politics Archives — समयांतर https://www.samayantar.com/tag/politics/ विचार और संस्कृति का मासिक Tue, 29 Jun 2021 04:24:18 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.5.2 https://www.samayantar.com/wp-content/uploads/2020/03/cropped-Screen-Shot-2020-03-29-at-8.29.51-PM-3-32x32.png politics Archives — समयांतर https://www.samayantar.com/tag/politics/ 32 32 लोकतांत्रिक प्रहसन https://www.samayantar.com/%e0%a4%b2%e0%a5%8b%e0%a4%95%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%82%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%b9%e0%a4%b8%e0%a4%a8/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%b2%e0%a5%8b%e0%a4%95%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%82%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%b9%e0%a4%b8%e0%a4%a8/#respond Fri, 25 Jun 2021 01:29:20 +0000 https://www.samayantar.com/?p=664 लगतार राजनीतिक अस्थिरता के परेशान नेपाली संविधान निर्माताओं ने इस तरह की व्यवस्था करने का प्रयास किया ताकि पांच वर्ष तक चुनाव की जरूरत ही न पड़े और कोई न कोई सरकार देश में मौजूद रहे लेकिन जो व्यवस्था स्थिरता के लिए बनाई गई थी वही अस्थिरता और अनिश्चितता का कारण बन रही है।

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– प्रेम पुनेठा

लगतार राजनीतिक अस्थिरता के परेशान नेपाली संविधान निर्माताओं ने इस तरह की व्यवस्था करने का प्रयास किया ताकि पांच वर्ष तक चुनाव की जरूरत ही न पड़े और कोई न कोई सरकार देश में मौजूद रहे लेकिन जो व्यवस्था स्थिरता के लिए बनाई गई थी वही अस्थिरता और अनिश्चितता का कारण बन रही है।

 

नेपाल में सरकार को बनाने और संसद भंग करने को लेकर विचित्र लोकतांत्रिक प्रहसन चल रहा है। लगता है प्रधानमंत्री खडग प्रसाद शर्मा ओली (केपी ओली) की सरकार, राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी और विपक्षी नेता सभी मिलकर देश में स्थापित नए लोकतंत्र की अर्थी निकालने पर तुले हैं। संविधान के नाम पर जिस तरह से सरकार बनाने और बिगाडऩे का कार्य किया जा रहा है वह संविधान को ही बेईमानी साबित करने कर रहा है। मई 22 को नेपाल की राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने पांच महीने में दूसरी बार संसद के निचले सदन प्रतिनिधि सभा को भंग कर दिया और नवम्बर में मध्यवधि चुनाव की घोषणा कर दी। इससे पहले दिसम्बर में प्रधानमंत्री ओली सरकार की सिफारिश पर राष्टपति ने प्रतिनिधि सभा को भंग कर दिया था और मई में चुनाव की घोषणा की थी। जिसे नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक मानते हुए संसद को बहाल कर दिया था। सबसे दुखद यह है कि यह लोकतांत्रिक प्रहसन उस समय चल रहा है जब देश में कोराना के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं और लोगों की बड़ी संख्या में मौत हो रही है। जब राजनीतिक नेतृत्व को एकजुट होकर कोरोना से लडऩा था वह सत्ता के लिए आपस में सर फुट्टवल कर रहा है। सत्ता के इस निर्लज्ज खेल ने नेताओं की प्रतिष्ठा और सम्मान को मिट्टी में मिला दिया है।

नेपाल में 1990 के बाद राततंत्र सहित बहुदलीय राजनीति शुरू हुयी लेकिन इस राजनीति में बहुत अधिक अस्थिरता देखने को मिली और कोई भी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। लगातार अस्थिरता ने उग्र वामपंथियों को निराश कर दिया और माओवादियों ने नव जनवाद के नाम पर सशस्त्र आंदोलन की शुरूआत कर दी, जिसे माओवादियों ने जनयुद्ध का नाम दिया। दस वर्ष चले इस युद्ध के बाद नेपाल में राजतंत्र की समाप्ति के बाद गणतंत्र की स्थापना हुयी। इसके दो वर्ष के बाद पहली संविधान सभा के चुनाव हुए जो संविधान निर्माण में सफल नहीं हुयी तो 2013 में दूसरी संविधान सभा का गठन हुआ और 2015 में संविधान का निर्माण पूरा हुआ। इसके बाद कई सरकारें बनीं और 2018 में चुनाव के बाद केपी शर्मा ओली ने प्रधानमंत्री बने और अभी तक उनकी ही सरकार चल रही है। पिछले तीस वर्ष में नेपाल में 16 सरकारें बन-बिगड़ चुकी हैं।

लगतार राजनीतिक अस्थिरता के परेशान नेपाली संविधान निर्माताओं ने इस तरह की व्यवस्था करने का प्रयास किया ताकि पांच वर्ष तक चुनाव की जरूरत ही न पड़े और कोई न कोई सरकार देश में मौजूद रहे लेकिन जो व्यवस्था स्थिरता के लिए बनाई गई थी वही अस्थिरता और अनिश्चितता का कारण बन रही है। इन्हीं संवैधानिक व्यवस्थाओं के कारण ओली एक अल्पमत की सरकार बनाये हुए हैं और लगभग छह माह से तानाशाहीपूर्ण तरीके से शासन कर रहे हैं।

नेपाली संविधान के अनुसार सरकार बनाने के लिए राष्ट्रपति सबसे पहले बहुमत प्राप्त दल को बुलाता है। किसी दल को बहुमत न होने पर दो या उससे अधिक दल के गठबंधन की सरकार बनाई जा सकती है और अंतिम स्थिति में राष्ट्रपति सबसे बड़े दल के नेता को प्रधानमंत्री बना सकता है और उसे तीस दिन के अंदर बहुमत सिद्ध करना होगा। यदि वह बहुमत न पा सके तब उसे संसद को भंग करने की सिफारिश करने का अधिकार होगा।

इस स्थिति में देखा जाए तो 2017 के संसदीय चुनाव में नेपाली माओवादी और नेपाली एमाले ने मिलकर चुनाव लड़ा और बहुमत प्राप्त कर लिया। इसके नेता के तौर पर केपी ओली ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। यह कहा जाता है कि दोनों दलों के नेताओं पुष्पकमल दहाल प्रचंड और ओली के बीच ढाई ढाई साल के लिए प्रधानमंत्री पद पर रहने का समझौता हुआ था, हालांकि समझौता लिखित नहीं था। इसके बाद 2018 में माओवादी और एमाले का विलय हो गया और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के नाम से एक नया दल बनाया गया। माओवादियों और एमाले का विलय तो हो गया लेकिन एकीकरण नहीं हो पाया।

इसी बीच 2019 के शुरू से ही प्रचंड और ओली के बीच सत्ता संधर्ष शुरू हो गया। इसका प्रमुख कारण ओली का मौखिक समाझौता न मानना और सरकार और पार्टी को एकाधिकारवादी तरीके से चलाना था। ओली के काम काज के तरीके से एमाले के ही माधव नेपाल गुट ने प्रचंड से हाथ मिला लिया। इस स्थिति में ओली केंद्रीय समित और कार्यकारिणी मे अल्पमत में आ गए लेकिन कोई समझौता करने की जगह उन्होंने दिसम्बर में संसद को भंग करने की सिफारिश कर दी और राष्ट्रपति ने संसद को भंग कर नए चुनाव की तिथि अप्रैल और मई में तय कर दी।

नेपाल के विरोधी दलों और नागरिक समाज ने ओली के इस कदम को संविधान विरोधी बताया और इसके खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया। दूसरी ओर ओली सरकार के इस कदम को नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। फरवरी में नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय ने संसद भंग करने की घोषणा को निरस्त कर दिया और संसद को फिर से बहाल कर दिया। नेपाली संविधान केअनुसार प्रधानमंत्री को सीधे संसद को भंग करने का अधिकार नहीं दिया गया है इसके विपरीत एक प्रधानमंत्री के संसद में विश्वास खो देने पर भी सरकार बनाने के हर संभव प्रयास किए जाने की व्यवस्था है। इन व्यवस्थाओं में राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वह सरकार बनाने के लिए सबसे बड़े दल, दो या दो से अधिक दलों के गठबंधन को निमंत्रित करने या यहां तक कि कोई व्यक्ति राष्ट्रपति के पास दावा कर सकता है कि वह बहुमत वाली सरकार बना सकता है और यदि राष्ट्रपति इस बात से सहमत हों तो वह उसे प्रधानमंत्री नियुक्त कर सकता है लेकिन उसे तीस दिन में सदन में बहुमत सिद्ध करना होगा। इस स्थिति में पूरी संवैधानिक प्रक्रियाओं का पालन न किए जाने के कारण सुप्रीम कोर्ट द्वारा संसद को फिर से बहाल कर दिया गया।

संसद की बहाली के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने फरवरी में अपने एक अन्य फैसले में एमाले और माओवादी केंद्र के विलय को निरस्त कर दिया और संसद में दोनों राजनीतिक दलों के पृथक अस्तित्व को स्वीकार किया। सर्वोच्च न्यायालय के इन दो फैसलों ने संसद की बहाली के साथ ही प्रतिनिधि सभा में राजनीतिक दलों की स्थिति को परिवतर्तित कर दिया। नेपाली संसद के निचले सदन प्रतिनिधि सभा में 275 सदस्य हैं। इसमें से चार सीटें खाली हैं। नेकपा एमाले के सदस्यों की संख्या 121, माओवादियों की 49, नेपाली कांग्रेस की 61 और समाजवादी जनता पार्टी के सदस्यों की संख्या 32 है जबकि अन्य आठ सीटें निर्दलीय व छोटे राजनीतिक दलों के पास हैं। सदन में बहुमत की जादुई संख्या 136 है लेकिन कोई भी दल अपने स्तर पर बहुमत के आंकड़ों के पास नहीं है। इसलिए किसी न किसी की सहायता की जरूरत पड़ रही है। एमाले सबसे बड़ा दल तो था लेकिन उसके पास बहुमत का आंकड़ा नहीं था और ओली की सरकार अल्पमत में आ गई थी लेकिन नेकपा माओवादी ने जो 2017 में सरकार बनाने के लिए समर्थन का पत्र दिया था, उसके आधार पर ओली सरकार को तकनीकी तौर पर बहुमत हासिल था। माओवादी ने अपना समर्थन वापस ही नहीं लिया तो ओली सरकार को सदन में बहुमत सिद्ध करने की कोई जरूरत ही नहीं हुयी।

संसद बहाली के निर्णय में कहीं भी यह नहीं कहा गया कि ओली सरकार को फिर से बहुमत सिद्ध करना होगा। शायद सुप्रीम कोर्ट ने यह विचार किया होगा कि बहुमत का निर्णय सदन के अंदर ही हो तो बेहतर है। एक तरह से यह विचार लोकतांत्रिक व्यवस्था में शक्तियों के पृथकीकरण ‘सेपरेशन आफ पावरÓ के अनुरूप ही है और सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं को संसदीय प्रक्रियाओं में उलझाना नहीं चाहा होगा लेकिन सुप्रीम कोर्ट का एक अन्य काम संविधान की व्याख्या करना भी होता है, जो वह विभिन्न समय पर अपने निर्णयों के माध्यम से देता रहता है और ये निर्णय भविष्य के लिए एक परंपरा बन जाते हैं। यह निर्णय इसलिए भी जरूरी होते हैं क्योंकि राजनीतिक दल सत्ता के खेल में अपनी सुविधा के अनुसार व्यवहार करते हैं और सुप्रीम कोर्ट को एक तटस्थ अंपायर की तरह निर्णय देना होता है। संसद भंग करने के मामले में भी ओली सरकार अपनी सुविधा के अनुसार संविधान की व्याख्या कर रही थी। सुप्रीम कोर्ट के संसद बहाली के निर्णय में एक अधूरापन है। यदि सुप्रीम कोर्ट संसद बहाली के साथ ही सरकार को सदन में बहुमत सिद्ध करने को कहती तो स्थितियां काफी पहले साफ हो सकती थीं और एक असमंजस की स्थिति नहीं रहती।

 

राष्ट्रपति की भूमिका

पिछले पांच महीने में नेपाली राष्ट्रपति की भूमिका बहुत ही नकारात्मक दिखायी दी है। राष्ट्रपति पूरे देश का प्रतिनिधित्व करता है और उससे आशा की जाती है कि वह राजनीतिक दांवपेच से दूर तटस्थ तरीके से काम करेगा और सरकार की उन सिफारिशों को नहीं मानेगा जो संविधान के अनुरूप नहीं होंगी। यदि दिसम्बर और मई में राष्ट्रपति विद्या देवी के व्यवहार को परखा जाए तो उसमें जमीन आसमान का अंतर दिखायी देता है। दिसम्बर में केपी ओली की सरकार ने राष्ट्रपति के पास संसद को भंग करने की सिफारिश भेजी और उन्होंने उसे बिना बिना किसी असमजंस के स्वीकार कर लिया। बेहतर तो यह होता कि वह इस मामले में विधि विशेषज्ञों की राय लेतीं या इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की राय लेतीं कि क्या सरकार की यह सफारिश संविधान के प्रावधान के अनुरूप है या नहीं? यह इसलिए भी जरूरी है कि संविधान में सरकार बनाने के लिए धारा 75 में कई तरह की व्यवस्थाएं की हुयी हैं। लेकिन राष्ट्रपति ने ऐसा कुछ भी नहीं किया तो उन पर यह आरोप लगाए जा रहे हैं कि ओली के पक्ष मे निर्णय ले रही हैं चाहे इसके लिए उन्हें सविधान के विरोध में ही क्यों न जाना पड़े।

दूसरी बार मई में एक बार फिर ससंद को भंग करने में उन्होंने सही तरह से संविधान का पालन नहीं किया और विरोधियों को सरकार बनाने का मौका ही नहीं दिया। दस मई को ओली सरकार बहुमत नहीं पा सकी तो उन्होंने विरोधियों को मौका दिया लेकिन वे भी असफल रहे तो उन्होंने सबसे बड़े पार्टी के नेता के नाते फिर से ओली को प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया। ओली ने संसद भंग के सिफारिश के खिलाफ राष्ट्रपति ने विरोधी दलों और ओली को सरकार बनाने का फिर मौका दिया और जब दोनों अपने बहुमत के दावे में सांसदों की सूची लेकर राष्ट्रपति के पास पहुंचे तो उन्होंने किसी पर भी विश्वास न कर संसद भंग कर दी और चुनाव की घोषणा कर दी।

इस पूरी पक्रिया में ओली फिर से चुनाव तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने रहेगे। इस घटनाक्रम से यही आभास हो रहा है कि राष्ट्रपति भंडारी हर हाल मे ओली को प्रधानमंत्री पद पर बनाए रखना चाहती हैं, जिसकी ओर विपक्षी लगातार इशारा कर रहे हैं और उन पर तटस्थ न होने का आरोप लगा रहे हैं।

राष्ट्रपति के इस व्यवहार से परेशान विरोधी दल उनके खिलाफ महाअभियोग लाने की संभावनाओं पर विचार करने लगे हैं। अगर यह होता है तो यह सरकार और विपक्ष के बाद विपक्ष और राष्ट्रपति के बीच टकराव के तौर पर सामने आएगा। इधर, राष्ट्रपति दोबारा संसद भंग करने के निर्णय के खिलाफ विपक्षी दल एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट जाने की सोच रहे हैं। यदि ऐसा होता है तो एक बार फिर संसद का मामला अधर में लटक जाएगा और देश में ंसरकार को लेकर असमंजस की स्थिति रहेगी और देश में अल्पमत की सरकार होगी।

 

प्रतिष्ठा खोते नेता और दल

2017 में वामपंथयों को पूर्ण बहुमत मिलने के बाद भी जिस तरह से राजनीतिक दलों और नेताओं ने व्यवहार किया है उससे उनकी प्रतिष्ठा कम धुमिल नहीं हुई है। इस पूरे घटनाक्रम ने दिखाया है कि न तो राजनीतिक दलों के पास कोई विचारधारा है और न नेताओं के पास कोई प्रतिबद्धता या जनता के प्रति किसी तरह का समर्पण। हर राजनीति दल में प्रथम पंक्ति के नेताओं के पास केवल व्यक्तिगत एजेंडा है और वह है हर हाल में सत्ता को अपने हाथ में केंद्रित कर के रखना। इसको देखते हुए दूसरी ओर तीसरी पंक्ति के नेताओं ने भी अपने हितों को देखते हुए पार्टी के अंदर और पार्टी के बाहर अपनी निष्ठाएं बनाना और बदलना शुरू कर दिया है। हर पार्टी में नेताओं का काम अधिक से अधिक ताकत को अपने हाथों में बनाए रखना है।

सत्ता को अपने हाथों तक सीमित करने का काम सबसे पहले और सबसे खतरनाक तरीके से केपी ओली ने ही शुरू किया। उन्होंने एक साथ प्रधानमंत्री और नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष का पद संभाल लिया। यह कहा जाता है कि माओवादी केंद्र के कामरेड प्रचंड और नेकपा एमाले के ओली के बीच एक समझदारी चुनाव के समय बनी थी कि दोनों ही व्यक्ति आधे-आधे समय के लिए प्रधानमंत्री रहेंगे। इसी आधार पर दोनों दलों का विलय भी हो गया था और इस एकीकृत नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के दो अध्यक्ष बनाए गए। लेकिन 2019 के शुरू से ही दोनों नेताओं के बीच मतभेद शुरू हो गए। ओली अब प्रधानमंत्री पद नही ंछोडऩा चाहते थे और न ही पार्टी का अध्यक्ष पद। ओली निहायत पद लोलुप हैं और उनका पूरा व्यवहार बहुत ही तानाशाहीपूर्ण है। वह किसी भी नेता को किसी स्तर पर साथ लेकर चलने के लिए तैयार नहीं हैं। आज संकट की इस घड़ी में ओली पशुपतिनाथ मंदिर में विशेष पूजा कर रहे हैं तो राम की अयोध्या नेपाल में खोज रहे हैं। यह किस तरह का कम्युनिस्ट व्यवहार है?

