समयांतर https://www.samayantar.com/ विचार और संस्कृति का मासिक Sun, 07 Apr 2024 08:47:30 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.5 https://www.samayantar.com/wp-content/uploads/2020/03/cropped-Screen-Shot-2020-03-29-at-8.29.51-PM-3-32x32.png समयांतर https://www.samayantar.com/ 32 32 बेरोजगारी की छाया में https://www.samayantar.com/%e0%a4%ac%e0%a5%87%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%9c%e0%a4%97%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%9b%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%be-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%ac%e0%a5%87%e0%a4%b0%e0%a5%8b%e0%a4%9c%e0%a4%97%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%9b%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a4%be-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82/#respond Sun, 07 Apr 2024 08:47:30 +0000 https://www.samayantar.com/?p=1143 ये मरने वाले बच्चे इंजीनियरिंग या एमबीबीएस करने के उम्मीदवार थे। स्पष्ट है कि तैयारी की यह पूरी प्रक्रिया इतनी कठोर, प्रतिद्वंद्विता से भरी, संवेदनाविहीन है कि बच्चों को टूटने में देर नहीं लगती।

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ये मरने वाले बच्चे इंजीनियरिंग या एमबीबीएस करने के उम्मीदवार थे। स्पष्ट है कि तैयारी की यह पूरी प्रक्रिया इतनी कठोर, प्रतिद्वंद्विता से भरी, संवेदनाविहीन है कि बच्चों को टूटने में देर नहीं लगती।

यह वह समय  है, जब विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव की घंटी घनघना चुकी है। राजनीतिक दल स्याह-सफेद में बातें कर रहे हैं। समाचार-तंत्र, इलेक्ट्रानिक हो या प्रिंट, सत्ता से सत्ता तक की दौड़ का रस ले रहा है कि अटलांटिक के दूसरे छोर पर बैठे ‘बॉस’ ने गड़बड़ कर दी। बोला, और जो बोला, बेहाल करने वाला था। उसने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी पर ही आपत्ति नहीं की, बल्कि कांग्रेस पार्टी के बैंक खाते पर रोक लगाने पर भी अहसमति जताई। इस अमेरिकी स्वर में जर्मनी ने ही नहीं, ब्रिटेन ने भी स्वर मिलाया। उनके लिए यह देश एक नमूना है सबसे बड़ा, लोकतंत्र की दुकान चलाने का। यानी उनकी पूंजी और उद्योगों के लिए सुरक्षित, भविष्य का निवेश। वे नहीं चाहते की नमूना, और वह भी वोट के माध्यम से, नए ‘महाराजा’ राज्य में बदल जाए और इस तरह तीसरी दुनिया को विफल लोकतंत्र का एक और तमगा मिल जाए।ये मरने वाले बच्चे इंजीनियरिंग या एमबीबीएस करने के उम्मीदवार थे। स्पष्ट है कि तैयारी की यह पूरी प्रक्रिया इतनी कठोर, प्रतिद्वंद्विता से भरी, संवेदनाविहीन है कि बच्चों को टूटने में देर नहीं लगती।

तभी डॉक्टर-इंजीनियर बनाने वाले, शायद दुनिया के सबसे बड़े केंद्र, को लेकर दिल्ली के एक बड़े अंग्रेजी अखबार में आधे पेज का विज्ञापन छपा। 25 मार्च के इस विज्ञापन का शीर्षक था ‘कोटा कॅरियर सिटी या सुसाइड सिटी…?’ विज्ञापन का अतिरिक्त आकर्षण इसके पाठ का प्रांजल हिंदी में होना था। लिखा था :

– आत्महत्या: राष्ट्रीय स्तर पर कोटा की स्थिति -देश में कुल आत्महत्याएं हुईं 1,70,924, जिनमें सर्वाधिक 30 वर्ष तक के 69314 (करीब 40 प्रतिशत से अधिक) युवा हैं।

– देश में 10 लाख से अधिक आबादी के 53 शहरों में प्रति लाख आत्महत्या का औसत 16.4 व्यक्ति है।

– विजयवाड़ा में यह दर सर्वाधिक 42.6 है। टॉप-दस शहरों में यह औसत दर 28 से 42 व्यक्ति प्रति लाख तक है। टॉप 53 शहरों में कोटा 45 नंबर पर आता है। कोटा में यह दर 14.1 एक व्यक्ति प्रति लाख है जो राष्ट्रीय औसत से भी कम है। दस लाख की आबादी के शहर कोटा में दो लाख कोचिंग स्टूडेंट्स की संख्या को जोडऩे पर यह दर और भी कम हो जाती है। (स्रोत: एसीआरवी ताजा रिपोर्ट)’

इसके बाद विज्ञापन में चार और उप-शीर्षक थे, जिनके तहत देश में छात्रों की आत्महत्या से संबंधित अन्य आंकड़े थे। बीच में ही प्रधानमंत्री को उद्धृत करते हुए लिखा गया था कि उन्होंने ‘कोटा को शिक्षा की काशी कहा है। यह संयोग ही है कि काशी हिंदुओं के लिए अंतिम संस्कार स्थल भी कम बड़ा नहीं है। जो भी हो, इस में शंका नहीं कि वर्तमान में युवाओं में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति, एक शहर या एक प्रदेश की ही नहीं वरन अखिल भारतीय चुनौती का रूप धारण कर चुकी है। स्कूल, कालेजों में पढ़ रहे युवाओं से लेकर कॅरियर बना चुके युवाओं तक, आत्महत्या कर रहे हैं। विशेषज्ञों के अनुसार ‘आत्महत्या की प्रवृत्ति भावनात्मक एवं मानसिक मनोविकार है’ और इसे समझने की जरूरत है। पर यह निष्कर्ष अंतिम नहीं है। यह इसके अलावा भी है। और वह है, भविष्य का अंधकारमय हो जाना!

‘समझने की ये जरूरतें’ कब पूरी होगीं, वे सवाल अपनी जगह हैं। पर इस बहाने कुछ तथ्यों पर नजर तो डाली ही जा सकती है। कोटा को लेकर उपरोक्त विज्ञापन के प्रकाशित होने से एक दिन पूर्व ही इस कोचिंग फैक्टरी वाले शहर से समाचार था कि एक 20 वर्ष के, नीट (नेशनल एलिजीबिलिटी कम ऐंट्रेंस टेस्ट यानी राष्ट्रीय पात्रता सह प्रेवश परीक्षा) की तैयारी कर रहे छात्र, मोहम्मद उरूज ने फंदा डाल कर आत्महत्या कर ली। यह कोटा में इस वर्ष की छठवीं घटना थी। अभी एक रात नहीं गुजरी कि अगले सुबह सौम्या नाम की छात्रा भी फंदे पर लटकी मिली। वह भी बीस बरस की ही थी। बेचारा प्रशासन यह जांच करने में जुट गया कि बच्चों को फंदा लगाने की जगह मिल कैसे गई। गत वर्ष के अनुभव के बाद यह तय हुआ था कि किसी भी कमरे में ऐसी कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए जहां छात्र फंदा लगा सकें। यहां याद करना जरूरी है कि गत वर्ष इस शहर में, इस तरह आत्महत्या करने वाले बच्चों की संख्या रिकार्ड तोड़ 27 रही थी। क्या यह वर्ष और भयानक होने जा रहा है?

जनवरी से अब तक के तीन महीनों में नीट प्रत्याशियों की यह सातवीं आत्महत्या थी। स्पष्ट है कि तैयारी की यह पूरी प्रक्रिया इतनी कठोर, प्रतिद्वंद्विता से भरी, संवेदनाविहीन है कि बच्चों को टूटने में देर नहीं लगती। सवाल है, वे इसे छोड़ कर भाग क्यों नहीं रहे हैं? इसलिए कि जाएं भी तो कहां जाएं? घर में उनके लिए जगह नहीं है। दूसरी ओर उन में इतनी हिम्मत भी नहीं है कि वे महत्वाकांक्षी मां-बापों की उम्मीदों को अपनी आंखों से मिट्टी में मिलते देख सकें।

दूसरा सवाल यह भी है क्या मां-बाप देख नहीं रहे हैं कि नीट के कारण हो क्या रहा है? जो बच्चे मर रहे हैं वो तो मर ही रहे हैं पर जो टूट और बिखर रहे हैं उनका क्या हो रहा है? क्या और रास्ते नहीं हैं?

व्यावसायिक शिक्षा का पहुंच से बाहर हो जाना

मेडिकल और इंजीनियरिंग में निजी क्षेत्र की पढ़ाई इस कदर महंगी है कि उच्च मध्यवर्ग भी उस कीमत को आसानी से नहीं चुका सकता, निम्नमध्य की तो बात ही छोड़ें। एक और रास्ता भी है, चीन और यूक्रेन जैसे देशों में पढऩे का, पर वह भी कम महंगा नहीं है, बल्कि खतरे से भी भरा है। तथ्य यह है कि महत्वाकांक्षी निम्न मध्य व मध्य वर्ग के लिए, ये परीक्षाएं ही एकमात्र रास्ता रह गई हैं, जो उनके बच्चों को एक सम्मानजनक आजीविका प्रदान करा सकती हैं और जिसके लिए वे अपना पेट काट कर भी बच्चों को पढ़ा रहे हैं। या कहिए अपने लाडलों को इस जोखिम में डाल रहे हैं। दूसरी ओर सरकार है कि हर चीज का निजीकरण करने में लगी है। नतीजा यह है अच्छी शिक्षा, विशेषकर व्यावसायिक, आम आदमी के सामथ्र्य के बाहर हो गई है।

ये सामाजिक और आर्थिक संकट अचानक पैदा नहीं हो रहे हैं। सरकार हर सामाजिक जिम्मेदारी से हाथ खेंच रही है। पिछले दस सालों में सरकारी नौकरियां लगभग खत्म कर दी गईं हैं। यहां तक कि सेना की नौकरी भी ठेके में बदल दी गई है। बदनाम भारतीय निजी क्षेत्र, ऑटोमेशन के अलावा भी, कर्मचारियों को न्यूनतम संख्या में, न्यूनतम सुविधाओं और तनख्वाहों के साथ ही अनुबंध पर रख रहा है। यानी इन नौकरियों की भी कोई गारंटी नहीं रही है। इसके अलावा भी अधिकांश काम सरकारी स्तर पर ठेके पर किया जा रहा है। (देखें: संपादकीय ‘कंपनी सरकारÓ, समयांतर, फरवरी, 2024) यह अचानक नहीं है कि वर्तमान सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य और नौकरियों पर कोई आधारभूत चर्चा ही नहीं करती, इन पर निवेश करना दूरकी बात है। यह बताने में जरूर उस्ताद है कि हमारी अर्थ-व्यवस्था कितने अरब-खरब की होने वाली है। अर्थव्यवस्था बढ़ रही है ठीक है, पर सवाल है उससे समाज का कौन-सा वर्ग लाभान्वित हो रहा है? किसे सुरक्षा मिल रही है और कथित बढ़ती अर्थव्यवस्था की वह आय, किस की जेब में जा रही है! जिनकी जेबों में जा रही है वे 80 करोड़ का लहंगा और 60 करोड़ की नाचनेवाली को नचा रहे हैं। लेकिन इन सब बेहूदगियों के बीच भी सरकार मगन है? या फिर वह मंदिर बना रही है और जनता ऊपर वाले की कृपा की प्रतीक्षा में है दंडवत है।

यह अचानक नहीं है कि भारतीय दुनिया के शीर्ष पूंजीपतियों में भी गिने जाने लगे हैं। ये चमत्कार रातों रात हो रहे हैं। फिलहाल जो भी हो, इस माह से देश में लोकसभा चुनावों का दौर शुरू हो रहा है। वोट आम जन का एकमात्र हथियार है जिसका उसे इस्तेमाल करना है।

रोजगार का परिदृश्य

रोजगार देने की चुनौती कितनी बड़ी है, इस पर अंग्रेजी दैनिक द हिंदू (29 मार्च) का संपादकीय ‘जॉब्स आउटलुक ब्लीक’ (रोजगार का निराशाजनक परिदृश्य) देखने लायक है। अखबार ने ‘इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमैन डवलेपमेंट/इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन की नवीनतम रिपोर्ट ‘द इंडियन एमप्लयमेंट रिपार्ट 2024’ को उद्धृत करते हुए लिखा है, ‘अनुमानत: 70 से 80 लाख युवा हर वर्ष श्रम बाजार में आता है, जिसमें देश के कुल बेरोजगारों में युवाओं की संख्या लगभग 83 प्रतिशत है। इससे भी ज्यादा निराशाजनक यह है कि बेरोजगारों में उन शिक्षितों का अनुपात, जो सेकेंड्री स्तर या उससे ज्यादा शिक्षित थे की संख्या 2000 में जहां 35.2 प्रतिशत थी, वह सन 2022 में बढ़कर लगभग दो गुना, 65.7 प्रतिशत हो चुकी थी। यही नहीं बेरोजगारों में युवा स्नाातकों की संख्या अनपढ़ों (3.4) की संख्या से नौ गुना ज्यादा (29.1) हो चुकी थी।

स्पष्ट तौर पर यह रिपोर्ट बतलाती है कि शिक्षितों में बेरोजगारों की संख्या आतंककारी स्थिति तक पहुंच गई है। यह उस दौर के आंकड़े हैं, जब मोदी सरकार ताल ठोंक कर कह रही थी कि देश जगमगा रहा है। इससे कम से कम, यह बात समझी जा सकती है कि नौकरी के लिए शिक्षित युवाओं और अभिभावकों की चिंता क्यों चरम पर है और क्यों प्रतियोगी परीक्षाएं प्रतिभा का नहीं, बल्कि आंकड़ों और सूचनाओं को घोट लेने की प्रतिभाओं की ऐसी शरण स्थली में परिवर्तित हो चुका है जो जीवन और मृत्यु के दोराहे से गुजरता गिरता पड़ता आगे बढ़ रहा है।

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हमारे मुल्क ने अपनी नैतिक दिशा खो दी है’ https://www.samayantar.com/%e0%a4%b9%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%87-%e0%a4%ae%e0%a5%81%e0%a4%b2%e0%a5%8d%e0%a4%95-%e0%a4%a8%e0%a5%87-%e0%a4%85%e0%a4%aa%e0%a4%a8%e0%a5%80-%e0%a4%a8%e0%a5%88%e0%a4%a4%e0%a4%bf%e0%a4%95/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%b9%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%87-%e0%a4%ae%e0%a5%81%e0%a4%b2%e0%a5%8d%e0%a4%95-%e0%a4%a8%e0%a5%87-%e0%a4%85%e0%a4%aa%e0%a4%a8%e0%a5%80-%e0%a4%a8%e0%a5%88%e0%a4%a4%e0%a4%bf%e0%a4%95/#respond Thu, 14 Mar 2024 04:49:14 +0000 https://www.samayantar.com/?p=1140 हमारे वक्त की सबसे हैरान कर देने वाली उलझन यह है कि ऐसा लगता है कि सारी दुनिया में लोग खुद को और भी कमजोर और वंचित बनाने के लिए वोट दे रहे हैं। वे मिली हुई सूचनाओं के आधार पर वोट डालते हैं। वह सूचना क्या है और उस पर किसका नियंत्रण है - यह आधुनिक दुनिया का मीठा जहर है। जिसका तकनीक पर कब्जा है, उसका दुनिया पर कब्जा है। पर मैं मानती हूं कि अवाम पर अंतत: कब्जा नहीं किया जा सकता है और वे कब्जे में नहीं आएंगे।

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– अरुंधति रॉय

हमारे वक्त की सबसे हैरान कर देने वाली उलझन यह है कि ऐसा लगता है कि सारी दुनिया में लोग खुद को और भी कमजोर और वंचित बनाने के लिए वोट दे रहे हैं। वे मिली हुई सूचनाओं के आधार पर वोट डालते हैं। वह सूचना क्या है और उस पर किसका नियंत्रण हैयह आधुनिक दुनिया का मीठा जहर है। जिसका तकनीक पर कब्जा है, उसका दुनिया पर कब्जा है। पर मैं मानती हूं कि अवाम पर अंतत: कब्जा नहीं किया जा सकता है और वे कब्जे में नहीं आएंगे।

– तिरुअनंतपुरम में दिया व्याख्यान, 13 दिसंबर, 2023

मुझे पी. गोविंद पिल्लई के नाम पर यह सम्मान देने के लिए शुक्रिया। वह केरल के माक्र्सवादी सिद्धांत के असाधारण विद्वानों में से थे। और इसलिए भी शुक्रिया कि आपने यह सम्मान मुझे देने के लिए एन. राम से आग्रह किया। मैं जानती हूं कि यह सम्मान पिछले साल उन्हें हासिल हुआ था, लेकिन कई मायनों में मेरे इस सम्मान में भी उनका हिस्सा है। सन 1998 में फ्रंटलाइन के संपादक के रूप में – और आउटलुक के संपादक विनोद मेहता के साथ – उन्होंने मेरा पहला राजनीतिक निबंध ‘द एंड ऑफ इमेजिनेशनÓ (कल्पना का अंत) प्रकाशित किया था, जो भारत के परमाणु परीक्षणों के बारे में था। और इसके बाद कई बरसों तक वह मेरे लेख प्रकाशित करते रहे। सत्य यह है कि उनका जैसा संपादक होने के कारण ही, जो सटीक, पैना, लेकिन निडर संपादक था, मुझे एक ऐसा लेखक बनने का भरोसा दिया जैसी मैं आज मैं हूं।

मैं भारत में आजाद प्रेस के अंत के बारे में नहीं बोलने जा रही हूं। यहां मौजूद हम सभी इसके बारे में जानते हैं। न ही मैं इस बारे में बोलने जा रही हूं कि उन सभी संस्थानों का क्या हश्र हुआ है, जिनको हमारे लोकतंत्र को चलाने और उसे सही रास्ते पर बनाए रखने के लिए कायम किया गया था। बीस बरस से मैं यह करती आ रही हूं और मुझे यकीन है कि यहां मौजूद आप सभी मेरे नजरियों से वाकिफ होंगे।

उत्तर भारत से केरल आने, या किसी भी दक्षिणी राज्य में आकर मैं वैसा ही सुकून भी महसूस करती हूं और बेचैनी भी कि उत्तर में रहने वाले हममें से अनेक लोगों को रोजमर्रा के जीवन में जिस दहशत के साथ जीना पड़ता है, उससे लगता है कि मैं कितनी दूर हूं।

यह उतना दूर नहीं है जितना कि हम सोचते हैं। अगर मौजूदा हुकूमत अगले साल फिर से सत्ता में आती है, तब 2026 में परिसीमन की कार्रवाई के तहत मुमकिन है कि संसद में हम जितने सांसद भेजते हैं, उनकी तादाद घटा कर पूरे दक्षिण भारत की ताकत छीन ली जाए। हमारे विविधता भरे मुल्क की रीढ़ ‘फेडरलिज्मÓ (संघवाद) भी खतरे में है। केंद्रीय सरकार जिस तरह से खुद बेलगाम ताकत हासिल करती जा रही है, उसमें हम विपक्षी दलों के शासन वाले राज्यों के चुने हुए मुख्यमंत्रियों की बेबसी को भी देख रहे हैं। उन्हें सार्वजनिक कोष में से अपने राज्यों के हिस्से के लिए शब्दश: भीख में मांगनी पड़ रही है। फेडरलिज्म को लगी सबसे ताजा चोट सर्वोच्च न्यायालय का फैसला है, जिसमें उसने संविधान के अनुच्छेद 370 के अंत को मंजूरी दे दी है। इस अनुच्छेद में जम्मू-कश्मीर राज्य को अर्ध-स्वायत्त दर्जा दिया गया है। भारत में विशेष दर्जा रखने वाला यह अकेला राज्य नहीं है। यह कल्पना करना भयावह गलती होगी कि इस फैसले का संबंध सिर्फ कश्मीर से है। इसका असर हमारी राज्य व्यवस्था के बुनियादी ढांचे तक पर पड़ता है।

 

पर आज की बात

लेकिन आज मैं एक ऐसी चीज पर बात करना चाहती हूं जो कहीं अधिक फौरी और जरूरी है। हमारे मुल्क ने अपनी नैतिक दिशा खो दी है। सबसे घिनौने अपराध, सामूहिक जनसंहार(जेनोसाइड) और नस्ली सफाए (एथनिक क्लीन्जिंग) के सबसे खौफनाक ऐलानों पर तारीफें मिल रही हैं, राजनीतिक इनाम दिए जा रहे हैं। सारी की सारी दौलत जहां कुछेक हाथों में सिमटती जा रही है, वहीं गरीबों को कुछ टुकड़े फेंक देने भर से वही ताकतें सत्ता हासिल करने में कामयाब हो रही हैं जो गरीब अवाम की बदहाली को और बढ़ाती हैं।

हमारे वक्त की सबसे हैरान कर देने वाली उलझन यह है कि ऐसा लगता है कि सारी दुनिया में लोग खुद को और भी कमजोर और वंचित बनाने के लिए वोट दे रहे हैं। वे मिली हुई सूचनाओं के आधार पर वोट डालते हैं। वह सूचना क्या है और उस पर किसका नियंत्रण है – यह आधुनिक दुनिया का मीठा जहर है। जिसका तकनीक पर कब्जा है, उसका दुनिया पर कब्जा है। पर मैं मानती हूं कि अवाम पर अंतत: कब्जा नहीं किया जा सकता है और वे कब्जे में नहीं आएंगे। मेरा विश्वास है कि नई पीढ़ी बगावत में उठ खड़ी होगी। एक इनकलाब आएगा। मुझे माफ कीजिए। मैं इसे सुधार कर कहती हूं। इनकलाब आएंगे। कई सारे इनकलाब। बहुवचन में।

जैसा कि मैंने कहा है कि एक मुल्क के रूप में हमने अपनी नैतिक दिशा खो दी है। सारी दुनिया में लाखों यहूदी, मुसलमान, ईसाई, हिंदू, कम्युनिस्ट, ईश्वर को न माननेवाले, एग्नॉस्टिक लोग सड़कों पर जुलूस निकाल रहे हैं, गाजा पर तुरंत हमला बंद करने की मांग कर रहे हैं। लेकिन हमारे मुल्क की सड़कें आज खामोश हैं, हमारा वही मुल्क जो कभी गुलाम, उपनिवेश अवाम का सच्चा दोस्त था। जो फलस्तीन का एक सच्चा दोस्त था। जहां इन पर कभी लाखों लोगों के जुलूस निकले होते, वहां की सड़कें आज खामोश हैं। कुछ को छोड़ कर हमारे ज्यादातर लेखक और सार्वजनिक बुद्धिजीवी भी खामोश हैं। कितना शर्मनाक है। और तंगनजरी का कैसा अफसोसनाक प्रदर्शन। जब हम देख रहे हैं कि किस तरह हमारे लोकतंत्र का ढांचा व्यवस्थित रूप से तबाह किया जा रहा है, और असाधारण विविधता वाले हमारे वतन पर एक झूठा, सबको एक साथ जकड़ देने वाला, संकीर्ण राष्ट्रवाद थोपा जा रहा है, तब कम से कम जो लोग खुद को बुद्धिजीवी कहते हैं उन्हें मालूम होना चाहिए कि गुस्सा और सांप्रदायिकता हमारे मुल्क में भी तबाही ला सकती है।

अगर हम इजराइल के हाथों फलस्तीनी लोगों के खुलेआम कत्लेआम पर कुछ नहीं बोल रहे हैं, जबकि यह हमारी निजी जिंदगियों के सबसे अंतरंग कोनों तक में ‘लाइव स्ट्रीमÓ (सीधे प्रसारित)हो रहा है, तब हम इस कत्लेआम के भागीदार बन जाते हैं।

क्या हम बस चुपचाप देखते रहेंगे, जबकि घरों, अस्पतालों, शरणार्थी शिविरों, स्कूलों, विश्वविद्यालयों, संग्रहालयों पर बम गिराए जा रहे हैं, दस लाख से अधिक लोग बेघर हो चुके हैं, और मलबों के नीचे से मरे हुए बच्चों की लाशें निकल रही हैं? गाजा की सरहदें बंद हैं। लोग कहीं नहीं जा सकते। उनके पास छुपने के लिए जगह नहीं है, खाना नहीं है, पानी नहीं है। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि आधी से ज्यादा आबादी भुखमरी का सामना कर रही है। इस सबके बावजूद उन पर लगातार बम गिराए जा रहे हैं। क्या हम फिर से इसे चुपचाप देखते रहेंगे कि एक पूरे के पूरे अवाम को इस कदर कमतर इंसान बना दिया जाए उसका खात्मा एक बेमानी, मामूली बात बन जाए?

फलस्तीनियों को इंसानों से कमतर समझने की शुरुआत बेन्जामिन नेतन्याहू और उनकी मंडली से नहीं हुई थी। इसकी शुरुआत दशकों पहले हो गई थी।

 

सितंबर का साया

11 सितंबर 2001 की पहली बरसी पर 2002 में मैंने संयुक्त राज्य में एक व्याख्यान दिया था ‘कम सेप्टेंबरÓ (‘सितंबर का सायाÓ नाम से हिंदी में प्रकाशित)। इसमें मैंने 11 सितंबर की अन्य बरसियों के बारे में बात की थी। इसी तारीख को 1973 में चिली के राष्ट्रपति साल्वादोर आय्येंदे के खिलाफ सीआईए के समर्थन से तख्तापलट हुआ था। और फिर इसी तारीख को 1990 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश सीनियर ने संसद के एक संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए इराक के खिलाफ युद्ध के सरकारी फैसले की घोषणा की थी। और फिर मैंने फलस्तीन के बारे में बात की थी। मैं वह हिस्सा पढ़ कर सुनाती हूं, और आप देखेंगे कि अगर मैंने आपको यह नहीं बताया होता कि इसे 21 साल पहले लिखा गया था, तो आपको लगता कि यह आज के बारे में है।

”11 सितंबर की एक त्रासद गूंज मध्यपूर्व में भी मिलती है। 11 सितंबर, 1922 को अरब लोगों की नाराजगी की अनदेखी करते हुए, ब्रिटिश सरकार ने फलस्तीन में एक ‘मैंडेटÓ (फरमान) का ऐलान किया। यह 1917 के बालफोर घोषणा का अगला कदम था, जिसे ब्रिटिश साम्राज्य ने तब जारी किया था जब गाजा की सीमाओं पर उसकी फौज तैनात थी। बालफोर घोषणा ने यूरोपीय जायनिस्टों से यहूदी लोगों के लिए एक राष्ट्र का वादा किया था। (उस वक्त साम्राज्य, जिसका सूरज कभी नहीं डूबता था, लोगों के वतन को छीनने और बांटने के लिए आजाद था, जैसा कि स्कूल में कोई दबंग बच्चा कंचे-गोलियां-बांटता है)। साम्राज्यों ने कितनी बेपरवाही के साथ प्राचीन सभ्यताओं की काट-छांट की है। फलस्तीन और कश्मीर खून में लथपथ गहरे जख्म हैं, जो ब्रिटेन द्वारा आधुनिक दुनिया को दिए हुए हैं। आज दोनों ही उग्र अंतरराष्ट्रीय टकरावों का केंद्र हैं। ”

सन 1937 में विंस्टन चर्चिल ने फलस्तीनवासियों के बारे में क्या कहा था, उसे उद्धृत कर रही हूं,

”मैं इससे सहमत नहीं हूं कि नांद में रहने वाले किसी कुत्ते का उस नांद पर अंतिम अधिकार होता है, भले ही वह उसमें लंबे अर्से से क्यों न रह रहा हो। मैं उदाहरण के लिए नहीं मानता कि अमेरिका के रेड इंडियनों या ऑस्ट्रेलिया के काले लोगों के साथ कोई अन्याय किया गया है। मैं स्वीकार नहीं करता कि इन लोगों पर एक शक्तिशाली प्रजाति ने, ऊंचे स्तर की प्रजाति ने, कह सकते हैं कि सांसारिक रूप से एक अधिक बुद्धिमान प्रजाति ने, आकर उनके स्थान पर अपना कब्जा जमा कर कोई अन्याय किया है।”

”फलस्तीनियों के बारे में इजराइली राज्य का रवैया यहीं से जन्म लेता है। 1969 में इजराइली प्रधानमंत्री गोल्डा मायर ने कहा था, ‘फलस्तीनियों का कोई अस्तित्व नहीं है।Ó उनके बाद प्रधानमंत्री बने लेवी एशॉल ने कहा, ”फलस्तीनी क्या हैं? जब मैं यहां (फलस्तीन) आया, यहां 2, 50, 000 गैर यहूदी थे, अधिकतर अरब और बद्दू लोग। यह मरुस्थल था, किसी पिछड़े हुए क्षेत्र से भी खराब। कुछ भी नहीं था।” प्रधानमंत्री मेनाचेम बेजीन ने फलस्तीनियों को ‘दोपाया जानवरÓ कहा था। प्रधानमंत्री यित्जाक शामिर ने उन्हें ‘टिड्डेÓ बताया था जिन्हें कुचला जा सकता है। यह देश के हुक्मरानों की जबान है, आम अवाम के शब्द नहीं।”

 

एक खौफनाक मिथक

इस तरह बिना वतन वाले एक अवाम के लिए बिना अवाम वाले एक वतन का खौफनाक मिथक शुरू हुआ।

”1947 में संयुक्त राष्ट्र ने औपचारिक रूप से फलस्तीन का बंटवारा कर फलस्तीनी जमीन का 55 फीसदी हिस्सा जायनिस्टों को सौंप दिया। लेकिन एक साल के भीतर उन्होंने 76 फीसदी फलस्तीन पर कब्जा कर लिया। 14 मई, 1948 को इजराइल राज्य की स्थापना हुई। घोषणा के कुछ मिनटों के भीतर संयुक्त राज्य ने इसे मान्यता दे दी। जोर्डन ने वेस्ट बैंक (पश्चिमी तट) पर कब्जा कर लिया। गाजा पट्टी मिस्र की फौज के नियंत्रण में आ गई, और फलस्तीन का औपचारिक वजूद खत्म हो गया, सिवाय उन लाखों फलस्तीनी अवाम के दिलो-दिमाग के, जो अब उजड़ कर शरणार्थी बन चुके थे। 1967 में इजराइल ने वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी पर भी कब्जा कर लिया। दशकों तक बगावतें, जंगें और इंतफादा होते रहे हैं। दसियों हजार लोग जान गंवा चुके हैं। समझौतों और करारनामों पर दस्तखत किए जाते रहे हैं। युद्धविराम की घोषणाएं हुई और उनका उल्लंघन हुआ। लेकिन खूनखराबा खत्म नहीं हुआ है। फलस्तीन पर अभी भी गैरकानूनी कब्जा जारी है। यहां के निवासी अमानवीय हालात में जीते हैं, बंटुस्तानों में (नस्ली भेदभाव पर आधारित वे अफ्रीकी लावारिस बस्तियां जो गोरों ने अफ्रीका में स्थानीय लोगों के घर जमीन घेर कर उनके लिए बनाईं-सं।), जहां उन पर सामूहिक सजाएं थोपी जाती हैं, जहां कफ्र्यू कभी खत्म नहीं होता है, जहां रोज उन्हें अपमानित किया जाता है, बेरहम कार्रवाइयों का निशाना बनाया जाता है। उन्हें नहीं पता कि कब उनके घर गिरा दिए जाएंगे, कब उनके बच्चों को गोली मार दी जाएगी, कब उनके बेशकीमती दरख़्तों को काट दिया जाएगा, कब उनकी सड़कें बंद कर दी जाएंगी, कब उन्हें खाना और दवाइयां खरीदने के लिए बाजार जाने की इजाजत दी जाएगी। और कब नहीं दी जाएगी। वे बिना किसी सम्मान के जीते हैं। और बिना किसी उम्मीद के। अपनी जमीन पर, अपनी हिफाजत पर, अपनी आवाजाही पर, अपने संचार, अपनी पानी की सप्लाई पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है। तो जब समझौतों पर दस्तखत किए जाते हैं, और ‘स्वायत्तताÓ और ‘राज्य का दर्जाÓ जैसे शब्दों के परचम लहराए जाते हैं, तब सदा यह सवाल पूछना जरूरी हो जाता है कि किस किस्म की स्वायत्तता? किस किस्म का राज्य? किस किस्म के अधिकार इसके नागरिकों के पास होंगे?

