूर्व संकेत है? अथवा जनता को डराने के लिए एक ऐसे व्यक्ति को भेजा गया जो जीवन भर पुलिस अधिकारी रहा है।

भाजपा को और उसकी केंद्र की सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली में हिंसा की ऐसी घटनाएं 36 साल बाद लौटी हैं। ये अचानक नहीं आईं। ये बरास्ता हापुड़, जयपुर और मुजफ्फरनगर आईं हैं। इंडियन एक्सप्रेस के 27 तारीख के संपादकीयमें लिखा है: ”जैसा कि नजर आता है देशभर में सीएए विरोधी आंदोलन पूरी तरह से कानूनी दायरे में और शांतिपूर्ण हैं, दिल्ली में मई में मोदी सरकार की वापसी के बाद के आठ महीनों में मरने वालों की संख्या 50 से ऊपर पहुंच गई है (नवीनतम आंकड़ों के हिसाब से अब यह 75 होनी चाहिए – सं.) और यह कई गंभीर सवाल उठाती है जिन पर तत्काल ध्यान दिया जाना चाहिए।ÓÓ

हिंसा का गतिविज्ञान यह है कि अगर इसे जल्दी नहीं रोका गया तो फिर इसे नियंत्रित करना मुश्किल हो जाता है। विगत छह वर्षों के शासन में भाजपा ने बबूल को खूब पनपने दिया है। हिंसा और अराजकता भस्मासुर हैं वे हर हालत में लौट कर अपने जनक के पास आते हैं।

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