सरकार चलाने में भी उन्होंने एमाले के दूसरे नेताओं की उपेक्षा की और मनमर्जी से सरकार चलाने लगे। इससे उनकी अपनी पार्टी एमाले के माधव नेपाल और झलनाथ खनाल नाराज हैं। इन दोनों नेताओं का लक्ष्य ओली सरकार को गिराना है चाहे इसके लिए नेपाली कांग्रेस या माओवादी या किसी अन्य के साथ हाथ मिलाना पड़े। केपी ओली का तानाशाही पूर्ण रवैया भले ही इस संकट के लिए जिम्मेदार हो लेकिन माधव नेपाल, खनाल और वामदेव गौतम जैसे नेताओं का व्यवहार भी कोई वैचारिक आधार पर नहीं बल्कि व्यक्तिगत है। इन नेताओं ने न तो पार्टी से इस्तीफा देकर बाहर आकर चुनाव में जाने का साहस है और न ही ये पार्टी से अलग होकर नए सिरे से काम करने की सोच रखते हैं। राजनीतिक संकट का एक कारण इन नेताओं की यही असुरक्षा है।

माओवादी नेताओं का व्यवहार भी कहीं से वैचारिक नहीं है। सही तो यह है कि भूमिगत होकर सशस्त्र आंदोलन से संसदीय राजनीति का हिस्सा बनने के बाद प्रचंड ने सबसे अधिक समझौते किए। इसी का परिणाम यह है कि 2008 के माआवादी पार्टी के कई टुकड़े हो गए हैं और बाबूराम भट्टराय हो या मोहन किरन वैद्य अलग पार्टियों में हैं। माओवादियों की दूसरी लाइन के नेता राम बहादुर थापा उर्फ बादल या लेखराज भट्ट जैसे भूमिगत रहे माओवादी मंत्रीपद के लिए ओली के साथ खड़े हैं। यहां तक की माओवादी पार्टी से निकालने के बाद ओली ने इन लोगों को बिना संसद सदस्य के ही मंत्री बना दिया। संविधान के अनुसार कोई भी व्यक्ति बिना संसद सदस्य रहे छह माह तक मंत्री बना रह सकता है और अब ओली उन्हें चुनाव लड़ा रहे हैं। आज हालत यह है कि कल के एमाले नेता आज माओवादी पार्टी के साथ हैं तो कल के माआवादी आज एमाले के साथ। इस स्थिति में यह पूछना तो स्वाभाविक है तब जनयुद्ध के दौर के क्रांतिकारी और संशोधनवादी आज कहां खड़े हैं?

मधेसी पार्टी समाजवादी जनता दल में भी सत्ता के लिए अलग अलग लोगों के लिए वफादारियां हैं। राजेंद्र महतो का गुट ओली के प्रति वफादारी दिखा रहा है तो उपेंद्र यादव और बाबूराम भट्टराई की वफादारी ओली विरोधियों के साथ है। यहां भी न तो कोई वैचारिक आधार है और न ही मधेशियों के मुद्दों से कोई लेना देना। बात सिर्फ इतनी सी है कि किस पार्टी के साथ जाकर सत्ता की मलाई मिल सकती है।

 

राजशाही के लिए सहानुभूति

लोकतांत्रिक सरकारों के लगातार असफल होने और नेताओं के आपसी संघर्ष ने लोकतंत्र और गणतंत्र में लोगों की आस्था को कमजोर किया है। नवीनतम घटनाक्रम में पूर्ण बहुमत देकर भी वामपंथियों ने जो सत्ता के लिए निर्लज्जता का परिचय दिया है उससे वामपंथ की सार्थकता कम हुयी है । इस स्थिति में लोगों के बीच यह बात स्वाभाविक तौर पर जा रही है कि इस पूरी स्थिति में राजतंत्र में क्या खराबी थी। आखिर लोकतांत्रिक नेताओं का व्यवहार सामंतों से कम तो नहीं है। फिर राजतंत्र की समाप्ति के बाद भी नेपाली समाज के एक बड़े हिस्से में राजा और राजशाही के प्रति सहानुभूति रही है और यह समाज राजनीति, नौकरशाही, आर्थिक, सांस्कृतिक क्षेत्रों में अपनी प्रभावी उपस्थिति रखता है।

इस बीच नेपाल के अंतिम राजा ज्ञानेंद्र की सक्रियता काफी बढ़ी है और हरिद्वार में आयोजित कुंभ में ज्ञानेंद्र को संत समाज की ओर से नेपाल के महाराजा के तौर पर ही स्वीकार किया गया। अगर नेपाल में लोकतांत्रिक सरकारें इसी तरह से काम करती रहीं तो राजशाही के लिए समर्थन बढ़ता ही रहेगा और कोई आश्चर्य नहीं होगा कि राजशाही समर्थक ताकतों से राजनीतिक दल गठबंधन की ओर बढ़ जाएं। पूर्व में ऐसा हो भी चुका है।

लोकतंत्र का जो प्रहसन नेपाल में राजनेता ओर राजनीतिक दल खेल रहे हैं उसकी भारी कीमत वहां की जनता को चुकानी पड़ रही है। पूरा विश्व इस समय कोरोना की चपेट में है और नेपाल की हालत और भी ज्यादा खराब है क्योंकि गरीब देश होने के कारण यहां स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा काफी खराब है। शहरों में ही सुविधाएं नहीं है तो गांवों की क्या बात की जा सकती है। फिर अन्य देश भी उसकी सहायता के लिए आगे नहीं आ पा रहे हैं। नेपाल के पास एक सुविधा भारत आकर स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठा लेने की थी लेकिन इस समय स्वयं भारत की ही स्वास्थ्य व्यवस्था कोरोना के कारण बददतर हालत में है और स्वयं भारतीय नागरिकों के लिए कम पड़ रही हैं। इसलिए यह रास्ता भी बंद है। इसके अलावा नेपाल और भारत के बीच आवागमन काफी सीमा तक बाधित है और केवल आपातकालीन स्थिति में ही एक देश से दूसरे देश जाने की अनुमति कुछ ही स्थानों से है।

जब राजनेताओं का सारा ध्यान इस बात पर केंद्रित हो कि सरकार बनेगी या जाएगी तब नागरिक सुविधाओं को बढ़ाने की ओर किसी का ध्यान नहीं है। फिर कोरोना के कारण काफी बड़ी संख्या में नेपाली नागरिक वापस घर आये हैं और उनके पास कोई काम ही नहीं है। सरकारें उनको किसी तरह से मदद पहुंचा पाने में असफल रही है। एक तो संसाधनों का अभाव है और ऊपर से राजनीतिक अस्थिरता ने समस्या को बढ़ाया ही है।

एक नवोदित लोकतंत्र को बेहतर तरीके से चलाने का दायित्व समाज के हर वर्ग का है विशेष तौर पर संस्थाओं का जिसमें राजनीतिक दल, नागरिक समाज, न्यायपालिका, चुनाव आयोग, नौकरशाही, राष्ट्रपति और सरकार का, क्योंकि ये संस्थाएं हैं और लोकतंत्र तभी सही तरीके से चल सकता है जब संस्थाएं मौजूद हों और मजबूत हों। संविधान लागू होने के बाद पहले चुनाव में बनी सरकार और इन संस्थाओं पर गुरूतर दायित्व है कि वे व्यवस्था को पटरी पर रखें। इस तरह की लगातार असमंजस और अस्थिरता की स्थिति समाज को अलगाववाद जैसे किसी बड़े संकट में डाल सकती है, जो बहुत असंभव नहीं है।

परइसबीचकाघटनाक्रमकईगुनाचिंताजनकहै।

नेपाल के अखबार काठमांडू पोस्ट में एक कार्टून छपा है जिसमें प्रधानमंत्री केपी ओली के सिर पर पूर्व नेपाली राजा का मुकुट रखा हुआ है और उनकी कोट की जेब में राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी नजर आ रही हैं। यह नेपाल की वर्तमान दशा को दिखाने के लिए काफी है। कार्यवाहक प्रधानमंत्री ओली ने चार जून को कैबिनेट का पुनर्गठन करते हुए 12 नए सदस्यों को शामिल कर लिया और तेरह पुराने मंत्री हटा दिए। नए सदस्यों में दस केवल मधेशी लोगों की जनता समाजवादी पार्टी है। इसके साथ ही तीन नए उप प्रधानमंत्री बना दिए। यह विचारणीय है कि जब चुनाव की घोषणा हो चुकी हो तो कैसे मंत्रिपरिषद का पुनर्गठन किया जा सकता है। यह सारी प्रक्रिया तो नयी सरकार के गठन के बाद होनी चाहिए। नियमानुसार तो संसद भंग हो चुकी है और इस कार्यवाहक सरकार का काम केवल नए चुनाव कराना और सरकार के प्रतिदिन के काम करना है। वह कोई भी नीतिगत निर्णय नहीं ले सकती।

नेपाल में एक लंबे संघर्ष के बाद संविधान लागू हुआ है। इस समय सरकारें और संस्थाएं जो भी कार्य करेंगी वह एक प्रथा और परंपरा के तौर पर संविधानवाद का भाग बन जाएंगी, जिनके प्रकाश में अदालतें निर्णय दिया करेंगी। यदि इस समय एकाधिकार वादी तरीके से और अविवेकपूर्ण निर्णय लिए गए तो यह भविष्य के लिए घातक होेगे। यह नेपाल के न्यायप्रिय और लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास रखने वाले नागरिकों का दायित्व है कि वे संघर्ष से प्राप्त संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करे और यह भी देखना होगा कि संवैधानिक संस्थाएं जैसे कि सर्वोच्च न्यायालय, चुनाव आयोग अपनी जिम्मेदारी कैसे निभाते हैं।

अद्यतन  6 जून 2021

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कर्तव्यच्युत होती राज्य सत्ता https://www.samayantar.com/%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a4%b5%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a4%9a%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%81%e0%a4%a4-%e0%a4%b9%e0%a5%8b%e0%a4%a4%e0%a5%80-%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a5%8d%e0%a4%af/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a4%b5%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a4%9a%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%81%e0%a4%a4-%e0%a4%b9%e0%a5%8b%e0%a4%a4%e0%a5%80-%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a5%8d%e0%a4%af/#respond Mon, 25 May 2020 02:09:50 +0000 https://www.samayantar.com/?p=278 अपने संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने गरीबों का खयाल रखने के लिए अमीरों का आह्वान किया और बंदी के दौरान प्रत्येक संपन्न परिवार से नौ गरीब परिवारों की मदद करने को कहा। यह संदेश बिलकुल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नजरिए से मेल खाता है, जहां राज्य के उपकरणों पर समाज भारी होता है। आरएसएस के विचारक दीनदयाल उपाध्याय ने पचास के दशक में ही राज्य निर्माण की नेहरूवादी अवधारणा के खिलाफ संघर्ष शुरू कर दिया था, जब आजादी के बाद केंद्र द्वारा शुरुआती सरकारी अस्पताल बनाए जा रहे थे।

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  • क्रिस्टोफर जैफरलॉट और उत्सव शाह

अपने संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने गरीबों का खयाल रखने के लिए अमीरों का आह्वान किया और बंदी के दौरान प्रत्येक संपन्न परिवार से नौ गरीब परिवारों की मदद करने को कहा। यह संदेश बिलकुल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नजरिए से मेल खाता है, जहां राज्य के उपकरणों पर समाज भारी होता है। आरएसएस के विचारक दीनदयाल उपाध्याय ने पचास के दशक में ही राज्य निर्माण की नेहरूवादी अवधारणा के खिलाफ संघर्ष शुरू कर दिया था, जब आजादी के बाद केंद्र द्वारा शुरुआती सरकारी अस्पताल बनाए जा रहे थे।

 

भारत में चल रहे मौजूदा लॉकडाउन की तुलना 2016 की नोटबंदी के दौर से की गई है। इसके कुछ वाजिब कारण हैं। प्रधानमंत्री ने देशभर को बंद करने की घोषणा अचानक ही की थी। समाज के लिए इसके निहितार्थ बहुत व्यापक हैं, खासकर गरीबों के लिए। उनके राजकाज की यह शैली जीएसटी को लागू करने के तरीके में भी सामने आई थी। यह सरकार के शीर्ष स्तर पर सत्ता के केंद्रीकरण को दिखाता है। यह इंदिरा गांधी के दौर की याद दिलाता है। फर्क बस इतना है कि सत्तर के दशक में सरकार के काम करने के तरीके से उलट मौजूदा सरकार में राज्य की भूमिका संकुचित होती देखी गई है।

एक अप्रत्याशित तरीके से 2014 वाला नरेंद्र मोदी का मोटो-मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस-फलित होता दिख रहा है। आज इसे तीन रूपों में पहचाना जा सकता है। पहला, समाज से कहा गया है कि वह अपना खयाल खुद रखे। अपने आखिरी संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने गरीबों का खयाल रखने के लिए अमीरों का आह्वान किया और बंदी के दौरान प्रत्येक संपन्न परिवार से नौ गरीब परिवारों की मदद करने को कहा। यह संदेश बिलकुल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नजरिए से मेल खाता है, जहां राज्य के उपकरणों पर समाज भारी होता है। आरएसएस के विचारक दीनदयाल उपाध्याय ने पचास के दशक में ही राज्य निर्माण की नेहरूवादी अवधारणा के खिलाफ संघर्ष शुरू कर दिया था, जब आजादी के बाद केंद्र द्वारा शुरुआती सरकारी अस्पताल बनाए जा रहे थे। सेवा भारती सहित संघ परिवार की सामाजिक कल्याण केंद्रित गतिविधियां इसी नजरिए पर काम करती हैं और यह मानकर चलती हैं कि धर्मार्थ कार्य कल्याणकारी राज्य को आंशिक रूप से अप्रासंगिक बना सकती है।

दूसरे, संघ परिवार मानता है कि समाज को स्वनियमन के माध्यम से अपना ख्याल रखना चाहिए। ‘जनता कफ्र्यू ‘ इसी सोच का एक सूक्ष्म संस्करण और रूपक है। स्वनियमन का मतलब हालांकि स्वनियंत्रण यानी सेल्फ पुलिसिंग भी है। नागरिकता संशोधन विरोधी कानून के खिलाफ कार्यकर्ताओं को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सार्वजनिक रूप से नाम लेकर शर्मसार किए जाने और नागरिक सतर्कता को बढ़ावा दिए जाने में इसे देखा जा सकता है। यह सतर्कता गिरोह अपने शक के आधार पर केवल उन मुसलमानों की फिराक में नहीं रहते हैं जो गाय कटवाने जा रहे हों, बल्कि अब तो ये लॉकडाउन को भी अमल में लाने के काम में लगे दिख रहे हैं।

तीसरे, राज्य अब सार्वजनिक स्वास्थ्य और सार्वजनिक शिक्षा जैसे अहम क्षेत्रों से अपने पांव पीछे खींच चुका है। यह उदारीकरण की देन है। भारत सार्वजनिक स्वास्थ्य पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का 1.2 फीसद से कम खर्च करता है। देश में 1000 व्यक्तियों पर 0.7 बिस्तर हैं। इस मामले में इंडोनेशिया, मेक्सिको, कोलंबिया आदि भी भारत से बेहतर हैं। आश्चर्य कैसा कि सार्वजनिक स्वास्थ्य पर अल्पव्यय ने मध्य वर्ग के बीच निजी अस्पतालों की मांग को पैदा किया है। पिछले दो दशक में निजी अस्पताल कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं और आज स्थिति यह है कि देश के अस्पतालों में उपलब्ध कुल बिस्तरों में इनकी हिस्सेदारी 51 फीसद है। जाहिर है, इनमें से ज्यादातर गरीबों की जेब की क्षमता से बाहर हैं।

कल्याणकारी राज्य के सिकुड़ते जाने का लेना-देना वित्तीय बंदिशों से भी है। भारत का वित्तीय घाटा लगातार बढ़ रहा है और आज जीडीपी के करीब नौ फीसद तक पहुंच चुकी है (केंद्र, राज्यों और सार्वजनिक इकाइयों के घाटे को जोड़कर)। यह घाटा आंशिक रूप से हालिया आर्थिक सुस्ती के चलते हैं (पिछले दो वर्ष में आर्थिक वृद्धि दर सात फीसद से गिरकर 4.5 फीसद पर पहुंच गई है), जिसके कारण कर संग्रहण में भी गिरावट आई है।

आज भारत सरकार इसी कारण से समूची जनता के स्तर पर एक व्यापक राहत कार्यक्रम चला पाने की स्थिति में नहीं है। आर्थिक वंचितों की मदद के लिए वित्तमंत्री द्वारा घोषित 1.7 लाख करोड़ रुपए का आर्थिक पैकेज जीडीपी का महज 0.8 फीसद है, जो यूपीए सरकार के अंतर्गत मनरेगा कार्यक्रम के शीर्ष बजट के बराबर है। वित्तमंत्री के पैकेज में भले ही तमाम किस्म के प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण शामिल हैं, लेकिन घोषित राशि निराश करने वाली है। जनधन खाताधारक महिलाओं को 500 रुपए का हस्तांतरण या फिर मनरेगा की दिहाड़ी में 182 रुपए से 202 रुपए तक का इजाफा शायद बहुत मददगार साबित न हो, खासकर इसलिए कि अधिकांश मनरेगा मजदूरों के लिए फिलहाल काम ही उपलब्ध नहीं है। कुल मिलाकर वित्तमंत्री के आर्थिक पैकेज से यही समझ में आता है कि या तो सरकार अब भी समस्या की व्यापकता और गंभीरता को नहीं समझ पा रही है या फिर उसके पास आवश्यक संसाधनो का टोटा है।

इस बंदी के दौरान सबसे ज्यादा मार उस 40 फीसद से ज्यादा भारतीय कार्यबल पर पड़ी है जो लघु और मध्यम उद्यमों (एसएमई) में रोजगाररत है। यह राहत पैकेज उनकी स्थिर लागत को कवर नहीं करता है, जो कुल लागत का 30 से 40 फीसद पड़ता है। इसके चलते इन उद्यमों को लागत में कटौती करनी पड़ रही है। उसके लिए ये मजदूरों की छंटनी कर रहे हैं, जो वैसे भी लॉकडाउन में बेकार हो जाते हैं। भारत में 50 करोड़ से ज्यादा संख्या वाले गैर कृषि कार्यबल का 94 फीसद हिस्सा असंगठित क्षेत्र में रोजगाररत है। ये बिना किसी अनुबंध के काम करते हैं और ट्रेड यूनियनें भी इन्हें कवर नहीं करती हैं। इसीलिए इन मजदूरों की छंटनी करना आसान हो जाता है। यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। वास्तव में, इस दौरान असंगठित क्षेत्र के ज्यादातर श्रमिकों  से इस बहाने रिहाइश खाली करने को कह दिया गया कि वे सेहत के लिए खतरा पैदा कर रहे  हैं।

समाज के सर्वाधिक कमजोर तबकों का संकट केवल वित्तीय नहीं है। यह लॉकडाउन इस तरीके से लागू किया गया है कि इसने उन्हें पहले ही कमजोर कर दिया है। जन वितरण प्रणाली के अंतर्गत जितनी अतिरिक्त खाद्य सामग्री बांटे जाने की जरूरत है उसे कई राज्यों में कम आंका गया है। इस मामले में केरल अपवाद है और दूसरे राज्यों के लिए मॉडल का काम कर सकता है।

गरीब और कमजोर आदमी को महफूज रखना राज्य और निजी क्षेत्र के लिए जिम्मेदारी का मसला है, कोई धर्मादा कार्य नहीं। प्रवासी मजदूरों को अपने हाल पर छोड़ दिया जाना और उन्हें गांव लौटने को बाध्य करना केवल कोरोना वायरस के फैलाव में काम आएगा। इस संदर्भ में शहरी और ग्रामीण गरीबों को मदद के प्रावधानों में साफ अंतर बरता जाना चाहिए ताकि गरीबों के बीच संसाधनों का आवंटन बेहतर तरीके से हो सके।