वे फलस्तीनी नौजवान जो गुस्से पर काबू नहीं कर पाते खुद को इंसानी बमों में बदल देते हैं और इजराइल की सड़कों और गलियों को निशाना बनाते हैं। वे खुद को उड़ा लेते हैं, आम लोगों की जानें लेते हैं, उनके रोजमर्रा के जीवन में दहशत भर देते हैं, और आखिरकार दोनों समाजों के संदेहों और एक दूसरे के बारे में आपसी नफरत को ही मजबूती देते हैं। हरेक बम धमाका एक बेरहम पलटवार को दावत देता है, फलस्तीनी अवाम की मुश्किलों को और बढ़ाता है। लेकिन फिर सच्चाई यह है कि खुदकुश बम हमले निजी हताशा की कार्रवाई होते हैं, कोई क्रांतिकारी कदम नहीं। फलस्तीनी हमले इजराइली नागरिकों में दहशत जरूर भरते हैं, लेकिन वे फलस्तीनी इलाके में इजराइली सरकार की रोजाना की दखलंदाजियों के लिए एक सटीक बहाना बन जाते हैं। वे पुराने चलन वाले, उन्नीसवीं सदी के औपनिवेशवाद का एक सटीक बहाना बन जाते हैं, जिसे 21वीं सदी के नए चलन के ‘युद्धÓ का जामा पहना दिया गया है। इजराइल का सबसे कट्टर राजनीतिक और सैनिक सहयोगी संयुक्त राज्य अमेरिका है और हमेशा से रहा है। ”

”*संयुक्त राज्य अमेरिकी सरकार ने इजराइल के साथ मिल कर संयुक्त राष्ट्र के हर उस प्रस्ताव को रोका है, जिसमें इस टकराव के एक शांतिपूर्ण, न्यायोचित हल की मांग की जाती है। इसने इजराइल की करीब-करीब हर जंग, जो उसने लड़ा है का समर्थन किया है। जब इजराइल फलस्तीन पर हमला करता है, तब फलस्तीनी घरों को तबाह करने वाली मिसाइलें हैं अमेरिकी होती हैं। और हर साल इजराइल कई अरब डॉलरों की रकम संयुक्त राज्य से हासिल करता है, जो वहां के करदाताओं का पैसा है।”

 

इजराइल बम, अमेरिकी नाम

आज आम जनता पर इजराइल जो भी बम गिरा रहा है, उस पर संयुक्त राज्य अमेरिका का नाम लिखा है। हर टैंक पर। हर गोली पर। ऐसा कुछ नहीं हो रहा होता, अगर अमेरिका पूरे दिल से इसका समर्थन नहीं कर रहा होता। आठ दिसंबर को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद की बैठक में जो कुछ हुआ उसे हम सबने देखा। परिषद के 13 सदस्य राष्ट्रों ने युद्ध विराम के लिए वोट डाला और संयुक्त राज्य अमेरिका ने इसके खिलाफ। वह वीडियो देखना परेशान कर देने वाला था, जिसमें अमेरिकी उप राजदूत, जो एक ब्लैक अमेरिकी हैं, का हाथ प्रस्ताव पर वीटो लगाने के लिए उठा। हमारे जेहन पर इसके निशान हमेशा रहेंगे। सोशल मीडिया पर कुछ नाराज लोगों ने कड़वाहट में इसे ‘इंटरसेक्शनल इम्पीरियलिज्मÓ (मोटे तौर पर साम्राज्यवाद/सत्ता का वह रूप जो अपने स्वार्थ के लिए सिद्धांतों को वर्ग, लिंग, रंग और जाति जैसे आधार तक सीमित करता है) कहा है।

नौकरशाही कार्रवाइयों को देखें तो ऐसा लगता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका का कहना है: जो करना है कर दो। लेकिन रहमदिली के साथ।

”इस त्रासद टकराव से हमें कौन से सबक सीखने चाहिए? जिन यहूदी लोगों ने खुद इतनी क्रूरताएं झेली हैं – शायद इतिहास में किसी भी अवाम सेे ज्यादा – उनके लिए क्या ऐसे लोगों के जोखिम और ख्वाहिशों को समझ पाना सचमुच में असंभव है जिन्हें उन्होंने विस्थापित कर रखा है? क्या भयावह तकलीफें हमेशा बेरहमी को जन्म देती हैं? इंसानियत के लिए इससे क्या उम्मीद बचती है? किसी जीत के मौके पर फलस्तीनी लोग कैसा बर्ताव करेंगे? राज्य से महरूम एक राष्ट्र जब एक राज्य बनेगा, तब वह किस किस्म का राज्य होगा? इसके परचम के साए में किस तरह का खौफ अंजाम दिया जाएगा? क्या हमें एक अलग राज्य के लिए लडऩा चाहिए, या फिर हमें हरेक के लिए आजादी और सम्मान से भरे जीवन के अधिकार के लिए लडऩा चाहिए, चाहे किसी की जातीय पहचान या धर्म कुछ भी हो? फलस्तीन किसी समय मध्यपूर्व में धर्मनिरपेक्षता का एक मोर्चा था। लेकिन आज उसी जगह हमास एक कमजोर, अलोकतांत्रिक, हर किस्म से भ्रष्ट लेकिन घोषित रूप से असंकीर्ण पीएलओ की जगह लेता जा रहा है, जो खुलेआम एक संकीर्ण विचारधारा, और इस्लाम के नाम पर लडऩे का दावा करता है। उनका घोषणापत्र कहता है: ”हम इसके सिपाही होंगे और इसकी आग के लिए लकड़ी, जो दुश्मनों को जला डालेगी।ÓÓ दुनिया से मांग की जाती है कि वह आत्मघाती बमबारों की निंदा करे। लेकिन क्या हम उस लंबे सफर की अनदेखी कर सकते हैं जिससे होकर वे इस मुकाम पर पहुंचे हैं? 11 सितंबर,  1922 से 11 सितंबर, 2002 तक – एक जंग को जारी रखने के लिए 80 साल बहुत लंबा समय होता है। क्या दुनिया फलस्तीन के अवाम को कोई सलाह दे सकती है? क्या उन्हें सीधे-सीधे गोल्डा मायर की सलाह मान लेनी चाहिए, और सचमुच में इसके लिए पूरी कोशिश करनी चाहिए वे अपना वजूद मिटा डालें?ÓÓ

 

नस्ली जनसंहार के इरादे का सार्वजनिक रूप

फलस्तीनी लोगों को मिटा देने, उनको पूरी तरह खत्म कर देने के विचार को इजराइली राजनीतिक हुक्मरान और सैनिक अधिकारी साफ साफ कह रहे हैं। बाइडेन प्रशासन के खिलाफ ”नस्ली सफाये -जेनोसाइड- को न रोकपाने के लिएÓÓ – जो कि अपने आप में अपराध है, मुकदमा दायर करने वाले एक अमेरिकी वकील का कहना है कि नस्ली जनसंहार के इरादे को इस तरह साफ-साफ और सार्वजनिक रूप से व्यक्त करने का मामला शायद ही कहीं देखने को मिले। एक बार इस मकसद को हासिल कर लेने के बाद, शायद इन हुक्मरानों का इरादा यह हो कि ऐसे संग्रहालय बनाए जाएं जिनमें फलस्तीनी संस्कृति और हस्तशिल्पों की नुमाइश हो। असली फलस्तीनी खाना परोसने वाले रेस्तरां हों। शायद नए गाजा बंदरगाह पर इस बात को लेकर एक ‘लाइट एंड साउंड शोÓ भी हो कि पुराना गाजा कितना रंगीन हुआ करता था। मुमकिन है कि यह बंदरगाह बेन गुरियन नहर परियोजना के मुहाने पर बनाया जाए, जिसे स्वेज नहर के पैमाने पर बनाने की योजना तैयार की जा रही है। कहा जा रहा है कि समंदर में खुदाई के ठेकों पर दस्तखत किए जा रहे हैं।

बीस साल पहले, जब न्यू मैक्सिको में मैंने अपना ‘कम सेप्टेंबरÓ व्याख्यान दिया था, तब संयुक्त राज्य में फलस्तीन को लेकर एक किस्म के ‘ओमेरताÓ (अपराधियों की आपसी समझ की चुप्पी) का माहौल था। इसके बारे में जो लोग बोलते थे वे इसकी भारी कीमत चुकाते थे। आज नौजवान सड़कों पर हैं। अगले मोर्चे पर उनकी रहनुमाई यहूदी और फलस्तीनी कर रहे हैं, जो अपनी सरकार, अमेरिका की सरकार की करतूतों पर गुस्से में हैं। विश्वविद्यालयों में उथल-पुथल है। सबसे एलीट कैंपसों में भी। उन्हें चुप कराने के लिए पूंजीवाद तेजी से आगे आ रहा है। दानदाता फंड रोक देने की धमकी दे रहे हैं, और इस तरह इस बात का फैसला कर रहे हैं कि अमेरिकी छात्र क्या कह सकते हैं और क्या नहीं, और उन्हें कैसे सोचना चाहिए और कैसे नहीं। यह एक तथाकथित उदारवादी शिक्षा के बुनियादी उसूलों के मर्म पर ही चोट है। उत्तर-उपनिवेशवाद, बहु-संस्कृतिवाद, अंतरराष्ट्रीय कानून, जेनेवा कन्वेन्शन, मानवाधिकारों के सार्वभौम घोषणापत्र की दिखावेबाजी का अंत हो चुका है। बोलने की आजादी या सार्वजनिक नैतिकता का दिखावा भी खत्म हो चुका है। अंतरराष्ट्रीय वकील और विद्वान जिसे सभी कसौटियों पर एक नस्ली जनसंहार बता रहे हैं, वह ‘युद्धÓ जारी है जिसमें अपराध करने वाले मुजरिम खुद को पीडि़त बता रहे हैं, एक नस्लभेदी राज्य चलाने वाले उपनिवेशवादी, उत्पीडि़तों के किरदार में हैं। अमेरिका में इस पर सवाल उठाने का मतलब होगा एंटी-सेमेटिक होने का आरोप लगना। चाहे सवाल करने वाले लोग खुद यहूदी ही क्यों न हों।

आप होश खो बैठेंगे। यहां तक कि इजराइल भी उस तरह आवाजों को नहीं कुचलता जितना अमेरिका कुचलता है, जहां गिडियन लेवी जैसे असहमत इजराइली नागरिक इजराइली कार्रवाइयों के सबसे जानकार और सबसे तीखे आलोचक हैं (हालांकि हालात वहां भी तेजी से बदल रहे हैं)। संयुक्त राज्य में तो इंतिफादा की बात करने को यहूदियों के नस्ली जनसंहार का आह्वान मान लिया जाता है। जबकि इंतिफादा का मतलब है बगावत, प्रतिरोध, जो फलस्तीन के मामले में एक नस्ली जनसंहार का विरोध है। इसका मतलब है अपने को मिटा दिए जाने का विरोध। ऐसा लगता है कि फलस्तीनी लोगों के पास नैतिक रूप से करने के लिए सिर्फ एक ही काम है कि वे मर जाएं। हम सबके सामने कानूनी रूप से एक ही रास्ता है कि हम उन्हें मरते हुए देखें। और चुप रहें। अगर हम ऐसा नहीं करते, तब हम अपने स्कॉलरशिप, ग्रांट, लेक्चर फीस और अपनी आजीविकाओं को जोखिम में डालेंगे। 11 सितंबर के बाद अमेरिकी ‘वार ऑन टेररÓ (‘आतंक के खिलाफ युद्धÓ) ने दुनिया भर की हुकूमतों को अपने नागरिक अधिकारों को खत्म कर देने का, और एक जटिल, आक्रामक निगरानी व्यवस्था कायम करने का बहाना दे दिया। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें हमारी सरकारें हमारे बारे में हर चीज जानती हैं, और हम उनके बारे में कुछ नहीं जानते। इसी तरह अमेरिका के नए मैकार्थीवाद की छतरी तले पूरी दुनिया के देशों में खौफनाक चीजें पनपेंगी। बेशक हमारे अपने देश में यह बरसों पहले शुरू हो गया था। लेकिन अगर हम इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाएंगे तो यह और तेज होगा और हम सबको बहा ले जाएगा। कल ही खबर आई कि दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने, जो किसी समय भारत के शीर्ष विश्वविद्यालयों में से था, छात्रों के लिए बर्ताव के नए नियम जारी किए हैं। उनके तहत धरना या भूख हड़ताल करने वाले हर छात्र पर 20, 000 रुपयों का जुर्माना होगा। ‘राष्ट्र-विरोधी नारेÓ लगाने के लिए 10, 000 रुपए। अभी इसकी कोई सूची नहीं है कि ये कैसे नारे हैं – लेकिन हम यकीन से कह सकते हैं कि मुसलमानों के नस्ली जनसंहार और सफाए की मांग करने वाले नारे इस फेहरिश्त का हिस्सा नहीं होंगे। यानी फलस्तीन की लड़ाई हमारी लड़ाई भी है।

 

जो बचा है

कहने के लिए जो बचा है उसे साफ-साफ कहना और दोहराना जरूरी है। वेस्ट बैंक पर इजराइल का कब्जा और गाजा की घेरेबंदी मानवता के खिलाफ अपराध हैं। इस कब्जे को धन और मदद देने वाले संयुक्त राज्य और दूसरे देश इस अपराध के भागीदार हैं। आज हम जिस दहशत को देख रहे हैं, हमास और इजराइल द्वारा नागरिकों का विवेकहीन कत्लेआम, वह इस घेरेबंदी और कब्जे का नतीजा है।

चाहे दोनों ही पक्षों द्वारा की जाने वाली क्रूरता का कैसा भी ब्योरा दिया जाए, उनकी ज्यादतियों की कितनी भी निंदा की जाए, उनके अत्याचारों में एक बराबरी का चाहे जितना भी झूठ गढ़ा जाए, वे हमें किसी समाधान तक नहीं पहुंचा सकते।

इस भयावहता को जन्म देने वाली चीज है कब्जा। कब्जा ही वह चीज है जो अपराध करने वालों और उस अपराध का निशाना बनने वालों, दोनों पर हिंसा कर रही है। इसके शिकार बनने वाले मर रहे हैं। और इन अपराधियों को अब अपने जुर्म के साथ जीना पड़ेगा। उनकी आने वाली उनकी पीढिय़ों को भी।

इसका हल किसी फौजी कार्रवाई से नहीं निकल सकता। यह सिर्फ राजनीतिक हल ही हो सकता है, जिसमें इस्राएलियों और फलस्तीनियों, दोनों को ही, एक साथ या एक दूसरे के साथ-साथ रहना पड़ेगा। सम्मान के साथ, और समान अधिकारों के साथ। इसमें दुनिया का दखल देना जरूरी है। इस कब्जे का अंत जरूरी है। फलस्तीनियों को सचमुच का एक मुल्क मिलना जरूरी है। और फलस्तीनी शरणार्थियों को वापस लौटने का अधिकार मिलना जरूरी है।

अगर नहीं तो पश्चिमी सभ्यता की नैतिक इमारत ढह जाएगी। हम जानते हैं कि यह हमेशा ही एक दोमुंही चीज थी, लेकिन उसमें भी एक किस्म की पनाह मिलती थी। वह पनाह हमारी आंखों के सामने से खत्म हो रही है।

इसलिए, फलस्तीन और इजराइल की खातिर, जो जिंदा हैं उनकी खातिर, और जो मारे गए उनके नाम पर, हमास के हाथों बंधक बनाए गए लोगों की खातिर, और इजराइली जेलों में बंद फलस्तीनियों की खातिर, सारी इंसानियत की खातिर, यह कत्लेआम फौरन बंद हो।

इस सम्मान के लिए मुझे चुनने के लिए आपका एक बार फिर से शुक्रिया। इस पुरस्कार के साथ मिलने वाले तीन लाख रुपयों के लिए भी आपका शुक्रिया। ये रुपए मेरे पास नहीं रहेंगे। वे उन एक्टिविस्टों और पत्रकारों के काम आएंगे जो भारी कीमत चुकाते हुए भी विरोध में डटे हुए हैं।  ठ्ठ

अनु.: रेयाजुल हक

 

लोकतंत्र

व्यक्तिवादी ‘तानाशाही’का साया

यूसुफ किरमानी

 चुनाव आयोग से संबंधित विधेयक जल्द ही कानून बन जाएगा। इससे पहले केंद्रीय चुनाव आयोग में नियुक्तियों को लेकर जो व्यवस्था थी, उसमें चयन समिति में सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश भी सदस्य होते थे। लेकिन अब प्रधान न्यायाधीश को चयन समिति से हटा दिया गया है। सारा फैसला प्रधानमंत्री, उनकी कैबिनेट का कोई नामित मंत्री और नेता विपक्ष करेंगे।

 

भारत में निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव के लिए एकमात्र संस्था केंद्रीय चुनाव आयोग है। 12 दिसंबर को राज्यसभा में और 21 दिसंबर 2023 को लोकसभा के शीतकालीन अधिवेशन में मोदी सरकार एक विधेयक लाई और उसके जरिए केंद्रीय चुनाव आयोग में केंद्रीय चुनाव आयुक्त (सीईसी) और आयुक्तों के चयन का अधिकार प्रधानमंत्री, सरकार का कोई मंत्री और नेता विपक्ष को मिल गया। इतना ही नहीं चुनाव आयुक्तों का दर्जा और वेतन सुप्रीम कोर्ट के जजों के बराबर कर दिया गया। नियमों में एक और महत्वपूर्ण बदलाव यह भी हुआ कि अगर कोई मुख्य चुनाव आयुक्त या आयुक्त अपने कार्यकाल में जो भी फैसले लेगा, उसके खिलाफ न तो कोई एफआईआर दर्ज होगी और न ही उसे किसी अदालत द्वारा उसके पूर्व के फैसलों के लिए दोषी ठहराया जाएगा। इस अकेले विधेयक ने पूरी भारतीय चुनावी राजनीति को भ्रष्ट तरीके से बदलने, एकल पार्टी व्यवस्था लाने और व्यक्तिवादी तानाशाही के सारे रास्ते खोल दिए। हालांकि दूरसंचार विधेयक, तीन आपराधिक संहिता विधेयक के दूरगामी नतीजे तो अलग ही आने वाले हैं। हमारा विषय निष्पक्ष चुनाव और व्यक्तिवादी तानाशही के खतरों से आगाह करने पर है।

चुनाव आयोग से संबंधित विधेयक जल्द ही कानून बन जाएगा। इससे पहले केंद्रीय चुनाव आयोग में नियुक्तियों को लेकर जो व्यवस्था थी, उसमें चयन समिति में सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश भी सदस्य होते थे। लेकिन अब प्रधान न्यायाधीश को चयन समिति से हटा दिया गया है। सारा फैसला प्रधानमंत्री, उनकी कैबिनेट का कोई नामित मंत्री और नेता विपक्ष करेंगे। अब कल्पना कीजिए कि चयन समिति के सामने सीईसी के रूप में कोई ऐसा नाम आता है, जिस पर नेता विपक्ष को आपत्ति है और प्रधानमंत्री और उनका नामित मंत्री अगर उस नाम पर राजी हैं तो उस सीईसी का चयन आसानी से हो जाएगा। क्योंकि नेता विपक्ष के एकमात्र वोट का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। यानी सत्ता पक्ष जिस भी कठपुतली को चाहेगा, उसे मुख्य चुनाव आयुक्त बना देगा। हालांकि पिछले दस वर्षों में चुनाव आयुक्त मनमाने तरीके से ही नियुक्त किए जा रहे थे। लेकिन अब वही काम नियम बनाकर होगा।

चयन समिति में सरकार की मनमानी चलाने की एक और भी वजह है। चुनाव आयोग में आयुक्त अनूप चंद्र पांडे, फरवरी 2024 में चुनाव आयोग से रिटायर होने वाले हैं। यह विधेयक तब तक कानून बनकर लागू हो जाता है तो अनूप चंद्र पांडे को आयोग में फिर से नामित करने में सरकार को कोई परेशानी नहीं होगी। फरवरी, 2025 में जब मौजूदा सीईसी राजीव कुमार का कार्यकाल खत्म हो जाएगा तो उसके बाद पांडे को अगला सीईसी बनाने में भी कोई विवाद खड़ा नहीं होगा। इस तरह केंद्र सरकार ने तमाम दूरगामी नतीजों पर विचार करके पूरी चयन प्रक्रिया ही बदल दी है।

इसी तरह एक अन्य बदलाव जो चुनाव आयुक्तों को बचाने के लिए किया गया है, वह है फैसलों की कोई जवाबदेही न होना। यह बहुत ही खतरनाक है। दरअसल, उसी में भविष्य के चुनाव निष्पक्ष न होने की तहरीर भी छिपी है। अभी तक मुख्य चुनाव आयुक्त और आयुक्त की जवाबदेही होती थी और उसे बाद में भी उसके गलत नतीजों की वजह से जवाब देना पड़ता था।

अभी तक चुनाव आयोग में सारे फैसले इस तरह होते रहे हैं कि उन्हें बाद में अदालत में न चुनौती दी जा सके और न ही किसी सीईसी या चुनाव आयुक्त को जिम्मेदार ठहराया जा सके। कल्पना कीजिए कि सत्ता पक्ष चुनाव को प्रभावित करने के लिए सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करे और चुनाव आयोग उस पर कोई कार्रवाई न करे। या चुनाव आयोग चुनाव के दौरान विपक्ष को हराने की रणनीति को लागू करने में सत्ता पक्ष की मदद करे। क्योंकि चुनाव के बाद ऐसे मामलों की एफआईआर हो सकती है, तो आयुक्तों को बचाने के लिए यह नियम बदला गया है। मोदी राज में एक देश एक चुनाव की मांग भाजपा नेताओं की ओर से की जा रही है, उसके लागू होने पर उसमें चुनाव आयोग की सबसे बड़ी भूमिका होने वाली है। एक चुनाव की स्थिति में वो और भी शक्तिशाली हो जाएगा। एक तरह से केंद्र की सत्ता के बाद चुनाव आयोग सबसे बड़ा शक्ति का केंद्र होगा, चूंकि चयन समिति के जरिए सीईसी से लेकर सारे आयुक्त कठपुतली होंगे तो कुल मिलाकर सत्ता पक्ष ही अप्रत्यक्ष ढंग से चुनाव आयोग को संचालित करेगा।

चुनाव आयोग को लेकर किए गए ये सारे फैसले चुनाव निष्पक्ष और पारदर्शी होने में बाधा डालेंगे। लेकिन और भी कई वजहें हैं, जिनके कारण निष्पक्ष चुनाव अब दूर की कौड़ी होने वाले हैं। इन वजहों में ईवीएम (इलैक्ट्रानिक वोटिंग मशीन), चुनावी बॉन्ड के भ्रष्ट तरीके के जरिए होने वाली फंडिंग शामिल है।

 

ईवीएम, भाजपा और खामोशी

भारत के पांच राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में नवंबर में विधानसभा चुनाव हुए। तीन दिसंबर को नतीजे आए। नतीजे आने के दो-चार दिन बाद ही ये सूचनाएं आने लगीं कि तीन राज्यों में ईवीएम मशीनों से छेड़छाड़ की गई है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने यह कहते हुए इस आरोप को खारिज कर दिया कि फिर तेलंगाना में कांग्रेस कैसे जीत गई। भाजपा ने यह भी कहा कि कांग्रेस जब भी चुनाव हारती है तो ईवीएम का रोना लेकर बैठ जाती है। लेकिन यह पूरी तरह सच नहीं है।

ईवीएम का सबसे पहला विरोध 2009 में भाजपा के धुरंधर नेता लालकृष्ण आडवाणी ने किया था। उस साल भाजपा कई राज्यों में चुनाव हार गई थी और आडवाणी ने ईवीएम को लोकतंत्र के लिए खतरनाक बताया था। भाजपा के मौजूदा राज्यसभा सांसद जीवीएल नरसिम्हा राव ने उसी साल ईवीएम किताब लिखी, जिसका शीर्षक था- डेमोक्रेसी एट रिस्क, कैन वी ट्रस्ट अवर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन। 2014 में जब भाजपा की जबरदस्त जीत हुई और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए तो ईवीएम पर सवाल उठाने वाली भाजपा ने एकदम से चुप्पी साध ली। जीवीएल नरसिम्हा राव से अब जब सवाल किया जाता है तो वह कन्नी काट जाते हैं। लेकिन ईवीएम का वह सवाल जो उठा था, खत्म नहीं हुआ है। हर चुनाव के बाद वह जिंदा हो जाता है।

 

जलते और गायब होते ईवीएम

देश में ईवीएम को लेकर सवाल पर सवाल हो रहे हैं। चुनाव आयोग के नियमों की मंशा पर सवाल उठ रहे हैं लेकिन इसी बीच 20 दिसंबर,  2023 को उत्तर प्रदेश के फरुर्खाबाद से खबर आई है कि वहां एक गोदाम में रखी 800 ईवीएम जल गईं यानी उनमें जो रेकॉर्ड होगा, सब नष्ट हो गया। जिला प्रशासन के अधिकारियों ने पुष्टि की है कि जिस गोदाम में ईवीएम जलीं हैं, वहां बिजली का कनेक्शन नहीं था यानी वहां शॉर्ट सर्किट का बहाना भी नहीं बनाया जा सकता। सारे घटनाक्रम से साफ है कि किन्ही रेकॉर्ड को नष्ट करने के लिए उन्हें जलाया गया है। 2024 लोकसभा चुनाव की तैयारी भाजपा युद्धस्तर पर कर रही है। उत्तर प्रदेश में भाजपा का शासन है। ऐसे में संदेह नहीं होगा तो क्या होगा।

19 लाख ईवीएम गायब हैं और आज तक चुनाव आयोग अपनी सफाई ठीक से नहीं दे पाया है। मई 2019 में यह खबर आरटीआई के जरिए सामने आई थी कि करीब 19 लाख ईवीएम गायब हैं। इन ईवीएम का निर्माण दो सरकारी कंपनियों बीईएल और ईसीआईएल ने किया था। जब इस मामले को विपक्षी दलों ने उठाया तो केंद्रीय चुनाव आयोग ने अपनी सफाई में कहा कि एक भी ईवीएम गायब नहीं हुई लेकिन राज्यों के चुनाव दफ्तरों पर उसका नियंत्रण नहीं है। यानी अगर वहां गायब हुई हों तो इस बारे में केंद्रीय चुनाव आयोग की कोई जिम्मेदारी नहीं है। पर केंद्रीय चुनाव आयोग को फ्रंलाइन पत्रिका के रिपोर्टर ने चुनौती देते हुए कहा था कि केंद्रीय चुनाव आयोग ने ईवीएम का ऑर्डर दोनों सरकारी कंपनियों को दिया था। चुनाव आयोग के ऑर्डर और उन कंपनियों की सप्लाई में अंतर है। यानी जितनी मशीनें आयोग को मिलनी थीं, वो कहीं और पहुंच गईं।

यह बहुत बड़ा मामला था और फ्रंलाइन ने बताया कि 2016-2018 के बीच ये ईवीएम गायब हुई थीं। कांग्रेस ने 2019 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद इस मामले को हल्का-फुल्का उठाया लेकिन बाद में सारा मामला रफा-दफा हो गया। लेकिन वह सवाल रह-रहकर सामने आता है कि आखिर 19 लाख ईवीएम कहां गईं और 2019 के लोकसभा चुनाव से उसका क्या संबंध था। अब उ.प्र. में 800 ईवीएम के जलने की सूचना आई है। विपक्ष फिर इसको हल्केफुल्के ढंग से उठाएगा और बाद में सब शांत हो जाएगा।

 

बीबीसी की रिपोर्ट

भाजपा ने आडवाणी के नेतृत्व में 2009 में चुनाव आयोग को ज्ञापन देकर ईवीएम पर सवाल उठाए थे। 2010 में बीबीसी (ब्रिटिश ब्राडकास्टिंग कार्पोरेशन) की एक रिपोर्ट आई, जिस पर अब भाजपा चर्चा नहीं करना चाहती। भारतीय गोदी मीडिया भी बीबीसी की 2010 की रिपोर्ट पर बात नहीं करती। बीबीसी रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में मिशीगन विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों का कहना है कि उन्होंने भारतीय इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों को हैक करने की एक तकनीक विकसित की है। एक घरेलू उपकरण को मशीन से जोडऩे के बाद, मिशिगन विश्वविद्यालय के शोधकर्ता मोबाइल से टेक्स्ट संदेश भेजकर परिणाम बदलने में कामयाब हुए। हालांकि, भारतीय चुनाव अधिकारियों का कहना है कि उनकी मशीनें अचूक हैं और उनके साथ छेड़छाड़ करने वाली मशीन को पकडऩा भी बहुत मुश्किल होगा। बहरहाल, मिशिगन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा इंटरनेट पर पोस्ट किए गए एक वीडियो में कथित तौर पर उन्हें घर में बने इलेक्ट्रॉनिक उपकरण को भारत में इस्तेमाल होने वाली वोटिंग मशीनों में से एक से जोड़ते हुए दिखाया गया है। प्रोजेक्ट का नेतृत्व करने वाले प्रोफेसर जे एलेक्स हैल्डरमैन ने कहा कि ‘डिवाइसÓ (उपकरण) ने उन्हें मोबाइल फोन से संदेश भेजकर मशीन पर परिणाम बदलने की अनुमति दी। उन्होंने बीबीसी को बताया, ”हमने एक नकली डिस्प्ले बोर्ड (सूचना पट्ट) बनाया जो बिल्कुल मशीनों में लगे असली डिस्प्ले जैसा दिखता है। बोर्ड के कुछ कंपोनेंट के नीचे, हमने एक माइक्रोप्रोसेसर और एक ब्लूटूथ रेडियो छिपा दिया है। हमारा हमशक्ल डिस्प्ले बोर्ड उन वोट जोड़ को पकड़ लेता है जिन्हें मशीन दिखाने की कोशिश कर रही है और उन्हें गलत योग (टोटल) से बदल देता है।ÓÓ

इसके अलावा, उन्होंने एक छोटा माइक्रोप्रोसेसर जोड़ा जिसके बारे में उनका कहना है कि यह चुनाव और मतगणना सत्र के बीच मशीन में संग्रहीत वोटों को बदल सकता है। बीबीसी की यह रिपोर्ट अपनी जगह है। लेकिन इस बार मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव 2023 के बाद कांग्रेस नेता और पूर्व सीएम कमलनाथ से लेकर दिग्विजय सिंह ने आरोप लगाया कि कई बूथों पर कांग्रेस को एक वोट मिला, जबकि सारे वोट भाजपा को चले गए। यह कैसे संभव है। इसी तरह की शिकायतें तमाम विधानसभा क्षेत्रों से मिलीं। ईवीएम को लेकर ये आरोप अपनी जगह हैं। लेकिन बहुत सारे लोगों ने समय-समय पर ईवीएम को लेकर अपनी आपबीती की जानकारी चुनाव आयोग को दी है। लेकिन आयोग ने शिकायतों का संज्ञान ही नहीं लिया।

 

मुस्लिम मतदाताओं को रोका जाना

निष्पक्ष चुनाव में एक नई बाधा यह भी आ गई है कि हर चुनाव में पुलिस, प्रशासन सांप्रदायिक होती जा रही है। वो जानते हैं कि मुस्लिम वोट कहां जाएंगे, इसलिए मुस्लिम मतदाताओं को अब वोट डालने से रोकने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। अगर एक उदाहरण हो तो इस सवाल को पूर्वाग्रह माना जाएगा लेकिन अब यह पैटर्न बन गया है तो इस मुद्दे पर बात करना जरूरी है। इसकी शुरुआत मतदाता सूचियों में मुस्लिम मतदाताओं के नाम उड़ाने से होती है। सितंबर 2023 में घोसी उपचुनाव हुआ था। न्यूज क्लिक की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि सैकड़ों मुस्लिम मतदाता अपना आधार और मतदाता पहचान पत्र लेकर वोट डालने पहुंचे लेकिन उनके नाम मतदाता सूची से गायब थे। जिनके नाम मतदाता सूची में थे, उनके वोट पहले ही डाले जा चुके थे। न्यूज क्लिक ने कई मतदाताओं से इंटरव्यू करके रिपोर्ट प्रकाशित की थी। उसी रिपोर्ट में पुलिस के एक सीईओ विनीत का नाम आया था, जिन्होंने कई मुस्लिम मतदाताओं को वोट डालने से अजीबोगरीब कारण बताकर रोका और मतदान केंद्र से वापस कर दिया। चूंकि मुस्लिम महिलाएं अपने घर के पुरुषों के साथ वोट डालने आई थीं तो काफी लोगों को भीड़ जमा करने के नाम पर भगा दिया गया।

दिसंबर 2022 में रामपुर उपचुनाव हुआ। उस समय की टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि रामपुर में हजारों मुस्लिम मतदाताओं को वोट डालने से रोका गया। उस रिपोर्ट में तमाम वीडियो के हवाले से बताया गया था कि मुस्लिम मतदाताओं को मतदान केंद्रों के बाहर पुलिस द्वारा पीटे जाने के भी आरोप लगे। यहां पर उसी सीईओ विनीत की ड्यूटी चर्चा के केंद्र में रही, जिनकी सेवाएं बाद में घोसी उपचुनाव में भी ली गई थीं। समाजवादी पार्टी ने रामपुर उपचुनाव में मुस्लिम मतदाताओं को वोट डालने से रोके जाने के मामले को चुनाव आयोग में ज्ञापन देकर उठाया। लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।

2018 में कर्नाटक और तमिलनाडु में लाखों मुस्लिम मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से गायब होने की खबरें अखबारों में सुर्खियां बनीं। तमिलनाडु में 12 लाख और कर्नाटक में आठ लाख मुस्लिम नाम मतदाता सूची से गायब मिले। विपक्षी दल इन मामलों को ठीक ढंग से उठा ही नहीं पाए। कर्नाटक में अब कांग्रेस की सरकार है, वो 2018 में आठ लाख मुस्लिम मतदाताओं के नाम उड़ाने की जांच अब क्यों नहीं कराती। उसे कौन रोक रहा है। यही हाल तमिलनाडु में डीएमके का है। वह भी 12 लाख मतदाताओं के नाम गायब होने पर चुप होकर बैठ गई। नवंबर, 2023 में मध्य प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान तमाम शहरों में मुस्लिम मतदाताओं को रोकने की सूचनाएं आईं। लेकिन कांग्रेस ने इस मामले को उठाया ही नहीं। म.प्र. में कांग्रेस के सॉफ्ट हिंदुत्व को डर था कि मतदान वाले दिन अगर वे लोग उस पर बोले तो हिंदू मतदाता संगठित होकर भाजपा को वोट दे देंगे। लेकिन कांग्रेस के सॉप्ट हिंदुत्व वाले कमलनाथ को यह नहीं मालूम था कि हिंदुत्व के नाम पर जिन लोगों का वोट भाजपा को जाना है, वो जाएगा ही, मुसलमानों को रोके जाने का मुद्दा उठाने पर मतदाता प्रभावित होने वाले नहीं थे। बहरहाल, सॉफ्ट हिंदुत्व खेलने वाली कांग्रेस अब शायद इस पर विचार करे।

 

चुनावी बॉन्ड: चुनावी भ्रष्टाचार का खुला खेल

चुनावी बॉन्ड योजना शुरू होने के बाद पिछले पांच वर्षों में बॉन्ड के जरिए आधे से अधिक यानी करीब 57 फीसदी पैसा भाजपा के खाते में गया है। भाजपा ने खुद चुनाव आयोग को जानकारी दी है कि 2017-2022 के बीच बॉन्ड के जरिए भाजपा को 5, 271.97 करोड़ रुपए मिले। इसी अवधि में कांग्रेस को चुनावी बॉन्ड से सिर्फ 952.29 करोड़ रुपए मिले। यानी भाजपा को कांग्रेस के मुकाबले साढ़े पांच सौ फीसदी ज्यादा चंदा मिला। जिन्हें नहीं पता, उन्हें बता दें कि चुनावी बॉन्ड एक तरह से चुनावी चंदा है जो किसी भी व्यक्ति या संस्था के किसी भी पार्टी को देने पर देनेवाले का नाम गुप्त रहता है। पहले क्या होता था कि पार्टियों को बताना पड़ता था कि किस उद्योग घराने से या संस्था से कितना पैसा उन्हें मिला है। भाजपा जब 2014 में सत्ता में आई तो उसने इस पर बाकायदा काम किया और 2018 नया कानून लेकर आई कि कोई भी व्यक्ति या संस्था गुप्त रूप से राजनीतिक दलों को दान कर सकता है। लेकिन यह आजाद भारत में सबसे बड़ी राजनीतिक रिश्वत बनकर रह गई है। साल दर साल आंकड़े बता रहे हैं कि कॉरपोरेट जमकर भाजपा को चुनावी बॉन्ड के जरिए पैसा पहुंचा रहा है। कांग्रेस 70 साल सत्ता में रही लेकिन ऐसी अनोखी रिश्वत की योजना पेश नहीं कर पाई, जबकि सबसे बड़ी भ्रष्टाचारी पार्टी का तमगा उसे भाजपा ने दे रखा है। वही भाजपा जो इस देश की सबसे बड़ी और अमीर पार्टी, कॉरपोरेट रिश्वतखोरी से बन गई है। ताजा आंकड़ों की जानकारी जो यहां दी जा रही है पाठकों की आंखें खोलने के लिए काफी हैं और इससे सारा खेल समझ में आ जाता है।

पांच राज्यों में नवंबर 2023 में विधानसभा चुनाव हुए। ये राज्य हैं मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और मिजोरम। तीन दिसंबर को नतीजे आए। 7 दिसंबर 2023 को भारतीय स्टेट बैंक के चुनावी बॉन्ड के आंकड़े सामने आए। आरटीआई के जरिए आए इन आंकड़ों में एसबीआई को बताना पड़ा कि चुनाव के दौरान 6 नवंबर से 20 नवंबर तक सबसे ज्यादा चुनावी बॉन्ड मिजोरम को छोड़कर चार राज्यों में खरीदे गए। एसबीआई के मुताबिक इस अवधि में 1006.03 करोड़ रुपए के चुनावी बॉन्ड बेचे गए। 2018 के मुकाबले इन चार राज्यों में 400 गुणा ज्यादा रकम राजनीतिक दलों के पास पहुंची। 2018 में चुनावी बॉन्ड इसी अवधि में 184.20 करोड़ के बेचे गए थे। 2018 में इन्हीं पांच राज्यों में चुनाव हुए थे। यहां यह साफ करना जरूरी है कि मिजोरम में किसी भी राजनीतिक दल को एक धेला भी चुनावी बॉन्ड के जरिए नहीं पहुंचा।

इन चुनावी बॉन्डों को सभी राजनीतिक दलों को भुनाना पड़ता है। यानी पैसा आपके खाते में तभी आएगा, जब आप इसे भुनाएंगे। एसबीआई ने बताया कि नवंबर में राजनीतिक दलों ने लगभग सारे बॉन्ड दिल्ली और हैदराबाद में भुनाए। जाहिर है कि ज्यादातर राजनीतिक दलों के केंद्रीय कार्यालय दिल्ली में हैं तो बॉन्डों को दिल्ली में भुनाया गया। दूसरे नंबर पर हैदराबाद इसलिए रहा कि वहां के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) की पार्टी भारतीय राष्ट्र समिति (बीआरएस) का दफ्तर है, उसने वहां बॉन्ड भुनाए।

यहां सर्वोच्च न्यायालय की एक हरकत का जिक्र भी जरूरी है। न्यायालय में चुनावी बॉन्ड की वैधता को चुनौती दी गई है। मोदी सरकार इसके पक्ष में एड़ी से चोटी तक जोर लगा रही है। सरकार ने दो नवंबर को इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया और सरकार ने चार नवंबर को चुनावी बॉन्ड की 29वीं किस्त जारी कर दी। नवंबर में ही पांच राज्यों के चुनाव हो रहे थे। पढऩे वाले समझ गए होंगे कि इन तथ्यों का आपस में क्या तालमेल है। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट की ‘हरकतÓ शब्द का इस्तेमाल यहां किया गया है। बहरहाल 2018 से अब तक कुल 29 किस्तें चुनावी बॉन्ड की जारी की गई हैं। जिनमें कॉरपोरेट ने 15, 922.42 करोड़ रुपए राजनीतिक दलों के खाते में पहुंचाए। इसमें भाजपा नंबर एक पर और ममता बनर्जी की त्रिणमूल दूसरे नंबर पर है। उसके बाद कांग्रेस का नंबर है। यह गुप्त रिश्वत है। सर्वोच्च न्यायाल में इसके खिलाफ तमाम दलीलें दी जा चुकी हैं और पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की मांग की गई है। लेकिन व्यक्तिवादी तानाशाही के दौर में कहां सुनवाई होनी है! सारी संवैधानिक संस्थाएं एक जगह गिरवी हैं।

कांग्रेस ने 18 दिसंबर,  2023 को जनता से चंदा लेने के लिए एक सार्वजनिक योजना ‘देश के लिए दान देंÓ (डोनेट फॉर नेशन) की घोषणा की। जनता से कांग्रेस पार्टी ने अपील की है कि वो कम से कम 138 रुपए का दान कांग्रेस को दे। यह एक तरह से कांग्रेस का चुनावी बॉन्ड योजना और कॉरपोरेट को जवाब है। अगर योजना सफल हुई तो कॉरपोरेट के हाथों के तोते उड़ जाएंगे, क्योंकि जनता का पैसा कांग्रेस के खाते में बड़े पैमाने पर पहुंचा तो कांग्रेस को फिर जनता के लिए जवाबदेह होना पड़ेगा। कॉरपोरेट उसे वैसे भी चंदा नहीं दे रहा है। अडाणी समूह पर जब से राहुल गांधी ने हमला शुरू किया, तब से उद्योगपतियों से कांग्रेस को मिलने वाला चंदा लगातार कम होता जा रहा है। क्राउड फंडिंग की यह योजना अगर सफल रही तो कांग्रेस देश की राजनीति को बदल सकती है, बशर्ते की जनता के प्रति उसकी जवाबदेही और ईमानदारी उसके बाद भी बनी रहे। जब मैं यह रिपोर्ट लिख रहा हूं तो करीब तीन करोड़ रुपए का जनता दान कांग्रेस के पास पहुंच चुका था।

 

निष्कर्ष और समाधान

कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि जनता अगर नहीं जागी तो भारत में निष्पक्ष चुनाव नामुमकिन है, भारत के लोकतंत्र को गंभीर खतरा है। निष्पक्ष चुनाव के लिए जरूरी है कि केंद्रीय चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की चयन प्रक्रिया में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश को शामिल किया जाए। निष्पक्ष चुनाव के लिए जरूरी है कि ईवीएम की जगह कागज के मतपत्र वाला जमाना वापस लाया जाए। यह मुमकिन नहीं है तो ईवीएम से निकलने वाली वीपीपैट पर्ची की गणना की जाए। इसके लिए सरकार के इशारे पर चुनाव आयोग बेवकूफी वाले तर्क पेश कर रहा है। सभी विपक्षी दल मिलकर ईवीएम के मुद्दे पर जनता को सड़कों पर आने के लिए कहें, निष्पक्ष चुनाव के लिए शांतिपूर्ण आंदोलन के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। कांग्रेस से यह वादा लिया जाए कि अगर वो जब भी सत्ता में आएगी तो ईवीएम से चुनाव पर रोक लगा देगी या फिर वीवीपैट पर्चियों की सौ फीसदी गिनती कराएगी। इंडिया गठबंधन ने वैसे भी अब सौ फीसदी वीवीपैट पर्चियों की गिनती की मांग की है। विपक्ष के राजनीतिक दलों का ही काम जनता को जागरूक करना है। उन्हें जनता को जगाने के लिए नए तरीके खोजने होंगे। एक सुझाव यह भी है कि अगर चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट और सरकार सौ फीसदी वीवीपैट पर्चियों की गिनती की मांग को स्वीकार नहीं करते हैं तो विपक्ष 2024 के चुनाव का पूरी तरह बहिष्कार कर दे। वैसे भी व्यक्तिवादी तानाशाही के दौर में संवैधानिक संस्थाएं निष्पक्ष चुनाव कराने में नाकाम साबित होने वाली हैं। राजनीतिक दलों के पूरी तरह बहिष्कार करने पर जनता को कम से कम ये तो पता चलेगा कि जो पार्टी सत्ता में आने वाली है, वो किस तरह बनी है, जिसमें विपक्ष कहीं नहीं है। अगर 2024 के चुनाव में भाजपा की फिर से सरकार बनती है तो निश्चित रूप से भाजपा एक देश एक चुनाव का कानून लाएगी और पास भी करा लेगी, क्योंकि व्यक्तिवादी तानाशाही के दौर में कुछ भी संभव है। जनता और राजनीतिक दलों के पास शांतिपूर्ण संघर्ष के अलावा और कोई रास्ता नहीं है।

 

व्यक्तिवादी तानाशाही का अर्थ

इस रिपोर्ट में कई जगह व्यक्तिवादी तानाशाही का जिक्र आया है। उसको स्पष्ट करना जरूरी है। अपनी पुस्तक डिक्टेटर्स एंड डिक्टेटरशिप्स: अंडरस्टैंडिंग ऑथरिटेरियन रेजीम्स एंड देयर लीडर्स में लेखिका नताशा एम. एज्रो और एरिका फ्र ांत्ज ने पांच प्रकार की तानाशाही बताई है:1. सैन्य तानाशाही, 2. राजशाही, 3. व्यक्तिवादी तानाशाही, 4. एकदलीय तानाशाही और 5. हाइब्रिड तानाशाही।

लेखिका नताशा और एरिका ने व्यक्तिवादी तानाशाही को परिभाषित करते हुए लिखा है- ”ऐसे नेता को किसी पार्टी द्वारा समर्थित किया जा सकता है। सत्ता का भारी बहुमत ऐसे नेता के पास रहता है। विशेष रूप से किसे किस सरकारी भूमिका में रखना है यह व्यक्तिवादी तानाशह तय करता है। सत्ता पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए अपने स्वयं के करिश्मे पर बहुत अधिक निर्भर रहता है। इस तरह की तानाशाही के नेता अक्सर अपने प्रति वफादार लोगों को सत्ता में ऊंचे पदों पर रखते हैं, चाहे वो योग्य हों या नहीं। जनता की राय को अपने पक्ष में करने के लिए व्यक्तित्ववादी तानाशाह आकर्षक और लुभावने नारे, कार्यक्रमों को बढ़ावा देते हैं। अधिकांश तानाशाहों की तरह, व्यक्तिवादी तानाशाह भी आलोचकों को चुप कराने के लिए अक्सर गुप्त पुलिस (खुफिया और जांच एजेंसी) और हिंसा का इस्तेमाल करते हैं। यहां पर भारतीय संदर्भ में व्यक्तिवादी तानाशाही का जिक्र आया है। अगर हम अन्य चार तानाशाही का जिक्र इस रिपोर्ट में करेंगे तो यह लेख ज्यादा लंबा हो जाएगा। इसलिए उसे किसी और मौके पर पेश करने के लिए रोक लेते हैं।

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देश के, ओलंपिक जैसी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में, पदक जीतनेवाले सर्वश्रेष्ठ खिलाडिय़ों के साथ, आज जो हो रहा है, वह शर्मनाक है। लोकतांत्रिक व्यवस्था के नाम पर बीस-बीस, पच्चीस-पच्चीस साल से जिला स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक के शंकास्पद चरित्रों के राजनीतिक नेता, जिस तरह से खेलों के संगठनों का राजनीतिक और निजी स्वार्थों के लिए दुरुपयोग कर रहे हैं, विशेषकर नाबालिग खिलाडिय़ों का यौन उत्पीडऩ और शोषण, वह भयावह तो है ही, देश के लिए किसी कलंक से कम नहीं है। पहलवान साक्षी मलिक के कुश्ती छोड़ देने और बजरंग पूनिया के अपने पद्मश्री पुरस्कार को लौटाने के बाद एशियाई और कामेनवैल्थ खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली विनेश फोगट ने अपने मेजर ध्यानचंद खेलरत्न और अर्जुन पुरस्कार कर्तव्य पथ पर छोड़ दिए। वह ये पुरस्कार प्रधानमंत्री को लौटाना चाहती थीं जिसकी उन्हें इजाजत नहीं मिली।

कुश्ती संघ और इसके कर्ताधर्ताओं के जो कारनामे सामने आ रहे हैं, यद्यपि अपवाद नहीं हैं, पर यह संभवत: पहली बार है जब उनका इतने सार्वजनिक तौर पर विरोध और खुलासा हुआ है। यद्यपि इन संघों से राजनीतिकों का संबंध और उनके द्वारा इनके दुरुपयोग के किस्से नए नहीं हैं पर इस बार आश्चर्य यह है कि भारतीय जनता पार्टी का शीर्ष नेतृत्व जिस तरह से कुश्ती संघ के अध्यक्ष को बचाने में लगा है, वह सब कुछ के बावजूद परेशान करनेवाला तो है ही।

इसका कारण है। देश का शीर्ष नेतृत्व जिस तरह से खेलों, उनकी लोकप्रियता और उनकी राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय स्तर की उपलब्धियों से लेकर उनके संगठनों की कमाई तक का, प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दोहन करता नजर आ रहा है, उसे समझना और याद रखना जरूरी है।

अहमदाबाद क्रिकेट स्टेडियम इसका ज्वलंत उदाहरण है। इस को लेकर जो हुआ उसे याद किया जा सकता है। पिछले कई दशक से सरदार पटेल के नाम से जाना जानेवाले इस स्टेडियम का दो वर्ष पहले विस्तार करा कर नाम बदल दिया गया। शासकों द्वारा स्थानों का नाम बदलना अनोखी बात नहीं है पर इस क्रिकेट स्टेडियम का नाम जिस तरह बदला गया, वह निश्चित रूप से हैरान करनेवाला है।

स्वाधीनता संग्राम के अग्रगणीय नेताओं में एक और देश के पहले गृहमंत्री, जिनका भजन-कीर्तन भाजपावाले सुबह से शाम तक करना नहीं भूलते हैं, इस क्रिकेट स्टेडियम का नाम उन्हीं सरदार पटेल के नाम पर था। यद्यपि नाम कांग्रेस के शासन काल में रखा गया था पर वर्तमान कर्ताधर्ताओं को स्टेडियम का नाम बदलने के लिए गुजरात से ही जो बड़ा, संभवत: पटेल से भी बड़ा, नाम जिस आसानी से मिला, वह देखने लायक है। कहने की जरूरत नहीं आज वह नाम, नरेंद्र मोदी के अलावा और कौन हो सकता था! वैसे भी ओहदे के हिसाब से पटेल तो गृहमंत्री ही रह गए थे! सो ‘दुनिया के सबसे बड़े क्रिकेट स्टेडियम (1,33,000 दर्शकों की क्षमता) का नाम दुनिया के ‘सबसे बड़े Ó लोकतांत्रिक देश के वर्तमान प्रधानमंत्री के नाम से सुशोभित है!

इसकी जो थोड़ी बहुत आलोचना मीडिया में हुई, वही इतने दबे स्वर में थी की किसीने परवाह तक नहीं की। न खिलाडिय़ों ने, न भाजपा भक्तों ने और न ही उसकी विचारधारा के स्रोत, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने। जहां तक खिलाडिय़ों का सवाल है, क्रिकेट खिलाडिय़ों को तो पैसे कमाने से फुर्सत कहां रहती है, वे स्टेडियम जैसी छोटी-मोटी चीज के लिए अपना कैरियर क्यों बर्बाद करते। औरों का तो कहना ही क्या? वैसे क्या आपने कपिल देव को या महेंद्र सिंह धौनी को इसी स्टेडियम में हुए विश्वकप के फाइनल में देखा? कपिल देव ने तो शिकायत भी की पर धौनी ने तो एक शब्द बोलना से भी परहेज किया। मजे से पहाड़ों में घूमते रहे। इन दोनों कप्तानों का स्थान भारतीय क्रिकेट के इतिहास में उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि नवानगर के राजा रणजीतसिंहजी का। पर अगर महत्व क्रिकेट का होता तो इन तीनों खिलाडिय़ों का वहां नाम होता। या कम से कम स्टेडियम का नाम रणजीतसिंहजी नवानगर के नाम पर तो होना ही चाहिए था, क्योंकि वह क्रिकेट की दुनिया को गुजरात की सबसे बड़ी देन थे। पर यह सब तब होता जब क्रिकेट बहाना नहीं होता।

अगर देखने की कोशिश करें तो इस संदर्भ में मोटेरा के मैदान में विश्वकप फाइनल में हुई भारतीय टीम की हार निश्चित रूप से रोहित शर्मा और उसकी टीम के सदस्यों की हार थी। हां, अगर जीत होती तो भारत के प्रधानमंत्री की होती, जिनके नाम पर अब यह स्टेडियम है। पर जैसा कि माक्र्सवादी कहते हैं, हर चीज में राजनीति है, क्रिकेट में भी राजनीति है और उसी स्तर पर है जिस स्तर पर उस की लोकप्रियता है। उससे भी बड़ी बात, जितना उसमें पैसा है, उसे कैसे भुलाया जा सकता है।

देखने लायक है कि भारतीय क्रिकेट संघ दुनिया का सबसे समृद्ध संघ है। इस खेल में, कम से कम भारत में सत्ताधारियों और राजनीतिकों की जितनी दखल है वैसी शायद ही किसी और देश में हो। उदाहरण के लिए वर्तमान बीसीसीआई के सचिव देश के गृहमंत्री के बेटे हैं। अमित शाह स्वयं 2019 तक गुजरात क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष थे। कांग्रेस के राजीव शुक्ला एक अर्से से बीसीसीआई से जुड़े हैं और फिलहाल भी उपाध्यक्ष हैं। सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर के भाई अरुण धूमल आईपीएल के अध्यक्ष हैं। दिल्ली क्रिकेट संघ से भाजपा नेता अरुण जेटली मृत्युपर्यंत जुड़े रहे थे। फिलहाल फिरोजशाह कोटला स्टेडियम का नाम जेटली के नाम पर रख दिया गया है। इसलिए अगर इस में नरेंद्र मोदी की दिलचस्पी है तो क्या गलत है।

लोकप्रियता का माध्यम होने के अलावा खेलकूद की संस्थाएं वित्त का तथा देश-विदेश के सैर सपाटे का भी माध्यम होने की वजह से राजनीतिक वर्ग के लिए आकर्षण का अतिरिक्त कारण हैं। इधर लड़कियों के खेलों में बड़ी संख्या में भाग लेने से, एक और लाभ हमारे मूल्यहीन, कुंठित और चरित्रहीन राजनीतिकों को नजर आ गया है। यौन शोषण लगता है, कुश्ती संघों में चरम पर पहुंच गया है जहां विशेषकर पश्चिमी उत्तरप्रदेश और हरियाणा के खेतिहर परिवारों के लड़के-लड़कियां, अपने शौक और कैरियर के कारणों से आते हैं। अगर ऐसा न होता तो मामला इस हद पर नहीं पहुंचता और दर्जनों खिलाड़ी अपने भविष्य को दांव पर नहीं लगाने को उठ खड़े होते।

इसलिए सवाल कई तरह के हो सकते हैं। जैसे कि आखिर एक ऐसे क्षेत्र का आदमी, जहां कुश्ती की लोकप्रियता वैसी न हो जैसी कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में है, आखिर कैसे पिछले एक दशक से भी ज्यादा से, कुश्ती संघ का प्रमुख बना हुआ था? दूसरा, इस दौरान उत्तर प्रदेश कुश्ती के क्षेत्र में कहां पहुंचा है? और पिछले एक साल से इतनी सारी सार्वजनिक शिकायतों, उनमें भी यौन उत्पीडऩ और वह भी नाबालिगों के उत्पीडऩ के गंभीर आरोपों के बावजूद, ऐसा आदमी नैतिकतावादी, देशभक्त, रामभक्त भाजपा की डबल इंजन सरकार के दौर में संघ के अध्यक्ष पद पर चलता रहा और अगर बदला तो भी अपने पद पर ऐसे आदमी को बैठाने में सफल रहा जो उसका मोहरा था! ऐसा हुआ क्यों? क्यों कि ब्रजभूषण भाजपा के सांसद हैं। वह पांच बार से भगवा झंडा फहराते हुए संसद की शोभा बढ़ाते रहे हैं और एक बार समाजवादी पार्टी के सांसद भी रह चुके हैं। समझा जा सकता है कि उनका असर कितना है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि अगला आम चुनाव अब से सिर्फ चार माह बाद है। दूसरे शब्दों में देश का सत्ताधारी वर्ग अपनी सत्ता को बचाने के लिए किस हद तक वोट जुगाड़ुओं को, फिर चाहे वे किसी भी कोटि के अपराधी हों या ठग, बचाने के लिए जा सकता है, यह प्रसंग उसका उदाहरण है।

यहां गंभीर मसला यह है कि बृजभूषण के खिलाफ महिला पहलवानों के यौन उत्पीडऩ के कई आरोप हैं। इसी के मद्दे नजर विश्व के पहलवानी के संगठन वल्र्ड रेसलिंग फैडरेशन ने भारतीय कुश्ती संघ को प्रतिबंधित कर रखा था। पहलवानों ने सन 2023 के शुरू में नई दिल्ली में इस के खिलाफ प्रदर्शन किया था। इस पर खासे हंगामे के बाद, सरकार ने पहलवानों को आश्वासन दिया कि ब्रजभूषण के खिलाफ जांच की जाएगी। पर जांच में क्या पाया गया, सरकार ने उसे सार्वजनिक नहीं किया मानो मसला देश की सुरक्षा से जुड़ा हो जबकि यह वोटों से जुड़ा है। खैर, जो हुआ सो हुआ, पर ब्रजभूषण को पद से हटा दिया। यानी मसला साफ तौर पर गंभीर था। वरना ये नेतृत्व ‘कामÓ के लोगों को आसानी से सान पर नहीं चढ़ाता है। सरकार जिस तरह से ब्रजभूषण के मामले में टालमटोल कर रही है, उससे यह तो सिद्ध हो रहा है कि आगामी चुनावों को देखते हुए उसकी उपयोगिता कम नहीं हुई है।

पिछले एक वर्ष से खिलाड़ी लगातार बृजभूषण ‘जीÓ के कारनामों के खिलाफ विरोध प्रकट करने के लिए एडिय़ां रगड़ रहे थे, यहां तक कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति का दरवाजा तक खटखटा चुके थे। यह ‘खटखटÓ व्यंजना में है। वर्ना यथार्थ में पहलवानों को उस सड़क पर खड़े भी मुश्किल से होने दिया गया था जो इधर ‘कर्तव्य पथÓ कहलाता है।

यह भी गजब का संयोग है कि तोकियो ओलंपिक के पदक प्राप्त बजरंग पूनिया को अपना पद्मश्री पुरस्कार ‘कर्तव्य पथÓ उर्फ खुली सड़क पर यों ही नहीं छोडऩा पड़ा था। स्पष्ट है कि किसी भी रास्ते का कोई भी नाम हो सकता है पर उसकी सार्थकता उस पथ पर चलनेवाले की ईमानदारी और प्रतिबद्धता से निर्धारित होती है, न कि मात्र आने-जाने से। इसलिए सबक यह है कि हार नहीं माननी है। जनता इस संघर्ष को देख रही है। पहलवानों का काम और उनकी ईमानदारी छिपी नहीं है। लोकतंत्र में अंतत: जनता सर्वोपरी है। इसलिए अब अंतिम फैसला जनता की अदालत में ही हो सकता है उसी की तैयारी भी होनी चाहिए।

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फिलिस्तीनियों के नरसंहार में नजरिया तलाशती दुनिया https://www.samayantar.com/%e0%a4%ab%e0%a4%bf%e0%a4%b2%e0%a4%bf%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a5%80%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%a8%e0%a4%b0%e0%a4%b8%e0%a4%82%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%b0/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%ab%e0%a4%bf%e0%a4%b2%e0%a4%bf%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a5%80%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%a8%e0%a4%b0%e0%a4%b8%e0%a4%82%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%b0/#respond Fri, 15 Dec 2023 05:05:34 +0000 https://www.samayantar.com/?p=1135 – यूसुफ किरमानी   कुल मिलाकर इस युद्ध पर आपकी राय को पश्चिमी देश और उनका मीडिया नियंत्रित कर रहा है। आप में से बहुत [...]

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– यूसुफ किरमानी

 

कुल मिलाकर इस युद्ध पर आपकी राय को पश्चिमी देश और उनका मीडिया नियंत्रित कर रहा है। आप में से बहुत कम लोग होंगे जो यह मान रहे होंगे कि फिलिस्तीन के लोग जुल्म कब तक और कहां तक बर्दाश्त करते। उनके पास खोने के लिए क्या था, जो इस युद्ध में उनसे छीन लिया जाएगा। आज शव गिने जा रहे हैं, मलबों में दबे लोग खोजे जा रहे हैं। लेकिन पिछले 70 वर्षों में फिलिस्तीन तिल-तिल कर मरता रहा है।

इजराइल-हमास युद्ध आप किस नजरिए  से देखना चाहते हैं। क्योंकि पश्चिमी मीडिया के प्रभाव ने आपको कोई न कोई नजरिया दे ही दिया होगा। क्या पता आप हमास की पहल को इस पूरे युद्ध का जिम्मेदार मानते हों। क्या पता आप उन साजिशों को जिम्मेदार मानते हों कि इजराइल बेचारे देश को मिटाने की कोशिश 56 मुस्लिम देश कर रहे हैं। कुल मिलाकर इस युद्ध पर आपकी राय को पश्चिमी देश और उनका मीडिया नियंत्रित कर रहा है। आप में से बहुत कम लोग होंगे जो यह मान रहे होंगे कि फिलिस्तीन के लोग जुल्म कब तक और कहां तक बर्दाश्त करते। उनके पास खोने के लिए क्या था, जो इस युद्ध में उनसे छीन लिया जाएगा। आज शव गिने जा रहे हैं, मलबों में दबे लोग खोजे जा रहे हैं। लेकिन पिछले 70 वर्षों में फिलिस्तीन तिल-तिल कर मरता रहा है। 70 वर्षों से अब तक इजराइली पुलिस की टुकड़ी हर दिन गाजा में कहीं भी पहुंचती थी, घर खाली कराती या सामान फेंक देती और अगले दिन कोई इजराइली वहां कब्जा ले लेता। इजराइली इन्हें ‘सेटलर्सÓ यानी बसने वाले कहते हैं। पिछले तीन महीने से गाजा पट्टी में इजराइली हुकूमत का जुल्म सारी हदें पार कर गया था। विश्व मीडिया में फिलिस्तीन की खबरें बंद हो गईं। इजराइल के जुल्म-सितम को सामान्य मान लिया गया।

अगस्त महीने में समयांतर के संपादक ने आग्रह किया, फिलिस्तीन में जो हो रहा है, उस पर आंखें नहीं मूंद सकते, इसलिए इस बार फिलिस्तीन पर लिखिए। मैंने उनके कहे को टाल दिया। मेरी नजर में उस समय भारतीय राजनीति के घटनाक्रम ज्यादा महत्वपूर्ण थे। उन्हें दर्ज किया जाना जरूरी था। लेकिन सात अक्टूबर को मैं बहुत पछताया। चूक हो गई। संपादक जी ने अगस्त में फिलिस्तीन की जो नब्ज टटोली थी, वह सात अक्टूबर को हमास के हमले से सामने आ गई। हमास और फिलिस्तीन के सब्र का पैमाना छलक गया। सात अक्टूबर को हमास ने इजराइल पर पांच हजार रॉकेट दागे और इजराइल में घुसकर 1,400 लोगों को मार डाला। इस हत्या को कौन वाजिब ठहरा सकता है। लेकिन इसके पीछे 70 साल से जो कहानी चल रही थी, उसे कोई याद नहीं करना चाहता। सात अक्टूबर के हमले के लिए हमास की निन्दा होनी ही थी। लेकिन पश्चिमी देशों, और खासकर अमेरिका, ब्रिटेन और इजराइल ने इसे अवसर के रूप में लिया। अवसर था, पश्चिम एशिया (जो पश्चिम के लिए मध्य पूर्व यानी मिडिल ईस्ट है) को कमजोर करना। ईरान के बढ़ते प्रभाव को रोकना। इजराइल ने सात अक्टूबर को ही युद्ध का ऐलान कर दिया। सोचता हूं अगर अगस्त में फिलिस्तीन पर अपनी रिपोर्ट लिख देता तो आज हमास के हमले को जायज ठहराने के तर्क नहीं देने पड़ते। समयांतर शायद भारत की पहली दस्तावेजी पत्रिका होती जो तीन महीने पहले ही गाजा पट्टी में छलक रहे सब्र के पैमाने को बता देती। अगस्त से शुरू हुए इजराइल के जुल्म-ओ-सितम को कलमबंद करके आज फिलिस्तीन के साथ खड़े होने को सही ठहराने की कोशिश करती।

युद्ध में मौत का जवाब मौत ही होता है। लेकिन कहां तक, कब तक? इजराइल की बमबारी में गाजा पट्टी में मारे गए लोगों की मौत को इजराइल इसी आधार पर जायज ठहरा रहा है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और इन सब के पिछलग्गू देश भी जायज ठहरा रहे हैं। अभी तक इजराइल का हौसला बढ़ाने के लिए जर्मनी के चांसलर ओलाफ स्कोल्ज, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋ षि सुनाक, फ्रांस के राष्ट्रपति एमानुएल मैक्रां तेल अवीव पहुंचे और इजराइल के प्रधानमंत्री के गलबहियां डाल कर मंच से घोषणा की कि हम इजराइल के साथ खड़े हैं। ये चार बड़े देश दुनिया के चौधरी बने हुए हैं। इन सभी देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने हमास को जड़ से मिटाने का संकल्प दोहराया। हमास को खत्म करने का मतलब फिलिस्तीन को दुनिया के नक्शे से मिटाना। ताकि नए ‘वल्र्ड ऑर्डरÓ के रास्ते में आगे कोई अरब देश रुकावट न बने। इन देशों ने बड़ी निर्लज्जता से ‘होलोकास्टÓ को याद किया, जिसमें द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हिटलर ने जर्मनी और योरोपीय देशों में रहने वाले 60 लाखों यहूदियों का 1941 से 1945 के दौरान कत्ल-ए-आम कराया था। यानी योरोप के दो तिहाइ यहूदियों का सफाया कर दिया था। आज इजराइल और वहां के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के मौजूदा युद्ध अपराधों को छिपाने के लिए होलोकास्ट में यहूदियों के नरसंहार को याद कराया जा रहा है लेकिन 70 साल से फिलिस्तीन में हो रहे नरसंहार का कोई नाम नहीं दिया गया है। फिलिस्तीन के तमाम इलाकों में कई लाख योरोपीय यहूदी सेटलर्स बसा दिए गए, गाजा पट्टी, वेस्ट बैंक, रामल्लाह, खान यूनिस, अल अक्सा मसजिद के आसपास, पूर्वी जेरूसलम में इजराइली कब्जे को होलोकास्ट जैसा कोई नाम नहीं दिया गया। इन इलाकों में फिलिस्तीनी लोगों की पीढिय़ां इजराइल से लड़ती हुईं खत्म हो गईं लेकिन उनके नरसंहारों का कहीं कोई संदर्भ तक नहीं मिलता।

गाजा में जो कुछ हो रहा है, वह सिर्फ आम नरसंहार नहीं बल्कि जातीय नरसंहार हैं। यानी किसी मजहब के खास समुदाय को खात्मे के लिए निशाना बनाया जा रहा हो। जातीय नरसंहार में मानसिकता एक जैसी है। जातीय नरसंहार में मानसिकता ही काम करती है। जर्मनी में हिटलर की नाजी मानसिकता जिस तरह यहूदियों का नरसंहार कर रही थी, उसी मानसिकता के साथ आज इजराइल फिलिस्तीनियों का खात्मा कर रहा है। लेकिन इजराइल के जुल्म ओ सितम को जातीय नरसंहार कोई नहीं कह रहा है। यूक्रेन में रूस के हमले के लिए पश्चिमी मीडिया ने पुतिन को युद्ध अपराधी कहा। लेकिन बेंजामिन नेतन्याहू युद्ध अपराधी नहीं है, इजराइल की बमबारी को आत्म रक्षा के आत्मरक्षा का अधिकार घोषित किया जा रहा है।

 

क्या यह दूसरा ‘नकबा’ नहीं है?

फिलिस्तीन में 1948 में जब वहां के लोगों को इजराइल ने बड़े पैमाने पर उजाड़ा था, तो उसे पहला (नकबा माने तबाही/विध्वंश) कहा गया। लेकिन मौजूदा इजराइल-हमास युद्ध में फिलिस्तीनियों का कत्ल-ए-आम और बेघर होने को दूसरा नकबा कहा जाए? फिलिस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन से युद्ध बंद कराने की अपील करते हुए इसे दूसरा नकबा कहा है। अब्बास ने यह भी कहा कि फिलिस्तीनी अपनी जमीन छोड़कर नहीं जाएंगे।

पश्चिम एशिया के प्रमुख टीवी चैनल और इस युद्ध की बेबाक रिपोर्टिंग करने वाले अल जजीरा ने भी इसे दूसरा नकबा कहा है। संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के आंकड़े बता रहे हैं कि यह हर हाल में दूसरा नकबा है। गाजा के स्वास्थ्य मंत्रालय ने युद्ध के 18वें दिन 24 अक्टूबर को जो आंकड़ा जारी किया था, उसके मुताबिक 5,795 फिलिस्तीनी नागरिक गाजा में मारे जा चुके थे। जिनमें 2,360 बच्चे, 1,292 महिलाएं और 295 बुजुर्ग शामिल हैं। 18,000 से ज्यादा लोग घायल हैं। मलबे के नीचे 1,500 लोग दब गए हैं या गायब हैं। यूएन (संयुक्त राष्ट्र संघ) के मुताबिक अभी तक करीब पांच हजार फिलिस्तीनी नागरिक इजराइली बमबारी में मारे जा चुके हैं। साढ़े चार लाख लोग बेघर हो चुके हैं। करीब 11,000 घर नेस्तोनाबूद करके मलबे में बदल दिए गए हैं। पर अभी भी यह सिलसिला जारी है।

लाखों लोगों का अपनी जमीन छोडऩा, संपत्ति छोड़कर जाना दूसरा नकबा नहीं तो क्या है। पहले 14 दिनों तक गाजा में कोई मदद नहीं पहुंची। वहां फिलिस्तीनी लोग दाने-दाने के लिए तरस गए। मिस्र-फिलिस्तीन सीमा पर राफा सीमा के जरिए इजराइल ने दुनिया भर के हल्ले का बाद, सीमित मात्रा में राहत सामग्री भेजने की अनुमति दी। संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएन) की राहत एजेंसियों ने इसे ऊंट के मुंह में जीरा बताया। सीमित राहत भेजने के लिए बहाना यह बनाया गया कि इसे हमास के लड़ाके लूट लेंगे।

सात अक्टूबर को युद्ध शुरू होने पर इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने कहा था कि इस युद्ध को हमास ने शुरू किया था, लेकिन इसे इजराइल खत्म करेगा। यानी इजराइल जब तक चाहेगा, इस युद्ध को लड़ेगा। नेतन्याहू का कहना है कि हमास को खत्म करके ही हम रुकेंगे। अब इजराइल लगातार गाजा में अपनी फौज को भेजकर जमीनी कार्रवाई की धमकी दे रहा है। अभी तक हवाई बमबारी हो रही है। अगर जमीनी लड़ाई छिड़ती है तो गाजा में और भी बर्बादी होगी। लेकिन इसके पीछे इजराइल की वही नीति काम कर रही है कि फिलिस्तीन को अपने एक उपनिवेश में बदल दिया जाए। 1962 की लड़ाई के बाद से फिलिस्तीन के क्षेत्र वेस्ट बैंक पर इजराइल का अनधिकृत कब्जा है। उसने वहां फिलिस्तीनियों की जमीन पर यहूदी बस्तियां बसा दी हैं जो लगातार बढ़ती जा रही हैं।

जमीनी युद्ध छेडऩे के बाद वह गाजा पट्टी में स्पेशल जोन यानी कुछ और क्षेत्रों को अपने कब्जे में लेते हुए वहां नई सुरक्षा व्यवस्था लागू कर देगा। आसान शब्दों में कहें तो इजराइल का यह हमला गाजा को और सिकोड़ देगा। जो सूचनाएं आ रही हैं, वे चिन्ताजनक हैं। अमेरिका के दो युद्धपोत इजराइल के समुद्री क्षेत्र तैनात हो चुके हैं और खाड़ी के देशों में युद्धक विमान। 22 अक्टूबर को अमेरिका ने खाड़ी देशों में अपना डिफेंस एयर सिस्टम सक्रिय करने की घोषणा की है। इस सिस्टम को सक्रिय करने का आशय यह है कि अगर फिलिस्तीन या हमास की मदद के लिए ईरान या अन्य कोई देश हमला करता है तो उसे बीच में ही काबू कर लिया जाएगा।

 

अस्पतालों पर बम वर्षा

इस युद्ध के दौरान 17 अक्टूबर को गाजा के अल अहली अरब अस्पताल पर बमबारी की गई। उस समय अस्पताल में बड़ी तादाद में लोगों ने शरण ले रखी थी। गाजा में बमबारी के बाद लोगों ने अस्पतालों और चर्चों में शरण ले रखी थी। क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि मस्जिदें तो बच नहीं रही हैं, लेकिन अस्पताल और चर्च पर शायद इजराइल हमले न करे। लोगों का भ्रम टूटते देर नहीं लगी। 17 अक्टूबर को अस्पताल पर हमला हुआ और 19 अक्टूबर को चर्च पर हमला। संयोग से अल अहली अरब अस्पताल एक ईसाई मिशन चलाता है। फिलिस्तीन के स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि अस्पताल में करीब 471 लोग मारे गए। इनमें मरीजों और बच्चों की तादाद ज्यादा थी। लेकिन इजराइल जानता था कि अस्पताल में मारे गए लोगों की संख्या की वजह से दुनिया में बवाल मचेगा। उसके खिलाफ प्रदर्शन होंगे। उसने फौरन बयान जारी कर कहा कि अस्पताल में उसने बमबारी नहीं की है। इसे हमास से जुड़े इस्लामिक जिहाद संगठन ने अंजाम दिया है। इजराइल के इस बयान के बाद पूरा पश्चिमी मीडिया इजराइल डिफेंस फोर्स (आईडीएफ) के सूत्रों के हवाले से साबित करने में जुट गया कि यह काम इजराइल का नहीं बल्कि हमास से जुड़े संगठन का है।

18 अक्टूबर को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन इजराइल पहुंचे और उन्होंने भी इजराइल को क्लीन चिट दे दी कि अस्पताल पर हमला इजराइल ने नहीं किया। लेकिन अस्पताल के डॉक्टरों और अस्पताल संचालित करने वाली ईसाई मिशनरी ने कहा कि पिछले तीन दिनों से इजराइली सेना फोन करके अल अहली अरब अस्पताल को खाली करने का निर्देश दे रही थी। सेना ने अस्पताल के प्रबंधन से कहा था कि बमबारी के दौरान अस्पताल टारगेट हो सकता है, इसलिए इसे फौरन खाली कर दिया जाए।

पश्चिमी मीडिया जब 17 अक्टूबर के अस्पताल हमले में हमास का हाथ होना साबित करने में जुटा था कि 19 अक्टूबर को गाजा में ग्रीक ऑर्थोडॉक्स सेंट पोर्फिरियस चर्च पर बमबारी कर दी गई। चर्च ने गाजा के सैकड़ों ईसाइयों और मुसलमानों को हमले से बचने के लिए शरण दे रखी थी। इस हमले में 19 फिलिस्तीनी ईसाई मारे गए। इस हमले की जिम्मेदारी पूरी निर्लज्जता के साथ इजराइली डिफेंस फोर्स ने ली। सफाइ यह थी कि निशाना हमास था लेकिन गलती से चर्च पर बमबारी हो गई। अमानुषिकता यह कि इजराइल ने इस कथित ‘गलतीÓ (कुकृत्य) के लिए माफी नहीं मांगी। उसने चर्च के अधिकारियों से कहा कि वे चर्च खाली कर दें, क्योंकि आसपास की बिल्डिंगों को निशाना बनाया जा सकता है। पर उनका जवाब था कि हम चर्च छोड़कर नहीं जाएंगे, बेशक जान देनी पड़े। यह उनकी जमीन है, वे यहीं मरना चाहते हैं। शर्मनाक यह है कि किसी भी साम्राज्यवादी देश की सरकार ने चर्च पर इजराइली आतंकवादी हमलों की निन्दा नहीं की। हमास बुरा कर रहा है, यह माना जा सकता है, लेकिन एक ‘सभ्यÓ देश होने के बावजूद इजराइल क्या कर रहा है? इस सवाल को पूछने वालों को मूर्ख साबित किया जा रहा है। हिटलर के यहूदी नरसंहार के सामने इजराइल के फिलिस्तीन के नरसंहार के मुद्दे को उठाना अब बेमानी होता जा रहा है।

इजराइली हरकतें इस हद तक बर्बर हैं कि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी समेत दुनिया के कई देशों में न्यायप्रेमी जनता के अस्पताल के हमले के खिलाफ प्रदर्शन हुए हैं। किसी ने यह स्वीकार नहीं किया कि इजराइल और अमेरिका जो कहानी बता रहे हैं, वह सही है। इस घटना का एक नतीजा यह भी हुआ कि बाइडेन जो 18 अक्टूबर को इजराइल की यात्रा के बाद वहां से अरब लीग के नेताओं के साथ मुलाकात के लिए जोर्डन जाने वाले थे, उन्होंने बाइडेन के साथ मुलाकात रद्द कर दी। फिलिस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने बाइडेन से मिलने से मना कर दिया। प्रतिक्रया इतनी विकट थी कि अरब लीग के देशों ने बाइडेन के साथ बैठक टाल दी।

19 अक्टूबर को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनाक इजराइल पहुंचे और उन्होंने भी अमेरिका की तर्ज पर इजराइल का हौसला बढ़ाया। बाइडेन और सुनाक के पहुंचने से पहले 15 अक्टूबर को जर्मनी के चांसलर ओलाफ शुल्ज भी इजराइल का हौसला बढ़ाकर आए थे। 24 अक्टूबर को फ्रांसीसी राष्ट्रपति मैक्रां ने भी तेल अवीव जाकर नेतन्याहू की पीठ थपथपाई। इजराइल-हमास युद्ध में बड़े देशों की खेमेबंदी इस बार पूरी निर्लज्जता के साथ है। इससे पहले भी इजराइल और हमास लड़ते रहे हैं लेकिन ये बड़े देश प्रतिक्रिया देने में संतुलन रखते थे। फिलिस्तीन से भी हमदर्दी जताते थे। लेकिन इस बार इस दुविधा को ताक पर रख दिया गया है।

 

युद्ध का दोषी कौन है?