भारत में आर्थिक हालात खतरनाक हैं। बैंकों पर एनपीए का बोझ पहले से ही है। सरकारों ने बीते वर्षों के दौरान इस मसले को गहराने ही दिया है। भारत में कर्ज और जीडीपी का अनुपात पहले से ही ज्यादा है। यह 69 फीसद है, जो ब्राजील को छोड़कर ज्यादातर उभरते हुए देशों से ज्यादा है। यह स्पष्ट संकेत है कि वित्तीय अनुशासन और दूसरे किस्म की अराजकताएं यहां कदमताल कर रही थीं। यह एक अप्रत्याशित दौर है, जैसा कि पिछले हफ्ते रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा था, और इसीलिए कल्याणकारी राज्य को यहां हरकत में लाने के लिए भारत को और पैसे उधार लेने होंगे।

वक्त आ गया है कि सरकार कल्याणकारी राज्य के अहम क्रियाकलापों को बहाल करे। सरकार को केंद्र में मैक्सिमम गवर्नेंस के नाम पर पैदा किया गया सत्ता का केंद्रीकरण कम से कम करना चाहिए और मिनिमम गवर्नमेंट के बजाय गरीबों और वंचितों की मदद ज्यादा से ज्यादा करनी चाहिए।

साभार इंडियन एक्सप्रेस,

समयांतर अप्रैल, 2020

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हिंदुत्व और हिंदू शब्द की राजनीति https://www.samayantar.com/%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a5%81%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b5-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a5%82-%e0%a4%b6%e0%a4%ac%e0%a5%8d%e0%a4%a6-%e0%a4%95%e0%a5%80/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a5%81%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b5-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a5%82-%e0%a4%b6%e0%a4%ac%e0%a5%8d%e0%a4%a6-%e0%a4%95%e0%a5%80/#respond Sat, 25 Apr 2020 09:43:14 +0000 https://www.samayantar.com/?p=250 हिंदुत्व और हिंदू शब्द की राजनीति पर मोहिंदर सिंह के विचार

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  • मोहिंदर सिंह

 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक  मोहन भागवत ने 27 दिसंबर, 2019 के अपने एक भाषण में कहा कि संघ भारत की 130 करोड़ की आबादी को हिंदू समाज मानता है: ‘भारत माता का सपूत चाहे वह कोई भी भाषा बोले, चाहे वह किसी भी क्षेत्र का को, किसी स्वरूप में पूजा करता हो या किसी भी तरह की पूजा में विश्वास नहीं करता हो, एक हिंदू है… ‘इस संबंध में, संघ के लिए भारत के सभी 130 करोड़ लोग हिंदू समाज है। उन्होंने आगे कहा: ‘एक प्रसिद्ध कहावत है विविधता में एकता। लेकिन हमारा देश उससे एक कदम आगे है। सिर्फ विविधता में एकता नहीं बल्कि एकता की विविधता। हम विविधता में एकता नहीं तलाश कर रहे हैं। हम ऐसी एकता तलाश कर रहे हैं जिसमें से विविधता आए और एकता हासिल करने के विविध रास्ते हैं। इस वक्तव्य में भागवत ने रवींद्रनाथ टैगोर के 1904 के प्रसिद्ध ‘स्वदेशी समाज नाम के निबंध को भी अपने कथन के समर्थन में उद्धृत करते हुए कहा, ‘हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच अंतर्निहित अंतर्विरोधों के बाद भी हिंदू समाज देश को एकजुट करने का रास्ता तलाशने में सक्षम है। यह भी कहा कि ‘भारत देश परंपरा से हिंदुत्ववादी है। हालांकि यह टैगोर के निबंध से उद्धरण पूरी तरह सच नहीं है क्योंकि टैगोर इस निबंध में जब हिंदू समाज की बात करते हैं तो वह सिर्फ हिंदू समाज की बात करते हैं न कि पूरे भारतीय समाज की।

इस बयान से कुछ महीने पहले सितंबर, 2019 को भागवत ने ही कहा था कि ‘किसी भी हिंदू को देश छोड़कर नहीं जाना पड़ेगा। यह बयान उन्होंने असम की एनआरसी की रिपोर्ट के प्रकाशित होने के संदर्भ में कही थी। सरसंघचालक के सितंबर वाले बयान से यह जाहिर है कि उनका यह आश्वासन सिर्फ हिंदुओं के लिए है और इसमें वे मुसलमान शामिल नहीं हैं जिनका एनआरसी में नाम नहीं है। हाल ही में भारतीय संसद के द्वारा पारित किए गए नागरिकता संशोधन अधिनियम में भी अप्रवासी मुस्लिमों को भारत की नागरिकता की संभावना से बाहर रखा गया है, जबकि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगनिस्तान के छह अन्य धार्मिक समुदायों को यह अधिकार दिया गया है।

भागवत के इन दो बयानों से यह स्पष्ट हो जाता है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ‘हिंदू’ शब्द का प्रयोग दो अलग-अलग अर्थों में कर रहा है। इसमें कुछ नया नहीं है, बल्कि इस प्रकार के शब्दजाल और भ्रांतियां संघ-और आम तौर पर संघ परिवार के सभी घटक, जिसमें भाजपा भी शामिल है—दशकों से फैला रहा है। लूइस कैरोल के मशहूर चरित्र हम्प्टी-डम्पटी की तरह संघ भी शब्दों के अर्थों को अपने नियंत्रण में रखकर उनको अलग संदर्भों में अपनी जरूरत के हिसाब से अर्थ देना चाहता है, और वैसे भी उसका दो-मुंहे सांप वाला चरित्र जग जाहिर है। इसी प्रकार का शब्दार्थ का खेल संघ परिवार सेक्युलरिजम के अनुवाद के साथ भी कई दशकों से इस आग्रह के साथ खेलता आ रहा है कि सेक्युलरिजम का सही अनुवाद पंथ-निरपेक्ष होना चाहिए न कि धर्म-निरपेक्ष। इस आग्रह के पीछे तर्क यह दिया जाता है कि हिंदूइज्म एक पंथ नहीं बल्कि धर्म है। लेकिन इसके साथ ही वैधानिक तौर पर जिस धर्म या पंथ को हिंदू जाना जाता है उसका कुछ और नाम भी देने को तैयार नहीं हैं जैसे की वैदिक पंथ या ब्राह्मण पंथ।

लेकिन अगर यह सिर्फ किसी शब्दजाल या शब्दार्थ संबंधी कोई भ्रांति होती तो शायद मामला उतना गंभीर नहीं होता। ‘हिंदू’ शब्द के इस बहुआयामी प्रयोग की एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी है, जिसका संबंध सिर्फ आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद, हिंदू राष्ट्रवाद और हिंदुत्व से गहरा संबंध है बल्कि जो हिंदुत्व की ‘हिंदू’ शब्द की राजनीति के केंद्र में है। धर्म अध्ययन के प्रसिद्ध विद्वान अरविंद शर्मा ने अपने लेख ‘ऑन हिंदू, हिंदुस्तान, हिंदूइज्म, एंड हिंदुत्व में ‘हिंदू’, ‘सिंधु’ और ‘इंडस’ शब्दों के इतिहास का विश्लेषण करते हुए दिखाया है कि इन शब्दों के सबसे प्राचीन उपयोग — जैसे की पारसी, यूनानी, और चीनी स्रोतों में —भौगोलिक या क्षेत्रीय अर्थ में हुए। इस प्रयोग में इन शब्दों का अर्थ सिंधु नदी के पूर्व के क्षेत्रों के निवासियों के लिए होता था। लेकिन चीनी स्रोतों के साथ ही इनका अर्थ इस क्षेत्र के निवासियों के धार्मिक विश्वासों के वर्णन के रूप में भी होना शुरू हो जाता है। यह एक नकारात्मक उपयोग था जिसके अंतर्गत ‘हिंदू’ सिंधु नदी के पूर्व के निवासियों के विभिन्न धार्मिक विश्वासों को दिया गया सामूहिक नाम था। इन्हीं दो अर्थों में हिंदू शब्द का प्रयोग 11वीं शताब्दी और उसके बाद के मुस्लिम, फारसी और अरबी स्रोतों में मिलता है। अल-बरूनी — जो महमूद गजनी के साथ भारत आया था —की किताब अल-हिंद में भी इस शब्द का प्रयोग इन्हीं दो अर्थों में होता है। अल-बरूनी इस विमर्श में एक और पहलू जोड़ता है जो बीसवीं शताब्दी तक प्रचलित है। एक तरफ तो वह बौद्धों और वैदिक ब्राह्मण धर्म के मानने वालों के बीच भेदों को स्वीकार करते हैं, दूसरी तरफ वह न सिर्फ इन दोनों समुदायों को, बल्कि हिंदुस्तान के उन तमाम समुदायों को जो मुस्लिम नहीं हैं, हिंदू नाम देते हैं। तत्कालीन हिंदुस्तान में विद्यमान तमाम धार्मिक मतों, संप्रदायों और विश्वासों और पूजा पद्धतियों के आंतरिक भेदों को स्वीकार करते हुए अल-बरूनी उनको एकता के सूत्र में इस आधार पर भी पिरोने की कोशिश करते हैं कि वे सब हिंदू हैं जो पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं।

दिल्ली सल्तनत और मुगल काल में भी धर्मों, मतों, विश्वासों और पूजा पद्धतियों की यह विविधता प्रचलित रहती है लेकिन इसके साथ ही इस काल में दो अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू इसमें जुड़ते हैं। एक तो यह कि हिंदू शब्द का इस्तेमाल— जो पहले सिर्फ गैर-हिंदू करते थे — हिंदुओं के द्वारा, अपने आप को चिह्नित करने के लिए होने लगा; यानी उनकी अपनी पहचान की चेतना को इंगित करने लगा। हिंदू शब्द और अवधारणा के इतिहास के लिहाज से यह एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। दूसरी तरफ इस्लाम धर्म और मुसलमानों के संपर्क में आने से कुछ नई पूजा पद्धतियां, विश्वास और संप्रदाय – जो इस संपर्क और मिश्रण से पैदा हुए – इस विविधता में जुड़ जाते हैं। उदाहरण के तौर पर गैर-मुसलमानों द्वारा सूफी पीरों में विश्वास और मुसलमानों में जातियों का विकास। इसके साथ ही कुछ ऐसे समुदाय भी उभरे जिनको सीधे-सीधे हिंदू या मुसलमान के खाकों में बांटना आसान नहीं था और ऐसी तमाम मुश्किलें तब सामने आईं जब ब्रिटिश राज ने अपनी जनगणना में समुदायों को धार्मिक आधार पर स्पष्ट खानों में गिनना और वर्गीकृत करना शुरू किया। औपनिवेशिक काल से पहले हिंदू शब्द का इस्तेमाल ब्राह्मण या वैदिक धर्म के मानने वाले समुदाय अपने लिए करना शुरू करते हैं और कुछ हद तक हिंदू सांस्कृतिक आत्म-चेतना का विकास भी होता है, लेकिन वृहत्तर समाज को धार्मिक मतों, संप्रदायों, और पूजा पद्धतियों की विविधता और मिश्रण ही चरितार्थ करते रहे।

हिंदू शब्द के इतिहास में और हिंदू सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना के इतिहास में औपनिवेशिक शासन ने निर्णायक भूमिका निभाई जिसके दूरगामी परिणाम निकले। इस दृष्टि से औपनिवेशिक काल में हुए कुछ परिवर्तन निर्णायक सिद्ध हुए। 19वीं शताब्दी में औपनिवेशिक शासन ने सभी धर्मों के कानूनों में संशोधन कर सभी धार्मिक समुदायों को अखिल भारतीय स्तर पर वर्गीकृत किया और उनको एक स्पष्ट कानूनी पहचान देने का काम किया। वहीं दूसरी तरफ औपनिवेशिक जनगणना ने धर्म और जाति के आधार पर गणना कर धार्मिक और जाति समुदायों को स्पष्ट प्रशासनिक पहचान दी जिसके भारतीय राजनीति पर दूरगामी प्रभाव पड़े। जनगणना की इन विधियों में उन मिश्रित पहचानों के लिए कोई जगह नहीं थी जैसे की गुजरात का एक समुदाय जो ‘हिंदू-मोहम्मडन’ के नाम से जाना जाता था।7 विभिन्न जनगणनाओं के दौरान इस तरह के बहुत सारे उदाहरण औपनिवेशिक प्रशासकों के सामने आए। राजनीतिक विमर्श की दृष्टि से औपनिवेशिक जनगणनाओं का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रभाव ‘बहुसंख्यक’ और ‘अल्पसंख्यक’ श्रेणियों का आविर्भाव था। 20वीं सदी के पहले दशक में मुस्लिम लीग के बनने के बाद इन श्रेणियों का सीधा संबंध राजनीतिक प्रतिनिधित्व से जुड़ गया जिस पर मोरले-मिंटो संवैधानिक सुधारों ने अपनी मोहर लगाकर भारतीय राजनीति में हिंदू और मुस्लिम सांप्रदायिकता के आधुनिक राजनीतिक रूप को जन्म दिया।

प्रशासनिक और वैधानिक परिवर्तनों के साथ ही 19वीं सदी के शुरुआती दशकों से ही एक समानांतर विमर्श सभ्यता, संस्कृति और धर्म के सवालों पर केंद्रित था। इस विमर्श की पृष्ठभूमि में औपनिवेशिक शासन का वह आख्यान था जिसे ‘सिविलाइजिंग मिशन’ के नाम से जाना जाता है। इस आख्यान में भारत के सभी धर्मों —विशेष तौर पर हिंदू धर्म—को असभ्य बताया गया और हिंदू समाज के पिछड़ेपन के लिए धर्म को जिम्मेदार ठहराया। इसी काल में ईसाई मिशनरी इस आख्यान का इस्तेमाल ईसाई धर्म प्रचार के लिए और धर्म परिवर्तन के लिए भी कर रहे थे। प्रतिक्रिया स्वरूप 19वीं सदी के शुरुआती दशकों से ही मध्यवर्गीय और शिक्षित हिंदुओं में — विशेष तौर पर सवर्ण हिंदुओं में — दो धाराएं धर्म के सवाल पर उभरती हैं: एक सुधारवादी आंदोलन की धारा और दूसरी धर्म-सभाओं के रूप में जिसका जोर धर्म सुधार की बजाय धर्म बचाव पर रहा; हालांकि धर्म सभाएं भी पूरी तरह से समाज-सुधार की विरोधी नहीं थीं। इन धाराओं के आपसी विरोध के बावजूद दोनों धाराएं आधुनिक हिंदू धर्म का नेतृत्व करती हैं और विभिन्न रूपों में हिंदू आधुनिकता के जन्म और विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। 19वीं सदी में इन धाराओं के नेतृत्व जहां एक तरफ राममोहन रॉय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, महादेव गोविंद रानाडे, स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे दिग्गज समाज सुधारक थे, वहीं दूसरी तरफ बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय, भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालगंगाधर तिलक सरीखे लेखक और राजनेता थे।

19वीं सदी के उत्तराद्र्ध में ये दोनों धाराएं सार्वजनिक विमर्श के केंद्र में थीं। यह कहना भी पूरी तरह से सही नहीं है की इन दोनों धाराओं में सिर्फ विरोध है क्योंकि एक ऐसा दायरा भी है जिसमें ये दोनों धाराएं काफी कुछ साझा करती हैं। जैसे कि दोनों धाराओं में एक तरफ ईसाई मिशिनरियों का विरोध साझा जमीन है, वहीं दूसरी तरफ हिंदू पुनरुत्थानवादी पुट दोनों में विद्यमान है। जिस विमर्श को हम हिंदू राष्ट्रवाद के नाम से जानते हैं उसमें इन दोनों धाराओं का योगदान है। बाद में हिंदू राष्ट्रवाद के विमर्श में स्वामी विवेकानंद और श्री अरबिंदो ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। 19वीं सदी के इन्हीं विमर्शों ने ही पहली बार ‘हिंदुइज्म’ शब्द को भी अंग्रेजी में लोकप्रिय बनाया। कुछ इतिहासकार यह भी मानते हैं कि ‘हिंदुइज्म’ शब्द का पहला इस्तेमाल राजा राममोहन रॉय ने 1816 में किया था जिसके बाद मैक्सम्यूलर आदि संस्कृत के प्राच्यवादी विद्वानों ने इसका प्रयोग किया। 19वीं सदी में ‘हिंदुइज्म’— जिसका हिंदी अनुवाद हिंदू-धर्म ही होना चाहिए न कि हिंदुत्व, हालांकि हिंदुत्ववादी इस फर्क को मिटाने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं – की अवधारणा का उदय और उसका इस्तेमाल ‘हिंदू’ और संबंधित शब्दों के इतिहास में और हिंदू सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना के विकास में एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है।

इस लेख की विषयवस्तु की दृष्टि से 19वीं सदी के विमर्शों का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान यह है कि इनमें हिंदू और ‘हिंदुइज्म’ का इस्तेमाल धर्म और क्षेत्रीय अर्थों के अलावा हिंदू सभ्यता और संस्कृति के तौर पर भी होने लगा। जैसा कि बंकिम और टैगोर दोनों ने लिखा है कि सभ्यता (सिविलाइजेशन) और संस्कृति (कल्चर) दोनों अवधारणाएं पश्चिम की देन हैं और दोनों का आधुनिक काल से पहले भारतीय भाषाओं में इस्तेमाल नहीं होता और न ही उनके लिए शब्द थे। लेकिन इन दोनों अवधारणाओं का सफल अनुवाद हुआ और दोनों का हिंदू राष्ट्रवाद और भारतीय राष्ट्रवाद में महत्त्वपूर्ण योगदान है। बंकिम ने अपनी पुस्तक धर्मतत्व में हिंदू धर्म को अनुशीलन (कल्चर का संस्कृति से पहले का बांग्ला अनुवाद) का पर्याय बताया है। सब्यसाची भट्टाचार्य ने अपनी किताब टॉकिंग-बैक : द आइडिया ऑफ सिविलाइजेशन इन इंडियन नेशनलिस्ट डिस्कॉर्स में इस अवधारणा का विस्तार से विवेचन कर दिखाया है कि सभ्यता की अवधारणा का इस्तेमाल सभी महत्त्वपूर्ण राष्ट्रवादी चिंतकों ने भारतीय राष्ट्र के एकता का आधार के रूप में किया।