अगर कोई इस युद्ध के लिए इजराइल को दोषी नहीं मानता है तो उसे इजराइल के मौजूदा दौर के इतिहासकार इलान पप्पे की टिप्पणी को सुनना चाहिए। इजराइल-हमास युद्ध के दौरान  इलान पप्पे ने अल जजीरा को जो इंटरव्यू दिया उसमें महत्वपूर्ण बात कही। पप्पे ने कहा: ”मैं वर्तमान युद्ध के लिए इजराइल को दोषी मानता हूं क्योंकि हमें उस संदर्भ को कभी नहीं भूलना चाहिए, जिसमें हमास का हमला हुआ था। और वह है गाजा की घेराबंदी है जो 2006 में शुरू हुई थी। इस हिंसा का स्रोत फिलिस्तीनी क्षेत्रों पर कब्जा और उसे इजराइल का उपनिवेश बनाने की कोशिश है। इजराइल पिछले आठ साल से सीरिया पर लगातार बमबारी कर रहा है। पश्चिम के आदर्श दोहरे मानकों पर आधारित हैं। संप्रभुता, नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था, युद्ध अपराध, मानवाधिकार… ये सभी शर्तें सिर्फ गैर-श्वेत और गैर-पश्चिमी देशों पर लागू होती हैं।ÓÓ

 

मुस्लिम देशों की समझदारी या बेवकूफी

इजराइल हमास युद्ध में मुस्लिम देशों को लेकर किसी पूर्वाग्रह से लिखने का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए उन्हें समझदारी और बेवकूफी के संदर्भ में ही परखा जाना चाहिए। इस युद्ध में मुस्लिम देश एकजुट होने के बावजूद दो खेमों में बंट हुए हैं। एक तरफ ईरान है और दूसरा खेमा अरब देश हैं। अमेरिका पर सऊदी अरब का प्रभाव है। इसलिए अमेरिका ने सऊदी अरब और इजराइल की दोस्ती कराई और दोनों देश राजनयिक संबंध बहाल करने पर राजी हो गए ोि। सात अक्टूबर को जब मध्य पूर्व की स्थिति एक हमले से बदल गई, ठीक उससे पहले इजराइल और सऊदी अरब में शांति समझौता होने जा रहा था। जिसके तहत सऊदी युवराज (क्राउन प्रिंस) को इजराइल आना था। अमेरिका और इजराइल की नजर पिछले 45 वर्षों से ईरान पर है। ईरान इस क्षेत्र का एक ऐसा देश है, जो इजराइल को दुनिया के नक्शे से मिटाने की बात कहता रहा है। इजराइल और ईरान के बीच हिजबुल्लाह, हमास और यमन के जरिए अप्रत्यक्ष युद्ध (प्रॉक्सी वॉर) लंबे समय से चल रहा है। इजराइल और अमेरिका इससे परेशान हैं।

दूसरी तरफ सऊदी अरब और ईरान में भी नहीं बनती है। इसके धार्मिक और ऐतिहासिक कारण हैं। वह इस लेख का विषय भी नहीं हैं। इजराइल-सऊदी अरब शांति समझौता सिरे चढ़ता, उससे पहले ही सात अक्टूबर को हमला हुआ और जवाब में इजराइल ने जब गाजा में तबाही मचाई तो न सिर्फ ईरान बल्कि सऊदी अरब भी भड़क गया। ईरान ने फौरन 56 देशों के मुस्लिम संगठन ओआईसी की बैठक बुलाने की मांग कर दी। सऊदी युवराज सलमान ने तत्काल ही ईरान के राष्ट्रपति से बात की। 56 देशों की बैठक हुई तो उसमें ईरान ने प्रस्ताव रखा कि पूरा मिडिल ईस्ट और सभी मुस्लिम देश इजराइल का आर्थिक बहिष्कार करें। इस प्रस्ताव का विरोध नहीं हुआ, लेकिन कई किन्तु-परंतु से यह पास नहीं हो पाया। सऊदी अरब, तुर्की, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, कुवैत, कतर, मिस्त्र, जॉर्डन से जिस तल्खी की उम्मीद या किसी कार्रवाई की उम्मीद की जा रही थी, वह उन्होंने नहीं की। कोलंबिया जैसे छोटे से देश ने इजराइल से सारे संबंध तोड़ लिए लेकिन ईरान को छोड़कर कोई भी मुस्लिम देश यह साहस नहीं दिखा सका। ईरान-इजराइल संबंध कई दशक से नहीं हैं।

25 अक्टूबर को दो घटनाक्रम हुए। जो इस सिलसिले में महत्वपूर्ण हैं। ईरान समर्थित हिजबुल्लाह के प्रमुख सैयद हसन नसरल्लाह ने हमास की टॉप लीडरशिप के साथ बेरूत में बैठक की और इजराइल की ओर से गाजा पर जमीनी हमला होने पर जवाबी कार्रवाई का फैसला हुआ। यानी अगर गाजा के अंदर इजराइली टैंक घुसे तो हिजबुल्लाह, हमास, हूती उसका जवाब देंगे। हालांकि यह अलग बात है कि ये सारे चरमपंथी लड़ाके इजराइल-अमेरिका की ताकत के सामने ठहर नहीं पाएंगे। वक्त पर इसका जवाब मिलेगा। लेकिन जो प्रत्यक्ष है वो यह कि अगर ऐसा हुआ तो तमाम मुस्लिम देशों में वहां की जनता अपनी सरकारों पर कार्रवाई के लिए दबाव बनाएंगी और विद्रोह की स्थिति पैदा हो जाएगी। तमाम मुस्लिम देशों में वहां का अवाम अपनी हुकूमत पर हमास की खुलकर मदद करने और इजराइल से संबंध तोडऩे की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं। इस तरह पूरे मिडिल ईस्ट की शांति व्यवस्था भंग हो सकती है। इसमें सबसे ज्यादा सऊदी अरब और बहरीन डरे हुए हैं, क्योंकि वहां की जनता पहले भी अपनी हुकूमत के खिलाफ दूसरे मुद्दों पर सड़कों पर आ चुकी है।

मुस्लिम देश समझदारी से काम ले रहे हैं। इसलिए वे मिडिल ईस्ट की शांति भंग करने को बहुत ज्यादा उत्सुक नहीं हैं। लेकिन अगर उनका रवैया ऐसा ही ढीलाढाला रहा तो इजराइल गाजा के और हिस्सों पर कब्जा कर लेगा और फिलिस्तीन का नक्शा एक बार फिर बदल जाएगा। इसलिए मुस्लिम देशों को समझदारी के साथ-साथ इजराइल को सबक सिखाने के लिए कुछ न कुछ कदम तो उठाना ही चाहिए। इसमें ईरान ने जो आर्थिक नाकेबंदी का जो प्रस्ताव पेश किया था, वो ज्यादा बेहतर था। उसके दूसरे चरण में इजराइली राजदूतों को पश्चिम एशिया के सभी देशों से हटाने की कार्रवाई होनी थी। बहरहाल, ईरान का प्रस्ताव ठंडे बस्ते में है। इन सारे हालात में सऊदी अरब सबसे ज्यादा घाटे में रहने वाला है। क्योंकि वहां की जनता यह मानती है कि आल-ए-सऊद खानदान अमेरिका परस्त हैं। उनकी सारी दौलत अमेरिकी बैंकों में रखी हुई है या फिर वहां की कंपनियों में निवेश है। सऊदी अरब में मामूली चिंगारी भी खतरनाक साबित हो सकती है। इस युद्ध के बाद दुनिया में जहां-जहां भी मुस्लिम रहते हैं, उनमें अमेरिका और सऊदी अरब को लेकर गलत संदेश गया है।

हिजबुल्लाह और हमास नेताओं की 25 अक्टूबर की मुलाकात के दिन तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयिब इर्दोगान ने वहां की संसद में बहुत महत्वपूर्ण बयान दिया। राष्ट्रपति इर्दोगान ने कहा, ”तुर्की हमास को आतंकी संगठन नहीं मानता वह फिलिस्तीन के लोगों के लिए लड़ रहा है। तुर्की पूरी तरह से हमास के समर्थन में है। मैं इजराइल की यात्रा पर इस युद्ध से पहले जाने वाला था लेकिन अब मैं इजराइल नहीं जाऊंगा।ÓÓ

तुर्की के राष्ट्रपति का यह बयान युद्ध के 19वें दिन आया है। लेकिन महत्वपूर्ण है। क्योंकि शुरुआत में तुर्की ने जब अनुकूल प्रतिक्रिया नहीं दी तो उसे लेकर तमाम संशय उठ रहे थे। यहां यह साफ करना जरूरी है कि हिजबुल्लाह, हमास और हूती, संयुक्त राष्ट्र, इजराइल और अमेरिका सहित उसके पिछलग्गू देशों के लिए आतंकी संगठन घोषित हैं। लेकिन हिजबुल्लाह लेबनान की सुरक्षा करता है और वहां की ईसाई सरकार में शामिल है। इसी तरह हमास फिलिस्तीनियों के लिए खड़ा होता है और गाजा पट्टी में वह प्रशासन संचालित करता है। इसी तरह हूती भी यमन में सऊदी अरब-अमेरिका समर्थक शासक को उखाड़ फेंकने के बाद सत्ता में आए हैं।

 

पहला नकबा और इजराइल का उदय

2 नवंबर, 2023 बहुत दूर नहीं है। उस दिन जायोनी आंदोलन को अपना देश मिला था। इसे बाल्फोर घोषणा भी कहा जाता है, जिसे जायोनिस्ट यानी अल्ट्रा इजराइली राष्ट्रवादी हर साल त्यौहार के रूप में, जीत के रूप में मनाते हैं। बाल्फोर घोषणा 2 नवंबर, 1917 के जरिए ही इजराइल नामक देश को अमली जामा पहनाया गया था। 2 नवंबर 1917 फिलिस्तीनी लोगों की जिन्दगी को हमेशा के लिए एक नासूर दे गया।

ब्रिटेन ने 1917 में ओटोमन साम्राज्य की सेना के साथ खूनी लड़ाई के बाद फिलिस्तीन पर कब्जा कर लिया और इजराइल राज्य की स्थापना के लिए काम शुरू कर दिया। इतिहास ने दर्ज किया है कि 2 नवंबर, 1917 की घोषणा में, तत्कालीन ब्रिटिश विदेश सचिव आर्थर बाल्फोर ने लॉर्ड लियोनेल वाल्टर रोथ्सचाइल्ड – जो उस समय जायोनी आंदोलन के नेता थे – से कहा कि ब्रिटिश सरकार ”फिलिस्तीन में एक देश की स्थापना के पक्ष में विचार कर रही है। यह यहूदी लोगों का अपना देश होगा।ÓÓ

यहां रेखांकित करना गैर जरूरती नहीं होगा कि ये वही रोथ्सचाइल्ड हैं जिनका परिवार रोथ्सचाइल्ड बैंकर के रूप में पूरी दुनिया में मशहूर है। दुनिया में कहीं भी सरकारी या निजी बैंक जब खुलते हैं तो उनमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में रोथ्सचाइल्ड परिवार का हाथ होता है। यानी दुनिया की बैंकिंग पर रोथ्सचाइल्ड का कब्जा बरकरार है। यह यहूदी परिवार आज भी अमेरिका की सत्ता को बैंकिंग व्यवस्था पर अपने कब्जे के जरिए प्रभावित करता है। अगर तमाम अपुष्ट कहानियों पर यकीन किया जाए तो उसके मुताबिक दुनिया में जो नई विश्वव्यवस्था (वर्ल्ड ऑर्डर) बन रही है, उसके पीछे रोथ्सचाइल्ड परिवार है। लेकिन इस कहानी की पुष्टि के लिए तथ्य नहीं हैं। इसलिए इसे यहीं छोड़ते हैं। फिर भी एक बात साफ हो गई की जिस जायोनी आंदोलन से इजराइल देश हासिल हुआ है, उस आंदोलन का अगुआ रोथ्सचाइल्ड परिवार है।

जायोनी आंदोलनकारियों को ही जायोनिस्ट कहा जाता है। जायोनिस्ट या जायोनिज्म की पूरी विचारधारा अंध राष्ट्रवाद है। जर्मनी में जिस हिटलर के नाजी आंदोलन के खिलाफ जिन यहूदी राष्ट्रवादियों ने जायोनी आंदोलन शुरू किया था, बाद में वह स्वयं नाजी जैसे आंदोलन में बदल गया है। गाजा में जो कुछ हो रहा है, क्या वो किसी नाजीवाद से कम है?

2 नवंबर 1917 को जब बाल्फोर ने यह घोषणा की थी तो उसमें एक महत्वपूर्ण पंक्ति थी: ”ब्रिटिश सरकार वादा करती है कि ऐसा कुछ भी नहीं किया जाएगा जो फिलिस्तीन में मौजूदा गैर-यहूदी समुदायों के नागरिक और धार्मिक अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है…।ÓÓ लेकिन इजराइल की जायोनिस्ट सरकार आज गाजा में बाल्फोर घोषणा के खिलाफ काम कर रही है।

खैर, फिलिस्तीन के इतिहास पर लौटते हैं। 1917 में यह साफ हो गया था कि अलग इजराइल देश के लिए तैयारी शुरू हो गई है। बाल्फोर घोषणा की चर्चा उस समय कोई नहीं करता था। लेकिन फिलिस्तीन के लोग उस घोषणा के वादों को टूटता हुआ देख रहे थे। 1948 में ब्रिटेन फिलिस्तीन से चला गया और जायोनी समूहों ने फिलिस्तीनी लोगों की जमीनों पर कब्जा करना शुरू कर दिया। उन्होंने हजारों फिलिस्तीनियों को उनकी जमीनों से भगा दिया और इजराइल देश की घोषणा की। इसी को फिलिस्तीनी लोग ‘नकबाÓ बोलते हैं। यह पहला नकबा था। नकबा यानी किसी को उजाडऩा, दर बदर कर देना।

इस तरह 1948 में ऐतिहासिक फिलिस्तीन का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा इजराइली नियंत्रण में आ गया, जबकि पड़ोसी जॉर्डन ने फिलिस्तीनी वेस्ट बैंक पर नियंत्रण कर लिया और गाजा पट्टी मिस्र (इजिप्ट) प्रशासन के तहत आ गई।

इस दौरान इजराइल की कब्जे की कार्रवाई जारी रही। 1967 में, इजराइल ने पूर्वी येरुशलम, मिस्र के सिनाई प्रायद्वीप के साथ गाजा पट्टी और सीरियाई गोलान हाइट्स सहित वेस्ट बैंक पर कब्जा कर लिया। दरअसल, 1967 में मिश्र और सऊदी अरब ने इजराइल पर हमला किया था। लेकिन इजराइल उस युद्ध में इन देशों पर भारी पड़ा।

अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ा तो 1993 में इजराइल ने फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (पीएलओ) के साथ ओस्लो में समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के तहत वेस्ट बैंक (जेरूशलम को छोड़कर) और गाजा पट्टी के मुख्य शहरों को फिलिस्तीनी राष्ट्रीय प्राधिकरण को सौंप दिया गया। बाद में वहां चुनाव हुए तो हमास एक बड़ी पार्टी के रूप में उभरा। दूसरी पार्टी फतह पार्टी कहलाती है। हमास को यूएन, अमेरिका-इजराइल खेमा आतंकवादी गुट मानता है लेकिन फिलिस्तीनी लोगों का कहना है कि हमास ही उनकी भावनाओं का नेतृत्व करता है।

 

एक ऐतिहासिक माफीनामा

1917 में द गार्जियन ब्रिटेन का प्रमुख अखबार था और ब्रिटेन की सरकार तक उसकी आलोचना को गंभीरता से लेती थी। 1917 में गार्जियन ने बाल्फोर घोषणा का जबरदस्त समर्थन किया था और ब्रिटिश हुकूमत के साथ खड़ा था। लेकिन वक्त बीतता रहा। इजराइल के कब्जे की कार्रवाई गाजा में बढ़ती जा रही थी। 7 मई 2021 को उसी गार्जियन अखबार ने बाल्फोर घोषणा का समर्थन करने के लिए माफी मांगी, खेद जताया। यानी सौ साल बाद एक अखबार को अपनी गलती का एहसास हुआ। गार्जियन ने लिखा, ”1917 के गार्जियन ने बाल्फोर घोषणा का समर्थन किया, जश्न मनाया और यहां तक कि कहा जा सकता है कि इसने इसे सुविधाजनक बनाने में मदद की।ÓÓ यह भी कहा कि तत्कालीन संपादक, सीपी स्कॉट, जायोनीवाद के समर्थन के कारण फिलिस्तीनी अधिकारों के प्रति ‘अंधेÓ हो गए थे। यानी तत्कालीन संपादक ने फिलिस्तीन लोगों के अधिकार के बारे में जरा भी नहीं सोचा, जो वहां के मूल बाशिंदे थे। अपने माफीनामे में गार्जियन ने लिखा: ”और कुछ भी कहा जा सकता है, इजराइल आज वह देश नहीं है जिसका गार्जियन ने अनुमान लगाया था या उस समय चाहता रहा होगा।ÓÓ

अखबार का यह माफीनामा इतिहास में दर्ज है और बहुत पुराना इतिहास नहीं है। भारतीय मीडिया और उसके कुछ ढपलीबाज संपादक, एंकर, पत्रकार खोजकर इस घटना के बारे में पढ़ लें। क्या भारत के किसी अखबार का संपादक या चैनल गार्जियन जैसा साहस दिखा सकता है। भारत में तो असंख्य घटनाएं हैं, जिनके लिए भारत के दरबारी और भजनिए पत्रकारों/एंकरों को माफी मांगनी चाहिए। कोरोनाकाल, बाबरी मसजिद पर अदालत का फैसला, पुलवामा हमला, निष्पक्ष मीडिया और समुदाय विशेष पर दमनचक्र आदि …। फेहरिस्त लंबी है।

 

क्या मिट जाएगा फिलिस्तीन..

इस साल दो नवंबर को बाल्फोर घोषणा की वर्षगांठ ऐसे समय में आई है जब फिलिस्तीनी अब तक के सबसे बड़े नाजी जैसे नरसंहार का सामना कर रहा है। दरअसल, जिस होलोकास्ट (जनसंहार) की बात यहूदी करते रहे हैं, पूरे फिलिस्तीन के लिए वह यही ‘होलोकास्टÓ है। जर्मनी में जब हिटलर ने यहूदियों का बड़े पैमाने पर नरसंहार किया तो जायोनिस्टों ने उसे होलोकास्ट नाम दिया था।

इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने सात अक्टूबर को कहा था कि वह हमास को खत्म करने की कसम खाते हैं, लेकिन नेतन्याहू यह भूल गए कि हमास फिलिस्तीनी लोगों को जायोनिस्टों के कब्जे से आजाद करने की विचारधारा का नाम है। विचारधारा कभी खत्म नहीं होती। पूरी दुनिया में कम्युनिस्ट विचारधारा को मिटाने की कोशिश हुई, सोवियत संघ खंड-खंड हो गया लेकिन कम्युनिस्ट विचारधारा आज भी जिंदा है।

 

जायोनीवाद का जन्म

इस लेख में बार-बार जायोनीवाद और जायोनिज्म का जिक्र आया है। इजराइल का फिलिस्तीनी लोगों के साथ जो संघर्ष चल रहा है, उसका इससे गहरा संबंध है। जैसा कि कहा जा चुका है, बाल्फोर घोषणा के समय तत्कालीन ब्रिटिश विदेश सचिव आर्थर बाल्फोर को लॉर्ड लियोनेल वाल्टर रोथ्सचाइल्ड ने अलग इजराइल देश बनाने की सलाह दी थी। बैंकर रोथ्सचाइल्ड जायोनीवाद का सबसे बड़ा अगुआ था। बहरहाल, मौजूदा दौर के तमाम इजराइली इतिहासकार इस युद्ध से सहमत नहीं हंै। जैसे ही सात अक्टूबर को इजराइल ने घिरे गाजा पर युद्ध की घोषणा की, पश्चिमी देश अपने पसंदीदा मध्य पूर्वी देश इजराइल के पीछे एकजुट हो गए। सबसे उत्साहपूर्ण समर्थन ब्रिटेन और अमेरिका से मिला। हालांकि अन्य पश्चिमी देशों ने भी इजराइल के प्रति फौरन सहानुभूति और समर्थन दिखाया, लेकिन ब्रिटेन का समर्थन अलग तरह का था। बाद में ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋ षि सुनाक ने इजराइल का युद्ध के दौरान दौरा भी किया। सुनाक भारतीय मूल के दक्षिणपंथी नेता हैं। बेंजामिन नेतन्याहू भी दक्षिणपंथ के प्रबल समर्थकों में हैं।

दरअसल, इजराइल केवल ब्रिटेन का सहयोगी नहीं है। यह ब्रिटिश पैदाइश है। मौजूदा दौर के इजराइली इतिहासकार इलान पप्पे का तर्क है कि जायोनीवाद वास्तव में एक ऐतिहासिक ईसाई प्रक्रिया का परिणाम है, यह उस यहूदीवाद के खिलाफ है, जो यूरोप में पला-बढ़ा था। अमेरिका और ब्रिटेन बेशक खुद को नस्लवाद के खिलाफ मानते हैं, लेकिन उनका इस्लाम विरोधी रवैया अपने आप में बताता है कि पश्चिमी देश आज इस्लाम के संबंध में क्या राय रखते हैं। जायोनीवाद या जायोनिज्म का पूरा प्रोजेक्ट इस्लाम विरोध के इर्द-गिर्द घूमता है। फिलिस्तीनी चूंकि इस्लाम को मानने वाले हैं तो जायोनीवाद का पूरा प्रोजेक्ट कट्टरपंथी यहूदी या जायोनिस्ट उसे परवान चढ़ा रहे हैं। इलान पप्पे कहते हैं- जायोनीवाद ने ही 1948 के नकबा को जन्म दिया। यह फिलिस्तीनियों को उनकी जमीन से उजाडऩे की औपनिवेशिक परियोजना थी। यह जातीय सफाया आज भी जारी है, और मूल रूप से पश्चिम में एक मजबूत गठबंधन ने फिलिस्तीनियों को बेदखल करने के लिए बुनियादी ढांचा मुहैया कराया था। उनके अनुसार यह आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता है कि जायोनीवाद मूल रूप से एक ईसाई परियोजना थी।

जायोनीवाद की इस वंशावली को आमतौर पर अनदेखा कर दिया जाता है जब इतिहासकार इस बात पर विचार करते हैं कि आखिर ब्रिटेन ने फिलिस्तीन को उपनिवेश बनाने और वहां एक यहूदी राज्य बनाने की यहूदी जायोनी परियोजना का समर्थन करने का फैसला क्यों किया। वे ये काम अपनी किसी भी कॉलोनी में कर सकते थे। 1917 से हो रही घटनाओं को इस संदर्भ में देखें तो ब्रिटिश हुकुमतों ने जायोनिज्म की सफलता के लिए काम किया।

इतिहासकार इलान पप्पे लिखते हैं, और भी ऐसे कई कारण थे जिन्होंने जायोनीवाद की सफलता और नवगठित जायोनी देश इजराइल को अंतर्राष्ट्रीय समर्थन दिलाया। होलोकास्ट, जर्मनी में यहूदियों के नरसंहार का पश्चिमी अपराधबोध, इस्लामोफोबिया, पूंजीवादी और उद्योगपति समर्थक अमेरिकी समर्थन, सभी ने जायोनीवाद और इजराइल को मजबूत बनाने में अपनी भूमिका निभाई। उन के अनुसार यह सब कुछ एक रिले रेस की तरह है, जिसमें अंतिम दौडऩे वाले अपने आगे वाले को बैटन थमा देते हैं। जायोनीवाद सत्तर साल की ब्रिटिश जद्दोजेहद का नतीजा है। नकबा यानी 1948 की फिलिस्तीनी तबाही, सिर्फ फिलिस्तीन पर कब्जा करने के ब्रिटेन के फैसले का नतीजा नहीं था, बल्कि फिलिस्तीन को एक जायोनी राज्य बनाने का फैसला था।

इलान पप्पे के बारे में यहां थोड़ी-सी जानकारी देना जरूरी है। इलान पप्पे एक्सेटर यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं। वह पहले हाइफा यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के वरिष्ठ प्रोफेसर थे। द एथनिक क्लींजिंग ऑफ फिलिस्तीन (फिलिस्तीन की नस्ली सफाई) उनकी मशहूर किताब है। द मॉडर्न मिडिल ईस्ट, ए हिस्ट्री ऑफ मॉडर्न फिलिस्तीन:वन लैंड, टू पीपल्स, और टेन मिथ्स अबाउट इजराइल भी उन्होंने लिखी हैं। पप्पे को इजराइल के ‘नए इतिहासकारोंÓ में खास दर्जा हासिल है। पश्चिम एशिया के तमाम प्रकाशनों में उनके लेख प्रकाशित होते रहते हैं।

 

इजराइल-अमेरिका का हथियार उद्योग

अमेरिका और इजराइल में सबसे बड़ी हथियार लॉबी है। हर युद्ध अमेरिका और इजराइल की कंपनियों को फायदा पहुंचाता है। कोरोना हो या युद्ध, मुनाफा कमाने की साम्राज्यवादी सोच इसके पीछे काम करती है। अमेरिका में अधिकांश हथियार कंपनियों के मालिक यहूदी हैं या फिर किसी न किसी प्रकार से वे कंपनियां किसी न किसी यहूदी समूह से जुड़ी हुई हैं। इसी तरह इजराइल की हथियार कंपनियां कई देशों में सरकारों तक को प्रभावित कर रही हैं। इजराइल के मौजूदा प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू हथियार लॉबी के सबसे बड़े खैरख्वाह हैं। भारत में पेगासस स्पाईवेयर को लोग शायद भूल गए हैं। पेगासस सॉफ्टवेयर का निर्माण इजराइल की कंपनी एनएसओ करती है। पेगासस को भारत में कई विपक्षी नेताओं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के मोबाइल और कंप्यूटर में डालकर उनकी जासूसी की गई। पेगासस भारत में बेंजामिन नेतन्याहू के जरिए पहुंचा था। इस जासूसी साफ्टवेयर को दुनिया के उन देशों को बेचा गया, जहां सत्तारूढ़ पार्टी विपक्षी नेताओं और विरोधियों पर नजर रखना चाहती हैं। भारत में पेगासस का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। अदालत इस मामले में केंद्र सरकार की जवाबदेही तय नहीं कर सकी। जबकि कोई भी विदेशी हथियार या ऐसा सॉफ्टवेयर बिना सरकारी अनुमति भारत में इस्तेमाल नहीं हो सकता है।

अमेरिकी दैनिक न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट बताती है कि 2022 तक, दुनिया के हथियारों के निर्यात का अनुमानित 45 फीसदी अमेरिका नियंत्रित कर रहा था या इस पर उसका कब्जा था। जो किसी भी अन्य देश की तुलना में लगभग पांच गुना अधिक था। इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार अमेरिकी सैन्य विभाग पेंटागन ने अमेरिकी कांग्रेस यानी वहां की संसद को सूचित किया है कि साल 2023 के पहले नौ महीनों में $90.5 बिलियन से अधिक हथियारों की बिक्री हो गई है, जो पिछले दशक की तुलना में लगभग $65 बिलियन के वार्षिक औसत की गति से अधिक है। ये सारे हथियार सरकार से सरकार के बीच बेचे गए हैं यानी अमेरिका ने उन देशों की सरकारों को बेचा है। यूक्रेन इन में नंबर एक पर है।

यूक्रेन-रूस युद्ध अभी भी जारी है। अमेरिका ने इजराइल-हमास युद्ध शुरू होने के बाद कहा है कि अमेरिका और उसके सहयोगी देश दोनों युद्ध में मदद करने की ताकत रखते हैं। अब आप इस बयान के निहितार्थ लगाते रहिए। पोलैंड जैसे देश ने यूक्रेन-रूस युद्ध के बाद बड़े पैमाने पर अमेरिका से हथियार खरीदे हैं। रूस के नजदीक आसपास जितने भी नाटो सदस्य देश या अमेरिकी खेमे के देश हैं, वहां हथियारों की खरीद बढ़ गई है। समझा जा सकता है कि यह सब क्यों हो रहा है और किस लिए हो रहा है।

 

हथियारों के बारोबार में इजराइल

इसी तरह इजराइल के हथियारों का कारोबार नई ऊंचाइयां छू रहा है। ब्रितानवी समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने बताया है कि इजराइली रक्षा मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2022 में इजराइली हथियारों की बिक्री 12.5 बिलियन डॉलर के नए रिकॉर्ड पर पहुंच गई। अधिकारियों ने यूक्रेन पर रूस के युद्ध के कारण इजराइल निर्मित हथियारों की मांग और हाल ही में इजराइल के साथ संबंध सामान्य करने वाले अरब देशों की रुचि में बढ़ोतरी पर ध्यान दिया। हालांकि गाजा पर ताजा हमले के बाद अरब देश इजराइल के खिलाफ हो गए हैं। ड्रोन और एयर डिफेंस सिस्टम में इजराइल बाजी मार रहा है। भारत में सेना इजराइल के एयर डिफेंस सिस्टम का इस्तेमाल कर रही है। एशिया में इजराइल के हथियार सबसे ज्यादा बिकते हैं, जो कुल बिक्री का 30 फीसदी हैं। यूरोप में 29 फीसदी, अब्राहम समझौते वाले देशों में 24 फीसदी हथियार इजराइल के बिकते हैं। उत्तरी अमेरिका में 11 फीसदी हथियार इजराइल के बिकते हैं। अब्राहम समझौते वाले देशों में सऊदी अरब, बहरीन, यूएई, सूडान वगैरह हैं। लेकिन गाजा पर हमलों के बाद इन देशों ने इजराइल से सारा कारोबार फिलहाल रद्द कर दिया है।

हाल ही में अमेरिका ने इजराइल को हमास से युद्ध को देखते हुए करीब सौ अरब डॉलर की मदद करने के लिए अमेरिकी संसद से अनुमति मांगी है। अमेरिका की घोषणा के बाद रूस ने युद्ध को एक स्मार्ट निवेश बताया है। रूस ने यह बात यूक्रेन और इजराइल को अमेरिकी मदद के संदर्भ में कही। लेकिन अगर हथियार बिक्री के आंकड़ों को देखें तो यह भयावह सच सामने आता है। यूक्रेन इस समय हथियार खरीदने का सबसे बड़ा ग्राहक है। रूस ने कहा कि अमेरिका और यूरोपीय देश एक भी युद्ध अपने क्षेत्र या अपनी धरती पर नहीं लड़ रहे हैं। सभी युद्ध उन क्षेत्रों में हुए हैं या हो रहे हैं, जहां इनके हथियार बिकते हैं।

 

भारत का रवैया

इजराइल-हमास युद्ध में भारत की अजीबोगरीब स्थिति है। सात अक्टूबर को जब हमास ने हमला किया, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फौरन ट्वीट करके हमले की निन्दा कर दी और लिखा कि भारत इजराइल के साथ इस दुख की घड़ी में खड़ा है। मोदी की पूरी प्रतिक्रिया एकतरफा थी। तब तक अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की थी। लेकिन भारतीय विदेश मंत्रालय ने अगले ही दिन बयान देकर बता दिया कि सरकार में तालमेल का कितना अभाव है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने साफ शब्दों में कहा कि फिलिस्तीन में बेगुनाह लोगों का खून नहीं बहाया जाना चाहिए। भारत फिलिस्तीन को एक संप्रभु राष्ट्र मानता है। फिलिस्तीन समस्या का हल निकाला जाना चाहिए। दो देश (टु नेशन) ही इस समस्या का हल है। इसके बाद 17 अक्टूबर की घटना हो गई। गाजा के अस्पताल पर बमबारी में 500 लोगों के मारे जाने के बाद प्रधानमंत्री का दिल भी पसीजा और उन्होंने अपने पिछले बयान को एकदम से भूलते हुए नया बयान दिया। फौरन फिलिस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास से बात की। पीएम मोदी गाजा के अल अहली अस्पताल में नागरिकों की हत्या पर अपनी संवेदना व्यक्त की। मोदी ने यह भी कहा कि हम फिलिस्तीनी लोगों के लिए मानवीय सहायता भेजना जारी रखेंगे। क्षेत्र में आतंकवाद, हिंसा और बिगड़ती सुरक्षा स्थिति पर अपनी गहरी चिंता साझा की। उन्होंने इजराइल-फिलिस्तीन मुद्दे पर भारत की लंबे समय से चली आ रही सैद्धांतिक स्थिति को दोहराया। इसके बाद भारत ने 22 अक्टूबर को 6.2 टन मेडिकल सहायता और 32 टन राहत सामग्री गाजा यानी फिलिस्तीन के लोगों के लिए रवाना कर दी।

प्रधानमंत्री मोदी के दूसरे ट्वीट और 22 अक्टूबर को राहत सामग्री भेजने से साफ हो गया कि फिलिस्तीन को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, डॉ मनमोहन सिंह की जो नीति रही है, भारत वही नीति जारी रखेगा। बेशक इजराइल के हैफा में अडाणी पोर्ट बन रहा हो या इजराइल भारत में अडाणी की कंपनियों में निवेश कर रहा हो। भारत की विदेश नीति अडाणी के लिए नहीं बदलेगी। भारत के लिए यही बेहतर भी है। क्योंकि जिस तरह से एशियाई देशों में अमेरिका अपनी नीतियों को चीन के खिलाफ लागू करना चाहता है, उसमें उसे भारत की जरूरत है। जबकि रूस-चीन गठजोड़ अमेरिका, इजराइल और बाकी साम्राज्यवादी देशों के हस्तक्षेप को एशिया में रोकना या सीमित करना चाहता है। संक्षेप में एक और झटके का जिक्र जरूरी है। दिल्ली में सितंबर में जब जी20 सम्मेलन हुआ तो उसमें भारत-अरब-इजराइल-यूरोप कॉरिडोर को लेकर एक समझौता हुआ। इसमें भारत और सऊदी अरब मुख्य भागीदार थे। इस कॉरिडोर के जरिए सड़क और रेल मार्ग भारत से यूरोप तक जाना था। जिसमें बीच में सऊदी अरब और इजराइल की भी भूमिका थी। यह पूरा मामला भारत के उद्योग जगत से लेकर सऊदी अरब के युवराज के निवेश और इजराइल के सामरिक महत्व से जुड़ा था। लेकिन यह डील अब ठंडे बस्ते में चली गई है। यह भारत के लिए झटका है।

संभवत: इसमें पश्चिम एशिया के देशों से व्यापारिक संबंध भी महत्वपूर्ण हैं और उन में भी तेल के कारोबार को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। n

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‘मनुस्मृति’ में सवर्ण स्त्री https://www.samayantar.com/%e0%a4%ae%e0%a4%a8%e0%a5%81%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a5%83%e0%a4%a4%e0%a4%bf-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b8%e0%a4%b5%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%a3-%e0%a4%b8%e0%a5%8d/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%ae%e0%a4%a8%e0%a5%81%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a5%83%e0%a4%a4%e0%a4%bf-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b8%e0%a4%b5%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%a3-%e0%a4%b8%e0%a5%8d/#respond Sat, 04 Nov 2023 07:26:11 +0000 https://www.samayantar.com/?p=1116 इस लेख का उद्देश्य मुख्यत: 'सवर्ण-स्त्रियों के व्यभिचार’ के आरोप पर मंथन करना है, न कि सवर्ण-पुरुषों, निम्नवर्णीय-स्त्रियों और पुरुषों के व्यभिचार पर। क्योंकि सवर्ण-पुरुषों का किसी भी तथाकथित उच्च या निम्नवर्णीय-स्त्रियों से व्यभिचार ब्राह्मण-विधान के अनुसार 'व्यभिचार’ नहीं, उनका 'विशेषाधिकार’ था।

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– कनक लता

इस लेख का उद्देश्य मुख्यत: ‘सवर्ण-स्त्रियों के व्यभिचार’ के आरोप पर मंथन करना है, न कि सवर्ण-पुरुषों, निम्नवर्णीय-स्त्रियों और पुरुषों के व्यभिचार पर। क्योंकि सवर्ण-पुरुषों का किसी भी तथाकथित उच्च या निम्नवर्णीय-स्त्रियों से व्यभिचार ब्राह्मण-विधान के अनुसार ‘व्यभिचार’ नहीं, उनका ‘विशेषाधिकार’ था।

 

अभी थोड़े ही समय पहले दो ऐसी फिल्में आई हैं, जिनमें दलितों और सवर्णों के द्वंद्वात्मक-संबंधों को आधार बनाया गया है— ‘दहाड़’ और ‘कटहल’; ‘दहाड़’ में गंभीरतापूर्वक, जबकि ‘कटहल’ में बहुत ही अश्लील और भौंडे तरीके से, एक तरह से दलित-स्त्रियों की हैसियत दिखाते और मजाक उड़ाते हुए। ‘कटहल’ में एक दलित-महिला पुलिस अधिकारी को ब्राह्मण-पुरुष से प्रेम करते दिखाई गया है, जिसे सवर्ण-समाजकेदर्शकों ने बहुत ही सहजता से स्वीकारा है। लेकिन यदि नायक-नायिका की जातियां परस्पर बदल दी जाएं, जिसमें नायक दलित हो और नायिका सवर्ण, तो क्या वत्र्तमान सवर्ण-दर्शक उसे भी इतनी ही सहजता से लेगा?

भारतीय-समाज में वास्तविक धरातल पर तो स्थिति और भी जटिल है, जहां ऐसी दर्जनों घटनाएं पिछले कुछ समय में घटित हुई हैं, जिसमें दलित-लड़की और सवर्ण-लड़के की शादी को, अथवा सवर्ण-लड़की और दलित-लड़के की शादी को नकारते हुए ऐसे जोड़ों की हत्या सवर्णों द्वारा बड़े जोशो-खरोश से की गईं; हालांकि कई बार पहले मामले में छूट दी गई, लेकिन दूसरे मामले में इसे कत्तई बर्दाश्त नहीं किया गया। अल्मोड़ा के दलित-लड़के जगदीश की हत्या पिछले ही साल की बात है। यह अलग बात है कि अपुष्ट जानकारी के अनुसार आरएसएस द्वारा सवर्णों को गुप्त रूप से यह निर्देश-सा दिया गया है कि सिविल सेवा और अन्य प्रतिष्ठित, ताकतवर एवं मोटे वेतन वाले पदों पर चयनित होने वाले दलित लड़के-लड़कियों की शादी सवर्ण लड़के-लड़कियों से करके उनको उनके अपने समाज में जाने से रोक दिया जाए, अन्यथा उनके कारण उनके समाज में और भी तेजी से बदलाव आएंगे, जिसे रोकने के लिए उनको उनके समाज से यथासंभव दूर रखना जरूरी है।

लेकिन एक सामान्य दलित-लड़के का प्रेम और विवाह सवर्ण-लड़की से होना सवर्ण-समाज को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं हो पाता है, जिसकी बेहद ठोस आधार शिला दो हजार साल से भी पहले दूसरी सदी ईसापूर्व में पुष्यमित्र शुंग के संरक्षण में मनु ने ‘मनुस्मृति’ में रखी थी, जिसे आनेवाले समय में औशनवस्मृति, बौधायनस्मृति, वशिष्ठस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति, स्कंदपुराण आदि ने और आगे बढ़ाया1।

 

सवर्ण-स्त्रियों के व्यभिचारिणी होने का सवाल

इस लेख का उद्देश्य मुख्यत:’सवर्ण-स्त्रियों के व्यभिचार’ के आरोप पर मंथन करना है, न कि सवर्ण-पुरुषों, निम्नवर्णीय-स्त्रियों और पुरुषों के व्यभिचार पर। क्योंकि सवर्ण-पुरुषों का किसी भी तथाकथित उच्च या निम्नवर्णीय-स्त्रियों से व्यभिचार ब्राह्मण-विधान के अनुसार ‘व्यभिचार’ नहीं, उनका ‘विशेषाधिकार था। इसलिए ‘अनुलोम-विवाह’, जिसकी अनुमति मनु और अन्य ब्राह्मणों ने दी थी, केअनुसार ताकतवर सवर्ण-पुरुष अपना भय दिखाकर अपने से निम्न किसी भी वर्ग, जाति या समाज की कन्या से जबरन या कभी-कभी प्रेमपूर्वक भी (जो इक्का-दुक्का ही होते होंगे) यौन-संबंध बना सकता था। अत: निम्नवर्णीय वंचित-स्त्रियों का स्वेच्छा से सवर्ण-पुरुषों के साथ व्यभिचार में शामिल होने का सवाल ही नहीं उठता, उनकी जातीय-स्थिति के कारण सवर्ण-पुरुषों द्वारा उन पर केवल बलात्कार ही स्वाभाविक लगता है। जहां तकवंचित-पुरुषों के सवर्ण-स्त्रियों से व्यभिचार का प्रश्न है, तो क्या शूद्रवर्णीय-पुरुष इतना साहस कर सकता था कि वह सवर्ण-स्त्रियों, उनमें भी ब्राह्मण-स्त्री, से प्रेम कर सके? क्या उनके ऐसे अपराधों के लिए सनातनी-धर्मग्रंथों में अत्यंत कठोर दंड का प्रावधान नहीं होगा? शायद मृत्युदंड? और जब शूद्रोंकी यह हालत थी, तब कैसे संभव है कि दलित-अन्त्यज और आदिवासी-समाज का कोई भी पुरुष किसी भी ब्राह्मण या सवर्ण-स्त्री के साथ प्रेम करने और यौन-संबंध बनाने का दुस्साहस करता होगा; वह भी तब, जब सवर्णों के गांवों-नगरों में प्रवेश की मनाही के कारण वे सवर्ण-स्त्रियों के घरों तक किसी भी तरह नहीं पहुंच सकते थे?

इसलिए आदिवासी, दलित और शूद्र-समाजों के स्त्री-पुरुषों का स्वयं आगे बढ़कर सवर्ण स्त्री-पुरुषों से प्रेम करना लगभग असंभव था। लेकिन यह भी सत्य है कि ‘प्रतिलोम’ यौन-संबंध बने थे और ब्राह्मण-ग्रंथकारों ने कहा कि ऐसे संबंधों से नई-नई सैकड़ों वंचित-जातियां पैदा हुईं। तब जो प्रश्न हमारे सामने खड़े होते हैं, उनमें से एक तो यही कि क्या सवर्ण-स्त्रियां स्वयं ही सारे बंधनों को तोड़कर अपने-अपने घरों की दहलीज पार कर शूद्र, अछूत-अन्त्यज तथा आदिवासी-पुरुषों के संपर्क में आईं?

मनुस्मृति सहित औशनवस्मृति, बौधायनस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति, वशिष्ठ स्मृति, स्कंद पुराण आदि जैसे पचासों ब्राह्मण-ग्रन्थों में ‘अनुलोम-विवाह’ के साथ-साथ ‘प्रतिलोम-विवाह’ की बड़े पैमाने पर मौजूदगी से तो यही निष्कर्ष निकलता है2। जब मनुसे भी पहले से शैवों, शाक्तों, बौद्धों के यहां और मनुके लगभग 8-9 सदी बाद वज्रयानी-बौद्ध-सिद्धों ( 7वीं-8वीं से 12वीं-13वीं सदी) की बात करते हुए आधुनिक विद्वान् बहुत दबे-ढंके रूप में व्यंग्य से अवर्ण-स्त्रियों के साथ-साथ सवर्ण-स्त्रियों के भी ब्राह्मण-व्यवस्थाओं के खिलाफ विद्रोह स्वरूप वंचित-पुरुषों से यौन-संबंधों की बात करते हैं, तो संदेह की गुंजाइश भी बहुत कम रह जाती है—”ऊंच-नीच कई वर्ण की स्त्रियों को लेकर मद्यपान के साथ अनेक वीभत्स विधान वज्रयानियों की साधना के प्रधान अंग थे।‘’ 3 ‘वीभत्स विधान’ अर्थात ‘यौन-संबंध’ अकारण तो नहीं है कि सवर्ण-स्त्रियों के इस विद्रोही रुख से ब्राह्मण और उसकी समस्त व्यवस्थाओं की चूलें हिल उठीं, समस्त सवर्ण-समाज त्राहिमाम कर उठा।

तात्पर्य यह कि सवर्ण-स्त्रियों ने सवर्ण-समाज से विद्रोह किया और उनके विधि-विधानों और नियम-कायदों से परेशान होकर उनकी अवहेलना भी की; बेशक जितनी बड़ी संख्या में ये संस्कृत ग्रंथ बता रहे हैं, उतना नहीं, बल्कि सीमित संख्या में। जिसके अनेक प्रमाण इतिहास और ब्राह्मण-ग्रंथों में छिटपुट रूप से बिखरे हुए हैं; जिसमें अनेक ऋषियों, राजाओं, मिथकीय चरित्रों आदि के जन्म बड़े ही बेतुके ढंग से होते हुए बताए गए हैं। उनमें से कोई घड़े में से पैदा हुआ है, कोई सूप से, कोई मछली के पेट से, कोई ओस से, कोई किसी के पसीने से, कोई खीर खाने से, कोई फल खाने से, कोई देवताओं के ‘आशीर्वाद’ से, कोई ऋषियों के ‘आशीर्वाद’ से…आदि। इससे कम-से-कम यह तो साबित होता है कि अनपढ़-जनता को जो बताया जाता रहा है, उसमें से ”सब कुछ विश्वसनीय नहीं’’ था; कुछ तो ऐसा था, जिस पर धर्म का आवरण चढ़ाया जा रहा था।

ब्राह्मणों की समस्या क्या थी?

यदि थोड़ी देर के लिए यह मान लिया जाए कि जो मनु और अन्य ब्राह्मण-ग्रंथकार बताने की कोशिश कर रहे हैं, वही अक्षरश: सच है; अर्थात् वंचित-समाजों की उत्पत्ति सवर्ण-स्त्रियों के बड़े पैमाने पर व्यभिचार से हुई; तब तो यह मानना पड़ेगा कि सवर्ण-स्त्रियों के प्रेम-संबंध बहुत बड़े पैमाने पर भारत के विद्रोही मूलनिवासी-समाजों से बने थे।

इस बात से यह संकेत मिलता है कि ब्राह्मणों को दो स्तरों पर चुनौतियां मिल रही थीं—एक तो अपने ही घरों में अपनी स्त्रियों से; दूसरा, समाज में वंचित-जातियों से। घरों में कैद और सैकड़ों प्रतिबंधों में जकड़ी स्त्रियां अपने विरुद्ध सवर्ण-पुरुषों द्वारा बनाए अमानवीय नियमों का विरोध कर रही थीं, जबकि बाहर सैकड़ों मूलनिवासी-समाज और आर्येत्तर-समाज के लाखों मनुष्य आर्यों के प्रभुता और वर्चस्व को चुनौती देतेहुए उनका सशस्त्र-प्रतिरोध कर रहे थे। स्त्रियों, मूलनिवासियों और आर्येत्तरों का यह प्रतिरोध समय बीतने के साथ लगातार बढ़ता जा रहा था, जिसमें महत्वपूर्ण सहयोग शैवों, शाक्तों, बौद्धों, जैनियों और अन्य ब्राह्मणेत्तर-संप्रदायों से मिल रहा था, सर्वाधिक बौद्धों से।

मनु के समय तक यह चरम पर जा चुका था, अन्यथा पुष्यमित्र शुंग (मनु का संरक्षक) बौद्धों का सिर काटकर लानेवाले को स्वर्ण-मुद्राएं देने की घोषणा नहीं करता। जब ठीकठाक संख्या में स्त्रियां एवं वंचित समाज मिल गए, तो सबसे अधिक ब्राह्मणों को चुनौती मिली, क्योंकि उन दोनों पीडि़त-समाजों को बंधक बनाने के सभी नियम उन्होंने ही बनाए थे।

जिन स्त्रियों को सवर्ण-समाज, सर्वाधिक ब्राह्मण, ने सूर्य की किरणों और हवाओं के स्पर्श तक से भी दूर रखा था और उनके जन्म लेने के साथ ही उनको ‘संस्कारों’ की घुट्टी में निरंतर ‘पतिव्रत-धर्म’, ‘पति-परायणता’, ‘पति-भक्ति’, ‘पति-आज्ञाकारिता’ जैसे अत्यावश्यक ‘सद्गुण’ भरे थे; उन्हीं में से कुछेक स्त्रियां अब प्रतिबंधों को तोड़कर ‘सनातनी-संस्कारों’ के ऊपर पैर रखकर अपने-अपने घरों की दहलीजें लांघकर वंचित-जातीय ‘अन्य पुरुषों’ के साथ यौन-संबंधों की ओर बढ़ रही थीं। जो सवर्ण-स्त्रियां अपनी इच्छा से अपना जीवन तक नहीं जी सकती थीं, जीवन जीना तो दूर, वे अपना भोजन, पहनावा आदि भी स्वेच्छा से तय नहीं कर सकती थीं, उन्हीं स्त्रियों द्वारा अपनी पसंद के पुरुषों से प्रेम करना सनातनी-समाज, उसमें भी ब्राह्मण-वर्ग, कैसे बर्दाश्त करता? भला इससे अधिक ‘कलियुग’ और क्या हो सकता था? उनकी आनेवाली पीढिय़ां अपने ब्राह्मण-पूर्वजों के प्रति तब कैसे सम्मान रख पातीं? दूसरी बात, उन सवर्ण-स्त्रियों से उत्पन्न ‘सवर्ण-संतानों’ के बारे में कैसे निश्चयपूर्वक कहा जा सकता था कि वे उनके अपने पतियों की औरस-संतानें हैं, न कि उनके ‘प्रेमियों’ की?

दूसरी तरफ, समाज में वंचित-जातियां सवर्णों के वर्चस्व को लगातार चुनौती देते हुए उनकी राजनीतिक और सामाजिक-सत्ता को उखाड़ फेंकने की कोशिशें कर रही थीं, अनेक जगहों पर इसमें अच्छी-खासी सफलता भी उन्हें मिल रही थी। मनु के समय तक मौजूद शूद्रवर्णीय-नंदों को पुष्यमित्र शुंग के द्वारा उखाड़ दिए जाने के बावजूद यह निश्चित नहीं था कि कोई और निम्नवर्णीय सत्ता कायम नहीं होगी। इसकेअलावा, वंचित-समाज सवर्णों की स्त्रियों के जरिए उनकी संतानों के रक्त में अपना रक्त मिलाकर उनकी ‘रक्त शुद्धता’ और ‘नस्लीय श्रेष्ठता’ के अहंकार को करारी चोट पहुंचा रहे थे।

वास्तव में यही वह कांटा था, जिससे समस्त सवर्ण-समाज आहत था।

 

 

 

कांटे से कांटा निकालने की कोशिश

उपरोक्त समस्या से मुक्ति हेतु ब्राह्मण-व्यवस्थापकों ने वह रास्ता निकाला, जिससे इन दोनों को एक साथ काबू किया जा सकता था। वह रास्ता था, विद्रोही-मूलनिवासी और आर्येत्तर-समाजों को जानबूझकर ‘अवैध-संबंधों’ और ‘व्यभिचार’ से उत्पन्न ‘वर्णसंकर’ जातियों के रूप में अपने संस्कृत-ग्रंथों में उल्लिखित करना; खासकर सवर्ण-स्त्रियों और निम्न-जातियों के व्यभिचार से उत्पन्न; और स्त्रियों, सवर्ण-स्त्रियों सहित, को ‘अति-कामुक’ और ‘व्यभिचारिणी’ साबित करना। इसके लिए मनु, याज्ञवल्क्य, नारद, वृहस्पति आपस्तंब आदि जैसे ब्राह्मण-ग्रंथकारों ने ‘प्रतिलोम’ संबंधों को अनैतिक, धर्म-विरुद्ध, व्यभिचार-युक्त स्थापित किया और उसके पीछे हाथ धोकर पड़ गए।

लेकिन उन्होंने एक और दांव खेला। उन्होंनेजिस तरह वंचित-जातियों को ‘वर्णसंकर’ और ‘मिश्रित-रक्त’ रूप में प्रचारित-प्रसारित किया, उसी तरह से सवर्ण-स्त्रियों के ‘व्यभिचार’ (जो वास्तव में उनका पितृसत्ता और ब्राह्मण-वर्चस्व से विद्रोह था) में लिप्त होने की बात को संपूर्ण समाज के सामने उजागर नहीं किया, बल्कि बड़ी चतुराई से छिपा लिया, अपनी भावी पीढिय़ों को संकेत-भर देकर, ताकि सवर्ण-स्त्रियों द्वारा सनातनी-पुरुषों की अदम्य-शक्ति और उन पर वर्चस्व की अवहेलना और सनातनी-नियमों की धज्जियां उड़ाने की कथा उनके कालखंड से बाहर न जा सके और अपनी भावी-पीढिय़ों के सामने उनकी ‘इज्जत’ बची रहे। साथ ही, उनके ‘रक्त और नस्ल की शुद्धता’ का भ्रम भी समाज और भावी-पीढिय़ों के सामने कायम रह सके। लेकिन सनातनी-स्त्रियों के ‘व्यभिचार’ में लिप्त होने के संकेत उन्होंने इसलिए अवश्य दिए, ताकिभविष्य में सनातनी-समाज के जागरूक-पुरुष याद रख सकें कि मौका मिलने पर सवर्ण-स्त्रियां भी उनकी व्यवस्थाओं में छेद करने से बाज नहीं आती हैं, इसलिए उनको हर युग में मर्यादाओं के साथ-साथ पिता, भाई, पति, पुत्र की कठोर निगरानी और नियंत्रण में रखना जरूरी है।

 

सैकड़ों जातियां ब्राह्मणों का मारक हथियार

‘अनुलोम-संबंधों’ को स्वीकृति देने के बावजूद मनुस्मृति और अन्य ब्राह्मण-ग्रंथों में जिन सैकड़ों जातियों के जन्म क उल्लेख है, वे ‘अनुलोम’ और ‘प्रतिलोम’ यौन-संबंधों से उत्पन्न बताई गई हैं। जैसे ब्राह्मण स्त्री और शूद्र-पुरुष के संबंध से ‘चाण्डाल’ जाति की उत्पत्ति, ब्राह्मण स्त्री और सूत पुरुष से ‘वेनुक’ जाति, ब्राह्मण स्त्री और वैदेशिका पुरुष से ‘चर्मोपजीवी’, ब्राह्मण-स्त्री और आयोगव-पुरुष से ‘चर्मकार’, ब्राह्मण-स्त्री और निषाद-पुरुष से ‘नापित’/’नाई’, ब्राह्मण-स्त्री और विदेह-पुरुष से ‘रजक’/’धोबी’, ब्राह्मण-स्त्री और माहिष्य-पुरुष से ‘लौहकार’/’लुहार’, ब्राह्मण-स्त्री और चाण्डाल-पुरुष से ‘श्वपाक’ (कुत्ते का मांस खानेवाली जाति) आदि की उत्पत्ति बताई गई है। इसी तरह क्षत्रिय और वैश्य-स्त्रियों से उनसे निम्न-सवर्णों और वंचित-पुरुषों के संबंधों से भी सैकड़ों जातियों की उत्पत्ति होने की बात कही गई है। सवर्ण-पुरुषों के वंचित-समाजों की स्त्रियों से व्यभिचार से भी कई वंचित-जातियों की उत्पत्ति बताई गई है। इससे यह स्थापित होता है कि भारत की वंचित-जातियां (आदिवासी, दलित और शूद्र) यहां की मूलनिवासी नहीं, न ही कोई सम्मानजनक अस्तित्व वाले समाज हैं, बल्कि अलग-अलग जातियों की स्त्रियों के अलग-अलग जातियों के पुरुषों के साथ ‘व्यभिचार और अवैध-संबंधों की पैदाइश’ हैं; यह भी कि इनकी उत्पत्ति आर्यों के भारत आने के बाद हुई है।

इस तरह केवल सैकड़ों जातियों का निर्माण करके विद्रोहिणी-स्त्रियों को ‘व्यभिचारिणी’ साबित कर दिया गया, जबकि वंचित-जातियों को उन स्त्रियों के अवैध-संबंधों और व्यभिचार की पैदाइश। लेकिन कभी भी न तो स्त्रियां, ब्राह्मण-स्त्रियों सहित, और न ही कभी वंचित-समाज ‘मनुस्मृति’ सहित अन्य ग्रंथों में लिखी गई इन अपमानजनक बातों के बारे में जान पाया; क्योंकि उनमें से किसी कोभी संस्कृत-ग्रंथ पढऩे-सुनने की अनुमति नहीं थी। इसलिए यह सच दो हजार सालों तक सामने आने से बचा रहा और ब्राह्मण अपने खेल में सफल हो गया। केवल सवर्ण-पुरुष ही नहीं, स्त्रियां भी आज तक एक-दूसरे के चरित्र को गालियां देने के लिए ‘त्रिया चरित्र’ शब्द का प्रयोग करती हैं; जबकि दूसरी तरफ समाज के अनपढ़ ही नहीं कई अति-शिक्षित लोग भी यही धारणा बनाए बैठे हैं कि वंचित-जातियां ‘वर्णसंकर’ हैं, जिनकी उत्पत्ति स्त्रियों के व्यभिचार से हुई है और केवल ब्राह्मणों का रक्त ही शुद्ध और पवित्र है।

 

वंचित-जातियां : उत्पत्ति का सच

लेकिन जब हम इतिहास और ब्राह्मण-ग्रंथों का तुलनात्मक अध्ययन करते हैं, तो बड़ी ही दिलचस्प बातें पता चलती हैं। संस्कृत-ग्रंथों की ही परस्पर तुलना से पता चलता है कि अलग-अलग ग्रंथकारों ने एक ही जाति की उत्पत्ति के बारे में अलग-अलग बात बताई है; साथ ही एक ही तरह के संबंध से अलग-अलग जातियों की उत्पत्ति भी बताई है—”दो जातियों के मेल से एक तीसरी जाति का उत्पन्न होना तो समझ में आता है, परंतु उन्हीं दो जातियों के मिश्रण से भिन्न-भिन्न संकर जातियां कैसे बन सकती हैं? परंतु मनु और उनके अनुयायी यही कह रहे हैं। ”5 जैसे, क्षत्रिय-पिता और वैश्य-माता की संतान को ‘सूतसंहिता’ (स्कंदपुराण का एक भाग) ‘अम्बष्ठ’ कहती है, जबकि बौधायनस्मृति ‘क्षत्रिय’ और याज्ञवल्क्यस्मृति ‘महिष्य’ कहती है; लेकिन मनुस्मृति ‘अम्बष्ठ’ को ब्राह्मण-पिता और वैश्य-माता की संतान कहती है। दर्जनों जातियों के बारे में ऐसी ही परस्पर-विरोधी बातें कही गई हैं। इनमें से कोई तो गलत जानकरी दे रहे हैं।

अब, जरा इतिहास में देखते हैं। मनुस्मृति और अन्य ब्राह्मण-ग्रंथों में जिन सैकड़ों वर्णसंकर जातियों के नाम बताए गए हैं, उनमें से अधिकांश भारत की मूलनिवासी-जातियों और आर्येत्तर-जातियों (मुख्यत: जो आर्यों के पहले भारत आए)के नाम हैं; जिन्होंने आर्यों के क्रूर अत्याचारों के खिलाफ किसी-न-किसी रूप और अंश में आवाज उठाई, उनके वर्चस्व, खासकर ब्राह्मण-वर्चस्व, को कड़ी चुनौती और टक्कर दी थी। जैसे—निषाद (मछुआरा), मागध, चांडाल, चर्मकार, श्वपाक, महीष्य, नापित/नाई, भैरव, मालाकार, रजक/धोबी, रथकार, लौहकार…आदि।

यह भी कि इतिहास की सामान्य समझ रखने वाला विद्यार्थी तक जानता है कि भारत सहित दुनिया के कई हिस्सों में चमड़े की वस्तुएं (चर्मकार, चर्मोपजीवी), मिट्टी के बर्तन (कुम्हार), कपड़े (बुनकर, धानुक/धुनिया), विविधधातुओं के हथियार एवं औजार (लौहकार/लुहार) जैसे बेहद जरूरी सामान बनानेवाले मानव-समुदाय अचानक प्रकट नहीं हुए, बल्कि वे सभ्यताओं के विकास के एकदम शुरुआती चरणों में ही अस्तित्व में आने लगे थे, आर्यों के भारत सहित दुनिया भर में फैलने से भी हजारों वर्षों पहले से। यही बात पशुपालकों (महिष्य), मछुआरों और नाविकों (निषाद) जैसे मानव-समुदायों पर भी लागू होती है।

इस विषय में बहुत ठोस तर्क देते हुए डॉ. अम्बेडकर अनेक उदाहरण देकर मनुस्मृति सहित समस्त ब्राह्मण-ग्रंथकारों की घृणित मानसिकता को कठघरे में खड़ा करते हैं—”मनु के अनुसार ‘मागध’, वैश्य-पुरुष और क्षत्रिय-नारी से उत्पन्न जारज संतान है। वैयाकरण पाणिनी, ‘मागधÓ शब्द की व्युत्पत्ति एकदम अलग बताते हैं। उनके अनुसार, ‘मागध’ का अर्थ है मगध देश का वासी। मोटे तौर पर मगध वह क्षेत्र है जिसे आज बिहार का पटना और गया जिला कहा जाता है। पुरातन काल से ही मागधों को स्वतंत्र एवं सार्वभौम लोग बताया गया है। उनका सर्वप्रथम उल्लेख अथर्ववेद में आया है। जरासंध मगध का प्रसिद्ध राजा था, जो पांडवों का समकालीन था।‘’ इसी तरह ‘निषाद’ के संबंध में डॉ. अम्बेडकर लिखते हैं, ”मनु का कथन है कि निषाद, ब्राह्मण पुरुष और शूद्र स्त्री की जारज संतान हैं। ऐतिहासिक साक्ष्य इससे बिल्कुल भिन्न है। निषाद भारत की एक जनजाति थी, जिसका स्वतंत्र राज्य और राजा थे। यह एक बहुत प्राचीन जनजाति है। रामायण में गुहा निषादराज बताया गया है, जिसकी राजधानी श्रृंगवेरपुर थी। जब राम वनवास पर थे, तब गुहा ने उनका आतिथ्य किया था।‘’9

लेकिन इन ग्रंथकारों के असली षड्यंत्र को आंबेडकर उजागर करते हैं, ”इनसे यह पता चलता है कि मनु ने किस तरह इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा और अत्यंत सम्मानित तथा शक्तिशाली जनजातियों को जारज घोषित कर उन्हें अपमानित किया।…यह स्पष्ट है कि मनु ने जिन जातियों को जारज कहा है उनमें से कई कत्तई इस श्रेणी में नहीं थीं और उनकी उत्पत्ति स्वतंत्र थी। फिर भी मनु और अन्य स्मृतिकार उन्हें जारज बताते है। यह पागलपन क्यों? क्या उनके पागलपन का कोई उद्देश्य है?…उनकी व्याख्या से मनुष्यों और विशेषकर स्त्रियों के चरित्र के बारे में क्या निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं? यह स्पष्ट है कि इन पुरुषों और महिलाओं के बीच अवैध संबंध रहे होंगे, क्योंकि चातुर्वर्ण व्यवस्था ने इस तरह के संबंधों को प्रतिबंधित कर दिया था।…परंतु इतनी बड़ी संख्या में चांडालों या अछूतों का पैदा होना क्या इस ओर इंगित नहीं करता कि समाज में व्यापक स्तर पर दुराचार व्याप्त था?…क्या मनु को यह अहसास था कि संकर जातियों के संबंध में उनके सिद्धांत के प्रतिपादन से इस देश की एक बड़ी आबादी पर नीच का ठप्पा लग गया और उनका सामाजिक एवं नैतिक दृष्टि से ह्रास हुआ? उन्होंने यह क्यों कहा कि वे जातियां मिश्रित हैं, जबकि वास्तव में उनका स्वतंत्र अस्तित्व था?’’10

स्पष्ट है कि ब्राह्मण-वर्गों द्वारा किया गया यह पागलपनपूर्ण षड्यंत्र भारत की विद्रोही, स्वतंत्रताप्रिय एवं संघर्षशील मूलनिवासी एवं आर्येत्तर जातियों के विरुद्ध उनकी घृणा का ठोस परिचायक है। इसलिए मनु के समय तक बताई जा रही छ: सौ से अधिक जातियों के अस्तित्व में आने के पीछे गहरा षड्यंत्र ही दिखाई देता है, इसके अलावा और कुछ भी नहीं है। सचमुच में ऐसी कोई भी बड़ी नृजातीय घटना नई जातियों की उत्पत्ति के बारे में नहीं घटी थी।

 

वर्णसंकर कौन

लेकिन यदि ‘वर्णसंकरता’ के लिहाज से सवर्ण-आर्यों के अस्तित्व की खोजबीन की जाए, तो आर्य ही कहीं अधिक ‘वर्णसंकर’ और ‘अवैध संबंधों’ से उत्पन्न दिखाई देते हैं। क्योंकि सर्वप्रथम तो यही कि आर्य जब भारत आए, तो उनके साथ आर्य-स्त्रियां केवल गिनी-चुनी ही आई थीं, जो हर आर्य-पुरुष के लिए अपर्याप्त थी। इसलिए भारत-भूमि पर कब्जा करने के साथ-साथ वे अपने जातीय अस्तित्व की रक्षा के लिए संतान प्राप्ति हेतु यहां के समाजों से उनकी स्त्रियों को छीनकर, लूटकर उनपर अपना अधिकार करते गए। आगे चलकर उन्हें निर्जीव संपत्ति की तरह उपहारों और दान-दक्षिणा के रूप में भी लेने-देने लगे। भारतीय स्त्रियों की सुसभ्यता, परिष्कृत नागरिक जीवनशैली और सुरुचिपूर्ण तौर-तरीकों ने भी उनको उनकीअसभ्य-कबीलाई आर्य स्त्रियों की तुलना में खूब आकर्षित किया। भगवतशरण उपाध्याय आर्यों के भारत आने के समय (ऋग्वैदिक-काल) से ही इसकी शुरुआत के बारे में लिखते हैं: ”ऋ ग्वैदिक राजाओं और ऋ षियों के अंत:पुर की सीमाएं फैल चलीं। देशीय जातियों की नारियां इनमें भर चलीं। राजा और श्रीमान अपने प्रसाद का प्रदर्शन प्रसादकों को ‘नारियों से भरे रथों’ के दान से करने लगे। इन दलित नारियों की नागरिकता आर्यों की सहचरियों की ग्राम्यता से कहीं अधिक स्तुत्य सिद्ध होतीं, कहीं अधिक आकर्षक, और आर्य प्राय: उनके लावण्य के वशीभूत हो जाते।‘’11 अत: भारत में प्रवेश के साथ ही आर्य संतानें ‘वर्णसंकर’ रूप में पैदा होने लगीं। इसलिए यह अकारण नहीं है कि मनु आदि ने ‘अनुलोम-संबंधों’ को स्वीकृति दी।

दूसरा, आगे चलकर उनकी अनेक विद्रोहिणी-स्त्रियां वंचित-समाजों के पुरुषों से प्रेम करने और यौन-संबंध बनाने के बावजूद उन्हीं सवर्ण-आर्यों के घर-परिवारों में रहती थीं और उनकी संतानें वहीं जन्म लेती थीं। और यदि यह साबित हो जाए कि अपनी वंशवृद्धि के लिए कोई और उपाय न देख आर्यों को उन्हीं संतानों को अपनाना पड़ा होगा, तो इसमें तनिक भी आश्चर्य नहीं होगा। यहां-वहां बिखरे हुए ऐतिहासिक तथ्यों के साथ-साथ महाभारत, रामायण सहित सैकड़ों पौराणिक-कथाएं तो यही कहती हैं। क्योंकि हम इसका उल्लेख नहीं पाते हैं कि बहुत बड़ी संख्या में ब्राह्मण-स्त्रियां और अन्य सवर्ण-स्त्रियां, जिनका प्रेम संबंध वंचित जातियों और आर्येत्तर जातियों से हुआ, अपने-अपने सवर्ण समाज को छोड़कर उन्हीं गरीब वंचित-समाजों में आ गई थीं। यदि ऐसा होता, तो दो घटनाएं घटित होतीं।

पहली बात, कि भारत में हमेशा से बहुत ही कम आबादीवाले आर्यों की स्त्रियां यदि अपने-अपने परिवारों, समाजों को छोड़कर वंचित समाजों के अपने प्रेमियों के साथ रहने लगतीं, तो आर्य पुरुषों के लिए स्त्रियां बचती ही नहीं; तब आर्यों की वंश वृद्धि पूर्णत: ठप्प हो जाती। क्योंकि मनुस्मृतिकार द्वारा उल्लिखित वंचित-पुरुषों से सवर्ण-स्त्रियों के व्यभिचार से उत्पन्न किसी भी ‘वर्णसंकर’ जाति की जितनी बड़ी आबादी थी, उसके लिए तो बड़ी संख्या में सवर्ण-स्त्रियों की जरूरत थी। जैसे, मनुस्मृति के अनुसार ब्राह्मण स्त्री और शूद्र पुरुष से उत्पन्न ‘चाण्डाल’ जाति के निर्माण के लिए लाखों ब्राह्मण-स्त्रियों का लाखों शूद्र पुरुषों से संबंध जरूरी था; केवल दो-चार ऐसे संबंधों से तो इतनी बड़ी जाति की उत्पत्ति नहीं हो सकती।

हम विविध कालखंडों में लिखे गए ब्राह्मण-ग्रथों में देख भी सकते हैं कि चांडालों ने सवर्णों की सत्ता को सैकड़ों बार चुनौती दी और इतनी बड़ी चुनौती दो-चार या कुछ सौ लोगों द्वारा तो कत्तई नहीं दी जा सकती। आंबेडकर लिखते हैं, ”चांडालों की संख्या इतनी अधिक है कि यदि प्रत्येक ब्राह्मण-स्त्री किसी शूद्र की रखैल रही होगी तब भी चांडालों की आबादी इतनी नहीं हो सकती थी, जितनी है।‘’12 ठीक इसी तरह, केवल ब्राह्मण-स्त्रियों के विविध निम्न-जातियों से यौन-संबंधों से उत्पन्न जातियों(चर्मकार, चर्मोपजीवी, वेनुक, रेनुक, तक्षवृत्ति, नापित/नाई, भागलब्ध, रजक/धोबी, लौहकार/लुहार, वर्धकी, श्वपाक आदि) के लिए भी करोड़ों ब्राह्मण-स्त्रियों की जरूरत हुई होगी। 13

यह तो केवल ब्राह्मण-स्त्री के वंचित-जातियों और वर्णसंकर जातियों के साथ यौन-संबंधों से उत्पन्न संतानों के कुछ उदाहरण हैं। इसमें अभी वे उदाहरण शामिल नहीं हैं, जिनमें ब्राह्मण स्त्री के यौन संबंध उससे निम्नवर्णीय क्षत्रियों और वैश्यों के साथ हुए और नई जातियां पैदा हुईं। यदि थोड़ी देर के लिए मनुस्मृति आदिकी बातों पर विश्वास करलिया जाए कि करोड़ों आबादीवाली वंचित-जातियों की उत्पत्ति ब्राह्मण-स्त्री के उनसे निम्न-जातियों के पुरुषों सेसंबंध से ही हुई है, तो यह तो तय है कि ऐसी स्थिति में एक भी ब्राह्मण-स्त्री शायद ही ब्राह्मण-पुरुषों के लिए बची होगी। क्या ब्राह्मण-स्त्रियों की इतनी आबादी थी, कि इतनी सारी वंचित-जातियां वे पैदा कर सकें? और जब इतनी सारी जातियों की उत्पत्ति ब्राह्मण-स्त्री के व्यभिचार से हो रही थी, तो यह निश्चित निष्कर्ष निकलता है कि प्रत्येक ब्राह्मण-स्त्री ने अपने समाज को छोड़ा होगा और अन्य जातियों के पुरुषों के साथ चली गई होंगी।

दूसरी बात, तब तो यह भी तय है कि आज यदि ब्राह्मण-जातिअस्तित्व में है, तो निश्चित रूप से उन्होंने निम्नवर्णीय-शूद्रों, अवर्णीय-अन्त्यजों तथा आदिवासियों की स्त्रियों से विवाह करके या बलपूर्वक अपनी वंशावली कायम रखी; क्योंकि क्षत्रिय और वैश्य-वर्णों की स्त्रियां भी, मनुस्मृति एवं अन्य ब्राह्मण-ग्रंथों के कथनानुसार ब्राह्मण-स्त्रियों की तरह ही अपने से निम्नवर्णीय-पुरुषों से व्यभिचार करते हुए सैकड़ों जातियों का सृजन करने में व्यस्त थीं और उनमें से भी कोई स्त्री शायद ही अपनी जाति की वंशवृद्धि के लिए उपलब्ध रही होगी। और जब क्षत्रिय एवं वैश्य-पुरुषों के लिए ही उनकी स्त्रियां उपलब्ध नहीं थीं, तो ब्राह्मणों के लिए कहां से उपलब्ध होतीं? तब तो ब्राह्मणों को अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए वंचित-जातियों की स्त्रियों को ही अपने घरों में जगह देनी पड़ी होगी! अन्य सवर्ण-जातियों की स्थितिभी यही रही होगी।

तब मनुस्मृति के ही अनुसार ‘मिश्रित-रक्त’ किसका साबित हुआ? ‘वर्णसंकर’ कौन हुआ? ऐसे में उनकी ‘रक्त-शुद्धता’ और ‘नस्लीय-शुद्धता’ का जातीय-अहंकार किस हद तक खोखला साबित होता है, यह अलग से बताने की जरूरत नहीं है।

यहां एक और प्रश्न, क्या ब्राह्मण-पुरुषों को उनसे नाराज आक्रोशित विद्रोही-मूल निवासी वंचित जातियों ने अपनी बेटियां सहज ही दी होंगी? या उन्होंने जबरन उनसे लड़कियां छीनीं, उठाई अथवा चुराई होंगी? और यदि उन्होंने ऐसे ही कार्य करके अपनी जातिका अस्तित्व मिटने से बचाया है, तब तो यह भी तय है कि ऐसे रिश्ते कम-से-कम स्वस्थ तो कत्तई नहीं कहे जा सकते, उन्हें केवल बलात्कार और व्यभिचार ही माना जा सकता है, उसके अलावा और कुछ नहीं। आखिर मनु ने विवाह के आठ प्रकारों में उनको भी ऐसे ही तो नहीं रखा है, जिनमें लड़कियां उनके परिवारों से छीनकर, लूटकर, चुराकर, खरीदकर प्राप्त की जाती हैं? तब यह कैसे मान लिया जाए कि वर्तमान ब्राह्मण-जाति ‘अवैध-संबंधों’ एवं ‘बलात्कार से उत्पन्न’ नहीं है? यही बातें क्षत्रियों और वैश्योंकेअस्तित्व पर भी लागू होती हैं। तब क्या सवर्ण-आर्यों के माथे पर लगे इस कलंक को छिपाने के लिए भी उन्होंने मूलनिवासियों एवं आर्येत्तरों के अस्तित्व के बारे में ऐसी बातें अपने धर्मग्रन्थों में कहीं?