20वीं सदी के शुरू के दशकों से ही भारत की सभ्यता और संस्कृति को परिभाषित करना राष्ट्रवादी विमर्श में विवाद और संघर्ष का मुद्दा रहा है। इस विवाद में अनेक दृष्टिकोण और विचार-दृष्टियां समय-समय पर सामने आईं जिनको मुख्यत: दो भागों में बांटा जा सकता है: हिंदू राष्ट्रवादी और सेक्युलर राष्ट्रवादी दृष्टिकोण। हिंदू राष्ट्रवादी दृष्टिकोण हिंदू संस्कृति, हिंदू धर्म और हिंदू अस्मिता को केंद्र में रखकर भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित करता है, जबकि सेक्युलर राष्ट्रवाद प्राचीन समय से विकसित भारत की साझी और मिश्रित संस्कृति को केंद्र में रखकर भारतीय अस्मिता और राष्ट्रवाद को परिभाषित करने की कोशिश करता है। यह वर्गीकरण विश्लेषण की दृष्टि से ही इतने स्पष्ट तौर पर भिन्न है और कुछ हद तक वास्तविक स्थिति का सरलीकरण भी है, क्योंकि पिछले सौ वर्षों की वास्तविक सांस्कृतिक राजनीति में ये दोनों विचारधाराएं मिश्रित तौर पर इस्तेमाल होती रही हैं। अगर सेक्युलर राष्ट्रवाद की इबारत के तौर पर जवाहरलाल नेहरू की भारत की खोज एक स्पष्ट और केंद्रीय इबारत रही है तो इतिहासकार यह भी दिखाते हैं कि 1930 से 1960 के दशकों में यूपी कांग्रेस के कई प्रतिष्ठित सेक्युलरवादी और समाजवादी नेताओं—जैसे कि डॉक्टर संपूर्णानंद, आचार्य नरेंद्र देव और पुरूषोत्तमदास टंडन – की राजनीति की भाषा में कई संदर्भों में हिंदू राष्ट्रवादी भाषा का मिश्रण दिखाई देता है।11 वैसे भी सेक्युलर राष्ट्रवाद की भाषा व्यापक जनता के मध्य न पहुंचकर इलीट वर्ग या सिविल सोसायटी की भाषा तक सिमट कर रह गई है। भारतीय सेक्युलरवाद और सेक्युलर राष्ट्रवाद के समकालीन संकट का एक बड़ा कारण यह भी है।

उधर दूसरी तरफ गत सौ वर्षों में हिंदू राष्ट्रवाद भी कोई एकांगी विचारधारा नहीं रही है। इसका सबसे उग्र रूप 1920 के दशक में ‘हिंदू-संगठन’ आंदोलन के रूप में सामने आता है। यह दशक असहयोग और खिलाफत आंदोलनों की असफलता, आर्य समाज के शुद्धि आंदोलन, और हिंदू-मुस्लिम दंगों के साथ शुरू होता है। इससे पहले के दशकों की तुलना में ‘हिंदू-संगठन’ आंदोलन की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि इसमें उपरोक्त हिंदू आधुनिकता की दोनों धाराएं, अपने आंतरिक विरोधों के बावजूद, एक राजनीतिक गठबंधन बनाने में सफल होती हैं। इसके साथ ही ईसाई मिशनरियों के साथ, बल्कि उनसे बड़े दुश्मन के रूप में, इस्लाम और मुस्लिम राजनीति बनाए जाते हैं। विमर्श के तौर पर इस उग्र हिंदू राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति इस दशक की दो महत्त्वपूर्ण पुस्तकों में होती है: 1924 में प्रकाशित विनायक दामोदर सावरकर की हिंदुत्व : हू इज ए हिंदू? और दूसरी 1926 में प्रकाशित शुद्धि आंदोलन से जुड़े आर्य समाजी नेता स्वामी श्रद्धानंद की हिंदू संगठन।12 ये दोनों पुस्तकें भारतीय राष्ट्रवाद के केंद्र में हिंदू संस्कृति को तो केंद्र में रखती ही हैं इनमें जनसंख्या और भौगोलिकता पर नए सिरे से जोर दिया जाता है। इसके साथ ही इन दोनों पुस्तकों में हिंदू शब्द का प्रयोग एक नस्ल या जाति (रेस एंड नेशन) और संस्कृति के विशेषण के रूप में किया गया है जिसमें हिंदू जाति में उन सभी विश्वासों के लोग शामिल हैं जो मुस्लिम या ईसाई नहीं हैं। सावरकर इस दिशा में एक कदम आगे जाकर हिंदुत्व और हिंदुइज्म के बीच पारिभाषिक तौर पर फर्क करते हैं और जोर देकर हिंदुत्व के तीन आधारभूत तत्वों को रेखांकित करते हैं। ये तत्व हैं: एक राष्ट्र (नेशन), एक जाति (रेस), एक संस्कृति (सिविलाइजेशन)। सावरकर के अनुसार इनमें से पहले दो का संबंध पितृभूमि से है और तीसरे का संबंध पुण्यभूमि से है। गौर करें कि इनमें धर्म शामिल नहीं है। इसी प्रकार से हिंदू कौन है? प्रश्न का उत्तर देते हुए वह लिखते हैं: हिंदू वह है जो 1. भारतीय उपमहाद्वीप को अपनी पितृभूमि मानता है; 2. जिसके पूर्वज हिंदू हैं; 3.भारतवर्ष जिसकी पुण्यभूमि है।

यहां पर सावरकर एक पारिभाषिक रणनीति अपनाते हैं जिसके तहत धर्म और धार्मिक पहचान का रिश्ता कर दिया जाता है। यहां हिंदुइज्म हिंदू को परिभाषित नहीं करता है बल्कि पहले हिंदू कौन है यह परिभाषित किया जाता है उसके बाद सावरकर लिखते हैं कि हिंदुइज्म हिंदुओं के बीच पाए जाने वाले धार्मिक विश्वासों से अलग नहीं है। इस पारिभाषिक रणनीति के तहत वैदिक और अवैदिक तमाम धर्मों – जैसे वेद-पुराण सम्मत सनातन धर्म, बौद्ध धर्म, सिख धर्म, जैन धर्म, देवसमाजी, आर्यसमाजी इत्यादि — को तो हिंदुत्व में शामिल कर लेते हैं लेकिन इस्लाम और ईसाई धर्म को बाहर रखते हैं। यहां पर ऐसा प्रतीत होता है कि घूम-फिर कर सावरकर का विमर्श फिर से एक बार हिंदू शब्द की सदियों पुरानी परिभाषा पर लौट आता है, और सावरकर स्वयं इस शब्द का ऐतिहासिक अन्वेषण विस्तार से करते हैं। लेकिन यह सिर्फ आंशिक सच है। सावरकर के हिसाब से सिर्फ भौगोलिक कसौटी काफी नहीं है हिंदू की परिभाषा के लिए। इसमें वह एक ओर सांस्कृतिक मापदंड जोड़ते हैं और दूसरी तरफ पैतृक खून की कसौटी। गौरतलब है कि ये दोनों मापदंड आधुनिक राष्ट्रवाद की देन हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक एम. एस. गोलवलकर भी हिंदू और हिंदुत्व की परिभाषा में नस्ल (रेस), संस्कृति (जिसके अंतर्गत भारतीय मूल के धर्म आते हैं), और भौगोलिक अखंडता पर जोर देते हैं। गोलवलकर की अवधारणा में गैर-भारतीय मूल के सभी धार्मिक समुदायों को हिंदू समुदाय के अधीन और आश्रित का स्थान दिया गया है। स्वतंत्रता उपरांत जनसंघ और आरएसएस ने गैर-हिंदू धर्मों के राष्ट्रीयकरण और उनके हिंदू संस्कृति में स्वांगीकरण करने पर अधिक जोर दिया है।13 सावरकर और उसके बाद के हिंदुत्व के तमाम संस्करणों से एक बात स्पष्ट है कि हिंदुत्व की विचारधारा के ऐतिहासिक विकास के बावजूद इस विचारधारा का एक अपरिवर्तनीयतत्व है: बहुसंख्यक यानी हिंदू संस्कृति का अल्पसंख्यक समुदायों पर सांस्कृतिक प्रभुत्व स्थापित करना।

इस परिप्रेक्ष्य के साथ मोहन भागवत के भाषण पर एक बार फिर से गौर करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भागवत संघ की मूल विचारधारा से हटकर कुछ नहीं कह रहे हैं और उनके भाषण का सार भी इसी प्रभुत्व के इरादे को अभिव्यक्त करता है। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, इस तरह के शब्दों के खेल संघ और भाजपा के नेता और प्रवक्ता दशकों से खेल रहे हैं। सीधे-सीधे देखें तो उनकी यह बात अर्थहीन है कि भारत में सभी हिंदू हैं क्योंकि भारत का संविधान हिंदू शब्द को वैधानिक रूप में परिभाषित करता है जिसमें सभी भारतीय शामिल नहीं हैं। मजे की बात यह है संविधान में दी गई हिंदू की परिभाषा संघ की परिभाषा से बहुत अलग नहीं है, यानी कि नकारात्मक परिभाषा के आधार पर उन सभी धर्मों के मानने वालों को कानूनी तौर पर हिंदू परिभाषित किया गया है जो मुस्लिम, ईसाई, यहूदी या पारसी नहीं हैं।

मोहन भागवत के इस तरह के वक्तव्य संघ के लिए दुधारी तलवार के जैसे हैं। एक तरफ तो यह पहले से ही हाशिये पर जा चुकी साझी राष्ट्रीय विरासत और संस्कृति की विचारधारा पर हमले का काम करता है और वहीं दूसरी तरफ ऐसे वक्तव्य संविधान में – विशेष तौर पर मौलिक अधिकारों वाले अध्याय में — शामिल अल्पसंख्यक समुदायों के सांस्कृतिक अधिकारों पर भविष्य में होने वाले हमलों के लिए वैचारिक जमीन भी तैयार करते हैं, जिनमें सबसे प्रमुख ‘समान नागरिक संहिताÓ को लागू करने का भाजपा और संघ का पुराना एजेंडा है। सेक्युलर और सेक्युलरवाद के समकालीन चिंतक तलाल असद ने इस बात विशेष जोर दिया है कि सेक्युलरवाद या धर्म-निरपेक्षता को सिर्फ राज्य और धर्म के बीच संबंधों के माध्यम से पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता। तलाल असद का तर्क है कि राज्य की एकता का आधार राष्ट्र में होता है और कोई भी राष्ट्र अपने आप को एकता के सूत्र में बांधे रखने के लिए और अपनी पहचान के लिए मूल्यों का एक स्रोत किसी विशिष्ट संस्कृति में ढूंढता है, और आम तौर पर वह संस्कृति बहुसंख्यक या प्रभुत्व वाले धार्मिक या सांस्कृतिक समुदाय की संस्कृति होती है। इस प्रकार कई सेक्युलर राज्य अपने बहुसंख्यकवादी (मेजोरिटेरीयन) रूप को छिपा सकने में सफल होते हैं। वैसे भी बहुसंख्यकवादी और सेक्युलर के बीच हर परिस्थिति में अंतर्विरोध हो ऐसा आवश्यक नहीं है। बहुसंख्यकवादी सांस्कृतिक वर्चस्व के इस खतरे से निजात पाने के लिए है आधुनिक संविधानों में अल्पसंखयक समुदायों के—धार्मिक, भाषाई, नस्ली और अन्य अल्पसंख्यक समुदाय—सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा के प्रावधान दिए गए हैं।

इस दृष्टि से भारतीय संविधान की विशेषता यह रही है इसमें व्यक्ति-केंद्रित अधिकारों से आगे बढ़कर 1940 के दशक में ही सामुदायिक अधिकारों (या समूहों के अधिकारों) की अवधारणा को विकसित करने के क्षेत्र में एक बड़ी पहल की गई है। जबकि दुनिया के कई अन्य देशों में बहुसंस्कृतिवाद के नाम पर ऐसे अधिकार आधी शताब्दी के बाद अधिकारों के विमर्श का हिस्सा बने। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा (और उससे पहले जनसंघ) को इन अधिकारों से शुरू से ही समस्या रही है जिसे वे अल्पसंख्यकों के विशेषाधिकारों के रूप में देखते हैं। दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय दायरे में भी संघ चाहता है की भारत की सांस्कृतिक पहचान एक हिंदू देश के रूप में हो। इसलिए जब आडवाणी ने जिन्ना को सेक्युलर कहा तो उनकी समझ इसी प्रकार की व्यवस्था की रही होगी जो सांस्कृतिक तौर पर मेजोरिटेरीयन है लेकिन सभी व्यक्तियों के (समुदायों के नहीं) समान अधिकार—जिसमें धर्म के स्वतंत्र पालन का अधिकार भी शामिल है। ऐसी समझ की दृष्टि में अल्पसंख्यक समुदायों के सांस्कृतिक अधिकारों के प्रावधानों वाले संविंधान ‘स्यूडो सेक्युलर’ हैं!

संघ की बहुसंख्यकवादी सांस्कृतिक वर्चस्व की राजनीति का दूसरा बड़ा हथियार नागरिकता संबंधी संवैधानिक प्रावधानों में संशोधन है। इस दृष्टि से हाल ही में पारित हुआ 2019 का नागरिकता संशोधन अधिनियम सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। इस अधिनियम से पहले भी 1986 और 2003 में संशोधन अधिनियमों के द्वारा नागरिकता संबंधी संवैधानिक प्रावधानों में बड़े बदलाव किए जा चुके हैं। इन संशोधनों के परिणामस्वरूप 1955 के नागरिकता अधिनियम के सैद्धांतिक आधार में मूलभूत बदलाव हुआ है। भारत के मौलिक संविधान, और 1955 के नागरिकता अधिनियम में भारत की नागरिकता का आधार जन्म और रक्त-संबंध या वंशाधिकार दोनों ही थे। लेकिन 1986 और 2003 के संशोधनों के द्वारा इस संतुलन को बदला गया जिसके परिणामस्वरूप नागरिकता प्रावधानों का अधिक झुकाव रक्त-संबंध या वंशाधिकार की तरफ हुआ। अस्सी के दशक से ही—विशेषकर असम आंदोलन की पृष्ठभूमि में, जिसका प्रमुख मुद्दा 1971 के युद्ध के बाद बांग्लादेश से आए प्रवासी थे—भारत में नागरिकता संबंधी संवैधानिक प्रावधानों में नागरिकता के आवेदक के जन्म के साथ उसके माता या पिता में से किसी एक का भारतीय नागरिक होना एक अनिवार्य शर्त बना दिया गया है। नागरिकता के प्रावधान में पिछले कुछ दशकों से हो रहे इन बदलावों के पीछे गैर-कानूनी विदेशी प्रवासियों का डर है।

लेकिन 2019 के नागरिकता संशोधन अधिनियम से पहले नागरिकता संबंधी कानूनों में धार्मिक आधार पर भेद-भाव का कोई प्रावधान नहीं था। सर्वविदित है कि 2019 के संशोधन अधिनियम के तहत 31 दिसंबर, 2014 से पहले पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धर्मों के लोगों को नागरिकता देने का प्रावधान है लेकिन मुसलमानों को इस अधिकार से वंचित किया गया है। यह कानून भेदभावपूर्ण तो है ही, संविधान की मूल संरचना का भी उल्लंघन करता है। लेकिन इसके साथ ही यह कानून भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की दिशा में संघ का एक सोचा-समझा कदम है। इस कानून को संघ और भाजपा के हिंदुत्व के एजेंडे का हिस्सा समझना चाहिए जिसके तहत वे भारत को हिंदुओं का ‘प्राकृतिक घर’ (‘नेचुलर होम) सिद्ध करना चाहते हैं। और यह मुद्दा पूरी तरह से सावरकर और गोलवलकर की हिंदुत्व की अवधारणा को ही आगे बढ़ाता है। इस कानून के पीछे संघ का वह मंसूबा साफ नजर आता है जिसमें भारत की नागरिकता और भारतीय राष्ट्रवाद को इजराइल के राष्ट्रवाद की तर्ज पर बदलना चाहते हैं।

 

मोहिंदर सिंह जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान में पढ़ाते हैं.

 

संदर्भ:

 

  1. https://www.youtube.com/watch?v=d1I1wlXoI-w
  2. रवींद्रनाथ टैगोर ‘स्वदेशी समाजÓ, रवींद्रनाथ के निबंध (संकलन और अनुवाद विश्वनाथ नरवणे), साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 1964.
  3. https://khabar.ndtv.com/news/india/rss-chief-mohan-bhagwat-gave-a-big-statement-said-to-a-single-hindu-wv®zyy®
  4. अरविंद शर्मा, ऑन हिंदू, हिंदुस्तान, हिंदूइज्म, एंड हिंदुत्व, Numen, Vol. y~, v (w®®w), pp. v-x{
  5. अरविंद शर्मा, ऑन हिंदू, हिंदुस्तान, हिंदूइज़्म, एंड हिंदुत्व
  6. अरविंद शर्मा, ऑन हिंदू, हिंदुस्तान, हिंदूइज़्म, एंड हिंदुत्व
  7. डरमट किलिंगले, माडर्नटी, रेफॉर्म, रिवाइवल, गैविन फ्लड (संकलित) ब्लैकवेल कम्पेनियन टू हिंदूइज्म, ब्लैकवेल, 2003.
  8. बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, धर्मतत्त्व, (अंग्रेजी अनुवाद अप्रतिम रे), ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, 2003; रवींद्रनाथ टैगोर, सेलेक्टेड एसेज, रूपा एंड कंपनी, नई दिल्ली, 2008.
  9. सब्यसाची भट्टाचार्य, टॉकिंग बैक : द आइडिया ऑफ सिविलाइजेशन इन इंडियन नेशनलिस्ट डिस्कॉर्स, आक्स्फॉर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, 2011.
  10. विलियम गूल्ड, हिंदू नेशनलिज्म एंड द लैंगवेज ऑफ पॉलिटिक्स इन लेट कोलोनीयल इंडिया, कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, कैंब्रिज, 2004.
  11. विनायक दामोदर सावरकर, हिंदुत्व : हू इज ए हिंदू? हिंदी साहित्य सदन, 2018; स्वामी श्रद्धानंद, हिंदू-संगठन : क्यों और कैसे, विजय पुस्तक भंडार, दिल्ली, 2000.
  12. अरविंद शर्मा, ऑन हिंदू, हिंदुस्तान, हिंदूइज्म, एंड हिंदुत्व
  13. तलाल असद, ट्राइंग टू अंडरस्टैंड फ्रैंच सेक्युलरिजम, हेंट डि वरीज और लारेंस सुल्लीवान, पॉलिटिकल थीओलोजीस : पब्लिक रिलिजंस इन पोस्ट-सेक्युलर वल्र्ड, फोर्डहम यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यूयॉर्क, 2006.