यदि सवर्ण-स्त्रियों ने इतने बड़े पैमाने पर ‘व्यभिचार’ किया, जिसके बारे में मनुस्मृति और अन्य ग्रंथ बता रहे हैं; तो यह भी समझना होगा कि उनके साथ ऐसा क्या हुआ या हो रहा था कि आर्यों के आने के बाद से लेकर भक्तिकाल के ठीक पहले तक (लगभग 1500 ई.पू. से 13वीं-14वीं सदी तक) के लगभग तीन हजार सालों तक, इतनी बड़ी संख्या में वे बार-बार विद्रोह करती रहीं और उन्होंने ब्राह्मणों के धर्मदंड, राजाओं के राजदंड, ईश्वर के भय, स्वर्ग-नरक की फिक्र, सामाजिक-अपमान तक के डर को अपने-अपने दिलों से निकाल बाहर फेंका और अपने-अपने घर-परिवारों को छोड़कर विद्रोह के लिए निकल पड़ीं और कई बार अतिरेकवादी रास्ता भी अपनाया? आखिर ‘पतिव्रता’ सवर्ण-स्त्रियों ने ऐसा क्यों किया होगा? वे साधनहीन निम्नवर्णीय शूद्र-पुरुषों एवं ‘मनुष्य’ श्रेणी से बाहर रखे गए दीनहीन दलित अन्त्यज और वनवासी-आदिवासी-पुरुषों की ओर ही क्यों आकृष्ट हुईं, उनके संपर्क में आईं, उनसे प्रेम किया, यौन-संबंध भी बनाए? इन साधनहीन निम्न-समाजों में ऐसा क्या खास था, जो साधन-संपन्न सवर्ण-समाज में नहीं था? यहां यह समझना जरूरी है कि उन सवर्ण-स्त्रियों ने यदि बहुत बड़ी संख्या में न भी सही, केवल थोड़ा-बहुत भी, उपरोक्त कदम उठाए, तो किस कारण, कि ब्राह्मणों के पसीने छूट गए और मनु जैसे उनके ग्रंथकारों द्वारा उन्हें रोकने के लिए पुरुषों को आदेश दिया गया कि परिवार में पिता, भाई, पति और पुत्र परिजन-स्त्रियों पर कठोर नियंत्रण और निगरानी रखें? साथ ही यह भी सवाल उठता है कि वंचित-समाजोंने उन विद्रोहिणी-स्त्रियों का साथ क्यों दिया?

 

  1. आत्म-सम्मान की हत्या

हम देख चुके हैं कि सवर्ण-स्त्रियां भी मूलत: उन्हीं वंचित-समाजों का हिस्सा थीं, जिनको आर्यों ने अपनी वंश-वृद्धि के लिए शुरुआत में ही वंचितों से छीन लिया; लेकिन बाद में वंचितों को विवश किया कि वे अपनी कन्याएं स्वयं ही उन्हें दें—”सत्तर सैकड़ा जनता को अपनी सुंदर लड़कियों को वैध या अवैध रूप से रनिवास में भेजने के लिए भी तैयार रहना पड़ता था। कितनी ही जगह तो नव-विवाहिता की प्रथम रात भी सामंत के लिए रिजर्व थी, चाहे वह हाथ से छूकर ही छुट्टी दे दे। उस वक्त साधारण जनता के आत्म-सम्मान की बात करना भी फिजूल है।‘’ 14 उसके बाद उन स्त्रियों के साथ आर्यों ने जो दुव्र्यवहार किया, क्या उन्होंने स्त्रियों और उनके मूल-समाजों को विद्रोही नहीं बनाया होगा? क्या उन्होंने ब्राह्मणों का प्रतिरोध करने हेतु कोई तरकीब नहीं सोची होगी?

आर्यों के भारत पर कब्जे से लेकर मनुस्मृति- कार तक और उससे आगे भी, स्त्रियों को जितनी तरह की बेडिय़ों में बांधा गया, उनमें सर्वाधिक कष्टदायक थे—उनके अस्तित्व पर परिवार के पुरुष-मात्र का कठोर नियंत्रण, बहुविवाह, पुरुष-व्यभिचार, स्त्रियों की हैसियत ‘यौन-दासीÓ और’गृह-दासीÓ तक सिमटना, वेश्यावृत्ति और देवदासी-प्रथा, सती-प्रथा आदि।

  1. स्त्री-पुरुषों के लिए अलग-अलग यौन-प्रतिमान

आर्य अपनी स्त्रियों के यौन-जीवन सहित जीवन के एक-एक क्षण पर कठोर नियंत्रण रखते थे, जबकि स्वयं उन्मुक्त भोग-विलास में आकंठ डूबे रहते थे। राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं: ”विश्वामित्र-वशिष्ठ-भारद्वाज के समय में भी ब्राह्मणों का जीवन भोग शून्य नहीं था, फिर हमारे इस काल (छठी-सातवीं से ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में बौद्ध-सिद्धों का काल) के बारे में क्या पूछना?’’15 इसके लिए उन्होंने व्यवस्थाएं भी एक से बढ़कर एक बनाई थीं, ‘लेकिन ब्राह्मणों की एक और भी व्यवस्था थी—स्त्री-रत्नं दुष्कुलादपि, इसलिए श्रोत्रिय ब्राह्मण भी शूद्रा सुंदरी से पार्शव (शूद्रा स्त्री में ब्राह्मण का पुत्र)संतान पैदा करने का पूरा अधिकार रखता था।‘’16 तात्पर्य कि ब्राह्मण को किसी भी कन्या लेने का पूरा हक था।

दूसरी तरफ आर्यों की विवाहिताओं(जो दरअसल वंचित-समाजों की बेटियां थीं) की अपने पतियों को लगातार दर्जनों से लेकर सैकड़ों स्त्रियों से वैध-अवैध तरीके से भोग-विलास करते देखकर मानसिक-दशा क्या रही होगी? क्या उनका स्वाभिमान आहत नहीं हुआ होगा?—”ऊंची जाति के पुरुषों की आक्रामक कामुकता को उनकी जातियों ने बूढ़े पुरुषों और विधुरों के विवाह की छूट के माध्यम से औचित्य प्रदान कर रखा है। इसके साथ ही, जमींदार या भू-स्वामी ने कितनी रखैलें रख रखी हैं उससे उसके ऊंचे कद का निर्धारण होता है। ऊंची जाति के पुरुषों की अतिशय कामुकता की तुष्टि शूद्र और अछूत स्त्रियों के साथ संबंध के माध्यम से होती है। इसे अनुचित नहीं माना जाता, वहीं जातियों के परिवारों के सम्मान की रक्षा की जिम्मेदारी उनकी स्त्रियों पर होती है, कारण यहां सम्मान का सीधा संबंध उनकी यौनता से है। वे यौनता के कायदों का कठोर पालन कर अपनी इस जिम्मेदारी का निर्वाह करती हैं।‘’17

बात यहीं खत्म नहीं होती, बल्कि सवर्ण-पुरुषों की अनियंत्रित कामुकता ने ‘वेश्यावृत्ति’ और ‘देवदासी’ प्रथा का विस्तार किया, जिन्होंने घरों में विवाहिताओं के और बाहर ‘वेश्या’ और ‘देवदासी’ बनाई जा रही स्त्रियों के आत्म सम्मान को ठेस पहुंचाई। दोहरे लाभ के लिए ”वेश्यावृत्ति को राजा पालते थे। उन्हें आर्थिक लाभ होता था।‘’18 जिसमें से मोटी-मोटी दान-दक्षिणा ब्राह्मणों और मंदिरों-मठों के पुजारियों को देकर उन्हें खुश रखकर अपने पक्ष में रखते थे। इससे भी वीभत्स रूप ‘देवदासी-प्रथा’ का था, भारतीय समाज में जिसकी मौजूदगी और सवर्ण-समाज द्वारा स्वीकृत होने के विषय में भगवतशरण उपाध्याय लिखते हैं—”…बाबुल(बेबीलोन) के मंदिरों का उस बाबुली सभ्यता पर इस मात्रा में आतंक था कि वहां नारी, व्यभिचार से परे कोई वस्तु नहीं समझी जाती थी। प्रत्येक नारी प्रथमत: देवता की भोग्या थी—जड़ देवता के स्वयं अशक्त होने के कारण अपना वह कार्यांश चेतन देवता अर्थात् अपने पुजारी को सौंपती थी ! इस प्रकार का आचरण भारत के इतिहास में भी अनजाना नहीं हैं।‘’ 19

आगे चलकर इस प्रथा ने बेहद वीभत्स रूप लिया, जिसके गढ़ बने मंदिर, ”मंदिर सामूहिक व्यभिचार एवं आमोद-प्रमोद के स्थल थे।…यही कारण है कि मंदिरों का निर्माण सुनसान जगहों में किया गया।…बहुत से मंदिर सुनसान जगहों में हैं, जहां मंदिर के पुजारियों की घृणित काम-लिप्सा की तृप्ति हेतु (देवदासियों द्वारा) सेवा स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं है।‘’20 वत्र्तमान में जितने भी मंदिर अति-कठिन स्थानों पर स्थित हैं, जैसे दुर्गम पहाड़ की चोटी पर, निर्जन वन्य-स्थलों या जंगलों के बीच में, जहां आसानी से जनसाधारण तो क्या साधन-संपन्न व्यक्ति भी नहीं पहुंच पाता है; वे इस मामले में संदेह पैदा करते हैं। क्या सचमुच ही ऐसे मंदिरों का संबंध अतीत में किसी-न-किसी रूप में देवदासी-व्यवस्था से रहा होगा?

 

  1. स्त्रियों के जीवित रहने पर नियंत्रण

सवर्ण-अवर्ण स्त्रियों के अस्तित्व को अपमानजनक बनाने के साथ-साथ उनकेजीवन को पुरुष-इच्छा, उनमें भी ब्राह्मण-इच्छा, के अधीन रखा गया। कोई स्त्री कब तक जिंदा रहेगी, यह पुरुष तय करने लगे। आगे चलकर इसके लिए ‘सतीप्रथा’ जैसी परंपराएं भी बनाई गईं, जिनका एक प्रमाण मनु से पहले रचित महाभारत(लगभग 400 ई.पू.) में (पांडु की दूसरी पत्नी माद्री का पांडु के साथ सती होना) मिलता है, जिसका आगे चलकरतेजीसे विकास हुआ—”अंगिरा, हारीत आदि पूर्वमध्यकालीन स्मृतियों तथा अपरार्क, विज्ञानेश्वर आदि निबंधकारों ने सती प्रथा की प्रशंसा की।‘’ 21 शायद मनु काल में इसकी मौजूदगी के बारे में ब्राह्मण ग्रंथ जानबूझ कर नहीं बताते और बाद के समय में भी केवल जिक्र-भर ही मिलता है। इसीलिए इसकी असली वीभत्सता, भयावहता, स्त्रियों में इसके प्रति भय और आतंक की जानकारी विदेशियों (जैसे बर्नियर, अंग्रेज-अधिकारी आदि) से मिलती है; जिन्होंनेबहुत बाद में आंखों देखा हाल लिखा: ”मैंने बहुत सारी ऐसी विधवाओं को देखा जो श्मशान घाट में उपस्थित डोम लोगों का आश्रय लेती हैं…ऐसी विधवाएं जो मृत्यु से डरती हैं, चिता में जलकर मरना होगा सोचकर आतंकित हो उठती हैं, ऐसी ही औरतें डोम की शरण में जाकर जीवन-रक्षा करती हैं। वे जानती हैं कि डोमों के घर आश्रय लेकर बाकी जीवन सुखमय नहीं होगा। कोई उन्हें श्रद्धा या अच्छी नजर से नहीं देखेगा। जो औरत चिता में जलकर मरने की अपेक्षा डोमों के घर रहकर जिंदा रहना पसंद करती हैं, इस देश के लोगों ने इसे घोर अधर्म माना है। ऐसी औरतों को महापापिष्ठा के रूप में घोषित किया जाता है।‘’22 लेकिन ‘सती-प्रथा’ को महिमा मंडित करके प्रस्तुत करनेवाले आधुनिक-साहित्यकारों ने कोई ध्यान नहीं दिया; इतिहासकारों ने भी केवल सूचना-भर देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ली।

लेकिन कुछ बुद्धिजीवी जरूर इसको कठघरे में खड़ा करते हैं: ”…भारत में हजारों-लाखों औरतों को पति की मृत्यु के बाद जिंदा जला दिया गया। यह एक ऐसी भयंकर परंपरा थी, जिसके लिए किसी के मन में नारी-हत्या का पश्चाताप नहीं हुआ और न ही इतिहास में ऐसे लोगों को हत्यारे की संज्ञा दी गई।‘’23

इसलिए यह प्रश्न जरूर उठना चाहिए कि जब साहित्यकार और इतिहासकार यह दावा करते हैं कि वे सत्ताधारकों की प्रशस्तियां नहीं लिखते, बल्कि मानवतावाद और मानववाद की भावना से ओतप्रोत होकर लिखते हैं, तब उन्होंने अतीत के उपरोक्तपक्षों पर क्यों चुप्पी साध ली? इसे समझना होगा।

यदि वे स्त्रियों पर तमाम अत्याचारों को उनकी पूरी नग्नता के साथ उकेरते, तो समाज के पुरुषों को ही नहीं स्त्रियों को भी यह पता चल जाता कि ऋग्वैदिक युग से मनु और उसके बाद तक उनकी जिन पूर्वजा-स्त्रियों को प्रताडऩाओं से डरा-धमकाकर, ‘धर्म’ और ‘ईश्वर’ का डर दिखाकर, ‘सतीलोक’ और ‘गऊ-लोकÓ की रानी बनाने का सपना दिखाकर घरों की चारदीवारी में कैद रखा गया था, उन्होंने उसी कैद को तोडऩे की सैकड़ों सफल-असफल कोशिशें कीं; उनको जिस ‘पातिव्रत्य’ और ‘पति-भक्ति’ की बेडिय़ों से कसकर जकड़ा गया था और जिन्हें तोडऩे की उन्हें सख्त मनाही थी, उन्हीं बेडिय़ों को उन्होंने सैकड़ों बार तोड़ा और ‘पतिव्रता’ और ‘पति-भक्त’ के रूप में गुलाम बननेसे इंकार किया।

यदि लेखक सत्य बता देते, तो यह सवाल उठता कि सवर्ण-स्त्रियों के विद्रोह स्वरूप वंचित-वर्गीय पुरुषों के साथ जिस व्यभिचार की बातें कही जाती हैं, क्या उन ‘व्यभिचारपूर्ण’ प्रेम-संबंधों की पहल स्वयं उन स्त्रियों ने ही की थी? यदि हां, तो क्यों? और जब इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने की कोशिशें होतीं, तो उस मोटे पर्दे में आग लग जाती, जिसके पीछे कई सत्यों को ढंक रखा गया था। पता चला जाता कि वंचित-समाज तो सवर्ण-स्त्रियों तक पहुंच ही नहीं सकता, इसलिए सवर्ण-स्त्रियां ही विद्रोही बनकर उन तक आई थीं। आधुनिक-विद्वान् जानते थे कि यदि यह सत्य उभरकर सामने आ जाता, तो क्या हो सकता था?

इसके बाद समस्त तानों बानों के तार एक-एक करके उधडऩे लगते—’वर्णसंकरता’ से वंचित-जातियों का ही नहीं ब्राह्मणों औरअन्य सवर्णों के सत्य से ब्राह्मणों की जातीय-पवित्रता, रक्त-शुद्धता, नस्लीय-श्रेष्ठता का अहंकार तक। इसलिए खामोशी मेंही भलाई थी।वैसे भी अधिकांश इतिहासकारों और साहित्यकारों का संबंध आखिरकार उसी सवर्ण-समाज से है। इसलिए भला वे ऐसा कुछ भी क्यों लिखते, जिससे उनकी ही जाति पर ‘वर्णसंकरता’ और ‘अवैध-संतति’ होने का ठप्पा लगे?

इस मंथन से कई बातें स्पष्ट होती हैं। एक, सवर्ण-स्त्रियों ने ब्राह्मणीय-व्यवस्थाओं से आजिज आकर विद्रोह किया, निम्नवर्णीय-पुरुषों से प्रेम भी किया, यौन-संबंध भी बनाए और संतानें भी उत्पन्न कीं; लेकिन यह सब इतने बड़े पैमाने पर नहीं हुआ कि उनके तथाकथित व्यभिचार से सैकड़ों वंचित-जातियां पैदा हो जाएं। दूसरा, सवर्ण-स्त्रियों की जनसंख्या भी इतनी बड़ी नहीं थी कि अपनी पूरी स्त्री-आबादी का प्रयोग करके वे व्यभिचार द्वारा सैकड़ों वंचित-जातियां पैदा कर दें। तीसरा, यदि मनुस्मृति पर विश्वास करके यह मान लिया जाए, कि समस्त सवर्ण-स्त्रियां व्यभिचार में लिप्त हुईं और सैकड़ों वंचित-जातियां पैदा कीं, तो निश्चित है कि सवर्ण-पुरुषों के लिए एक भी सवर्ण-स्त्री नहीं बची होगी। तब सवर्णों, खासकर ब्राह्मणों, ने अपनी वंशवृद्धि के लिए जरूर कमजोर वंचित-वर्गों की स्त्रियां छीनीं, लूटी, उठाई, चुराई होंगी। इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि सवर्ण पुरुष-रक्त में वंचित स्त्री-रक्त का मिश्रण हुआ और सवर्णों की जातियां आरंभ से ही ‘वर्णसंकर’ होती गईं। चौथे, लूटी, छीनी, उठाई, चुराई गई स्त्रियों से सवर्ण-पुरुषों का प्रेम नहीं हो सकता, उनसे तो जबरन संबंध बनाए गए होंगे, जिन्हें ‘बलात्कार’ कहा जाता है; अत: सवर्ण समाज ‘बलात्कार की पैदाइश’ साबित हुआ; यदि मनुस्मृति पर विश्वास किया जाए तो।

पांचवे, मनुस्मृति में शामिल अधिकांश ‘वर्णसंकर’ वंचित-जातियां यहां की मूल-निवासी और आर्येत्तर-जातियां हैं; जिनका अस्तित्व आर्यों के भारत आने से पहले से है। इसलिए उनको ‘वर्णसंकर’ कहना मनु और अन्य ब्राह्मणों की विद्वेषपूर्ण जातीय-मानसिकता का परिचायक है। छठे, अंतत: इससे यही साबित होता है कि मनु जैसे ब्राह्मणों ने स्त्रियों और वंचित-जातियों में अपनी जातीय-पहचान के प्रति हीनता बोध की भावना भरने के लिए स्त्रियों को ‘व्यभिचारिणी’ और वंचितों को ‘सवर्ण-स्त्रियों के व्यभिचार का परिणामÓ कहा; ताकि ये दोनों अपने होने पर हमेशा घृणाभाव और अपराधबोध से भरे रहें और कभी भी विद्रोह न करें। मनु इसमें बेहद सफल भी हुए।

लेकिन इस समय जब सवर्ण-समाज में उसी मनुस्मृति और उसके युग की पुनर्वापसी की जबर्दस्त इच्छा और तैयारी दिखाई दे रही है, तो उसे ऊपर उल्लिखित तमाम पक्षों पर भी ठीक से गौर कर लेना चाहिए। क्योंकि यह भी हो सकता है कि उसका दांव उल्टा पड़ जाए ! द्द

संदर्भ सूची

 

1.पृष्ठ-153-157, डॉ. भीमराम अम्बेडकर, हिंदू धर्म की पहेलियां, फॉरवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, जनवरी 2023

  1. पृष्ठ-153-157, वही
  2. पृष्ठ-7, रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, लोकभारती, इलाहाबाद, 2004

4.पृष्ठ-154-157, डॉ. भीमराम अम्बेडकर, हिंदू धर्म की पहेलियां

  1. पृष्ठ-158, वही
  2. पृष्ठ-161, वही
  3. पृष्ठ-152, वही
  4. पृष्ठ-163, वही
  5. पृष्ठ-163, वही
  6. पृष्ठ-163-165, वही
  7. पृष्ठ-69, भगवतशरण उपाध्याय, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 1978
  8. पृष्ठ-165, डॉ. भीमराम अम्बेडकर, हिंदू धर्म की पहेलियां
  9. पृष्ठ-154-157, वही
  10. पृष्ठ-18-19, राहुल, हिंदी काव्यधारा, किताब महल, इलाहाबाद, 1945
  11. पृष्ठ-39, वही
  12. पृष्ठ- 40, वही
  13. पृष्ठ-15, प्रियदर्शिनी विजयश्री (हिंदी अनुवाद विजय कुमार झा), देवदासी या धार्मिक वेश्या? :एक पुनर्विचार, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण (2010)
  14. पृष्ठ-476, रांगेय राघव, प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास, आत्माराम एंड संस, दिल्ली, प्रथम संस्करण
  15. पृष्ठ-109, भगवतशरण उपाध्याय, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण
  16. पृष्ठ-76-77, अतुल कृष्णविश्वास, देवदासी, सती-प्रथा और कन्या-हत्या , दिल्ली, 2008
  17. पृष्ठ-382, हरिशंकर कोटियाल, प्राचीन भारत का इतिहास, डी.एन. झा व कृष्ण मोहन श्रीमाली (संपा.), हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, 1998
  18. पृष्ठ-63, अतुल कृष्णविश्वास, देवदासी, सती-प्रथा और कन्या हत्या
  19. पृष्ठ-36, वही

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– राम प्रकाश अनंत

आज जेनरिक दवाओं को लेकर कुछ ऐसा माहौल बन गया है जैसे जेनेरिक दवाओं से ही सारी स्वास्थ्य समस्याएं हल हो जाएंगी। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी जेनेरिक दवाएं काफी प्रचलन में हैं और गरीब जनता को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है।

नेशनल मेडिकल कमीशन की एडवाइजरी गजट में छपी है जिसमें यह निर्देश दिया गया है कि अब सभी रजिस्टर्ड डॉक्टर ब्रांडेड दवाओं की जगह जेनेरिक दवाएं लिखेंगे। इस निर्देश ने मीडिया और सोशल मीडिया में जेनेरिक बनाम ब्रांडेड की बहस को चर्चा में ला दिया है। आज जेनेरिक दवाओं को लेकर कुछ ऐसा माहौल बन गया है जैसे जेनेरिक दवाओं से ही सारी स्वास्थ्य समस्याएं हल हो जाएंगी। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी जेनेरिक दवाएं काफी प्रचलन में हैं और गरीब जनता को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। सवाल है जेनेरिक दवाएं क्या होती हैं?

भारत फार्मा कंपनियों के लिए बड़ा बाजार है। करीब 3000 फार्मा कंपनियां भारत में पंजीकृत हैं। कई भारतीय कंपनियां आज मल्टी नेशनल ब्रांड के रूप में स्थापित भी हैं। जैसे सिप्ला, सन फार्मा, जाइडस, इंटास, डॉ. रेड्डी आदि। भारत विश्व में सर्वाधिक जेनेरिक दवाओं का निर्माण करने वाला देश है। यहां जेनेरिक का मतलब उस उपादान (इंग्रेडिएंट) से है जो ब्रांडेड दवा के अंदर होता है। भारत की जेनेरिक दवाएं सभी देशों में निर्यात की जाती हैं। दुनिया की लगभग 20 प्रतिशत दवाएं भारत निर्यात करता है। जेनेरिक कंपनियां जहां एक ओर दवाएं निर्यात करती हैं तो दूसरी तरफ भारत भी उनके लिए बड़ा बाजार है। भारत में जो जेनेरिक दवाएं बेची जाती हैं वे इंग्रेडिएंट के नाम से भी बेची जाती हैं और जेनेरिक कंपनी (जिनकी अपनी कोई ब्रांड वैल्यू-यानी कि उनके नाम का महत्व- नहीं है) उन्हें ब्रांडेड दवाओं की तरह कोई नाम भी दे देती हैं तब भी। जैसे कि ‘दवा इंडिया’ एक जेनेरिक कंपनी है जिसके कपिल देव ब्रांड एम्बेस्डर हैं। कई दवाएं वह जेनेरिक नाम से ही बेचती है और कई दवाओं को ब्रांड (हालांकि उनकी कोई ब्रांड वैल्यू -महत्व- नहीं है) के नाम से बेचती है। जैसे दवा इंडिया एसिक्लोफेन पेन किलर (दर्द दबाने की दवा)  को दवाफेन के नाम से बेचती है।

भारत से निर्यात की जानेवाली दवाओं की गुणवत्ता का परीक्षण भारत का ड्रग कंट्रोलर जनरल करता है और वे देश भी करते हैं जो उन्हें आयात करते हैं। भारत की स्थिति दूसरी है। इनके परणिामों को देखकर ऐसा नहीं लगता कि इनका परीक्षण होता होगा।

इस समय भारत में फार्मा इंडस्ट्री औषधि उद्योग के सामने दो चुनौतियां हैं। नकली दवाओं की और सबस्टैंडर्ड यानी घटिया दवाओं की। भारत में दोनों ही समस्याएं बड़ी हैं। ‘डब्लुटीओ’ (विश्व व्यापार संगठन) का मानना है कि विकासशील देशों में 10 त्न दवाएं ‘सबस्टैंडर्ड’ यानी गुणवत्ता के मानकों को पूरा न करने वाली होती हैं। भारत में यह आंकड़ा ज्यादा हो सकता है। यूएसटीआर (USTR) नाम की संस्था ने कुछ समय पहले ही ‘स्पेशल 301’ नाम से रिपोर्ट जारी की। जिसमें बताया है कि भारत में 20 प्रतिशत नकली दवाएं हैं। हिमाचल के बद्दी व उत्तराखंड के रुड़की में कई बार नकली दवा बनाने की फैक्ट्रियां पकड़ी गई हैं। नकली दवा बनाने का कारोबार पूरी तरह से अवैध है और सरकार उस पर अंकुश नहीं लगा पा रही है। सबस्टैंडर्ड दवाएं तो रजिस्टर्ड कंपनियों द्वारा बनाई जाती हैं। सरकार जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता निश्चित करने में असफल रही है। यह जेनेरिक दवाओं के रिजल्ट बताते हैं। दवाओं की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए ड्रग कंट्रोलर जनरल है। पर होने को तो फूड इंस्पेक्टर भी होता है। सड़े- गले फल – सब्जियों से लेकर ऐसी कौन सी खाने की चीज होगी जिसे आप विश्वासपूर्वक खा सकें कि इसमें मिलावट नहीं होगी। सिंथेटिक (नकली) दूध सहित ऐसी वस्तुएं खुलेआम बिकती हैं जिनमें ‘कार्सिनोजेनिक’(केंसरकारी) पदार्थ मिले होते हैं। इन्हें खाकर लोग बीमार पड़ते हैं और डॉक्टर के पास पहुंचेंगे वो दवा प्रिस्क्राइब करेगा अब उसकी भी गुणवत्ता का कोई भरोसा नहीं है।

जेनरिक दवाओं का बड़ा निर्यातक

भारत पूरी दुनिया में जेनेरिक दवाएं निर्यात करता है। विशेषकर तीसरी दुनिया के देश जो मंहगी ब्रांडेड दवाएं आयत करने में सक्षम नहीं हैं वे भारत की जेनेरिक दवाओं पर काफी निर्भर हैं। अफ्रीकी देश गाम्बिआ में जून 2022 से सितंबर 2022 तक 66 (कुछ रिपोर्टों के अनुसार 70) बच्चों की मौत बल्गमवाली खांसी की दवा (कफसिरप) पीने से हुई। चार फरवरी को डब्लूएचओ (विश्वस्वास्थ्य संगठन) का बयान मीडिया में छपा। उसके अनुसार तीन देशों में (गाम्बिआ, उजबेकिस्तान व उक्रेन) 300 बच्चों की मौत भारतीय घटिया कफ सिरप पीने से हुई है। यह कफ सिरप शिमला स्थिति एक जेनेरिक फार्मा कंपनी के बनाए थे। कुछ महीने कंपनी सील रही और भारत सरकार ने इस पर जांच बैठाई। जांच कमेटी ने रिपोर्ट दी कि निर्यात की गई दवा को ड्रग कंट्रोलर जनरल द्वारा परीक्षण कर के भेजा गया है। बच्चों की मौत का कारण कुछ और हो सकता है। डब्लूएचओ का कहना है दवाओं में एथलीन ग्लाइकोल व डाई एथलीन ग्लाइकोल की अधिक मात्रा पाई गई है। ये कफ सिरप बनाने में उपयोग होते हैं पर अधिक मात्रा जानलेवा हो सकती है।

यह भी कहा जा सकता है कि यह भारतीय फार्मा कंपनियों को बदनाम करने की चाल है। अगर हम पूंजीपतियों के चरित्र को समझते हैं, उनके व्यापार करने के रंग- ढंग को समझते हैं और देशी-विदेशी के चक्कर में न पड़ कर मानवता को प्रमुखता देते हैं तो ऐसी बात मस्तिष्क में नहीं आएगी। यह वैसी ही बात होगी जैसे रामदेव हर जवाबदेही के लिए बोल देते हैं ‘यह फार्मा कंपनियों की चाल हैÓ। अगर आप ऐसा सोचते हैं तो यह नहीं भूलना चाहिए कि पूंजीपतियों के अपने तौर तरीकी के होते हैं और वे इस मामले में देशी-विदेशी में भेद नहीं करते हैं। दिसम्बर, 2019 से जनवरी 2020 के बीच जम्मू के रामनगर में 12 बच्चों की मौत ऐसा ही कफ सिरप पीने से हुई। 8 नवंबर, 2014 को बिलासपुर छत्तीसगढ़ में जिले के एक कैंप में 83 महिलाओं की नसबंदी हुई। 11 नवंबर की द हिंदू अखबार की रिपोर्ट के अनुसार ऑपरेशन के कुछ ही घंटे बाद 60 महिलाएं बीमार हो गईं। उन्हें उल्टी शुरू हो गईं और सांस लेने में दिक्कत हुई। इन में से 11 महिलाओं की मौत हो गई और 34 की हालत नाजुक बनी हुई थी।

 

कारण क्या थे?

कांग्रेस के नेताओं का आरोप था ऑपरेशन में साफ-सफाई नहीं बरती गई और ऑपरेशन जल्दबाजी में किए गए। सरकारी अस्पतालों में ‘अनहाइजीनिक कंडीशंसÓ होने की संभावना होती ही है और ऐसा न भी रहा हो तब भी आसानी से हम ऐसा मान सकते हैं। एक डॉक्टर के रूप में यह सवाल मेरे मन में उठता है कि अनहाइजीनिक कंडीशंस में इन्फेक्शन होने की गुंजाइश रहती ही है जिसमें समय पर इलाज न मिले तब भी ‘सेप्टिसीमिआ’ होने में और इसके बाद मौत होने में 4-5 दिन तो लग ही जाएंगे जबकि महिलाओं को कुछ ही घंटे बाद उल्टियां व सांस लेने में दिक्कत शुरू हुई और दो दिन में 11 महिलाओं की मौत हो गई और 34 नाजुक स्थिति में पहुंच गईं। 60 महिलाएं तुरंत अस्पताल में भर्ती कराई गईं। ऐसे में यह मानना थोड़ा मुश्किल है कि महिलाओं की मौत साफ-सफाई का ध्यान न रखने के कारण हुई होगी। अगर मुहावरे में कहें तो भगवान जाने उन गरीबों के साथ क्या हुआ पर पहली दृष्टि में मन में जो सवाल आता है वह यह है कि इस दुर्घटना में दवाओं की भूमिका हो सकती है। हम सिर्फ संभावना व्यक्त कर सकते हैं असली कारण तो कभी पता नहीं चलता।

जिस वजह से जेनेरिक दवाएं आज इतनी चर्चा में हैं, वह है इसकी कम कीमत। मीडिया में और सोशल मीडिया में यह काफी प्रचारित किया गया है कि ब्रांडेड दवाएं व जेनेरिक दवाओं में एक ही कंटेंट (सामग्री) होता है फिर भी जेनेरिक दवाएं बहुत सस्ती हैं। प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्र खुलने के बाद यह धारणा अधिक प्रबल हुई है। लोगों को लगता है सरकार ने लोगों की सेवा के लिए जेनेरिक दवाएं उपलब्ध कराई हैं। जन औषधि केंद्रों पर दवाओं का एमआरपी कम होता है। पर मेडिकल स्टोर पर जेनेरिक दवाओं पर एमआरपी ब्रांडेड दवाओं के लगभग बराबर ही होता है। उदाहारण के लिए सिप्रोफ्लेक्सेसिन एक एंटीबायोटिक है। इसे सिप्ला फार्मा ‘सिपलॉक्स’ के नाम से बनाती है। लीफोर्ड जो जेनेरिक मेडिसिन बनाती है, सिप्रोफ्लेक्सेसिन को ‘सिप्कोस’ के नाम से बनाती है। ‘सिपलॉक्स’ का एमआरपी 47 रूपए 48 पैसे है। किप्कोज का 45 रूपए 40 पैसे है। 1एमजी एक ऑनलाइन वेबसाइट ह,ै जिस पर ‘सिपलॉक्स’ 40 रूपए 48 पैसे की और ‘किप्कोज’ 30 रूपए 27 पैसे की मिल रही है। एमआरपी में मात्र दो रुपए का ही फर्क है पर 1एमजी ‘सिप्कोज’ को ‘सिपलॉक्स’ से 10 रूपये सस्ती दे रही है। इसके बावजूद 1एमजी ‘सिप्कोज’ से ही ज्यादा कमा रही होगी क्यों कि जेनेरिक दवाएं फार्मासिस्ट (खुदरा दवा बेचनेवालों) को बहुत सस्ती उपलब्ध होती हैं। जेनेरिक दवाएं मेडिकल स्टोर को जितनी कीमत पर मिलती हैं उसकी तीन-चार गुनी उन पर एमआरपी (न्यूनतम खुदरा कीमत) होती है। अगर फार्मासिस्ट 20 त्न डिस्काउंट भी इन दवाओं पर दे दे तब भी बड़ा मुनाफा वह इन दवाओं से कमा सकता है। ग्रामीण इलाकों में जेनेरिक दवाएं काफी बिकती हैं। ग्रामीणों पर इसकी दोहरी मार पड़ती है। पैसा वे ब्रांडेड दवाओं जितना खर्च करते हैं, दवा उन्हें वह मिलती है जिसकी गुणवत्ता के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता।

 

व्यापारी और व्यापार के तरीके

यहां समझने वाली बात यह है कि फार्मा कंपनी चाहे ब्रांडेड हो या जेनेरिक उसका एक मात्र उद्देश्य अपने व्यापार को ज्यादा से ज्यादा फैलाना है। ऐसा नहीं है कि जेनेरिक कंपनियां अपने ब्रांड को स्थापित करने के लिए कोशिश नहीं करतीं। वे नैतिक सीमाएं लांघ कर भी ऐसा करती हैं पर व्यापर की अपनी सीमाएं होती हैं और सभी व्यापारी एक साथ सफल नहीं हो पाते हैं। एक भारतीय फार्मा कंपनी मेनकाइंड 1995 में शुरू हुई और देखते – देखते चर्चित ब्रांड बन गई। 25 साल की यात्रा में साम दाम दंड भेद जो भी तरीके हो सकते हैं कंपनी ने अपनाए। शुरू में दवाओं की कीमत दूसरे ब्रांड्स से थोड़ी कम रखती थी। छोटे-छोटे क्लिनिक पर भी फोकस करती थी। अगर रोज पैड, पैन या कोई छोटी-मोटी चीज भी डॉक्टर की टेबल पर रख दोगे तो एक बार उसके दिमाग में जरूर आयेगा चलो इसकी भी कुछ निकाल देते हैं, किसी न किसी की दवा तो लिखनी ही है। दवाओं की क्वालिटी भी ठीक ही रही होगी रेस्पॉन्ड करती थी।

सन 2008 में गौरीकुंड में था तो केदारनाथ से यात्री आते थे। थोड़ी ठण्ड महसूस करते थे। मेडिकल स्टोर वाले उन्हें मेनफार्स (इसका जेनेरिक नाम सिल्डेनाफिल है। फाइजर इसे व्याग्रा के नाम से बनाती है) दे देते थे (गौरीकुंड में 25 -30 मेडिकल स्टोर तो थे ही सब ऐसा नहीं करते थे 1-2 के बारे में मैंने सुना था।)। सेक्स पावर बहुत से लोग बढ़ाना चाहते हैं (यह काम सिल्डेनाफिल नहीं करती है) उन्हें दे देते थे। दरअसल उस समय कंपनी एक स्ट्रिप के साथ तीन स्ट्रिप मेडिकल स्टोर को फ्री देती थी। मेडिकल स्टोर मुनाफे के लिए उन्हें कहीं न कहीं अनावश्यक रूप से खपाते थे। अब मेरे पास कोई कटिंग नहीं है न इंटरनेट पर कहीं उपलब्ध है, 2010 से पहले की बात है, मैंने अखबार में एक खबर पढ़ी थी कि किसी कंपनी के ब्रांड में सिप्रोफ्लॉक्सेसिन की जगह कोट्रीमोक्साजोल पकड़ी गई थी। सिप्रोफ्लॉक्सेसिन महंगी एंटीबायोटिक थी। कोट्रीमोक्साजोल सस्ती एंटीबायोटिक थी। उस समय कोट्रीमोक्साजोल काम करती थी। अब रेसिस्टेंट हो गई है। यानी असरकारक नहीं रही है। बहुत कम लिखी जाती है।

दवा जेनेरिक हो या ब्रांडेड हो, कोई भी कंपनी समाज सेवा करने नहीं आती है (वे ऐसा दावा भी नहीं करती हैं)मार्केट में वह ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए ही आती है। समाज सेवा करने रामदेव आए हैं (वह ऐसी ताल ठोकते हैं और पहनते भी गेरुआ लंगोट हैं), समाजसेवा करते हुए भी उन्होंने गिलोय और अश्वगंधा से ही हजारों करोड़ का साम्राज्य दो दशक में ही खड़ा कर लिया। इस से हम पूजीपतियों के बिजनेस मॉडल (व्यापार के तरीके) को समझ सकते हैं। ब्रांडेड कंपनियों के पास ब्रांड की विश्वसनीयता है, दुनियाभर में उपभोक्ता हैं। आसमान छूती कीमत रख देंगे, रखते भी हैं, जान बचाने के लिए व्यक्ति वह भी खरीदता ही है। जेनेरिक कंपनियों के पास यही है कि वे ईमानदार उत्पादन करने की जगह कीमत -कम रख कर अपने व्यापर का विस्तार करें, जिसमें अपनी तरह के खतरे हैं।