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कोरोना वायरसः बीमारी का सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ https://www.samayantar.com/%e0%a4%95%e0%a5%8b%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%a8%e0%a4%be-%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%b0%e0%a4%b8%e0%a4%83-%e0%a4%ac%e0%a5%80%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%b8/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%95%e0%a5%8b%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%a8%e0%a4%be-%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%b0%e0%a4%b8%e0%a4%83-%e0%a4%ac%e0%a5%80%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%b8/#respond Tue, 14 Apr 2020 01:01:53 +0000 https://www.samayantar.com/?p=224 दुनिया के सामने स्पष्ट हो चुका है कि कोरोना वायरस से पहले की दुनिया, कोरोना वायरस के बाद की दुनिया में , बहुत फर्क आ चुका है। कोरोना का डर दिखा कर जिस तरह से पूरी दुनिया में तानाशाही की रिहर्सल हो रही है यह लंबे समय तक इस तरह नहीं टिक पाएगी। कोरोना के नाम पर साम्राज्यवाद अपना आर्थिक संकट टाल नहीं पाएगा।

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रंजोत

 

दुनिया के सामने स्पष्ट हो चुका है कि कोरोना वायरस से पहले की दुनिया, कोरोना वायरस के बाद की दुनिया में , बहुत फर्क चुका है। कोरोना का डर दिखा कर जिस तरह से पूरी दुनिया में तानाशाही की रिहर्सल हो रही है यह लंबे समय तक इस तरह नहीं टिक पाएगी। कोरोना के नाम पर साम्राज्यवाद अपना आर्थिक संकट टाल नहीं पाएगा।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार चीन में पहला नोवेल कोरोना (कोविड-19) केस आठ दिसंबर, 2019 को हुबेई प्रांत के वुहान शहर में दर्ज किया गया। लेकिन चीन के एक जानेमाने दैनिक के अनुसार देश में पहला मामला (पेशेंट जीरो) 17 नवंबर को सामने आया था। दिसंबर से पहले वुहान के जीनयीनतान अस्पताल में कुछ रोगियों के इलाज के दौरान इस संक्रमण का पता लगा था। इस बात की पुष्टि चिकित्सा विज्ञान की पत्रिका लासेंट 1 ने भी की है। लेकिन चीन और अमेरिका दोनों ही एक दूसरे पर कोरोना वायरस (विषाणु) को इजाद करने का आरोप लगाते रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इसे ‘वुहान वायरस’ या ‘चीनी वायरस’ कह रहे हैं, वहीं चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजियन ने बयान जारी किया था कि अमेरिकी सेना द्वारा वुहान में वायरस लाया गया है।

अब कोरोना किसने फैलाया और किसने इजाद किया और क्यों किया या यह प्राकृतिक रूप से मौजूद था या कृत्रिम रूप से तैयार किया गया, और क्या यह जैविक हथियार के रूप में पैदा किया गया, इस पर इतना जल्दी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता। इसके बारे में दुनिया के सामने सच्चाई आने में बहुत लंबा समय लगेगा और बहुत बार ऐसी सच्चाई कभी सामने आती ही नहीं है। इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि साम्राज्यवाद अपने मुनाफे के लिए ऐसा कर सकता है। इसके साक्ष्य इतिहास में दर्ज हैं और अपने आर्थिक संकट से उबरने के लिए, राजनीतिक रूप से अपनी सत्ता को स्थिर बनाए रखने के लिए मरणासन्न पूंजीवाद किसी भी हद तक जा सकता है।

दुनिया के सामने यह स्पष्ट हो चुका है कि कोरोना वायरस से पहले की दुनिया और कोरोना वायरस के बाद की दुनिया में बहुत फर्क आ चुका है। कोरोना का डर दिखा कर जिस तरह से पूरी दुनिया में तानाशाही की रिहर्सल हो रही है यह लंबे समय तक इस तरह नहीं टिक पाएगी। कोरोना के नाम पर साम्राज्यवाद अपना आर्थिक संकट नहीं टाल पाएगा। अवश्य ही कोरोना के बाद दुनिया अभूतपूर्व महामंदी का सामना करेगी और महामंदी या तो फासीवाद पैदा करेगी या फिर क्रांतियां।

इस लेख में कोरोना के कालक्रम को समझने की कोशिश करेंगे और मजदूर वर्ग या उसकी मुक्ति के लिए कार्यरत संगठनों, पार्टियों, कार्यकर्ताओं की क्या जिम्मेदारियां बनती हैं, इस पर चर्चा करेंगे। क्योंकि विडंबना यह है कि क्रांतिकारी होने का दंभ भरने वाले लोग भी ‘स्टे होम’ (घर में रहें) का नारा लगा रहे हैं और यह भूल रहे हैं कि जनता की सेवा करते हुए जो मौत आती है वह हिमालय से भी भारी और कायरों की तरह दुबक कर जो मौत आती है वह पंख से भी हल्की होती है।

 

कोरोना वायरस क्या है?

विज्ञान की भाषा में नोवेल कोरोना विषाणुओं (वायरसों) का एक समूह है जो स्तनधारी (मैमल्स) प्राणियों और पक्षियों में पाया जाता है। इस विषाणु के कारण श्वास तंत्र (रेस्पेरेटरी सिस्टम) में संक्रमण (इंफेक्शन) पैदा हो सकता है जिसमें हल्की सर्दी-जुकाम से लेकर मौत तक हो जाती है। यह उन लोगों को अधिक निशाना बनाता है जिनमें पहले से ही फेफड़े संबंधी रोग होते हैं या किडनी या दिल की बिमारियां होती हैं। अभी तक के शोधों के मुताबिक मरने वालों में अधिक संख्या 60 साल से ऊपर के बुजुर्गों की होती है।

चीन के वुहान शहर के डॉक्टर जब दिसंबर 2019 में कुछ मरीजों का इलाज कर रहे थे तब उनको यह नया वायरस समझ में आया। कोरोना वायरस पहले भी होता था लेकिन यह उससे भिन्न था, इसलिए इसका नाम नोवेल  (नया) कोरोना वायरस या कोविड-एन19 पड़ा। लैटिन भाषा में ‘कोरोना’ का मतलब ‘क्राउन’ यानी ताज होता है और इस वायरस की आकृति ताज पर उगे कांटों जैसी थी इसलिए इसको कोरोना कहा गया। किसी भी तरह के विषाणुओं से लड़ने के लिए शरीर की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यून सिस्टम) ही काम आती है। इसलिए इस वायरस का इलाज रोग के लक्षणों के आधार पर किया जाता है, ताकि रोगी की प्रतिरक्षा प्रणाली मजबूत रहे। इसके अलावा विषाणुजनित रोग जैसे स्वाइन फ्लू, सार्स-दो, इंफ्लुएंजा, एचआईवी और मलेरिया रोग में दी जाने वाली दवाएं भी इस विषाणु के मरीजों पर असरकारी

रही हैं। सबसे बड़ा खौफ इस बात का फैलाया जा रहा है कि इसकी कोई दवाई नहीं है। यह बात आधी सच है। क्योंकि दुनिया में अब तक (इस लेख के प्रकाशित होने तक) इस विषाणु से 185 देशों में 18 लाख 28 हजार से ज्यादा लोग ग्रसित हुए हैं जिसमें से चार लाख से ज्यादा लोग ठीक हो चुके हैं और एक लाख 13 हजार से ज्यादा की मौत हुई है। भारत में 9191 लोग इसके शिकार हैं, वहीं 600 से ज्यादा लोग ठीक हुए हैं और 326  की मृत्यु हुई है। अगर दवा नहीं होती तो इतने लोग ठीक नहीं होते। इस बीमारी में कई दवाएं काम कर रही हैं। पर यह बात भी ठीक है कि इसका वैक्सिन (टीका) नहीं है। लेकिन प्रचार इस तरह से किया जा रहा है कि इसकी दवा नहीं है।

 

दवा और टीके (वैक्सिन) का अंतर ?

बड़े पैमाने पर वैक्सिन का इस्तेमाल 16वीं सदी के दौरान चीन में दिखाई देता है। इसके बाद 1796 में ब्रिटिश डॉक्टर एडवर्ड जेनेर ने छोटी माता का टीका तैयार किया था जो सर्वाधिक प्रचलित हुआ। शरीर के अंदर रोग प्रतिरक्षा प्रणाली होती है। अगर हमारे शरीर में कोई हानिकारिक विषाणु या किटाणु (बेक्टरिया) प्रवेश कर जाता है तो शरीर अपने आप उसके विरुद्ध रोग प्रतिरोध क्षमता उत्पन्न कर लेता है और हानिकारक विषाणु या किटाणु को नष्ट कर देता है। लेकिन शरीर को नए विषाणु या जीवाणु के विरोध में अपने अंदर प्रतिरोध क्षमता विकसित करने में कई दिन लग जाते हैं, अगर रोगी की उस दौरान मृत्यु न हो तो प्रतिरक्षा प्रणाली और विकसित हो जाती है। यह निर्भर करता है रोगी की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली यानी उसके ‘इम्यून सिस्टम’ पर। इसलिए कोई भी दवाई किसी बीमारी का इलाज नहीं करती बल्कि वह शरीर की रोग प्रतिरोध क्षमता बढ़ाने, बनाए रखने में शरीर की मदद करती है। रोग को शरीर अपने आप नष्ट करता है। इसके विपरित टीके का मुख्य कार्य रोग पैदा होने से पहले ही वैक्सिन देकर उसको खत्म कर देना होता है। टीके का निर्माण इस आधार पर किया गया था कि बहुत सारे रोग ऐसे होते हैं जो एक बार होकर फिर बहुत समय बाद होते हैं, जैसे कुछ रोग बचपन में हो जाएं तो वे आगे चल कर जवानी में नहीं होते हैं। वैज्ञानिकों ने खोज लिया कि यह शरीर के अंदर विषाणु या किटाणुओं के खिलाफ पैदा हुई रोग प्रतिरोध क्षमता का नतीजा है और इस आधार पर पहले ही शरीर के अंदर वे मृत विषाणु, कीटाणु प्रवेश करवा दिए जाते हैं जिससे वह रोग पैदा ही न हो।

दवाई का कार्य तात्कालिक होता है, मुख्य रूप से शरीर की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूती देने के लिए बाहर से दिए जाने वाले सहारा के रूप में है। इसके विपरीत वैक्सिन लंबी अवधि तक कार्य करती है, बीमारी होने ही नहीं देती। इसलिए हमें दवा और वैक्सिन का अर्थ पता होना चाहिए। दवा लक्षणों के आधार पर मरीज का इलाज करती है और दवा से भी कोरोना का मरीज बच सकता है। यह जरूरी नहीं है कि जब वैक्सिन आएगी तभी रोगी का इलाज होगा। बिना वैक्सिन के भी कोरोना के मरीज ठीक हो रहे हैं। कोरोना के मरीज दवा या उनकी खुद की रोग प्रतिरोध क्षमता, पौष्टिक आहार, अंडा, दूध, पनीर आदि के बल पर ठीक हो रहे हैं। साठ के पार जिन रोगियों की रोग प्रतिरोध क्षमता कमजोर होती है, जिनमें पहले से कोई लंबी बीमारी होती है वे इसका शिकार आसानी से हो रहे हैं।

चेचक की रोकथाम के लिए बचपन में ही चेचक की वैक्सिन लगा दी जाती है। इस वैक्सिन के अंदर चेचक के मरे हुए विषाणु होते हैं। उसे बच्चे के शरीर में टीके के तौर पर प्रवेश करवा दिया जाता है। शरीर में जब चेचक के मरे हुए कीटाणु पहुंचते हैं तो शरीर कुछ दिनों में उनके खिलाफ रोग प्रतिरोध क्षमता विकसित कर लेता है। वह उन कीटाणुओं के असर को समाप्त कर देता है। अगर जिंदा कीटाणु प्रवेश करवाए जाएं तो व्यक्ति रोगी हो जाता है फिर रोगी के शरीर को उनके खिलाफ लड़ने के लिए रोग प्रतिरोध क्षमता विकसित करने में अधिक समय लग जाता है। अगर वैक्सिन के रूप में दे दी जाए तो शरीर यह क्षमता पहले ही विकसित कर लेता है। वैक्सिन नाक के जरिए बूंद के रूप में या टीके के रूप में शरीर में प्रवेश करवाई जाती है।

 

कोरोना साम्राज्यवाद को उसकी महामंदी से नहीं निकाल पाएगा

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ के आर्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग (डीइएसए)2 द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि कोविड-19 के विस्तार ने वैश्विक आपूर्ति व्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय व्यापार को नुकसान पहुंचाया है। सौ देश अपनी सीमाएं बंद कर चुके हैं। लोगों की आवाजाही और पर्यटन बुरी तरह से प्रभावित हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था 2020 में 0.9 प्रतिशत पर सिमट सकती है। फिलहाल दुनिया की विकास दर 2.5 प्रतिशत है। यह 2009 की वैश्विक मंदी से भी खतरनाक स्थिती होगी जब दुनिया की विकास दर 1.7 प्रतिशत पर सिमट गई थी। रिपोर्ट का कहना है कि – इन देशों के लाखों मजदूरों के अंदर अपनी नौकरी खोने का डर देखा जा रहा है। सरकारें अर्थव्यवस्था को ठीक करने के लिए बड़े प्रोत्साहन तरीकों पर विचार कर रही हैं और सहायता के ये कार्यक्रम (रोलआउट पैकेज) वैश्विक अर्थव्यस्था को संभावित गहरी मंदी में डूबो सकते हैं।

दुनियाभर के साम्राज्यवादी देश, खासकर अमेरिका 2008 के बाद से ही लगातार आर्थिक मंदी से घिरा हुआ है। चीनी सामाजिक साम्राज्यवाद अफ्रीका, एशिया के छोटे-छोटे देशों की अथाह प्राकृतिक संपदा का दोहन कर और अपने देश की सस्ती श्रम शक्ति को निचोड़ कर उभर कर सामने आ रहा है। योरोपीय संघ टूट रहा है और उनके अंतरविरोध भी तेज हो रहे हैं। खास बात यह देखने को मिल रही है कि दुनिया के बाजार पर कब्जा जमाने के लिए आपा-धापी मची हुई है। अमेरिका ने ईरान, इराक, अफगानिस्तान, सीरिया, लैटिन अमेरिका आदि देशों को नर्क बना दिया है। चीन अफ्रीकी देशों को अपने कर्ज और सहायता के जाल में फंसा रहा है। अमेरिका और चीन के बीच लगातार स्थिति व्यापार युद्ध जारी है। इसका मुख्य मकसद दुनिया के बाजारों पर अपनी-अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करना है।

दुनिया की आर्थिक मंदी के चलते लगातार नौकरियों में कटौती होती जा रही है। बड़े पैमाने पर बेरोजगारी फैल रही है। सरकारें नए-नए टैक्स लगा रही हैं और नागरिक सुविधाओं में कटौती कर रही हैं। अमेरिका, चीन जैसे देश अपनी मंदी से उबरने के लिए नए-नए बाजार तलाश रहे हैं जिसके चलते विकासशील देशों में तीव्र आर्थिक संकट पैदा हो रहा है। भारत के सार्वजनिक उद्योग धंधे बुरी तरह से तबाह हुए हैं। बैंकिंग सेक्टर जिस तरह से डूब रहा है इसका असर अर्थव्यवस्था पर गहरा पड़ने वाला है। पिछले साल बैंकों का बट्टाखाता यानी

डूबा हुआ पैसा (एनपीए या नान परफार्मिंग एसेट्टस) रु 8,06,412 करोड़ था जिसमें लगातार बढ़ोतरी देखी जा रही है। इतना ही नहीं, बैंकों की संख्या विलय के बाद चार रह गई है। इसका मतलब है कि ये सभी मिलाए गए  बैंक डूब चुके थे। सरकार लीपापोती कर उनको बनाए रखे हुए है।

इस सबका बड़ा कारण यह है कि देश की बड़ी-बड़ी कंपनियों और पूंजीपतियों ने बैंकों से जो उधार लिया है उसको चुकता नहीं कर रहे हैं। देश में बढ़ी बेरोजगारी और कृषि में जारी संकट के चलते मांग नहीं बढ़ रही है और कंपनियां लगातार अपना उत्पादन घटा रही हैं। उत्पादन घटने से मजदूर बेरोजगार हो रहे हैं। बेरोजगार मजदूर, किसान, नौजवान क्या करेंगे। यह सरकार को भी पता है और उनके आकाओं को भी है। देश के कृषि, विनिर्माण क्षेत्र, यातायात, रियल इस्टेट, मोटर-गाड़ी उद्योग, बैंकिंग क्षेत्र आदि लगातार पिछड़ते जा रहे हैं।

 

बढ़ता असंतोष

पूरी दुनिया में आर्थिक संकट के चलते लगातार मजदूर, किसान, नौजवान और छात्र अपने-अपने देशों की सरकारों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। पिछले साल से यह सिलसिला लगातार जारी रहा। सबसे ज्यादा खतरे की घंटी चीन के लिए तब बजी जब हांगकांग में लोग अपनी स्वायत्तता को लेकर प्रदर्शन पर प्रदर्शन कर रहे थे। उनको रोकने में चीन की साम्राज्यवादी सरकार नाकाम हो रही थी। इसी तरफ फ्रांस, अल्जीरिया, लैटिन अमेरिका, सीरिया, ईरान, इराक, तुर्की हर जगह लोग अपने देशों की सरकारों के खिलाफ लड़े। भारत में दशकों बाद राष्ट्रव्यापी आंदोलन देखा गया। एनपीआर, एनआरसी और सीएए जैसे कानूनों के खिलाफ पूरा देश एकजुट होकर सरकार के खिलाफ विद्रोह कर उठा था। इस विद्रोह को कुचलने के लिए दक्षिणपंथी सरकार द्वारा किया गया दमन, छात्रों पर किए गए हमले और मुस्लिम बस्तियों पर किए गए हमले भी काम नहीं आए। लोग रुक नहीं रहे थे। अमेरिका में भी लगातार ट्रंप की लोकप्रियता घट रही थी। अफगानिस्तान में तालिबान के साथ समझौता नहीं हो पा रहा था, नतीजतन वह अपने सैनिकों को नहीं निकाल पा रहा था। वहीं चीन के साथ ट्रंप द्वारा छेड़ा गया व्यापार युद्ध अमेरिका के लिए घाटे का सौदा साबित होता जा रहा था। व्यापार युद्ध के चलते चीन की अर्थव्यवस्था पिछले तीस सालों में सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। वहां की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की दर महज 6.1 प्रतिशत रह गई है। ऑक्सफोर्ड इकनॉमिक्स  के मुख्य अर्थशास्त्री लाउस कूजिस कहते हैं कि 2019 में अमेरिका के साथ व्यापार युद्ध के चलते चीन की विकास दर उल्लेखनीय रूप से प्रभावित हुई है, उसका निर्यात घट गया है और  कमजोर भी हो रहा है। साथ ही विनिर्माण क्षेत्र में निवेश घटा है।3

 

कोरोना के बाद की दुनिया

यह कोरोना से पहले का घटनाक्रम है। दुनिया भर में की सरकारें अपनी जनता से डरी हुई थीं। उन की लोकप्रियता गिरती जा रही थी। खासकर चीन, भारत, अमेरिका आदि देश लोगों की आकाक्षाओं को दबाने के लिए फासीवादी हथकंडे अपना रहे थे। कोरोना ने काले कानूनों को लागू और लोकतांत्रिक मूल्यों को समाप्त करके  सरकार के विरोध में कुछ भी बोलनेवालों को कुचलने के रास्ते खुल गए हैं। एक तरह से देखा जाए तो कोरोना फासीवाद को मजबूत करने के लिए साम्राज्यवादियों और देश के शासक वर्गों के हाथ में एक मजबूत हथियार बनकर सामने आ रहा है।

बीबीसी संवादाता रेहान फजल ने अपनी रिपोर्ट4 में जिक्र किया है कि इसके बाद शायद कुछ देश उतने लोकतांत्रिक नहीं रहेंगे जितने वे मार्च 2020 से पहले हुआ करते थे।  उनका इशारा इस बात की तरफ है कि दुनिया भर की सरकारें जिस तरह से अंधाधुंध घोषणाएं कर रही हैं, प्रतिबंध लगा रही हैं, पुलिस और फौज को खुली छूट दे रही हैं, पुलिस-फौज बेकसूर लोगों को मार-पीट रही है, एक तरह से नागरिक प्रशासन की जगह पुलिस और फौज ने ले ली है। शायद यह आने वाले समय में स्थाई हो जाए। लोगों को इस बात का एहसास करवाया जा रहा है कि यह सब आपकी सुरक्षा के लिए जरूरी है।