ब्रांडेड कंपनियों की जो आसमान छूती कीमतें हैं उससे आधुनिक चिकित्सा आम आदमी की पहुंच से पूरी तरह बाहर होती जा रही है। सरकार को उनकी कीमतों पर हर हालत में अंकुश लगाना चाहिए। पर सरकार अंकुश क्या लगाएगी। वह तो कंपनियों के बिजनेस को आसान बनाने के लिए अभी जन विश्वास बिल लेकर आई है। जिन कानूनों में गलत तरीके अपनाने पर कंपनियां को जेल का प्रावधान था, उन्हें बदल कर पांच-दस लाख का जुर्माना कर दिया है।

अब खबर आई है कि एनएमसी ने अपनी गाइड लाइंस स्थगित कर दी हैं। यह बात दिमाग में आ रही थी कि डॉक्टर जेनेरिक नाम लिखेगा तो यह कौन तय करेगा कि किस कंपनी की जेनेरिक मेडिसिन देनी है। जेनेरिक मेडिसिन तो बहुत सारी कंपनी बना रही हैं। एक सवाल यह भी है कि एनएमसी के दिमाग में ऐसे चमत्कारी विचार आते कहां से हैं।

कहीं एनएमसी प्रधानमंत्री के महिला वाले बयान से कुछ ज्यादा ही तो प्रभावित नहीं हो गईं कि सरकार को खुश करने के लिए बिना सोचे समझे कुछ भी करने लगता है।

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– भूपेन सिंह/ श्रुति जैन

सरकारी हस्तक्षेप की वजह से विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता अपने न्यूनतम स्तर पर पहुंच चुकी है। कुलपति और विश्वविद्यालय के नीति निर्धारण के लिए बनी कार्य परिषदें भाजपा और आरएसएस प्रतिनिधियों की तरह व्यवहार कर रही हैं।

भारतीय विश्वविद्यालयों में अकादमिक आजादी पर हमले बेहिसाब बढ़ चुके हैं। जो भी शिक्षक या विद्यार्थी सत्ता की मनमानी पर सवाल उठाते हैं उन्हें सीधे निशाना बनाया जा रहा है। सरकारी हस्तक्षेप की वजह से विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता अपने न्यूनतम स्तर पर पहुंच चुकी है। कुलपति और विश्वविद्यालय के नीति निर्धारण के लिए बनी कार्य परिषदें भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रतिनिधियों की तरह व्यवहार कर रही हैं। लोकतांत्रिक नियमों की मनमानी व्याख्या कर जंगलराज कायम किया जा रहा है।

जून के महीने में दिल्ली की साउथ एशियन यूनीवर्सिटी (साउ) के चार शिक्षकों… स्नेहाशीष भट्टाचार्य (अर्थशास्त्र), श्रीनिवास बर्रा (लीगल स्टडीज), रवि कुमार और इरफानुल्लाह फारुकी (समाजशास्त्र) को सस्पेंड कर दिया गया। उन पर आरोप था कि वे छात्रों को विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ भड़का रहे हैं (कुंतामाला, 2023)। जबकि शिक्षकों ने इन आरोपों को बेबुनियाद बताया। उनका कहना था कि वे सिर्फ मामले का दोस्ताना हल निकालने की बात कह रहे थे। शिक्षकों पर विश्वविद्यालय में ‘माक्र्सिस्ट स्टडी सर्किलÓ चलाने जैसा बचकाना आरोप भी लगाया गया।

साल 2022 में साउथ एशियन यूनीवर्सिटी ने विद्यार्थियों को मिलने वाले वजीफे की राशि घटाकर कम कर दी थी। इससे नाराज विद्यार्थी आंदोलन कर रहे थे। जिसके चलते प्रशासन ने विश्वविद्यालय में पुलिस बुला ली। कुछ विद्यार्थियों को निष्कासित कर दिया गया। इस तरह विद्यार्थियों और प्रशासन के बीच खाई बढ़ती गई। विश्वविद्यालय के रवैये का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि नए विद्यार्थियों से आवेदनपत्रों पर यह भी लिखवाया जा रहा है कि वे किसी धरना-प्रदर्शन में हिस्सा नहीं लेंगे। यह एक तरह से उनसे विरोध करने के अधिकार को छीनना है। अगर विश्वविद्यालय ही विद्यार्थियों को लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित रखने लगेंगे तो फिर वे उन्हें किस तरह की शिक्षा देंगे। आधुनिक विश्वविद्यालयों के ऊपर छात्रों की लोकतांत्रिक चेतना को बढ़ाने की जिम्मेदारी भी है। इसी वजह से छात्र संघों की कल्पना भी की गई है।

साउ को चलाने में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) मुख्य भूमिका निभाता है। लेकिन सार्क देशों का अहम हिस्सा होने और विश्वविद्यालय के यहां होने की वजह से भारत सरकार भी इस मामले में अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती है। साथ ही यह बात भी नहीं भुलाई जा सकती कि यह विश्वविद्यालय भारत की संसद में पारित एक ऐक्ट के तहत चलता है। यही वजह है कि भारतीय अकादमिक जगत में व्याप्त बुराइयां यहां भी वैसी ही नजर आती हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सरकार संसद में कहे कि वह साउ की घटनाओं के लिए सीधे जिम्मेदार नहीं है।

इस बीच साउथ एशियन यूनीवर्सिटी जैसी मिलती-जुलती कई और घटनाएं देश में हुई हैं। दिल्ली से सटे सोनीपत की अशोका यूनीवर्सिटी के एक असिस्टेंट प्रोफेसर सव्यसाची दास को इसलिए नौकरी छोडऩे पर मजबूर कर दिया गया कि उन्होंने अपने एक शोधप्रबंध में पाया था कि भारतीय जनता पार्टी ने 2019 के चुनाव में उन कुछ सीटों पर जहां हार-जीत बहुत कम अंतर से हुई है अंतिम दौर में बड़ी मात्रा में वोटिंग हुई। ये सीटीं भाजपा की झोली में गईं। पर शोधकर्ता ने यह भी कहा कि यह नहीं कहा जा सकता कि वोटिंग में अनिवार्य रूप से हेराफेरी हुई (द हिंदू, 2023)। इस अभिजात प्राइवेट यूनीवर्सिटी में दुनियाभर के शिक्षक पढ़ाते हैं। विद्यार्थियों से लाखों में फीस वसूली जाती है। देश के कई जाने-माने विद्वान सार्वजनिक विश्व-विद्यालयों को छोड़कर इसका हिस्सा बन चुके हैं। इसे शिक्षा के खुले बाजार में एक अंतरराष्ट्रीय ब्रांड बनाकर पेश किया जा रहा है। लेकिन यहां भी दबाव डाला जा रहा है कि शोध ‘सरकारीÓ ही हो।

एक और निजी कॉलेज सिम्बायोसिस पुणे में एक शिक्षक को निशाना बनाया गया है। यहां के एक छात्र ने कक्षा में पढ़ा रहे अशोक सोपन का एक ऐसा वीडियो बनाकर इंटरनेट पर वाइरल करवा दिया जिसमें वह सभी धर्मों के बीच समानता और ईश्वर के एक होने की बात कर रहे थे। यह बात हिंदु कट्टरपंथियों को नागवार गुजरी। शिक्षक के खिलाफ एफआइआर दर्ज की गई और उन्हें धार्मिक भावनाओं को भड़काने के मामले में गिरफ्तार कर लिया गया (पाठक, 2023)।

एक और किस्सा ऑनलाइन कोचिंग कराने वाली बहुचर्चित कंपनी अनअकेडमी के शिक्षक करन सांगवान का है। उन्हें सिर्फ इस बात के लिए ‘ट्रोलÓ किया गया कि उन्होंने पढ़े-लिखे लोगों के राजनीति में आने की वकालत की थी। उन्हें भी नौकरी गंवानी पड़ी। इस तरह कक्षा की गतिविधियों को कानूनी दायरे में लाना और शिक्षकों का नौकरी से निकाला जाना अकादमिक आजादी पर सीधा हमला है। एक जीवंत कक्षा में एक रचनात्मक शिक्षक तरह-तरह से विद्यार्थियों के आलोचनात्मक विवेक को जगाने की कोशिश करता है। अगर उसे कानूनी पचड़ों में इस तरह फंसाया जाने लगेगा और उसकी आजीविका पर चोट की जाएगी तो फिर देश में शिक्षा का भगवान ही मालिक है।

उत्तराखंड के पंतनगर विश्वविद्यालय में एक प्रोफेसर राजेश प्रताप सिंह को इसलिए निलंबित कर दिया गया क्योंकि उन्होंने राज्य सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन की नीतियों की सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर आलोचना की थी। एक प्रोफेसर का विश्वविद्यालय और शिक्षकों के पक्ष में सही बात को उठाना अकादमिक आजादी के साथ ही अभिव्यक्ति की आजादी के संवैधानिक अधिकार से भी जुड़ा मामला है। गौरतलब है कि विश्वविद्यालय के शिक्षकों को राजनीतिक पार्टियों का सदस्य बनने, उनका प्रचार करने और यहां तक कि चुनाव लडऩे तक की आजादी है। अलग-अलग पार्टियों के कई ऐसे नेता संसद और विधानसभाओं में पहुंचते रहे हैं। क्या आने वाले दिनों में ये आजादी भी छीन ली जाएगी?

 

क्या है अकादमिक आजादी?

यह बात तो जग जाहिर है कि कोई भी नया ज्ञान बिना पुरानी मान्यताओं को चुनौती दिये संभव नहीं। इंसानी इतिहास में हमेशा ही पुराने विचारों को चुनौती मिलती रही है और नए विचार आते रहे हैं। बंद समाजों में कई बार नई बात कहने वालों को अपनी जान भी गंवानी पड़ी है। लेकिन आधुनिक समय में लोकतंत्र के उदय के साथ अकादमिक आजादी को सामाजिक-राजनीतिक स्वीकृति मिलती है। इसलिए जब-जब अकादमिक आजादी पर खतरा मंडराने लगे तो उसे लोकतंत्र पर खतरे से जोड़कर देखा जाता है।

अकादमिक आजादी के तहत शिक्षक को बिना किसी राजनीतिक, धार्मिक और विचारधारात्मक दबाव के पढ़ाने, शोध करने, प्रकाशन करने का अधिकार है (गिब्स, 2016)। विश्वविद्यालय सोचने-विचारने, तर्क करने, सहमति-असहमति जताने और खुले विमर्श की जगहें हैं। राज्य के सीधे हस्तक्षेप और धार्मिक विचारों से इन्हें हर संभव दूर रखने की कोशिश की जानी चाहिए। विश्वविद्यालयों को आबादी से दूर बसाये जाने के पीछे भी यही कारण है कि ज्ञान के सृजन में बेवजह कोई बाधा न आये। दुनियाभर के अच्छे माने जाने वाले विश्वविद्यालयों में अकादमिक आजादी से कोई समझौता नहीं किया जाता है। इसकी सैद्धांतिक और दार्शनिक जड़ें इस बात से जुड़ी हैं कि बिना सवाल उठाये कोई ज्ञान संभव नहीं। लेकिन परंपरावादियों को अक्सर सवालों से दिक्कत होती है।

जर्मनी में हम्बोल्ट यूनीवर्सिटी के संस्थापक विल्हेम वॉन हम्बोल्ट (1767-1835) को अकादमिक आजादी की अवधारणा के महत्व को रेखांकित करने वाला प्रारंभिक विचारक माना जाता है। वक्त के साथ उदारवादी लोकतंत्रों में अकादमिक आजादी की अवधारणा को व्यापक स्वीकृति मिलती गई। इसकी अवधारणा अभिव्यक्ति की आजादी से भी जुड़ती है। किसी धार्मिक, राजशाही या तानाशाही वाले समाज में इस आजादी की अपेक्षा करना मुश्किल है। अकादमिक आजादी की अहमियत को समझते हुए यूनेस्को (1997) ने भी इसकी वकालत की। भारत में भी कहने के लिए अकादमिक आजादी का प्रावधान है। राधाकृष्ण कमेटी (1948-49) ने अपनी रिपोर्ट में अकादमिक आजादी को जरूरी बताया था। लेकिन 2016 में सामने आयी रिपोर्ट ऑफ द कमेटी फॉर द इवोल्यूशन ऑफ द न्यू एजुकेशन पॉलिसी (नई शिक्षा नीति के विकास की कमेटी की रिपोर्ट) ने अकादमिक आजादी के विचार को विरूपित करने का काम किया है। हैरानी की बात यह है कि इस सरकारी रिपोर्ट को तैयार करने वाली कमेटी के चार सदस्यों में से तीन सेवानिवृत्त नौकरशाह थे (जयाल, 2018)।

दुनिया के उदारवादी लोकतंत्रों ने तमाम बाधाओं के बावजूद अपने यहां बहुत हद तक अकादमिक गुणवत्ता बनाये रखी है। लेकिन दक्षिण एशिया में भाई-भतीजावाद की वजह से बहुत ही औसत स्तर के व्यक्ति भी विश्वविद्यालयों के शिक्षक बन जाते हैं। वे न अकादमिक आजादी का मतलब समझते हैं और न ही उन्हें उससे कुछ लेना-देना होता है। इस तरह यहां विचारों का पिछड़ापन अकादमिक आजादी को बेमानी बनाने लगता है। कुछ रचनात्मक शिक्षक और विद्यार्थी अकादमिक आजादी पर अड़े रहते हैं। लेकिन उन्हें हर तरह से परेशान करने की कोशिश की जाती है। कई बार उन्हें कानूनी मामलों में फंसा दिया जाता है। जबकि आधुनिक विश्वविद्यालयों को जितना संभव हो सके कानूनी उलझनों और नौकरशाही वाले रवैये से दूर रखने की वकालत की जाती रही है। यह मानकर चला जाता है कि विश्वविद्यालय समाज में बनी-बनायी मान्यताओं पर भी सवाल उठाकर नए ज्ञान की तलाश करने वाली जगहें हैं इसलिए ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में काम कर रहे लोगों पर बेवजह के प्रतिबंध नहीं थोपे जाने चाहिए।

विश्वविद्यालय विद्यार्थियों और शोधार्थियों के लिए बनाये जाते हैं। शिक्षक उनके साथ अपने अनुभवों को साझा करते हैं। इस तरह विद्यार्थी और शिक्षक मिलकर इंसानी ज्ञान में इजाफा करते हैं। बाकी के सारे अकादमिक नौकरशाह चाहे वे कुलपति हों, अध्यक्ष हों या रजिस्ट्रार हों, विद्यार्थियों और शिक्षकों को सुविधाएं मुहैया करवाने के लिए हैं। लेकिन भारतीय विश्वविद्यालयों में होता इसका ठीक उलट है। हमारे यहां अकादमिक नौकरशाहों की नियुक्ति में राजनीतिक हस्तक्षेप की वजह से वे विश्वविद्यालयों में केंद्रीय जगह ले लेते हैं और ज्ञान उत्पादन की गंभीर गतिविधियों से जुड़े लोग हाशिये पर चले जाते हैं। अकादमिक नौकरशाह तमाम लोकतांत्रिक मूल्यों का मखौल उड़ाते हुए किसी बेहूदा तानाशाह की तरह विश्वविद्यालयों को चलाने लगते हैं।

 

पूंजीवादी और सांप्रदायिक हमला

देश के महानगरों में स्थित और ‘ब्रांडेडÓ चरित्र वाले विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थाओं की हलचलें तुरंत मीडिया और बुद्धिजीवियों के बीच जगह पा लेती हैं। लेकिन छोटी जगहों और गुमनाम विश्वविद्यालयों की घटनाएं उस तरह व्यापक समाज का ध्यान नहीं खींच पातीं। जैसे साउ, अशोका, सिम्बायोसिस, अनअकेडेमी की घटनाओं ने सबका ध्यान खींचा। लेकिन पंतनगर विश्वविद्यालय की घटना का कहीं कोई जिक्र ही नहीं हुआ। यहां तक कि विश्वविद्यालय के शिक्षकों की तरफ से भी प्रतिरोध की मुखर आवाज नहीं सुनाई दी। यह खबर स्थानीय अखबारों के एक-दो कॉलमों में सिमटकर, कुछ सोशल नेटवर्किंग साइट्स में आकर गायब हो गई।

दूसरी ओर साउ में शिक्षकों के निलंबन की खबर ने अंतरराष्ट्रीय स्वरूप ले लिया। सैकड़ों अकादमिकों ने निलंबित शिक्षकों के पक्ष में हस्ताक्षर अभियान चलाया। इस तरह निलंबित शिक्षकों ने खुद को अकेला नहीं पाया। ठीक इसी तरह अशोका की घटना के खिलाफ विश्वविद्यालय के अंदर से ही प्रतिरोध के स्वर सुनाई दिये। शिक्षकों और छात्रों ने उत्पीडि़त शिक्षक को वापस लेने की मांग की। कई जाने-माने विद्वानों ने इस घटना की आलोचना की। इससे पहले भी अशोका विश्ववद्यालय से राजनीतिशास्त्री और स्तंभकार प्रताप भानु मेहता को कुलपति और प्रोफेसर के पद से हटना पड़ा था। उन्हें मोदी सरकार की आलोचना करने का खामियाजा भुगतना पड़ा। उस घटना की चर्चा भी भारत में अकादमिक आजादी छीने जाने को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई। सिम्बायोसिस और अनअकेडमी वाली घटनाएं भी मीडिया में छायी रहीं। लेकिन पंतनगर विश्वविद्यालय की घटना के राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय खबर न बन पाने को अभिजात और हाशिये के समाजों की घटनाओं के परिप्रेक्ष में समझा जा सकता है। इससे इस बात का भी अनुमान लगाया जा सकता है कि अगर मीडिया और राजनीतिक गतिविधियों वाले इलाकों में अकादमिक आजादी का यह हाल है तो फिर पिछड़े हुए इलाकों में क्या हाल होगा। एक मायने में यह स्थानीय मीडिया के सरोकार और उन पर राजनीतिक और आर्थिक दबाव के परिप्रेक्ष्य में भी समझा जा सकता है।

इन सभी घटनाओं को गंभीरता से देखने पर पता चलता है कि अगर भारतीय लोकतंत्र को सचमुच में ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढऩा है तो उसे अकादमिक आजादी की गारंटी करनी पड़ेगी वरना सिर्फ विश्वगुरु का जाप करने से कुछ होना-हवाना नहीं है।

आज भारतीय शिक्षा को मुख्य खतरा नवउदारवाद और सांप्रदायिक फासीवाद से नजर आ रहा है। शिक्षा का निजीकरण और सांप्रदायीकरण इसके अहम पहलू हैं। फिलहाल शिक्षा के दुकानदार और हिंदुत्ववादी सरकार दोनों एक-दूसरे का इस्तेमाल करने पर जुटे हैं। ऐसे हालात में अकादमिक आजादी के पक्ष में खड़ा हो पाना और उसे बचा पाना बड़ी चुनौती बना हुआ है। शिक्षक समुदाय में एक डर का माहौल है और ज्यादातर पाला बदलकर सत्ता पक्ष के साथ कदमताल कर रहे हैं।

सामाजिक संस्थाओं को मुक्त बाजार के हवाले करने की वजह से पिछले सालों में बहुत सारे निजी विश्वविद्यालय अस्तित्व में आये हैं। ये विश्वविद्यालय एक तरह से पैसे कमाने का अड्डा बन चुके हैं। तमाम तरह के प्रचार माध्यमों से इन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर का शिक्षण संस्थान बताने की कोशिश की जाती है। भारत की पूरी अकादमिक दुनिया में ही रैंकिंग का बोलबाला चल पड़ा है। प्राइवेट विश्वविद्यालय इस रैंकिंग को पाने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाते हैं। सरकार अपनी जिम्मेदारी से पीछे हटकर ऐसे विश्वविद्यालयों को हर तरह की सुविधाएं मुहैया कराती है। कई निजी विश्वविद्यालयों को बसाने के लिए सरकारों ने किसानों की हजारों एकड़ जमीन कौडिय़ों के भाव हथिया ली। निजीकरण का ही असर हैं देश में निजी विश्वविद्यालयों की संख्या 430 पहुंच चुकी है। जबकि राज्य विश्वविद्यालयों की संख्या 460 और केंद्रीय विश्वविद्यालयों की संख्या 56 है। देश में कुल विश्वविद्यालयों की संख्या 1074 है (यूजीसी, 2023)। बाकी विश्वविद्यालय डीम्ड श्रेणी में है यानी उन्हें अभी पूर्ण विश्वविद्यालय का दर्जा मिलना बाकी है।

सार्वजनिक क्षेत्र में जो विश्वविद्यालय बचे हैं उन्हें भी सामाजिक जरूरत के बजाय धंधे में बदला जा रहा है। उनसे कहा जा रहा है कि वे अपने आर्थिक संसाधन खुद जुटाएं। बीजेपी की दक्षिणपंथी सरकार ने 2014 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे सार्वजनिक संस्थानों को पहले बदनाम करने की कोशिश की और बाद में बीजेपी-संघ कार्यकर्ताओं को वहां फैकल्टी के तौर पर घुसाकर रही-सही कसर भी पूरी कर ली। ऐसे ही देशभर की दूसरी सार्वजनिक शिक्षण संस्थाओं को भी सरकार ने मरणासन्न हालात में पहुंचा दिया है। इसलिए अब वहां से अकादमिक आजादी को बचाने की कोई बड़ी आवाज नहीं सुनाई देती। यही हाल रहा तो धीरे-धीरे भारतीय विश्वविद्यालयों से सिर्फ गोमूत्र और गाय के गोबर की महानता का बखान करने वाले शोध विज्ञान से लेकर समाज विज्ञानों में केंद्रीय जगह लेते जाएंगे।

 

जहालत और धूर्तता के विश्वविद्यालय

माना जाता है कि आधुनिक विश्वविद्यालय एक समुदाय के तौर पर समाज को नई राह दिखाने वाले ज्ञान का सृजन करते हैं और समाज में विभिन्न भूमिकाएं निभाने के लिए तैयार लोगों के ज्ञान को प्रमाणित करते हैं। इसीलिए ऐसी संस्थाओं को चलाने के लिए भी उदार परंपराओं में दीक्षित कोई दूरदृष्टा अकादमिक नेता चाहिए न कि ऐसी परंपराओं से अनजान हरफन मौला शिक्षक-नौकरशाह। पद के गुरूर से भरे अकादमिक नेता ऐसी संस्थाओं की जड़ में ही म_ा डालने का काम करते हैं। विश्वविद्यालय ज्ञान-विज्ञान की एक खुली जगह बनने की बजाय क्षुद्र राजनीति और जोड़-तोड़ के केंद्र बन जाते हैं जैसा कि नजर आने लगा है।

विश्वविद्यालयों में पुलिस बुलाना, स्टडी सर्कल चलाने और प्रशासन की आलोचना करने पर निलंबन करना, शिक्षण में प्रयोग करने पर प्रताडि़त करना, सामान्य बातें हो गई हैं। विश्वविद्यालयों का लोकतंत्रीकरण धीरे-धीरे एक अवांछित विचार बनता जा रहा है। इसीलिए अब छात्र संघों और शिक्षक संघों को अघोषित तरीके से प्रतिबंधित करने की कोशिश की जाती है। इनके अभाव में राजनीतिक संरक्षण मिला प्रशासन बेलगाम होकर काम करने लगता है। जबकि अकादमिक आजादी के पैरोकारों ने शिक्षकों और छात्रों को शिक्षण संस्थानों का सबसे प्रमुख ‘स्टेकहोल्डर’ माना है। हर फैसले में इनकी हिस्सेदारी जरूरी मानी है।

भारतीय विश्वविद्यालयों में राजनीतिक हस्तक्षेप इस कदर बढ़ चुका है कि अब यहां किसी स्वतंत्रचेत्ता अकादमिक नेता को तलाश पाना लगभग असंभव हो चुका है। हालात ये हैं कि नई नियुक्तियों के लिए उम्मीदवारों की ‘संघ आयुÓ देखी जा रही है। ऐसी नियुक्ति पाये शिक्षक कभी सत्ता संरक्षित अकादमिक नौकरशाहों के खिलाफ कुछ बोलेंगे ऐसा सोचना भी बेमानी है। वे बाकायदा प्रशासन के लठैत की भूमिका में खड़े हो जाते हैं। देशभर के विश्वविद्यालयों में इस बात को साफ तौर पर देखा जा सकता है। भाजपा शासित राज्यों के विश्वविद्यालयों में हालात और भी खराब हैं। एक से एक अयोग्य और औसत दर्जे के व्यक्ति विश्वविद्यालयों के खेवनहार बने नजर आ रहे हैं। इस तरह विश्वविद्यालय एक सामाजिक संस्था के तौर पर अपनी भूमिका निभाने में नाकाम होते जा रहे हैं। यही सब वजहें हैं कि विश्वस्तर पर अकादमिक आजादी के मामले में भारत की जगह अब नेपाल, पाकिस्तान और भूटान से भी पीछे चली गई है। पिछले एक दशक में इसमें बहुत ज्यादा इजाफा हुआ है (द वायर, 2023)।

बदलती हुई सामाजिक स्थितियों का ही असर है कि हिंदुत्व और नवउदारवाद की वजह से शिक्षकों और विद्यार्थियों का आत्मबोध ही गुणात्मक रूप से बदल गया है। आदर्शवाद जैसे बीते जमाने की चीज हो गई है। छात्रों और शिक्षकों में लोकतांत्रिक एकजुटता की भावना की बजाय निहित स्वार्थों के लिए नेटवर्किंग की प्रवृत्ति बढ़ी है। ज्यादातर विद्यार्थियों और शिक्षकों के लिए शिक्षा की सामाजिक भूमिका इतनी ही बची रह गई है कि समाज में उनका गुजारा बढिय़ा तरीके से चले फिर चाहे व्यापक समाज का जो हो। यहां तक कि कई बार अकादमिक तौर पर नैतिक बातें करने वाले भी सामाजिक घटनाओं को निरपेक्ष भाव से देखने लगते हैं।

ऐसे दौर में निजी विश्वविद्यालय शिक्षा को ब्रांड में बदलने में जुटे हैं। सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में हिंदुत्व के झंडाबरदार पहले ही कब्जा कर चुके हैं। जो बचे-खुचे खुले दिमाग के शिक्षक रह गए हैं वे अपनी इज्जत बचाने में जुटे हैं। विश्वविद्यालयों से अपने आर्थिक स्रोत खुद जुटाने के लिए कहा जा रहा है। पुरानी पेंशन स्कीम बंद कर शिक्षकों की आर्थिक सुरक्षा पहले ही खत्म की जा चुकी है। अब विद्यार्थियों को दुधारू गाय समझकर हर सेमेस्टर में उनकी फीस बढ़ायी जा रही है। स्थाई शिक्षकों के बजाय अस्थाई शिक्षकों की भर्ती की जा रही है। जिस वजह से वे हमेशा दबाव में रहते हैं। अपने अधिकारों के लिए या सही बात के लिए आवाज उठा पाना उनके लिए बेहद मुश्किल हो जाता है।

ज्ञान को अब उग्र राष्ट्रवाद के दायरे में देखने का दबाव चरम पर है। विश्वविद्यालयों में दो सौ मीटर ऊंचे राष्ट्र ध्वज को अनिवार्य तौर पर फहराना, शौर्य दीवार बनाकर उनमें युद्ध में मारे गए सैनिकों की तस्वीरें लगाना और युद्ध के टैंक को प्रतीकात्मक तौर पर लगाने की वकालत करना, नए दौर की हकीकत है। विश्वविद्यालयों को युद्ध के मैदान की तरह देखने के इस चलन से हर तरफ उत्तेजना और नफरत का माहौल है। डरावने विश्वविद्यालयों का आगमन हो चुका है।

 

संदर्भ:

गिब्स, ए (2016), अकेडमिक फ्रीडम इन इंटरनेशनल हायर एजुकेशन: राइट ऑर रिस्पॉन्सिबिलिटी, एथिक्स एंड एजुकेशन, 11(2), 175-185.

जयाल, नीरजा गोपाल (2018), आइडिया ऑफ अकेडमिक फ्रीडम’, अपूर्वानंद द्वारा संपादित आइडिया ऑफ यूनीवर्सिटी में।

कुंतामाला, विदिशा (2023), ‘साउथ एशियन यूनीवर्सिटी सस्पेंड्स फोर टीचर्स फॉर ‘इनसाइटिंगÓ स्टूडेंट्स’ स्टर, इंडियन एक्सप्रेस

पाठक, अविजित (9 अगस्त, 2023)। ‘एज अ टीचर आइ फील अलाम्र्ड’, इंडियन एक्सप्रेस

हिंदू (20 अगस्त 2023), ‘अशोका यूनीवर्सिटी रो’। प्रोफेसर बालाकृष्ण द्वारा उद्धृत, ‘वायोलेशन ऑफ अकेडमिक फ्रीडम इन लैटर’।

वायर: (3 मार्च, 2023), ‘इंडिया हैज सिग्निफिकैंटली लैस अकेडमिक फ्रीडम नाउ दैन टैन यीअर्स अगो’ : न्यू वी-डेम रिपोर्ट

यूनेस्को (1997): ‘रिकॉर्ड्स ऑफ द जनरल कॉन्फ्रेंस, ट्वैंटी नाइंथ सेशन’, पेरिस, अक्टूबर 21 से नवंबर 2012, खंड-1

यूजीसी (2023) ‘कंसोलिडेटेट लिस्ट ऑफ ऑल यूनीवर्सिस्टीज’

https://www.ugc.gov.in/oldpdf/consolidated %20list%20of%20 All%20universities.pdf

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– रंगनायकम्मा

यदि किसी पार्टी को मतदान में बहुमत हासिल होता है, तो यह माना जाता है कि उसे जनादेश हासिल है। इसीलिए, वे लोग जो चुनावी राजनीति में भाग लेते हैं, मतदान को लोकतंत्र के पर्व के तौर पर व्याख्यायित करते हैं। सिर्फ राजनीतिक दल ही नहीं, बल्कि कुछ ऐसे बुद्धिजीवी भी इस बारे में ऐसी ही मासूमियत के साथ सोचते हैं जो पूरी गंभीरता के साथ जनता के पक्ष में ही खड़े रहते हैं।

यह स्पष्ट है कि मतदान में बहुमत ऐसी पार्टी को मिलता है जो दौलत, सांप्रदायिकता, जातिवाद, जनकल्याण के नाम पर कपटपूर्ण योजनाओं और देशभक्ति के नाम पर अंधराष्ट्रवाद आदि का सहारा लेती हैं। हालांकि ये सब पैंतरे पहले भी काफी लंबे समय से आजमाये जाते रहे हैं, मगर हाल ही के दौर में इनका चलन काफी तेजी से बढ़ता जा रहा है।

यदि किसी पार्टी को मतदान में बहुमत हासिल होता है, तो यह माना जाता है कि उसे जनादेश हासिल है। इसीलिए, वे लोग जो चुनावी राजनीति में भाग लेते हैं, मतदान को लोकतंत्र के पर्व के तौर पर व्याख्यायित करते हैं। सिर्फ राजनीतिक दल ही नहीं, बल्कि कुछ ऐसे बुद्धिजीवी भी इस बारे में ऐसी ही मासूमियत के साथ सोचते हैं जो पूरी गंभीरता के साथ जनता के पक्ष में ही खड़े रहते हैं। अपने ताजा लेख में एक बुद्धिजीवी ने दलील दी कि अगर किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत हासिल न हो तो देश में एकदलीय तानाशाही स्थापित नहीं होगी और इस दल का नेता तानाशाह नहीं बन पाएगा। ऐसी चाहत सत्ताधारी वर्ग और इसके राजनीतिक प्रतिनिधियों के बारे में अज्ञानता को दर्शाती है। किसी दौर में, मैं भी वर्गों के बारे में पूरी तरह से अनभिज्ञ ही थी।

1969 में लिखे अपने उपन्यास ”अंधेरे में…., चूंकि मैं राजनीतिक अंधेरे में थी, मैंने गांधी, नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी की प्रशंसा की झड़ी ही लगा दी। हालांकि, बाद में माक्र्स की ‘पूंजीÓ पढऩे के बाद, मैंने यह सीखा कि शासकों को किस तरह से समझा जाए। आगे चलकर, अपने इस उपन्यास के एक संस्करण में मैंने अपनी गलती को इस तरह स्वीकार किया: ”इस उपन्यास में मैंने नेहरू का उल्लेख एक लोकतंत्र के प्रेमी के तौर पर, एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर किया है जो नस्लीय, धार्मिक और वर्गीय मतभेदों में विश्वास नहीं करता। सच्चाई यह है कि नेहरू भी शोषक वर्ग के ही नेता हैं। 1946-51 के दौरान जब तेलंगाना में गरीब किसानों ने सामंतवाद के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया और जमीन का वितरण किया, तब नेहरू सरकार खून-खराबे पर उतर आई, उसने जमींदारों को सेना की मदद से उनकी जमीनों पर वापस कब्जे दिलवाए और किसानों को यातनाएं दीं। ऐसे नेहरू भला लोकतंत्र के प्रेमी और वर्ग-भेदों से परे कैसे हो सकते हैं? इस तरह मैंने अपनी गलती को सुधारा। लाल बहादुर शास्त्री के बारे में भी मैंने ठीक ऐसा ही किया।

”लाल बहादुर शास्त्री ने अपनी ईमानदारी और लगन के बूते ही प्रधानमंत्री पद को शोभायमान किया था। मैंने इसी तरह उनका वर्णन किया। अगर यह ईमानदारी है, तो यह संपत्तिशाली वर्ग के प्रति ईमानदारी है! वह लगन उसी वर्ग के हित साधने के लिए थी। मैंने लिखा था कि लाल बहादुर शास्त्री ने सत्ता ऐसे संभाली कि भारत-पाक युद्ध के दौरान उन्होंने शत्रु को तबाह कर दिया। ‘शत्रु को तबाह कर देनेÓ का क्या मतलब होता है? ‘शत्रु कौन हैं? पाकिस्तान की जनता भारत की जनता की दुश्मन नहीं है। इन दोनों देशों के बीच में अगर कोई युद्ध हुआ तो वह इस देश के पूंजीपतियों और उस देश के पूंजीपतियों के बीच हुआ था। युद्ध के कारण जिन्हें नुकसान झेलना पड़ा वे दोनों ही देशों के गरीब लोग थे। वे गरीब लोग ही हैं जो सैनिकों के तौर पर काम करते हैं। गरीब जनता ही युद्ध में मारी जाती है।Ó मुझे अपनी गलती का अहसास इस तरह से हुआ।

 

इंदिरा गांधी से मुलाकात

ऐसा ही एक और वाकया है। यह बात शायद मेरे आंध्र प्रदेश साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त करने के कुछ साल बाद, शायद 1966 की है, जब इंदिरा गांधी ने विशाखपट्नम का दौरा किया। तब एक पुलिस अफसर मेरे पास आए और उन्होंने मुझे बताया कि ‘मशहूर हस्तियोंÓ को इंदिरा गांधी से मिलने का न्योता मिला है और इस तरह उन्होंने मुझे इस मुलाकात में शामिल होने को कहा। उस समय अपनी राजनीतिक अज्ञानता के चलते मैं भी वहां चली गई और इंदिरा गांधी से मिली। हमारे बीच कोई बातचीत नहीं हुई। सिर्फ नजरें मिलीं। इंदिरा गांधी हम सब का अभिवादन स्वीकार करने और हम सबके लिए एक ही बार में साझा सम्मान प्रकट करने के लिए हमारे सामने से होकर गुजर गईं! जो लोग श्रम के शोषण पर आधारित शासन के बारे में जानते हों, उन्हें ऐसे शासक वर्ग के प्रतिनिधियों से मिलने नहीं जाना चाहिए। लेकिन मेरी राजनीतिक चेतना तब इस तरह की नहीं थी! जब कोई बुद्धिजीवी अपनी यह इच्छा व्यक्त करता है कि किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलना चाहिए, तो यह भी राजनीतिक अज्ञानता ही है।

राजनीतिक पार्टियां उन वर्गों के हित के लिए काम करती हैं जो समाज में मौजूद होते हैं। कुछ पार्टियों की मौजूदगी पूरे देश में होती है तो कुछ का कामकाज सिर्फ कुछ सूबों तक ही सीमित होता है। ये पार्टियां दो तरह की होती हैं : वे पार्टियां जो शासक वर्ग की सेवा में लगी होती हैं और वे पार्टियां जो मजदूर वर्ग की सेवा में लगी होती हैं। शासक वर्ग वे होते हैं जो मुनाफे, ब्याज और व्यावसायिक कमीशन जैसी आमदनियों पर निर्भर होते हैं। मजदूर वर्गों में दिन-रात खेतों, कारखानों, खदानों, परिवहन आदि में श्रम करने वाले लोग शामिल होते हैं; बंटाई पर काम करने वाले किसान, छोटे स्तर के व्यापारी और दस्तकार आदि इसी श्रेणी में आते हैं।

मजदूर वर्ग की खातिर काम करने के लिए शुरुआत में बनाई गईं कम्युनिस्ट पार्टियां किसी दौर में कुछ हद तक स्वतंत्र रूप से कामकाज किया करती थीं। हालांकि, पिछले 60 वर्षों में वे किसी न किसी शासक वर्ग की पार्टी जैसा ही बर्ताव कर रही हैं। वे इस भ्रम में फंसकर किसी बुर्जुआ पार्टी की पिछलग्गू बनने की तलाश करती रहती हैं कि ”वह पार्टी इस पार्टी के मुकाबले ज्यादा खतरनाक है। जबकि उन दोनों ही पार्टियों के वर्ग चरित्र में असल में भला क्या बुनियादी फर्क होता है? उदाहरण के लिए, एक सत्ताधारी पार्टी ने आदिवासियों के आंदोलन को ‘ग्रीन हंट’ के नाम पर कुचलने का प्रयास किया तो दूसरी पार्टी ने भी यही काम ‘प्रहारÓ नामक ऑपरेशन के तहत किया! एक पार्टी ने खुलेआम आपातकाल की घोषणा कर दी तो दूसरी पार्टी ऐसी कोई घोषणा किए बिना ही दमन का सहारा ले रही है। हर सत्ताधारी पार्टी अपनी विपक्षी पार्टियों को कमजोर करने के लिए अपने नियंत्रण में जांच एजेंसियों का दुरुपयोग करती है। सत्ताधारी पार्टी छोटे उद्यमियों को बर्बाद करती है और सारी सुविधाएं बड़े पूंजीपतियों को देती है, जो इसे करोड़ों रुपए का चंदा देते हैं। ‘आत्मसम्मानÓ और ‘आत्मनिर्भर भारतÓ जैसे मंत्रों का जाप करते हुए, यह विदेशी पूंजीपतियों के लिए पूरी तरह द्वार खोल देती है। कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर, यह मजदूर वर्ग को खैरात की तरह मुफ्त की सौगातें बांटती है, उनका वोट पाती है और अपनी ताकत को बारम्बार बनाए रखने का प्रयास करती रहती है।

हालांकि आर्थिक नीतियों के मामले में कांग्रेस पार्टी और भाजपा में कोई अंतर नहीं है, लेकिन ‘बहुसंख्यक सांप्रदायिकताÓ भाजपा की ही अतिरिक्त विशेषता है। यदि कोई उनकी इस बुराई पर सवाल दागता है तो वे जवाब देते हैं, ”हम कोई अकेले सांप्रदायिक थोड़े ही हैं! आप कह सकते हैं कि 2002 में हमने मुसलमानों के साथ कुछ किया था।

लेकिन, हमसे बहुत पहले 1984 में क्या कांग्रेस पार्टी ने सिखों को जिंदा नहीं जलाया था? इस तरह वे कांग्रेस के कुकृत्यों पर जवाबी हमला करते हुए अपनी कारगुजारियों का बचाव करते हैं। ”क्या कांग्रेस के शासन में सांप्रदायिक दंगे नहीं होते हैं?’’ वे ऐसे सवाल करते हैं, भले ही इस तरह के दंगों में उनके संघ परिवार की भूमिका रही होती है।

इस सब में सबसे मजेदार बात है विधायकों और सांसदों का एक पार्टी से दूसरी पार्टी में दलबदल! कल तक जो एक-दूसरे के साथ हद दर्जे की ऐसी बदजुबानी कर रहे थे कि जिसे न बोला जा सकता है और न ही लिखा जा सकता है, वे शाम होते-होते अपनी पार्टियां बदल लेते हैं। क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि इन पार्टियों में इनके वर्ग चरित्र और वर्ग हितों के मामले में कोई फर्क नहीं है? एक और अजीब बात यह है कि सभी पार्टियों में ऐसे अनेकों विधायक और सांसद होते हैं जिनके खिलाफ हत्या, बलात्कार और आर्थिक अपराधों के मामले दर्ज हो रखे होते हैं। ऐसे होते हैं हमारे शासक!