 

भारत में मुंह मांगी मुराद

भारत में जब प्रधानमंत्री द्वारा लॉकडाउन और कर्फ्यू की घोषणा की गई तो ऐसा लग रहा था जैसे देश की सरकार की मुंह मांगी मुराद पूरी हो गई हो। जिस राजनीतिक आक्रोश को, संघर्ष को वह कुचल नहीं पा रही थी, देशव्यापी विरोध प्रदर्शनों की नई रीत से जैसी वह डरी हुई थी, उसको कोरोना के संकट ने एक झटके में बदल दिया। पैदल घरों की तरफ लौट रहे मजदूरों को दवा, पानी, राशन देने की बजाए उन पर पुलिस को खुले सांडों की तरह छोड़ दिया गया जैसे कि मजदूर ही इस बीमारी का मुख्य कारण हों। इसके बाद तबलीगी जमात के तौर पर शासक वर्गीय सत्ताधारी पार्टी को अपना मनपसंद दुश्मन भी मिल ही गया।

ऐसा लगता है जैसे नाक के नीचे दिल्ली में जमावड़ा बनाए रखना और कर्फ्यू के चरम पर उनका दिल्ली से निकल कर पूरे देश में फैलाना, किसी साजिश का हिस्सा रहा हो। इसके बाद दक्षिणपंथी पार्टी द्वारा उनको मुख्य दुश्मन के तौर पर प्रचारित करना, पूरे सोशल मिडिया पर छाया रहा। बीबीसी अपनी रिपोर्ट में कहती है मानवाधिकारों पर पाबंदी से लोकतंत्र कमजोर हुए हैं।“कोरोना वायरस के आने से कहीं पहले दुनिया के कई देशों में लोकतंत्र की जड़ें कम हो रही थीं। प्रजातांत्रिक मूल्यों के लिए काम करने वाली संस्था ‘फ्रीडम हाउस’ की बात मानी जाए तो पिछले साल 64 देशों में लोकतांत्रिक मूल्य पहले की तुलना में कम हुए हैं। ‘‘ जब दुनिया के बहुत से देश इस महामारी से निपटने के लिए असाधारण कदम उठा रहे हैं, तानाशाह और प्रजातांत्रिक-दोनों तरह के देशों में मानवाधिकारों को बड़े स्तर पर संकुचित किया जा रहा है। व्यापार को बंद करना, सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग)को लागू करने पर जोर देना, लोगों को सड़क से दूर रखने और उनके जमा होने पर रोक और कर्फ्यू लगाने जैसे कदम इस बीमारी को रोकने के लिए बेशक जरूरी कदम हैं लेकिन इस बात के भी गंभीर खतरे हैं कि इससे तानाशाही की नई लहर को भी बढ़ावा मिल सकता है।”

ये आशंकाएं नजरंदाज नहीं की जा सकतीं। खासकर भारत में जहां सत्ताधारी पार्टी के सांसद खुल कर घोषणा करते हैं कि 2025 के बाद चुनावों की जरूरत नहीं होगी। सोशल मीडिया पर यह संदेश भी प्रचारित हो रहे हैं कि देश के प्रधानमंत्री का विरोध करना देश का विरोध करना है, या देशद्रोह है। एक संदेश फैल रहा है कि जिस प्रकार चीन और उत्तर कोरिया जैसे देशों में आजीवन प्रधानमंत्री होते हैं, भारत में भी ऐसा ही होना चाहिए। प्रधानमंत्री की गैर वैज्ञानिक नौटंकी को एक तबके का पूरा समर्थन मिल रहा है। यानी भारतीय फासीवाद अपने साथ एक तबके को लगाने में कामयाब होता जा रहा है। सोशल मीडिया और जमीनी स्तर पर ऐसी फौज तैयार हो रही है जो कि सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ कुछ नहीं सुनना चाहती। जिन राज्यों में सत्ताधारी पार्टी की सरकारें हैं वहां पर खासतौर से आपतकालीन कानूनों को अपनी पकड़ मजबूत करने, अपने मनपसंदीदा दुश्मन को निशाना बनाने, लोकतांत्रिक, क्रांतिकारी संघर्षों को कुचलने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।

 

गुनाह पासपोर्ट का था, दरबदर राशनकार्ड हो गए

कोरोना को देश में लाने के लिए मुख्य रूप से वह तबका जिम्मेदार है जो विदेशों में अपने ऐशो-आराम, कारोबार तथा काम-धंधों के लिए आना-जाना करता है। सबसे पहले देश में कोरोना का मरीज जो पाया गया वह केरल में था। वह विदेश से आई युवती थी। गायिका अभिनेत्री कनिका कपूर ने भी इस मामले में खूब वाही-वाही लूटी।

इसके बाद विदेश से लौटकर आने वालों की बाकी भीड़ ने इस भारी तबाही को जन्म दिया। लेकिन इसका सबसे अधिक खामियाजा मजदूर तबके को भुगतना पड़ रहा है। यह वही मजदूर तबका है जो कि केरल से लेकर कन्याकुमारी तक, रेगिस्तान से लेकर समुद्र तट तक, हड्डियां जमा देने वाली रोहतांग, लेह-लद्दाख की बर्फ तक की परवाह न करते हुए बड़ी ढांचा निर्माण परियोजनाओं से लेकर फैक्ट्रियों तक में कार्य कर रहा है। इसने आठ-आठ लेन की सड़कें बनाई हैं, पहाड़ों का सीना चीर रेल लाइने बिछाई हैं, सूरंगें खोदी हैं, गगनचूंबी इमारतें बनाई हैं। यह वही वर्ग है जो देश की अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करता है। लेकिन इस गरीब लाचार मजदूर तबके के खिलाफ शासक वर्ग के साथ मिलकर मध्य व उच्च मध्य वर्ग के बड़े हिस्से और गोदी मीडिया ने जो आरोप लगाया, उनको दोषी ठहराया, उनको गालियां दीं, वह देश के इतिहास में काले धब्बे के तौर पर अंकित रहेगा। सारा दोष उस गरीब तबके पर मढ़ा जा रहा है जो इस रोग से बहुत दूर था। जो दो वक्त की रोटी के लिए पूरे देश में दरबदर ठोकर खाने पर मजबूर है। हजारों-लाखों लोग देश में सैकड़ों किलोमीटर का सफर तय कर, चोरों की तरह छिपकर अपने घरों को जाने के लिए मजबूर हुए।

बीमारी चाहे विदेशों से आई हो और देश के उच्च-मध्यवर्ग, शासक जमातों के जरिए आई हो, लेकिन भविष्य में भी इसका शिकार सबसे अधिक देश का गरीब मजदूर, किसान वर्ग ही होने जा रहा है। क्योंकि अमीरों के लिए एक से एक अस्पताल हैं, स्वास्थ्य सुविधाएं हैं, वह अपने बंगलों में क्वॉरेंटाइन नियमों का आनंद उठा सकते हैं। पर क्या मजदूर और निम्नवर्ग के लिए यह अय्याशी संभव है? एक सरकारी अधिकारी के अनुसार गांव में लोग अपने घरों में क्वॉरेंटाइन नहीं रह सकते, सभी घरों में एक ही स्नानघर और शौचालय होता है, यहां तक की कभी-कभी पूरा परिवार एक ही तौलिए और साबुन का इस्तेमाल करता है। सवाल है, ऐसे मरीजों को गांव में कैसे रखा जाए?

बात जायज है और पूरे देश की ग्रामीण आबादी के लिए सटीक है। कोरोना वायरस सर्वाधिक निशाना उन लोगों को बनाता है जिनका ‘इम्यून सिस्टम’ या फिर रोग प्रतिरोध प्रणाली कमजोर होती है। जाहिर सी बात है कि जिस देश की 37.2 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीती हो उस देश के लोगों का इम्यून सिस्टम कैसे मजबूत हो सकता है। इसलिए कोरोना का सबसे बड़ा कहर इसी वर्ग होगा।

एक और मसला यह है कि लाकडाउन के बाद जिस तरह से भारी संख्या में असंगठित क्षेत्र के मजदूर अपने गांवों को वापस गए हैं उसके कारण वहां की अर्थव्यवस्था इनके बोझ को नहीं उठा पाएगी। अगर गांव में काम होता तो उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडिशा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड जैसे राज्यों के लाखों-करोड़ों लोग अपना घर-बार छोड़कर शहरों की ओर पलायन ही क्यों करते। यही लोग जब लौटकर गांव पहुंचेंगे तो वहां इनको किस तरह रोजगार मिल पाएगा? स्पष्ट है कि वहां इनको किसी तरह का रोजगार हासिल नहीं होगा। जो कुछ पैसा इन्होंने कमाया था वह एक-दो महीने से अधिक इनके परिवारों का पेट नहीं भर पाएगा। बहुत सारे लोग सरकार से मांग कर रहे हैं कि सरकार को इनके लिए सही पैकेज घोषित करना चाहिए। जो कंपनियां या फैक्ट्रियां बंद हो गई हैं, उत्पादन ठप पड़ गया है, ठेकेदार के पास मजदूर हैं उनके लिए सरकार प्रबंध करे। लेकिन किसी भी तरह का सरकारी पैकेज इनको स्थाई राहत नहीं दे सकता।

बीपीएल परिवारों को दो माह का राशन, कई राज्यों में दो या तीन महीने फ्री गैस सप्लाई या फिर पांच सौ या दो हजार रुपए की किस्तों से करोड़ों लोगों का पेट नहीं भर पाएगा।5 कोरोना से ज्यादा लोग भुखमरी के शिकार होकर मरेंगे। बिना पैसे स्वास्थ्य सुविधाएं खरीद पाना करोड़ों की इस आबादी के लिए दूर की कौड़ी है। इसलिए कोई भी राहत पैकेज केवल और केवल पूंजीपतियों, ठेकेदारों तक ही सीमित होगा। रिजर्व बैंक आफ इंडिया (आरबीआई) ने रिवर्स रेपो रेट या कहें बैंकों को दिए जाने वाले कर्ज पर ब्याज घटा कर जो पैंतरा चला है उससे केवल बड़ी कंपनियों तथा उद्योगों को कर्ज मिलेगा और आने वाले समय में उसका एनपीए में तब्दील होना तय है। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि बचे-खुचे चार बैंक भी दिवालिया होने की तरफ धकेल दिए गए हैं।

भारत सरकार ने कोरोना से लड़ने के लिए आंकड़ों का खेल खेलते हुए बजट के आंवटनों को फेरदबल कर 15 हजार करोड़ खर्च करने का ऐलान किया है, वहीं केरल इसके लिए 20 हजार करोड़ खर्च करेगा। इसमें अमेरिका ने भी अपने योगदान की घोषणा करते हुए 28 मार्च को 29 लाख डॉलर (21 करोड़ 71 लाख रुपए) देने का आश्वासन दिया है। यह वह राशि है जो अमेरिका ने अपने व्यापारिक हितों के मद्देनजर 64 देशों को जारी की है। अमेरिका 2,740 लाख अमेरिकी डॉलर की वित्तीय सहायता करेगा। हालांकि इसमें कहा गया है कि इमरजेंसी हेल्थ एंड ह्यूमेन फंडिंग (आपतकालीन स्वास्थ्य और मानवीय कोष) के तहत उन देशों को मदद दी जा रही है जो इस वैश्विक महामारी की सबसे ज्यादा चपेट में हैं। छह मार्च को अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने कोरोना वायरस प्रेपेयर्डनेस एंड रेस्पोन्स सप्लीमेंट एप्रोप्रिएशन एक्ट (कोरोना वायरस तैयारी तथा कार्रवाही पूरक विनियोग कानून) पर दस्तखत किए, जिसमें महामारी से लड़ रहे दुनियाभर के देशों को 130 करोड़ डॉलर देने का वादा किया गया है। वहीं चीन ने भी एलान कर दिया है कि विपत्ति के समय उसकी मदद करने वाले 19 देशों को कोरोना से लड़ने के लिए वह भरपूर मदद करेगा। भारत भी चीन की मदद की सूची में शामिल है।6 चीन ने सात अप्रैल को कोरोना वायरस के संक्रमण के इलाज में चिकित्साकर्मियों के इस्तेमाल में आने वाले निजी सुरक्षा उपकरणों (पीपीई) की 1.7 लाख किट भारत को सहायता के तौर पर दी है। इसके अलावा चीन ने 18 अफ्रीकी देशों की भी कोरोना से लड़ने के लिए मेडिकल जरूरतों की आपूर्ति की है।7 चीन और अमेरिका द्वारा विभिन्न देशों को दी जा रही यह राहत आने वाले समय में उन देशों के प्राकृतिक संसाधन हड़पने के ही काम आएगी।

जहां तक अपने-अपने गांव लौटी मेहनतकश जनता का सवाल है उसे केवल और केवल कृषि ही पर्याप्त रोजगार मुहैया करवा सकती है इसलिए उन तमाम भूमिहीन लोगों को जो कंगाली के चलते शहरों की तरफ पलायन कर मजदूर बने थे, उद्धार का एक मात्र रास्ता खेतिहर क्रांति ही बचती है। भूमिसुधार और उन लोगों को भूमि वितरण से ही रोजगार प्राप्त होगा बाकि सब पैकेज एक और धोखा साबित होंगे।

 

स्टे होमका रामबांण

जिस तरह से देश के शासक वर्ग ने लॉकडाउन और कर्फ्यू का हुक्म दिया, कोरोना से लड़ने के नाम पर ‘स्टे होम’ का नारा दिया, तो मेहनतकश की मुक्ति की बात करने वाले बहुत सारे संगठन, पार्टियां, एनजीओ तथा सामाजिक संगठन सरकार के सुर में सुर मिलाते नजर आए। यह पूंजीवाद के चंगुल में फंसने वाला नारा है। मेहनतकश की मुक्ति के लिए जी-जान लगाने, प्राणों तक को न्यौछावर करने की क्रांतिकारी भावना के खिलाफ नारा है। दुनियाभर में महामारियां पहले भी आई हैं, चाहे वह प्लेग के रूप में थीं या साम्राज्यवाद प्रायोजित अकाल के दौरान फैली महामारियां थीं। उस समय भी जान हथेली पर रखकर निकलने वाले क्रांतिकारियों के दुनिया में उदाहरण भरे पड़े हैं। आज कोरोना से सावधान रहने की जरूरत है, बचने की जरूरत है लेकिन घर पर बैठ कर तमाशा देखना बेहद शर्मनाक है। इस दौरान जब देश की जनता इस महामारी से जूझ रही है, देश की सर्वाधिक आबादी पर खतरा मंडरा रहा है, उस समय यह बेहद जरूरी हो जाता है कि हम उसके पास जाएं, उसकी सेवा करें, उसके लिए रोटी-कपड़ा-मकान-दवा का इंतजाम करें। क्योंकि सरकार के भरोसे बैठकर यह सुनिश्चित नहीं किया जा सकता कि वह इन सब पैकेजों से पूरा कर देगी।

आज फिर से जो भूमिहीन गांव में वापस जा रहे हैं उनके लिए भूमि की समस्या को उठाया जाए। सरकारी गोदामों में अनाज भरा पड़ा है, दवाएं भरी पड़ी हैं, बड़े-बड़े व्यापारी, जमींदार जमाखोरी कर मुनाफा कमाने के लिए तैयार बैठे हैं। सरकार साम्राज्यवादी आकाओं के आगे झुककर उनके लिए दवा, स्वास्थ्यकर्मियों के लिए जरूरी उपकरणों के निर्यात पर से पाबंदी हटा रही है। साम्राज्यवादी देश फिर हमारे संसाधनों का दोहन कर रहे हैं। ट्रंप की एक धमकी के आगे जिस तरह से हमारे शासक वर्ग ने घुटने टेक वह स्तब्ध करनेवाला है। विदेश भेजे जानेवाले ये सब उपकरण तथा दवाएं हमारे देश के लोगों के लिए जरूरी हैं।

दुनिया के बड़े-बड़े देश, बहुराष्ट्रीय कंपनियां, 44 से ज्यादा टीकों पर अरबों रुपए खर्च कर शोध कर रही हैं। आने वाले समय में साम्राज्यवाद इस तरह के टीकों को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करेगा। जो सबसे पहले कारोना का टीका बनाएगा वह अकूत मुनाफा कमाएगा, यह निश्चित है। जनता की जान से उसका कोई लेना-देना नहीं है। जब तक टीका नहीं आ जाता तब तक कई सारी दवाएं इसके इलाज के काम आ रही हैं। हमें लड़कर सुनिश्चित करवाना चाहिए कि वे दवाएं जनता को निःशुल्क मिलें।

निजी कंपनियों को कोरोना टेस्टिंग की अनुमति देना, बड़े-बड़े निजी कोरोना अस्पताल खोलने की अनुमति देना, यह सब सरकार अपने पूंजीपति दोस्तों का मुनाफा सुनिश्चित करने के लिए कर रही है। हमें इस बात के लिए लड़ना चाहिए कि स्वास्थ्य क्षेत्र पूरी तरह से सरकारी होना चाहिए। कोरोना के टेस्टों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए और पूरी तरफ मुफ्त होनी चाहिए। स्वास्थ्यकर्मियों के लिए जरूरी उपकरणों की सप्लाई की गारंटी होनी चाहिए। बड़े पैमाने पर निजी दवा कंपनियों को अपने हाथ में लेकर एंटी वायरल दवाओं का उत्पादन करना चाहिए खासतौर पर क्लोरोक्विन का, क्योंकि यह दवा बेहद सस्ती दवा है। भारी मात्रा में गैर जरूरी उत्पादन को रोक कर वेंटिलेटर और अन्य स्वास्थ्य मशीनों का उत्पादन होना चाहिए। तमाम निजी होटलों, रेस्तराओं, शापिंग मॉलों को, जो बंद पड़े हैं अस्पतालों में तब्दील किया जाना चाहिए। लोगों का इम्यून सिस्टम तभी मजबूत हो सकता है जब वह गरीबी रेखा से उपर उठेंगे, और इम्यून सिस्टम की कमजोरी तमाम बीमारियों की जड़ है। इसलिए यह लड़ाई आखिर में जाकर मजदूर-किसानों की जंग के रूप में तब्दील होती है। जब तक उसके पास अपनी जमीन और फैक्ट्रियों पर उसका अपना अधिकार नहीं होगा वह अपने लिए स्वास्थ्य, रोटी-कपड़ा-मकान हासिल नहीं कर सकता।

पूंजीवाद द्वारा स्थापित विकास का मॉडल ध्वस्त हो चुका है। यह जन विकास के वैकल्पिक माडल को पेश करने का समय है। इसलिए सरकार द्वारा की जा रही तानाशाही की रिहर्सल का मूल्यांकन बहुत सावधानी से करने की जरूरत है।

संदर्भ:

  1. https://www-google com/ url\sa¾ t&rct¾ j&q¾ &esrc¾ s&source¾ web&cd ¾33&cad ¾rja&uact¾8&ved¾2ahUKEwjNnquWjtPoAhX1yzgGHYtiA0IQie8BKAEwIHoECAEQAg& url¾https%3A%2F%2Fgoogle-com%2Fcovid19& map%2F%3Fhl% 3Den&usg¾AOvVaw 1m IAQj3h&rnSLqZzzE0u74
  2. https://economictimes-indiatimes-com/topic/UN&Departm ent&of &Economic &and& Social & Affairs
  3. https://fortune-com/2020/01/17/china&gdp&growth&2019&weakest&30&years&trade& war/
  4. https://www-bbc-com/hindi/international&52102995
  5. 2011 की जनगणना के अनुसार भारत मे बीपीएल जनसंख्या 21.9 प्रतिशत यानी 27 करोड़ थी जबकि 2004-05 में यह संख्या 37.2 प्रतिशत यानी 40 करोड़ 70 लाख थी। आंकड़ों के फेरबदल से 2011 में बीपीएल संख्या घटाई गई थी। https://www-google-com/url\sa¾t&rct¾j& q¾&esrc¾s&source¾web&cd ¾2& cad¾rja & ua ct¾8&ved¾2 ahUKEwjs qsf14tXo AhV1yjgGHUnBCVQQ FjABeg QIDBAE &url ¾ http %3A%2 F%2Fplanningcommission-nic-in%2Fnews %2Fpre_pov2307-pdf&usg ¾AOv Vaw2 dpPuK74j B6shw9 IL d9nRH
  6. https://www-jagran-com/world/china&coronavi rus&china&will&help& india&prevent & cor ona& virus& infection&20135166-html
  7. https://www-livehindustan-com/ national/story&coronav irus&lockdown &china& donates&17000 0&ppe&kits&to&ind ia&to&help& fight &covid19&3133362-html
  8. http://www-Ûinhuanet-com/english/2020&04/07/c_138952553_2-htm

 

लेखक एचपीयू, शिमला, के लॉ डिपार्टमेंट से संबद्ध हैं.

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सत्ता के केंद्रित हो जाने के खतरे https://www.samayantar.com/%e0%a4%b8%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%95%e0%a5%87%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%a4-%e0%a4%b9%e0%a5%8b-%e0%a4%9c%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%87/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%b8%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%95%e0%a5%87%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%a4-%e0%a4%b9%e0%a5%8b-%e0%a4%9c%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%87/#comments Sat, 04 Apr 2020 07:22:36 +0000 https://www.samayantar.com/?p=78 ”पूरे भारत में चल रहे लॉकडाउन की तुलना 2016 के मुद्रा के अवमूल्यन से की जा रही है। और इसका तर्क समझ में आता है। [...]

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पूरे भारत में चल रहे लॉकडाउन की तुलना 2016 के मुद्रा के अवमूल्यन से की जा रही है। और इसका तर्क समझ में आता है। प्रधानमंत्री द्वारा की गई राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की घोषणा अचानक लिया गया निर्णय था। इसका समाज में जबर्दस्त असर पड़ेगा विशेषकर गरीबों पर। शासन करने की यह शैली जीएसटी के लागू किए जाने के दौरान भी साफ थी। यह सरकार में सर्वोच्च स्तर पर सत्ता के केंद्रित हो जाने को उसी तरह दर्शाता है जैसा कि इंदिरा गांधी के दौरान हो गया था। लेकिन 1970 में सरकार की कार्यप्रणाली की तुलना में वर्तमान व्यवस्था में राज्य ही सिकुड़ता नजर आता है।’’

क्रिस्टोफर जफरलॉटउत्सव शाह,  इंडियन एक्सप्रेस, 30 मार्च, 2020

 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 24 मार्च को देशके नाम उद्बोधन जिसमें 21 दिन के लॉक डाउन की घोषणा की गई थी ऐसा कार्यक्रम था जो भारत के टीवी के इतिहास में सबसे ज्यादा देखा गया। जैसे ही उद्बोधन समाप्त हुआ कई दर्शक भीड़ भरे बाजारों की ओर भागे जिससे की जरूरत की चीजों को जमा कर लें। मोदी को कुछ मिनट बाद ही जनता से यह आग्रह करने वाला ट्वीट करना पड़ा कि वे घबड़ाएं नहीं।

उद्बोधन ने जिसने आश्वस्त करने की जगह लोगों में और अनिश्चितता पैदा कर दी, रणनीतिगत संवाद की असफलता का अच्छा उदाहरण है।’’

संजय बारू, इकानोमिक टाइम्स , 30 मार्च, 2020

 

अंग्रेजी के 18वीं सदी के कवि एलेक्जेंडर पोप की एक कविता की पंक्ति है: फूल्स रश इन व्हेयर एंजिल्स फीयर टु ट्रीट (मूर्ख उस ओर सरपट दौड़ते हैं जहां जाने से समझदार लोग बचते हैं।)।

कोरोना वायरस (कोविड-19) के प्रकोप से भयाक्रांत माहौल में यह पंक्ति सटीक लगती है। आगे बढऩे से पहले हमें एक बात और समझ लेनी चाहिए कि कोई भी बीमारी बिना सामाजिक संदर्भ के नहीं होती। प्रश्न यह है कि जब प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय प्रसारण में 21 दिन की देश बंदी उर्फ लॉकडाउन की घोषणा की, क्या उससे पहले उन्होंने विशेषज्ञों से ठीक से सलाह-मशविरा कर लिया था? संजय बारू ने जिस बात की ओर इशारा किया है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने इतने महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर, मुख्यमंत्रियों की तो बात ही छोड़ें, यहां तक कि विशेषज्ञों से इसके विभिन्न पहलुओं पर चर्चा किए बिना देश-बंदी की घोषणा कर दी। जिन बातों पर चर्चा करना जरूरी था उनमें स्वास्थ्य व्यवस्था की क्या स्थिति है? कानून और व्यवस्था क्या होगी और सबसे बड़ी बात जिस देश में इतनी बड़ी संख्या में लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हों, उनके रहने और खाने का क्या होगा?

यहां यह याद रखना जरूरी है कि ये तीनों ही विषय राज्यों के कार्यक्षेत्र के हैं। क्या मुख्यमंत्रियों को विश्वास में नहीं लिया जाना चाहिए था?

इन बातों पर आने से पहले कुछ आधारभूत बातों को समझ लिया जाना चाहिए। पहली बात, यह बीमारी कम से कम भारत के संदर्भ में, उच्च और उच्चमध्य वर्ग की बीमारी है, जो मूलत: विदेशों से आई है। अब यह स्पष्ट है कि यह पश्चिम के रास्ते यानी खाड़ी देशों से होती हुई आई। दूसरी बात, गोकि यह अभी वैज्ञानिक स्तर पर सिद्ध नहीं हुई है पर व्यवहारिक स्तर पर देखा जा रहा है कि दक्षिणी गोलाद्र्ध में इस बीमारी की भयावहता उत्तरी गोलाद्र्ध की तुलना में कहीं कम है। इंडियन काउंसिल ऑफ मैडिकल रिसर्च (आइसीएमआर) से जुड़े डॉक्टर नरिंदर कुमार मेहरा के अनुसार भारतीय लोगों में कोविड-19 संहारक स्तर पर न पहुंचने के कई कारण हैं। जैसे कि देश की जनसंख्या में सघन माइक्रोबिएल लोड के होने से व्यापक इम्युनिटी है। भारतीय जनता का व्यापक विविधतावाले पैथोजेनों जिनमें बैक्टीरिया, पैरासाइट् और वायरस शामिल हैं जिसके कारण उनमें टी-सैल्स नामका सिस्टम बन गया है जो नए वायरसों को रोकता है। इधर प्रसिद्ध चिकित्साविज्ञान पत्रिका लेनसेट इनफेक्शन जर्नल के अनुसार इस बीमारी से होने वाली मृत्यु दर का जो अनुमान अब तक लागाया जा रहा था यह उससे कहीं कम होगा। पत्रिका के अनुसार जिन लोगों में बीमारी है या सिद्ध नहीं हुई है उनमें मृत्यु दर 0.66 प्रतिशत है और सिर्फ उन लोगों में जिनमें बीमारी निश्चित हो चुकी है 1.38 प्रतिशत है।

चीन में बीमारी दिसंबर के प्रारंभ में पैदा हुई और जनवरी में फूट चुकी थी। देखने लायक बात यह है कि वूहान से जो चार सौ छात्र भारत आए वे सब के सब क्वारंटाइन के बाद अपने घरों को सही सलामत चले गए। तथ्य यह भी है कि आइसीएमआर की ही संस्था नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वीरोलॉजी ने जनवरी के अंत में ही एक केस को पकड़ लिया था।

भारत सरकार इस बीच सोई रही। बहुत हुआ तो गोदी मीडिया और मोदी प्रशंसक सरकार के उन करतबों से गदगद थे, जिसके तहत सरकार विदेशों से भारतीय नागरिकों को स्वदेश ला रही थी। विशेषकर मध्य व उच्च वर्ग के भारतीय मैडिकल कालेजों के असफल बच्चों के मां-बाप, जो चीन आदि में पैसे के बल पर डॉक्टरी की डिग्री हासिल कर रहे थे, विशेषकर मोदी की जयजयकार कर रहे थे और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की हाय हाय कर रहे थे। ऐसा लगता है, न सरकार और न ही उसकी नौकरशाही को जरा-सा भी आभास था कि मामला इतना संगीन है। अगर होता तो क्या यह समझ में आने वाली बात है कि जनवरी से मार्च के बीच डेढ़ लाख लोग देश में आने दिए गए। निश्चय ही ये भारतीय नागरिक थे। और यह भी निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि इसमें अधिसंख्य उच्च व उच्चमध्यवर्ग का तबका था। इसका प्रमाण यह अफवाह भी है कि विदेशों से आने की पाबंदी के बावजूद कई चार्टर्ड विमान लॉक डाउन के दौरान भी भारत आते रहे। अगर ऐसा था तो साफ है कि ये वे अतिसंपन्न भारतीय थे जो योरोप या अमेरिका के नागरिक हो चुके होंगे और वहां फैलती महामारी से बचने के लिए भारत आ गए होंगे।

जहां तक सामान्य भारतीय नागरिकों का सवाल था, उनका देशके भीतरी भागों में पूर्वत आना-जाना हो रहा था (देखें : इसी अंक में प्रकाशित लेख ‘एक छोटी सी यात्राÓ)। यानी दूर-दराज की बात छोड़ें दिल्ली से लगे उत्तर प्रदेश तक में इसका कोई नामोनिशान नहीं था। अगर होता तो कम से कम रुद्रपुर से लेकर गाजियाबाद तक की 217 किलो मीटर की दूरी में लाखों आदमी इस बीमारी से पीडि़त हो चुके होते। यहां यह बात भी ध्यान रखने लायक है कि रुद्रपुर (1.54 लाख) के अलावा रामपुर (3.25 लाख), मुरादाबाद (8.9 लाख), अमरोहा (1.98 लाख) और गाजियाबाद (25 लाख की आबादी) इसके स्टेशन हैं और ये कोई छोटे शहर नहीं हैं। (इन सब शहरों की कुल आबादी 40 करोड़ से ज्यादा होती है।) इसके बाद आती है दिल्ली जिसकी अपनी आबादी ही दो करोड़ के करीब है।

यह भूला नहीं जा सकता कि यह देश चरम असमानताओं का देश है। 2009-10 के आंकड़ों के मुताबिक देश में मजदूरों की कुल संख्या 46.2 करोड़ थी। इसमें सिर्फ 2.8 प्रतिशत ही संगठित क्षेत्र में थे और 43 करोड़ असंगठित क्षेत्र में। पिछले दो दशकों की उदारीकरण की नीतियों के चलते देश में असंगठित क्षेत्र का जबर्दस्त विस्तार हुआ है। अनुमान है कि दिल्ली की आधी आबादी इसी तरह के श्रमिकों की है। यानी कुछ नहीं तो लगभग एक करोड़ असंगठित क्षेत्र के मजदूर अकेल दिल्ली में ही रहते हैं। दिल्ली का उदाहरण इसलिए जरूरी है कि जो इस महानगर में हुआ उसे पूरी दुनिया ने देखा। मान लीजिए कि इसमें से भी 25 प्रतिशत ऐसे मजदूर होंगे जो तुलनात्मक रूप से बेहतर स्थिति में हों तो भी अकेले दिल्ली में ही 75 लाख लोगों की आजीविका प्रधानमंत्री की घोषणा के साथ ही ध्वस्त हो गई थी। यह बताने की जरूरत नहीं है कि उनके साथ उनके परिवार भी भुखमरी के कगार पर पहुंच गए। बहुत ही अनुदार अनुमानों के हिसाब से भी अकेले दिल्ली में ही लगभग डेढ़ करोड़ लोग सड़क पर आ गए। अपने और अपने परिवार की जान बचाने के लिए शहर छोडऩा उनकी मजबूरी हो गया। सर्वोच्च न्यायालय में सरकार ने माना है कि पांच से छह लाख मजदूर पैदल अपने गांवों को गए। निश्चय ही यह आंकड़ा स्थिति की सही जानकारी नहीं दे रहा है।

पर सरकार और उसके एकछत्र नेता ने देश के नाम जो संदेश दिया, उसमें इस तरह की कोई चिंता ही नहीं थी। उन्होंने इन छोटी-मोटी बातों का अनुमान लगाना जरूरी ही नहीं समझा। यह भी अचानक नहीं है कि उच्च वर्ग और मध्यवर्ग ने कर्तल ध्वनि से इस देश-बंदी का स्वागत किया और ताली के बाद अगले दिन जोरदार थाली वादन भी दिया। उधर रेलवे ने अचानक ही घोषणा कर दी कि 22 तारीख को जनता कर्फू के कारण कोई भी रेल सुबह सात से रात के 10 बजे तक नहीं चलेंगी। फिर से 31 मार्च तक किया और अंतत: बढ़ाकर 14 अप्रैल तक कर दिया। रेलें देश में आनेजाने का सबसे बड़ा साधन हैं। जैसे ही देश बंदी की घोषणा हुई देश में भगदड़ मच गई। इसने क्वारंटाइन के उद्देश्य को ही अर्थहीन कर दिया क्यों कि लाखों की संख्या में लोग अपने गांवों की ओर पैदल तक चल पड़े। दूसरे शब्दों में अगर कहीं उसने इस छूत के रोग को फैलाने में मदद की। अगर रेलें चल रही होतीं और उनका सही प्रबंधन किया जाता तो बीमारी के फैलने को भी रोका जा सकता था और लोगों को बेरोजगारी के दौर में अपने गंतव्य स्थल तक पहुंचाया जा सकता था। इसके दुश्परिणाम जल्दी ही समाप्त होने वाले नहीं हैं। अब होगा यह कि मजदूरों को अपने घरों से काम की तलाश में निकलने के लिए हिम्मत जुटाने में समय लगेगा और इससे उत्पादन व अन्य कामों का पटरी पर बैठना मुश्किल रहेगा।

सरकार ने और जो अक्षम्य अनदेखियां कीं उनमें से सबसे बड़ी थी करोना वायरस के फै लने के कारणों की अनदेखी। चीन में इस रोग ने दिसंबर में महामारी का रूप ले लिया था और दुनिया भर में इसे लेकर सावधानियां बरती जाने लगीं थीं। पर हमारी कर्मठ सरकार मार्च तक सोती रही। इसका सबसे बड़ा उदाहरण दिल्ली का तबलीगी सम्मेलन है जिसमें कई देशों के लोगों ने भाग लिया। क्या यह भुलया जा सकता है कि इस कथित लॉक डाउन के दौरान ही उत्तर प्रदेश के सन्यासी मुख्यमंत्री ने लॉकडाउन के प्रतिबंधों का खुले आम उल्लंघन कर पूरे लाव लश्कर के साथ अयोध्या में राम लाला की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा कर के छोड़ी। मजे की बात यह है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने, जो अपनी कर्मठता के कारण ‘छोटे मोदीÓ कहे जा सकते हैं, तबलीग को तो यह कहते हुए कोसा कि नवरात्र चल रहे हैं पर हिंदू मंदिर नहीं जा रहे हैं, लेकिन योगी के खिलाफ एक शब्द नहीं बोले। यही नहीं, उन्होंने यह हिम्मत भी नहीं की कि कहते, संकट कुल मिलाकर केंद्र की लापरवाही के कारण हुआ है जिसके पास पुलिस, सीआईडी, सीबीआई, इंटेलिजेंस ब्यूरो और रॉ है और सब कुछ वहां से एकआध किमी की दूरी पर है।

जहां तक हिम्मत का सवाल है वह तो प्रेस ने भी नहीं किया। किसी भी अखबार या समाचार चैनल ने प्रधानमंत्री के विवेकहीन निर्णय के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा। खबरें आ रही हैं कि मोदी ने पहले ही प्रेस को बुलाकर सारा प्रबंधन कर लिया था। इसी अन्योन्य सौहार्दयता का परिणाम था कि प्रधानमंत्री ने समाचारपत्रों के महत्त्व को अपने संदेशों के माध्यम से रेखांकित किया और अखबारों ने इसे पूरे-पूरे पृष्ठों पर छापा। आपातकाल में जहां इंदिरा गांधी ने प्रेसों की बिजली काट कर अखबारों को छपने से बचाया था वहां लॉकडाउन के माध्यम से उन्होंने यह सबक सीखा कि बिना अखबारों की बिजली काटे छपे-छपाए अखबारों को पाठकों तक जाने से रोका जा सकता है और वह दिल्ली में हुआ! जी दिल्ली में। हॉकरों ने अखबार बांटने ही बंद कर दिए। इसका परिणाम यह हुआ कि हिंदू जैसे अखबार ने अपना दिल्ली संस्करण का मुद्रण ही रोक दिया गया।

जहां तक इस वैश्विक महामारी का सवाल है इससे पिछले दो महीने में देश में कुल 46 लोग मरे हैं और 1,614 बीमार हैं। हमारे देश की स्थिति को देखते हुए क्या यह संख्या कोई मायने रखती है? यह हैरान करने वाला है कि वर्तमान सरकार को आखिर इस बीमारी ने किस आधार पर इतना हिलाया हुआ है कि वह अपना आपा ही खो दे रही है? प्रधानमंत्री जी यह वह देश है जिसमें प्रति दिन टीबी से ही एक हजार लोग मरते हैं। निश्चय ही वह गरीबों की बीमारी है। दुर्गति का आलाम यह है कि देश में डॉक्टरों या अन्य स्वास्थ्यकर्मियों के लिए आवश्यक सुरक्षा कवच तक नहीं हैं। बाजार में मास्क और दस्ताने नहीं मिल रहे हैं। सेनेटाइजर गायब है। बीमारी के पीडि़तों के लिए जरूरी वेंटिलेटर नहीं हैं ऐसे में बीमारी के कोई कैसे रोक पाएगा? ताजा खबरों के अनुसार सरकार 24 मार्च को जाकर यह निर्णय कर पाई कि कौन-सी कंपनियां चिकित्साकर्मियों के लिए पीपीई (पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट यानी निजी बचाव कवच)बनाएंगी।

स्पष्ट है कि सरकार और उसका मुखिया अच्छी तरह जानता था कि उनके पास इतना बड़ा कदम उठाने और उसके प्रबंधन की क्षमता है ही नहीं। न ही सरकार की ओरसे कोई कोशिश नजर आई। अब सवाल है क्या यह कोई और राजनीतिक दांव है? इसका उत्तर भविष्य ही देगा।

चीन जैसे देश ने राष्ट्रव्यापी लॉक डाउन नहीं किया। योरोप के जिन देशों में लॉक डाउन है महामारी वहां अपने चरम पर है। अमेरिका में मरने वालों की संख्या 3300 हो गई थी पर वहां अभी भी लॉक डाउन नहीं किया गया था जब कि हमारे यहां मरने का सिलसिला ही लॉकडाउन के बाद सामने आया और इस संपादकीय के लिखे जाने तक न के बाराबर (45) था।

आखिर इतना ताबड़ तोड़ लॉक डाउन प्रधानमंत्री ने कौन सी चिंता के तहत किया, यह पूछा जाना चाहिए। हमारा देश पहले ही जबर्दस्त मंदी झेल रहा है। उसे देखते हुए इस तरह के किसी निर्णय को लेने से पहले कोई भी विचारवान नेता हजार बार सोचता। मूडी के अनुसार इस वर्ष भारत की विकास की दर 5.3 से घटकर 2.5 पर पहुंचने वाली है। विदेशी निवेशकों ने भारतीय शेयर बाजार से मार्च महीने में ही 150 करोड़ 90 लाख डालर निकाल लिए हैं। मोटर गाडिय़ों की मार्च में बिक्री 40 से 80 प्रतिशत गिर गई है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि संपन्न और ताकतवर लोगों को बचाने के लिए गरीबों और असहाय लोगों को दंडित किया जा रहा है?