शोषण की राजनीति का चरित्र जब ऐसा है तो इस तरह के तर्क देने का कोई अर्थ नहीं रह जाता कि ‘यह पार्टी उस पार्टी से ज्यादा खतरनाक है! आओ, पहले इस पार्टी को सत्ता से बेदखल करते हैं। दूसरी पार्टी को बाद में देख लेंगे। इसी तरह से, यह चाहना भी एक भ्रम ही है कि किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलना चाहिए। अगर किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं भी मिलता है तो इससे क्या फर्क पड़ता है? क्या यह अन्य पार्टियों के साथ गठबंधन कर सत्ता में नहीं आ सकती? चाहे कोई पार्टी अकेली सबसे बड़ी पार्टी बनी रहे या फिर अन्य पार्टियों के साथ गठबंधन कर ले, आखिरकार यह कौन सा महान कार्य पूरा करती है? श्रम के शोषण को बिना रुकावट के आसान बनाए रखने के अलावा और कुछ भी नहीं।

खैर, ऐसे में जनता के पक्ष में खड़े रहने वाले बुद्धिजीवियों और राजनीतिक दलों को क्या करना चाहिए? श्रम के शोषण का पक्ष लेने वाली राजनीतिक पार्टियों से जुड़े बिना वर्ग संघर्ष संबंधी गतिविधियों को जारी रखना चाहिए।

इसकी बजाय अगर वे दोनों शोषणकारी राजनीतिक धड़ों में से किसी एक के साथ गठबंधन कर लेते हैं, तो इससे मेहनतकश जनता को क्या लाभ मिलेगा? उसे तो न जाने कितने वर्षों तक किसी न किसी शासक वर्ग की पार्टी की पूंछ बनकर ही रहना पड़ेगा। तो फिर, ये मेहनतकश जनता को श्रम के शोषण पर टिकी इस दुनिया को बदल डालने के लिए जरूरी वर्ग चेतना पर आधारित कार्यक्रम कब देंगे? सिर्फ तब ही, जब वे शासक वर्ग की राजनीति के बारे में मौजूद भ्रमजाल से मुक्ति पा लेंगे। राजनीतिक भ्रमजाल से मुक्त होने के लिए, हमें माक्र्स के इस सुझाव पर अमल करना होगा: ”जहां मजदूर वर्ग एक संगठन के रूप में अभी इतना उन्नत नहीं हुआ है कि वह शासक वर्ग की सामूहिक शक्ति, यानि राजसत्ता के खिलाफ निर्णायक अभियान चला सके, वहां उसे किसी भी स्तर पर इस शक्ति के खिलाफ लगातार आंदोलन के जरिए और शासक वर्ग की नीतियों के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया रखते हुए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। अन्यथा, यह उनके हाथों का खिलौना बनकर रह जाता है।‘’

अनु. : सौरभ चतुर्वेदी

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बरास्ता चंद्रमा, मानवता का भविष्य https://www.samayantar.com/%e0%a4%ac%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a4%be-%e0%a4%9a%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%ae%e0%a4%be-%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%b5%e0%a4%a4%e0%a4%be-%e0%a4%95/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%ac%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a4%be-%e0%a4%9a%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%ae%e0%a4%be-%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%b5%e0%a4%a4%e0%a4%be-%e0%a4%95/#comments Mon, 02 Oct 2023 15:39:39 +0000 https://www.samayantar.com/?p=1099 ज्ञान-विज्ञान कोई स्थिर चीज नहीं है। ज्ञान का संबंध समाज से है और उसका विस्तार इस बात पर निर्भर करता है कि कोई समाज ज्ञान [...]

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ज्ञान-विज्ञान कोई स्थिर चीज नहीं है। ज्ञान का संबंध समाज से है और उसका विस्तार इस बात पर निर्भर करता है कि कोई समाज ज्ञान के प्रति किस तरह का रुख अपनाता है।

 

”मैं इस सीधे से स्पष्टीकरण पर यकीन करता हूं कि ईश्वर नहीं है। ब्रह्मांड को किसी ने नहीं बनाया और कोई हमारी नियति को निर्देशित नहीं करता है।‘’ – स्टीफेन हॉकिंग

चंद्रमा की सतह पर सफलता पूर्वक चंद्रयान उतारने के लिए देश के उन वैज्ञानिकों, तकनीशियनों को हार्दिक बधाई, जो इस परियोजना से जुड़े हैं। इसके जो वैज्ञानिक और राजनीतिक लाभ हैं वे तो खैर हैं ही, पर हमारे समाज के लिए, जो पिछले एक दशक से धार्मिकता की जकड़ में है, इसका संदेश कहीं ज्यादा बड़ा है। उसे रेखांकित करना भारत ही नहीं बल्कि, विशेषकर तीसरी दुनिया के लिए भी, उतना ही जरूरी है। इस दुर्योग के बावजूद कि इसरो के वर्तमान प्रमुख श्रीधर पणिकर सोमनाथ ने कुछ माह पहले ही कहा था कि आधुनिक विज्ञान के सिद्धांत वेदों से आए हैं और बीजगणित से लेकर अंतरिक्ष तक में पश्चिम ने हमारी नकल की है।

यहां सिर्फ  याद दिलाना काफी है कि ज्ञान-विज्ञान कोई स्थिर चीज नहीं है। ज्ञान का संबंध समाज से है और उसका विस्तार इस बात पर निर्भर करता है कि कोई समाज ज्ञान के प्रति किस तरह का रुख अपनाता है। एक तरफ वह समाज है, जो यह मानता है कि ”वह सब कुछ पहले से ही जानता है। उसके यहां सब कुछ पहले से ही था, तो निश्चित है कि उस समाज की समझ में कोई आधारभूत गड़बड़ है। ज्ञान उसका है जो इसका इस्तेमाल करता है और आगे बढ़ाता है। किसी भी ज्ञान को अंतिम मानकर चलने वाले समाज में विज्ञान का विकास होना तो रहा दूर, वैज्ञानिक दृष्टिकोण का भी विकास होना संभव नहीं है। ज्ञान के संदर्भ में यह महत्वपूर्ण नहीं है कि ज्ञान की कोई शाखा कहां से चली, महत्वपूर्ण यह है कि वह कहां तक पहुंची। यानी किसी समाज ने उसे किस गति से अपनाया और कितना आगे बढ़ाया। दूसरे शब्दों में यह एक सतत प्रक्रिया है इसलिए यह, यानी ज्ञान, उन सबका है, जो भी इस प्रक्रिया में शामिल हैं। कहना गैरजरूरी है कि हमारे पड़ोसी एशियाई देश जापान, चीन और कोरिया में जो प्रगति आज नजर आ रही है, उसके मूल में यही दृष्टि है।

यह रेखांकित करना आवश्यक है कि आज हमारे देश ने जो हो पाया है, उसका संबंध आजाद भारत के नेताओं के आधुनिक दृष्टिकोण और इस दिशा में उनके द्वारा उठाए गए उन कदमों से है, जिनकी स्वाभाविक परिणति के रूप में हमारे सामने, सारी अड़चनों और वैचारिक जड़ता के बावजूद बहुत सारे संस्थान और परंपराएं अभी भी सक्रिय हैं। यानी देश में आज जो कुु छ इतनी सरलता और सफलता से हो रहा है वह, पिछले सात दशक पहले शुरू हुए ज्ञान-विज्ञान के प्रसार के कारण ही संभव हुआ है। स्वयं श्रीधर सोमनाथ इसरो नामक संस्थान के दसवें प्रमुख हैं।

इस उपलब्धि का संबंध उन नीतियों से भी है जिन्होंने देश में शिक्षा को सार्वजनिक बनाया और ज्ञान के मंदिर के द्वार सब के लिए खोले। अगर ऐसा न होता तो यह अचानक नहीं है कि आज दक्षिण से लेकर उत्तर और पूरब से लेकर पश्चिम तक, देश के आम सरकारी/अद्र्ध सरकारी स्कूलों और अपरिचित दूरदराज के कालेजों के विज्ञान के छात्र चंद्रयान जैसे मिशन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते नजर आ रहे हैं। यह कम अजूबा नहीं है कि ये युवा मथुरा, मुजफ्फरनगर, खतौली, भिवाणी, हिसार जैसे ‘काउ बैल्टÓ के शहरों के हैं और वहीं के सरकारी स्कूलों और कालेजों से शिक्षा पाए हैं। कुछ आइआइटी के भी हैं, तो कुछ जामिया मिलिया इस्लामिया जैसे सरकारी विश्वविद्यालय के इंजीनियरिंग कालेज से पढ़े हैं, पर इनमें से अधिकांश की पृष्ठभूमि मध्य और निम्न-मध्यवर्ग की है। सरकारी कालोनियों और रेलवे जैसे संस्थानों की कालोनियों के सरकारी स्कूलों से निकले बच्चों की भी इस अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उदाहरण के तौर पर वीर मुतुवेल जो रेलवे के एक तकनीशियन के सुपुत्र हैं और विल्लुपुरम, तमिलनाडु की रेलवे कालोनी के स्कूल में जिन्होंने शुरुआती शिक्षा पाई है, आज चंद्रयान- 3 परियोजना के निदेशक हैं।

यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि इस मिशन की सफलता में सौ से अधिक मध्य और निम्न-मध्यवर्गी महिलाएं वैज्ञानिकों और तकनीशियनों के रूप में जुड़ी हैं। इनमें से कई देश के ऐसे राज्यों और समाजों से हैं जहां औरतों को कुछ ही दशक पहले तक बिना घूंघट के निकलने तक नहीं दिया जाता था। आज इन्हें किसी भी रूप में पौराणिक-धार्मिक स्त्रियों की मिथकीय छवि या परंपरा से नहीं जोड़ा जा सकता है, अपने सोहाग चिह्नों के बावजूद, ये आनंदी बाई जोशी, जानकी अम्माल और कमला सोहिनी जैसी वैज्ञानिकों की जीवंत परंपरा की उत्तराधिकारिणी हैं।

धर्म-धर्म का जाप करनेवाले भूल जाते हैं कि अगर यह समाज सिर्फ परंपराओं और मान्यताओं तक ही सीमित रहा होता तो जो आज हम कर पा रहे हैं, और जिसका श्रेय वर्तमान सरकार बढ़-चढ़ कर ले रही है, क्या संभव होता? या फिर इस शृंखला में जो आगे होना है, वह सब हो पाता या हो पायेगा? ये आइआइटी, इंजीनियरिंग कालेज, मेडिकल कालेज, प्रयोगशालाएं, विश्वविद्यालय आदि अगर नहीं बनाए गए होते और इन में पढऩे के रास्ते सब के लिए खुले नहीं होते तो क्या ये निम्न और निम्न-मध्यवर्ग से आनेवाले लोग श्रीहरिकोटा में जिस आत्मविश्वास और स्वाभिमान से भरे नजर आ रहे थे, नजर आ पाते? संभव है तब वहां काम करनेवाला भी कोई न मिलता क्योंकि उच्च व उच्च मध्यवर्ग के हमारे युवा सीधे ही अमेरिका पहुंच जाते हैं और असंभव नहीं कि नासा और एलन मस्क की कंपनी स्पेस एक्स में सेवा प्रदान कर रहे हों।

हमें भूलना नहीं चाहिए कि शिक्षा का बढ़ता व्यवसायीकरण और निजी क्षेत्र का हर चीज में दखल अंतत: इस देश के अधिसंख्य निम्न और निम्न-मध्यवर्ग के लिए भविष्य के सारे रास्ते बंद करने जा रहा है। अभी तो ग्रेजुएशन कर बच्चे डिलिवरीमैन बन पा रहे हैं, वह समय दूर नहीं जब उन्हें ऐसे काम के लिए भी दर-दर भटकना पड़ेगा। पर तब इस देश में प्रतिभा का अकाल भी हो जाएगा। यह बात और है तब शासकों की सेवा एआई यानी आर्टीफीशियल इंटेलीजेंस कर रहा होगा। खैर…

 

दूसरा पक्ष

कुछ सवाल भी हैं?  सबसे बड़ा यह कि आखिर ऐसा देश जहां आज भी लगभग 12 प्रतिशत जनता को दो जून की रोटी नसीब न हो, वहां अंतरिक्ष अनुसंधान पर खरबों रुपए क्यों खर्च किए जा रहे हैं? क्यों सोचा नहीं जा रहा है कि यह पूंजी समाज के सम्यक विकास के काम लगे? यह सवाल एक मायने में दुनिया के विकसित देशों, विशेषकर अमेरिका से भी पूछा जाना चाहिए कि वह ऐसा क्यों कर रहा है जब दुनिया में भुखमरी हर दिन बढ़ रही हो?

अगर हमें मनुष्य की आधारभूत प्रवृत्तियों को समझना है तो यह भुलाया नहीं जा सकता कि मनुष्य भी अंतत: पृथ्वी के अन्य प्राणियों की तरह का एक प्राणि है। उसकी आधारभूत जरूरतें वही हैं जो किसी भी प्राणि की होती हैं। उसके और भी बहुत से काम, जैसे रोटी की तलाश करना भी, ठीक वैसा ही है जैसा इस पृथ्वी के अन्य प्राणि करते हैं–पेट भरने के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाना। इसके बावजूद कि मानव ने अपने जीवनयापन के लिए कई तरीके निकाल लिए हैं और वह लगभग स्थायी हो गया है पर उसकी तलाश की प्रवृत्ति यथावत है। इस आदिम प्रवृत्ति का ही भयावह रूप हम उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के रूप में आज तक देख रहे हैं। स्पष्ट है मानव, अपने पूर्वजों की तरह, अब सिर्फ पेट भरने से संतुष्ट हो जानेवाला प्राणि नहीं रहा है बल्कि किसी हिंस्र पशु से भी बद्दतर हो चुका है।

मानव नाम के प्राणि ने अन्य प्राणियों को ही अपने कब्जे में नहीं किया बल्कि अपनी ही तरह के अन्य मानवों को भी अपना गुलाम बनाया। इसका सबसे भयावह उदाहरण योरोपीयों द्वारा एशिया, अफ्रीका और अमेरिका के अनेकों देशों के संसाधनों की निर्मम लूट और वहां का औपनिवेशीकरण भी है। अफ्रीका से गुलाम बनाकर लाखों लोगों को जानवरों की तरह रस्सियों और जंजीरों से बांध कर जहाजों में ठूंसकर महीनों की समुद्री यात्रा के बाद अमेरिका और लातीनी अमेरिका ले जाया गया और वहां के निवासियों का कत्लेआम कर उनकी जमीन पर अफ्रीकी और एशियाई गुलामों से खेती करवाई गई। ऐसा ही कत्लेआम आस्ट्रेलिया में हुआ जिसे ब्रिटेन ने अपने अपराधियों से मुक्ति पाने के लिए पूरी तरह अपने समाज के अवांछित लोगों को सौंप दिया था।

पृथ्वी के संसाधनों का जिस गति से आज मशीनों के माध्यम से शोषण हो रहा है वैसा मानव के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। इसके चलते जो प्राकृतिक उथल-पुथल मची हुई है- कहीं आग है तो कहीं अतिवृष्टि; कहीं खानें जल रही हैं तो कहीं पहाड़ ढह रहे हैं और कहीं समुद्र तथा नदियां प्रलय मचा रही हैं। यह बात और है कि जिन लोगों ने यह तबाही मचाई है अब उनके दरवाजों पर भी आग व पानी अपने प्रचंड रूप में पहुंच गया है। मौसम की सारी जानकारी के बावजूद ये लोग भी अब अपने को असुरक्षित पा रहे हैं। अब वही लोग अंतरिक्ष में जाने के लिए आतुर हैं। जो विश्वव्यापी हड़बड़ाहट नजर आ रही है उससे साफ है कि अंतरिक्ष की खोज का संबंध मूलत: उन लोगों की इस लालसा से जुड़ा है कि और जो हो, सो हो, हमारी और हमारे संतानों की सुरक्षा किसी भी कीमत पर हो।

मनुष्य के एक हिस्से ने अपनी सुविधाओं के लिए दुनिया में जिस तरह की उथल-पुथल मचाई हुई है उस सबके चलते लगता नहीं कि पृथ्वी अब ज्यादा देर तक रहने योग्य रह पाएगी। यह बात उन सब लोगों को अच्छी तरह पता है जो इस विनाश के जिम्मेदार हैं। वे शातिर लोग हैं जो अब दूसरे ग्रहों में बसने की तैयारी कर रहे हैं। पृथ्वी के हर संभव संसाधनों का उपयोग कर दूसरे ग्रहों को तलाशने में लगाया जा रहा है। अगर ऐसा नहीं है तो फिर अंतरिक्ष के नए ठिकानों की तलाश क्यों हो रही है? दूसरा रास्ता भी तो है, जो पृथ्वी को बचाने का है। पर तब विशेषकर उन लोगों को जो धरती के अंधाधुंध दोहन के लिए जिम्मेदार हैं, अपने रहन-सहन और तौर तरीकों में बदलाव करना होगा। स्पष्ट है कि यह उन्हें गवारा नहीं है। लगता है सारी दुनिया का सत्ताधारी वर्ग अब पृथ्वी से उम्मीद छोड़ चुका है। चंद्रयान-दो के चंद्रमा पर उतरने के दो दिन बाद ही एलन मस्क की कंपनी स्पेस एक्स और अंतरिक्ष के क्षेत्र में काम करनेवाली अमेरिकी सरकारी कंपनी नासा ने मिल कर जो अंतरिक्षयान छोड़ा उसमें अमेरिका के अलावा डेनमार्क, रूस और जापान के अंतरिक्ष यात्री (एस्ट्रोनॉट) हैं जो वहां रह रहे यात्रियों की जगह लेंगे और स्वयं अगले छह माह इंटरनेशनल स्टेशन में रहेंगे। महत्वपूर्ण यह है कि यह स्टेशन 1998 से अंतरिक्ष में है और इसमें परीक्षण किए जा रहे हैं। यह क्रम 2030 तक जारी रहेगा।

आदमी ने जिस हद तक पृथ्वी का दोहन और उसका विनाश कर लिया है ऐसे में प्राकृतिक आपदाओं के सिलसिले का रुक पाना संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में दुनिया में शांति रह पाएगी यह भी शंकास्पद है। ये बातें दुनिया का शासकवर्ग अच्छी तरह से जानता है। ऐसी स्थिति में जो विकल्प रह गया है वह यही कि इस पृथ्वी की जनसंख्या का एक भाग चांद या मंगल या फिर और किसी ग्रह में चला जाएगा। बाकी जो इस भूखी, प्यासी आपदाओं से ग्रस्त पृथ्वी पर रह जाएंगे, वे अंतरिक्ष की कक्षाओं में आये दिन प्रवेश कर रहे यानों को देखते ही रह जाएंगे।

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‘गागर में सागर-सा पानी’ https://www.samayantar.com/%e0%a4%97%e0%a4%be%e0%a4%97%e0%a4%b0-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%97%e0%a4%b0-%e0%a4%b8%e0%a4%be-%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%80/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%97%e0%a4%be%e0%a4%97%e0%a4%b0-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%97%e0%a4%b0-%e0%a4%b8%e0%a4%be-%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%80/#respond Fri, 08 Sep 2023 09:31:24 +0000 https://www.samayantar.com/?p=1092 – योगेंद्र दत्त शर्मा शैलेंद्र के संदर्भ में चकित करने वाली बात यह है कि फिल्म की चाक्षुक विधा ने उनकी सर्जनात्मकता को नए आयाम [...]

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– योगेंद्र दत्त शर्मा

शैलेंद्र के संदर्भ में चकित करने वाली बात यह है कि फिल्म की चाक्षुक विधा ने उनकी सर्जनात्मकता को नए आयाम दिए।

 

साहित्य-जगत में प्रगतिशील कवि के तौर पर शैलेंद्र की पहचान किसी भी रूप में कम नहीं है। इसके बावजूद इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि जन साधारण के बीच उनकी ख्याति फिल्मों से संबंधित गीतकार के तौर पर कहीं अधिक है। फिल्मों के लिए लिखे गए उनके गीतों के कारण शैलेंद्र की एक विशिष्ट पहचान बनी और वह जन-जन के बीच लोकप्रिय हुए।

शैलेंद्र में अद्भुत सर्जनात्मक प्रतिभा थी। कथा के पात्र, विषय और परिस्थितियों की सारी विशेषताएं बहुत कम शब्दों में समेट लेने में वह सिद्धहस्त थे। साहित्यिक भाषा पर उनका पूरा अधिकार था ही, ब्रज और भोजपुरी भाषाओं में भी वह पारंगत थे। हिंदी कविता की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा के समर्थ वाहक तो वे थे ही। महत्वपूर्ण यह है कि आम बोलचाल की भाषा और लोक संस्कृति में उनकी गहरी पैठ थी। रेखांकनीय यह प्रतिभा उनके फिल्मी गीतों में दार्शनिकता के पुट से समृद्ध कर देती है।

शैलेंद्र ने फिल्मी गीतों में क्रांति का सूत्रपात किया। फिल्मों में उनके पदार्पण से पहले ठेठ उर्दू का बोलबाला था। उन्होंने सहज, सरल हिंदी का एक नया मुहावरा विकसित किया, जो आम लोगों की जबान पर चढ़ सके। यही कारण है कि हिंदी के साथ-साथ भोजपुरी फिल्मों में भी उनके लिखे गीत अत्यंत लोकप्रिय हुए। इस मामले में जनता के बीच जाकर उसकी ही भाषा में कविताएं लिखकर सुनाने का उनका अनुभव बहुत काम आया। भाषा की संप्रेषणीयता पर उनकी मजबूत पकड़ का रहस्य यही है।

शैलेंद्र के गीतों के शब्द ऊपरी तौर पर भले ही सीधे, सरल लगते हों, लेकिन वे अर्थगर्भित होते हैं। कई बार तो उनकी अर्थ-भंगिमाएं भी बहुआयामी होती हैं। कहीं-कहीं वह दो परस्पर-विरोधी पदबंधों के माध्यम से उलटबांसी का चमत्कार पैदा करने की कोशिश करते हैं। मधुमती  फिल्म का गीत इसका उदाहरण है, जिसमें एक पंक्ति है – मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी/ भेद ये गहरा बात जरासी!’ इसी तरह गाइड की एक पंक्ति है ‘आज फिर जीने की तमन्ना है /आज फिर मरने का इरादा है!

इस तरह की उक्तियां गहरे अंतद्र्वंद्व का परिणाम होती हैं। गाइड की नायिका रोजी नृत्यांगना है। वह अपने पुरातत्ववेत्ता पति मार्को की उपेक्षा की घुटन से त्रस्त है और बाहर निकलने के लिए बेचैन है। फिल्म का नायक राजू गाइड उसे पायल लाकर देता है। वह उमंगों से भर जाती है और अपनी गृहस्थी को दांव पर लगाकर घुटन की बेडिय़ां तोड़ देने के लिए व्याकुल हो उठती है। जीने तमन्ना और मरने का इरादा जैसी अभिव्यक्ति इसी अंतद्र्वंद्व की परिणति है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इस तरह की अभिव्यक्ति शैलेंद्र ही कर सकते थे।

इस संदर्भ में एक उल्लेखनीय प्रसंग है। गाइड के गीत पहले हसरत जयपुरी से लिखवाये जा रहे थे। उक्त स्थिति पर उन्होंने जो गीत लिखा, वह निर्देशक विजय आनंद को पसंद नहीं आया। इस पर हसरत जयपुरी कुछ झल्लाकर बोले: ”एक नाचने वाली तवायफ के लिए मैं और क्या लिखूं?’’ इस पर विजय आनंद ने कहा, ”अगर रोजी को आपने इतना ही समझा है, तो रहने दीजिये। हम किसी और से लिखवा लेंगे!’’ इसके बाद गीत लिखने का काम शैलेंद्र को सौंपा गया।….

गीत में रोजी के अंतद्र्वंद्व और मुक्ति के अहसास की शुरुआत ही इन पंक्तियों से होती है: कांटों से खींच के ये आंचल / तोड़ के बंधन बांधी पायल / कोई रोको दिल की उड़ान को / दिल वो चला / हा हा …!’

गाइड  फिल्म के गीत एक से बढ़कर एक हैं। फिल्म की सफलता में इसके गीतों की भूमिका के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। ये गीत फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने में ही सहायक नहीं हैं, बल्कि उसे रचनात्मकता के चरम धरातल पर पहुंचा देते हैं। अपनी गहनता और सघनता के बल पर ये सामान्य-से कथानक को दार्शनिक आयाम प्रदान कर देते हैं। गाता रहे मेरा दिल/ तू ही मेरी मंजिल’, ‘पिया तोसे नैना लागे रे / जाने क्या हो अब आगे रे’, ‘दिन ढल जाए हाए रात जाए/ तू तो आए तेरी याद सताये’, ‘क्या से क्या हो गया/ बेवफा, तेरे प्यार में’, ‘वहां कौन है तेरा / मुसाफिर जाएगा कहां जैसे गीत किसी भी पैमाने से साधारण की श्रेणी में नहीं आते।

”दिन ढल जाए…’’ गीत के अंतरे में पंक्तियां आती हैं : ‘तेरेमेरे दिल के बीच अब तो सदियों के फासले हैं / यकीन होगा किसे कि हमतुम इक राह संग चले हैं!’ इस तरह की अभिव्यक्ति अन्यत्र दुर्लभ है।

गाइड फिल्म की शुरुआत राजू गाइड के जेल से छूटने के दृश्य से होती है। उसके पास प्रेम और परिवार से मिले तिक्त अनुभवों का ढेर है। प्रश्न यह है कि जेल से छूटकर वह जाए कहां! उसका परिसर और परिवेश ही अब उसका नहीं रहा। दृश्यों के पाश्र्व में सचिन देव बर्मन का गाया गीत चल रहा है:

वहां कौन है तेरा, मुसाफिर जाएगा कहां!/ दम ले ले घड़ीभर, ये छैंया पाएगा कहां!…/ बीत गए दिन, प्यार के पलछिन, सपना बनी वो रातें /भूल गए वो, तू भी भुला दे / प्यार की वो मुलाकातें / सब दूर अंधेरामुसाफिर जाएगा कहां!…/ कोइ भी तेरी, राह देखे/ नैन बिछाये कोई /दर्द से तेरे, कोई तड़पा/ आंख किसी की रोई/ कहे किसको तू मेरामुसाफिर जाएगा कहां!… /तूने तो सबको राह बताई/ तू अपनी मंजिल क्यों भूला/ सुलझाके राजा औरों की उलझन / क्यों कच्चे धागों में झूला/क्यों नाचे सपेरा….मुसाफिर जाएगा कहां! / कहते हैं ज्ञानी, दुनिया है फानी / पानी पे लिखी लिखाई/ है सबकी देखी, है सबकी जानी/ हाथ किसीके आई / कुछ तेरा ना मेरा….मुसाफिर जाएगा कहां!….

इस तरह की दार्शनिक अभिव्यक्ति विरल ही कही जाएगी। आमतौर पर फिल्मों में यह सब नहीं था, न ही आज है। यह शैलेंद्र की ही सामथ्र्य है कि वह सामान्य संदर्भों को ऊध्र्व धरातल पर पहुंचा देते हैं। ‘क्यों नाचे सपेराÓ तो अद्भुत और अकल्पनीय अभिव्यक्ति है।

शैलेंद्र का कवि-व्यक्तित्व अत्यंत असाधारण था। यह असाधारणता उनके फिल्मी कैरियर के आरंभ में ही नजर आने लगती है। ‘आवारा हूंगर्दिश में हूं, आसमान का तारा हूं’  लिखकर जैसे वह अपनी साधारणता में भी असाधारणता की घोषणा ही कर डालते हैं। यही ठसक उनके श्री 420 के इस गीत में भी दिखाई देती है, जिसमें वह जूता और पतलून जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने का साहस दिखलाते है:

मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्तानी/ सिर पे लाल टोपी रूसी/ फिर भी दिल है हिंदुस्तानी! …होंगे राजे, राजकुंवर, हम बिगड़े दिल शहजादे/हम सिंहासन पर जा बैठें, जबजब करें इरादे/चलना जीवन की कहानी, रुकना मौत की निशानी/सिर पे लाल टोपी रूसी/ फिर भी दिल है हिंदुस्तानी !’’

अपने गीतों में शैलेंद्र ने नए-नए भावों और नई-नई कल्पनाओं के जरिये नए-नए प्रयोग किये और फिल्मी गीत-विधा को सृजनात्मकता के चरम पर पहुंचाया। उदाहरण के लिए फिल्म दिल एक मंदिर की ये पंक्तियां देखी जा सकती हैं : दिन जो पखेरू होते, पिंजरे में मैं रख लेता/पालता उनको जतन से, मोती के दाने देता/ सीने से रहता लगाए!’’

इसी तरह का एक प्रयोग शैलेंद्र ने फिल्म आम्रपाली में भी किया है- नील गगन की छांव में/ दिन, रैन गले से मिलते हैं/ दिन पंछी बन उड़ जाता है/ हम खोयेखोये रहते हैं!

आम्रपाली में ही उलटबांसी का एक प्रयोग देखिए : ज्ञान की कैसी सीमा ज्ञानी/ गागर में सागरसा पानी!’’

वैसे यह पूरा ही गीत दार्शनिकता से लबरेज है:

जाओ रे, जोगी तुम जाओ रे!/ये है प्रेमियों की नगरी, यहां प्रेम ही है पूजा!/प्रेम की पीड़ा सच्चा सुख है /प्रेम बिना ये जीवन दुख है! …जाओ रे … /जीवन से कैसा छुटकारा, है नदिया के साथ किनारा! / ज्ञान की कैसी सीमा ज्ञानी/गागर में सागरसा पानी

फिल्म अनाड़ी के इस प्रसिद्ध गीत ”सब कुछ सीखा हमने…’’ की एक पंक्ति में एक उलटबांसी इस तरह है, ”हमने हर जीने वाले को/ धनदौलत पे मरते देखा!’’

उलटबांसी का आधार वचनवक्रता है। इसमें बात को सीधे-सीधे न कहकर कुछ टेढ़े ढंग से कहा जाता है। कई बार दुनिया के रंग-ढंग ही टेढ़े नजर आने लगते हैं। फिल्म मुसाफिर में शैलेंद्र ने इस टेढ़ेपन का चित्र कुछ इस तरह खींचा है:

टेढ़ीटेढ़ी हमसे फिरे सारी दुनिया!’’

हर कोई नजर बचाके चला जाए देखो/ जाने काहे हमसे कटे सारी दुनिया!…!/गलीगली हैं रूप के रसिया/ घूम थके, मिला मनबसिया/ प्यार में सौदा करे सारी दुनिया!…/ मुंह में राम, बगल में छुरी है/ बात ये देखो प्यारे, कितनी बुरी है/ क्यों हमसे छल करे सारी दुनिया!/सांस का कौन ठिकाना है राजा/ कल आए, कल चले जाना है राजा/ तेरामेरा फिर क्यों करे सारी दुनिया!…/टेढ़ीटेढ़ी हमसे फिरे सारी दुनिया!

फिल्म मुसाफिर में ही बाल-मानसिकता के प्रसंग में शैलेंद्र ने एक अनोखी ही कल्पना कर डाली है: मुन्ना बड़ा प्यारा, अम्मी का दुलारा/ कोई कहे चांद, कोई आंख का तारा /हंसे तो भला लगे, रोये तो भला लगे/ अम्मी को उसके बिना कुछ भी अच्छा लगे /…इक दिन वो मां से बोला :/ क्यों फूंकती है चूल्हा/ क्यों रोटियों का पेड़ हम लगा लें/आम तोड़ें, रोटी तोड़ें, रोटीआम खा लें/ काहे करे रोजरोज तू ये झमेला/…!’’

इसी तरह की एक और अनोखी कल्पना उजाला फिल्म के एक गीत में सुनने को मिल जाती है: ”सूरज, जरा , पास /आज सपनों की रोटी पकाएंगे हम/ आसमां, तू बड़ा मेहरबां/आज तुझको भी दावत खिलाएंगे हम!…/ चूल्हा है ठंडा पड़ा और पेट में आग है/ गरमागरम रोटियां, कितना हसीं ख्वाब है…/आलू टमाटर का साग, इमली की चटनी बने /रोटी करारी सिके, घी उसपे असली लगे…/बैठें कहीं छांव में, आज पिकनिक सही/ ऐसी ही दिन की सदा, हमको तमन्ना रही/ सूरज, जरा पास !

शैलेंद्र ने फिल्मी गीतों में अनेक रोचक प्रयोग किये हैं। इन गीतों में अद्भुत कल्पनाशीलता है। लेकिन ये प्रयोग भी वायवीय अथवा आकाशीय नहीं हैं। ये जन-सरोकारों और जनाकांक्षाओं से संचालित हैं।

शैलेंद्र की रचनात्मकता के संदर्भ में चकित करने वाली बात यह है कि फिल्म की चाक्षुक विधा ने उनकी सर्जनात्मकता को नए आयाम दिए। यह सही है कि फिल्मों में आने से पहले शैलेंद्र के पास सुदृढ़ और सशक्त साहित्यिक पृष्ठभूमि थी। वह त्वरित-बुद्धि थे और आशुकविता रच देने में महारत भी उन्हें हासिल थी। तब उनके इर्द-गिर्द देश-प्रेम, श्रमिकों का शोषण, गरीबी, भूख, बेकारी, बेरोजगारी और नवनिर्माण की समस्याएं थीं। भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए उनके सामने एक सीमित रचना-फलक था। पर फिल्मों में प्रवेश के साथ ही इस फलक का विस्तार होता गया। नए-नए चरित्र, नए-नए कथानक, नई-नई कथा-स्थितियों के साथ-साथ अलग-अलग संगीतकारों से संपर्क, उनकी बनाई धुनों पर गीत-लेखन की निर्विकल्पता ने उनकी रचनात्मकता के सामने संभावनाओं के नए क्षितिज उपस्थित कर दिए। इन नए अवसरों और संभावनाओं ने शैलेंद्र की सर्जनात्मक क्षमता को शान पर चढ़ाया, उनकी प्रतिभा निखरती चली गई और उनके गीता में चमत्कृत करनेवाली बहुआयोमिता जगमगाने लगी।

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