पर हमें भूलना नहीं चाहिए यह देश चमत्कारों का देश है। हम व्यवहारिक, तार्किक और प्रगतिशील विचारों को नहीं बल्कि चमत्कारों को और अजूबों को पसंद करते हैं। हमारे आदर्श योगी, तांत्रिक, ज्योतिषी और चमत्कारी लोग हैं। ऐसे लोग जो हमें भ्रमित रख सकें, विपदाओं दैवीय नियति सिद्ध करें और यथास्थिति को बनाए रखने में सत्ताधारियों के लिए सहायक साबित हों। परम सत्य यह है कि हम परिवर्तन और आधुनिकात नहीं परंपरा चाहते हैं।

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हिंसा की गतिकी और दिल्ली के दंगे https://www.samayantar.com/%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%82%e0%a4%b8%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%97%e0%a4%a4%e0%a4%bf%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%a6%e0%a4%bf%e0%a4%b2%e0%a5%8d%e0%a4%b2%e0%a5%80-%e0%a4%95/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%82%e0%a4%b8%e0%a4%be-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%97%e0%a4%a4%e0%a4%bf%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%a6%e0%a4%bf%e0%a4%b2%e0%a5%8d%e0%a4%b2%e0%a5%80-%e0%a4%95/#respond Sun, 29 Mar 2020 21:28:11 +0000 https://www.samayantar.com/?p=18 फरवरी के अंतिम सप्ताह में दिल्ली में जो हुआ वह किसी तरह से अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता। अगर किसी रूप में वह अप्रत्याशित था [...]

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फरवरी के अंतिम सप्ताह में दिल्ली में जो हुआ वह किसी तरह से अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता। अगर किसी रूप में वह अप्रत्याशित था तो सिर्फ अपने ‘समयÓ के लिए। वैसे भी फरवरी दिल्ली के लिए खासा घटनाओं से भरा महीना साबित हुआ है। केंद्र में तथाकथित भाजपाई चाणक्य के अलावा धनुर्धर मोदी की भी छत्रछाया थी, जिन्होंने कुछ ही महीने पहले फिर से केंद्रीय सरकार की कमान संभाली थी और इस बीच एक के बाद एक कई राज्यों में हुई हार के बावजूद, जिसने मोदी और भाजपा के कथित जादू के खुमार को थोड़ा ठंडा कर दिया था, मोदी ने पिछली बार से ज्यादा सीटें हासिल की थीं। पर दिल्ली राजधानी थी और उसका नियंत्रण प्रतिष्ठा का सवाल था। वैसे भी आम आदमी पार्टी (आप) महाबली भाजपा के आगे क्या थी? एक छोटा-मोटा कृंतक प्राणी, जिसने एक घुड़की में इधर-उधर कहीं बिल में घुस जाना था। पर नतीजा क्या हुआ? चैपलिन की किसी मूक फिल्म की तरह एक सींखची गिट्टक से आदमी ने इस महाबली को ऐसा दांव मारा कि वह चारों खाने चित हो गया।

यह अमित शाह की नहीं बल्कि वास्तव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हार है, जिनकी सहमति के बिना सरकार ही नहीं बल्कि पार्टी में भी पत्ता तक नहीं हिलता। दूसरे शब्दों में वर्तमान सरकार की लगभग हर नीति के लिए सिर्फ वही जिम्मेदार हैं। यह किसी से छिपा भी नहीं है कि वर्तमान सरकार किसी भी रूप में सामूहिक नेतृत्व का उदाहरण पेश नहीं करती है। चूंकि हर सफलता का सेहरा – सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर पुलवामा और 370 तक का -उनकी पगड़ी, जिसका मोदी चुन हुए अवसरों पर ही इस्तेमाल करते हैं, में बंधता है तो फिर असफलता ने कहां जाना चाहिए? इसलिए अगर अभी नहीं आया है तो भी जल्दी ही, भाजपा ही नहीं बल्कि संघ की भी समझ में आ जाएगा कि यह कोई बहुत स्वस्थ स्थिति नहीं है। यों भी कि संसद की इस पाली के खत्म होते न होते उनके सिर इतनी जवाबदेही हो जाएगी कि वह दीनदयाल उपाध्याय मार्ग दिल्ली से लेकर नागपुर तक के लिए बोझ बन जाएंगे। अपने पिछले कार्यकाल में उन्होंने तात्कालिक राजनीतिक लाभ के चक्कर मेंं नोटबंदी जैसी जो गलती की और जिसे जीएसटी के त्रुटिपूर्ण कार्यान्वयन ने ऐसा घातक बना दिया कि देश की अर्थव्यवस्था आज भी उससे लडख़ड़ा रही है। उधर दुनिया भर में नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण आई मंदी के कारण जगह-जगह जो आर्थिक नाकेबंदी शुरू हुई है उसने सोने में सुहागे का काम किया है। स्पष्ट है कि बढ़ती बेरोजगारी और सरकारी नौकरियों के सिमटते जाने ने मंदी को और बढ़ा दिया है। ऐसे कोई आसार नहीं हैं कि निकट भविष्य में स्थितियों में सुधार हो पाएगा।

एक बहुत ही चलताऊ अंग्रेजी कहावत है, ‘ए मैन इज नोन बाई द कंपनी ही कीप्सÓ। यानी आदमी अपने संगियों (संघियों नहीं) के कारण जाना जाता है। मोदी की लोकप्रियता चाहे जो हो बुद्धिजीवियों से उनका छत्तीस का आंकड़ा है। वह बुद्धिजीवियों से मिलना तौहीन समझते हैं क्यों कि बुद्धिजीवियों पर उनकी लोकप्रियता का आतंक नहीं चलता। इसका कारण चाहे जो हो, नतीजा सामने है। उनके साथ किसी भी क्षेत्र की उत्कृष्टतम प्रतिभा जुड़ी हुई नहीं है। हालत यह है कि रघुराम राजन और उर्जित पटेल जैसे मध्यमार्गी विशेषज्ञों तक ने उनके साथ रहने से की जगह स्कूल-कॉलेजों में सर छिपाना बेहतर समझा।

इस स्तंभ में यह एक बार फिर दोहराया जा रहा है कि भारत एक विशाल देश है। मोदी का अनुभव क्षेत्र सिर्फ गुजरात तक सीमित रहा है। और गुजरात उत्तर प्रदेश के भी तीसरे हिस्से के बराबर है। नतीजा यह है कि उन्हें कहीं से भी सही या कम से कम सटीक सलाह नहीं मिलती। आज की दुनिया कई गुना जटिल है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से आप आज के न तो अपने समाज और न ही दूसरों के समाज को समझ सकते हैं। यह तथ्य आत्महीनता से ग्रस्त आम हिंदू को भरमाने और चुनाव जीतने के लिए मुफीद हो सकते हैं पर हैं अर्थहीन। यह अचानक नहीं है कि अमेरिका और ब्रिटेन की प्रगति का एक बड़ा कारण वहां विश्व की हर तरह की प्रतिभा का स्वागत किया जाना है। कम से कम अमेरिका तो आज तक वही कर रहा है और हम हैं कि लोगों को सिर्फ नागरिकता के कानूनी आधार पर बाहर कर देना चाहते हैं। खैर ये सब लंबी बातें हैं। असली बात यह है कि केंद्र की मोदी सरकार के ऐन नाक के नीचे पैसा, कार्यकर्ता और भुजबल की इफरात के बावजूद दिल्ली में भाजपा धूल धूसरित हो गई। तो क्या यह केंद्र की सरकार पर बट्टा नहीं है? असल में दिक्कत यह है कि मोदी सरकार की असफलता के दूरगामी परिणाम होना लाजमी हैं। ये असफलताएं उनकी निजी असफलता नहीं है। निजी रूप से तो वह एक सफल आदमी हैं। हों भी क्यों नहीं, आखिर कितने चायवाले के बच्चे प्रधानमंत्री पद पर पहुंचते हैं। पर उनकी असफलता उनके राजनीतिक कौशल और दूरदृष्टि की है और इससे दिक्कत देश और समाज को है।

इसलिए दिल्ली में जो हुआ है वह पानी के नाक से भी ऊपर पहुंच जाने का प्रमाण है। इसमें शक नहीं है कि नरेंद्र मोदी के उत्थान में गुजरात के दंगों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और अक्सर ही सांप्रदायिक दंगे भाजपा के लिए लाभप्रद साबित होते हैं। पर इस सब के बावजूद ऐसे समय जब दुनिया के सबसे ताकतवर देश का राष्ट्रपति शहर में हो इस पैमाने पर दंगा होना कि जिसमें चालीस के करीब लोग मारे जाएं, कोई सहज बात नहीं है। इसलिए यह भी अचानक नहीं है कि दुनिया के मीडिया, उस पर भी विशेषकर अमेरिकी मीडिया में, भारत में ट्रंप की यात्रा की उपलब्धियां तो दब गईं पर दिल्ली के दंगों में सरकार की असफलता प्रबल तरीके से सामने आई। मोदी की अमेरिका में छवि मजबूत करने की मंशा दबी की दबी रह गई। लोग मोटेरा की सवा लाख की ट्रंप की जयजयकार करती भीड़ कहीं पृष्ठभूमि में चली गई और जो संदेश अमेरिका सहित सारी दुनिया में पहुंचा वह था मोदी सरकारी प्रशासनिक असफलता और सांप्रदायिक झुकाव का जिसे उनके दल के छुटभईय्यों ने उघाडऩे में कसर नहीं छोड़ी। वैसे भी अगर देश की राजधानी में तीन दिन तक अहर्निश दंगे चलते रहें, हजारों करोड़ की संपत्ति आग की भेंट चढ़ जाए, सैकड़ों लोग घायल हों और 50 के करीब लोग मारे जाएं तो यह सब क्या कहलाएगा?

वैसे भी यह तब हो रहा है, जबकि पुलिस व्यवस्था केंद्र के हाथ में है। पर हमें भूलना नहीं चाहिए कि चाहे जितनी भी बारूद बिछी हो उसे पलीता लगाने का काम भाजपा नेताओं ने ही किया है। आप से ऐन चुनाव से पहले भाजपा में गए और चुनाव हारे हुए कपिल मिश्रा ही नहीं बल्कि केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर और सांसद प्रवेश वर्मा के गालियों से लैस बंदूक चलाने के अह्वान निंदनीय ही नहीं अपराधिक भी थे। आखिर प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष चुप क्यों हैं? गलती स्वीकार न करने का रवैया अव्यवहारिक ही नहीं बल्कि गैर लोकतांत्रिक और अपराधिक भी है।

दूसरे शब्दों में पिछले दो महीने से दिल्ली में लगातार सांप्रदायिक शब्दावली में आरोप प्रत्यारोपों का जो आदन-प्रदान हो रहा था, वह सबके सामने था। भाजपा के शीर्ष नेताओं ने इसे रोकने की जरा भी कोशिश नहीं की। सांप्रदायिकता को कार्य में परिणित करने वाले तथाकथित नेता लोग नहीं होते। उसे कार्यरूप में परिणित करने वाले कोई और होते हैं। अपनी हार से बिलबिलाए मिश्रा ने दो बार उस इलाके में जाकर जिस तरह की आक्रामक और भड़काऊ भाषा का प्रयोग किया उसके बाद और क्या होना था!

दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, जिनका रातों-रात तबादला कर दिया गया है, का यह सवाल वाजिब था कि आखिर पुलिस ने इतने दिन से इन कथित नेताओं के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की?

अब पुलिस की बात करते हैं। 27 फरवरी के इंडियन एक्सप्रेस में दीपांकर घोष की ‘वायोलेंस इज डाउन, कॉप प्रेजेंस अप: ‘ऊपर से ऑर्डर आ गयाÓ शीर्षक रिपोर्ट ध्यान देने लायक है। रिपोर्ट के अनुसार जब संवाददाता ने गोकुलपुरी के एक सिपाही से पूछा कि आखिर रातों-रात क्या हो गया है? तो उसका सीधा-सा उत्तर था: ”ऊपर से आर्डर आ गया रात को। अब सब शांत है।ÓÓ

क्या उच्च न्यायालय के न्यायाधीश महोदय के सवाल का जवाब इसी से नहीं जुड़ा है? सच भी यह है कि दिल्ली में पुलिस जो केंद्र के अंतर्गत है वह पिछले छह वर्षों से इसी तरह का व्यवहार कर रही है। इसी माह महिलाओं के एक कॉलेज में जब शोहदों ने धावा बोला और बदतमीजियां कीं तो पुलिस ने उनके खिलाफ तब तक कार्रवाई नहीं की जब तक ‘ऊपर से ऑर्डरÓ नहीं आ गया। इससे पहले इसी महीने जनेवि में या जामिया में जो हुआ उसको लेकर अब तक कुछ नहीं हुआ है। क्यों? स्पष्ट है कि ‘ऊपर से आदेशÓ नहीं आया। कहने का तात्पर्य यह है कि वर्तमान केंद्रीय सरकार ने पुलिस को कानून और व्यवस्था बनाए रखने वाली एक एजेंसी की जगह अपना निजी चाकर बना लिया है। उसकी स्वायत्तता खत्म कर दी गई है और वह एक संवेदना विहीन मशीन में बदल गई है। स्वायत्तता विहीन संस्थाएं अपने उर्जा और स्वस्फूर्तता खो देती हैं। आज की दिल्ली पुलिस उसका उदाहरण है।

इसके बाद यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि यमुनापार में तीन दिन तक जो होता रहा वह क्यों हुआ। निश्चय ही वहां बाहर के दंगाई पहुंचे थे और यह भी स्वयं सिद्ध है कि अगर वे भाजपा की ओर से भेजे नहीं गए थे तो भी इस दल के समर्थक थे और भाजपा के नेताओं के पहले से ही दिए जा रहे गैरजिम्मेदाराना और भड़काऊ भाषणों से प्रेरित तो थे ही। दूसरी ओर दूसरे पक्ष का उतना ही उग्र वर्ग इस तरह की किसी भी स्थिति के लिए तैयार था। पुलिस चूंकि पिछले छह वर्ष में ‘ऑर्डरÓ के इंतजार में रहने की आदी हो चुकी है, उसे समझ ही नहीं आया, कब क्या करना चाहिए।

पूर्वी दिल्ली की घटनाएं इस नगर राज्य के प्रशासनिक ढांचे को भी लेकर गंभीर प्रश्न उठाती हैं। स्पष्ट है कि यहां की कानून व्यवस्था चूंकि केंद्र के पास है और उसकी अपनी जिम्मेदारियां हैं, जो ज्यादा अहम हैं इसलिए वह इस छोटे से राज्य की ओर समुचित ध्यान नहीं दे पाता। इसका एक सबक यह है कि दिल्ली में कानून-व्यवस्था को राज्य सरकार को सौंपी जाए और सिर्फ उस क्षेत्र की सुरक्षा व्यवस्था केंद्र के पास रहे जहां सरकार और उसके कार्यालय स्थित हैं।

राष्ट्रीय नेतृत्व का दीवालियापन यह है कि दंगाग्रस्त क्षेत्र में केंद्रीय प्रतिनिधि के रूप में जनता को आश्वस्त करने कोई केंद्रीय मंत्री नहीं गया बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को भेजा गया जिसका काम मूलत: विदेशी सुरक्षा से संबंधित है। आखिर गृहमंत्री या प्रधानमंत्री क्यों नहीं गए? केंद्रीय सरकार के मुख्यालय से 10 किमी की दूरी पर इतने जबरदस्त दंगे हुए जो तीन दिन चलते रहे जिसमें लगभग 50 लोग मारे गए हजारों लोग घायल हुए, क्या यह छोटी बात है? प्रधान मंत्री लिट्टी चोखा खाने दिल्ली हाट जा सकते हैं पर लाखों की संख्या में पीडि़त जनता को आश्वासन देने नहीं जा सकते? चलो गृहमंत्री ही चले जाते आखिर यह उनके विभाग का मसला था, वह क्या कर रहे हैं?

इसे कैसे समझा और देखा जाए? क्या यह किसी डर की वजह से हो रहा है या फिर यह किसी बड़ी राजनीतिक घटना का पूर्व संकेत है? अथवा जनता को डराने के लिए एक ऐसे व्यक्ति को भेजा गया जो जीवन भर पुलिस अधिकारी रहा है।

भाजपा को और उसकी केंद्र की सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली में हिंसा की ऐसी घटनाएं 36 साल बाद लौटी हैं। ये अचानक नहीं आईं। ये बरास्ता हापुड़, जयपुर और मुजफ्फरनगर आईं हैं। इंडियन एक्सप्रेस के 27 तारीख के संपादकीयमें लिखा है: ”जैसा कि नजर आता है देशभर में सीएए विरोधी आंदोलन पूरी तरह से कानूनी दायरे में और शांतिपूर्ण हैं, दिल्ली में मई में मोदी सरकार की वापसी के बाद के आठ महीनों में मरने वालों की संख्या 50 से ऊपर पहुंच गई है (नवीनतम आंकड़ों के हिसाब से अब यह 75 होनी चाहिए – सं.) और यह कई गंभीर सवाल उठाती है जिन पर तत्काल ध्यान दिया जाना चाहिए।ÓÓ

हिंसा का गतिविज्ञान यह है कि अगर इसे जल्दी नहीं रोका गया तो फिर इसे नियंत्रित करना मुश्किल हो जाता है। विगत छह वर्षों के शासन में भाजपा ने बबूल को खूब पनपने दिया है। हिंसा और अराजकता भस्मासुर हैं वे हर हालत में लौट कर अपने जनक के पास आते हैं।

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