Uncategorized Archives — समयांतर https://www.samayantar.com/category/uncategorized/ विचार और संस्कृति का मासिक Fri, 03 Mar 2023 16:27:20 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.5.2 https://www.samayantar.com/wp-content/uploads/2020/03/cropped-Screen-Shot-2020-03-29-at-8.29.51-PM-3-32x32.png Uncategorized Archives — समयांतर https://www.samayantar.com/category/uncategorized/ 32 32 विदेशी विश्वविद्यालयों का दुःस्वप्नं https://www.samayantar.com/%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%a6%e0%a5%87%e0%a4%b6%e0%a5%80-%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%b6%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%b2%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%95/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%a6%e0%a5%87%e0%a4%b6%e0%a5%80-%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%b6%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a4%be%e0%a4%b2%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%95/#respond Fri, 03 Mar 2023 16:27:20 +0000 https://www.samayantar.com/?p=1004 – हेतु भारद्वाज पिछले दिनों भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बड़ी सुखद घोषणा की कि शीघ्र ही भारत में विश्व के श्रेष्ठतम पांच [...]

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– हेतु भारद्वाज

पिछले दिनों भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बड़ी सुखद घोषणा की कि शीघ्र ही भारत में विश्व के श्रेष्ठतम पांच सौ विश्वविद्यालयों के परिसर खुल जाएंगे। यह हम सबके लिए गर्व की बात है या शर्म की इसका निर्णय तो बाद में होता रहेगा, फिलहाल तो यही लगता है कि भारतीय उच्च शिक्षा के क्षेत्र में युगांतकारी परिवर्तन दस्तक दे रहे हैं। आश्चर्य होता है कि एक ओर हम विश्व गुरु बनने को आतुर हैं तो दूसरी ओर हम विदेशी चीजों को अपने देश में आमंत्रित कर रहे हैं। विदेशों से आने वाले ये विश्वविद्यालय निश्चय ही निवेश की दृष्टि से भारत में अपने पैर पसारेंगे। निवेश के मूल में लाभ की आकांक्षा विन्यस्त रहती है। फिर ये परिसर भारतीय जनता के लिए किस प्रकार लाभकारी हो सकते हैं, इस पर विचार करना जरूरी है?

गाहे-ब-गाहे हम पश्चिमी शिक्षा पद्धति को भारत में लादने के लिए मैकाले को दोषी ठहराते रहते हैं। मैकाले ने जिस शिक्षा पद्धति का सूत्रपात किया उसका काम ब्रिटिश सरकार के हित साधना था। और मैकाले अपने लक्ष्य में पूरी तरह सफल रहा। जिस शिक्षा पद्धति के माध्यम से मैकाले ने हमें मानसिक रूप से पराधीन बनाया, उसका बोझ हम अब भी ढो रहे हैं। देश में अभी भी एक ऐसा वर्ग सक्रिय है, जो इस पद्धति को जीवित रखना चाहता है ताकि भारतीय जनता पर उस वर्ग का वर्चस्व बना रहे।

हम भूल जाते हैं- गांधीजी ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की मुहिम चलाई थी। गांधी जी स्वयं अपने देश के लिए स्वदेशी शिक्षा पद्धति लागू करना चाहते थे जिसका नाम उन्होंने ‘बुनियादी शिक्षाÓ दिया था। उन्होंने उन पब्लिक स्कूलों का भी विरोध किया था जो राजाओं और रजवाड़ों के बेटों के लिए खोले गए थे तथा जिनके लिए अध्यापक भी विदेश से बुलाए जाते थे।

भाजपा सरकार के आह्वान पर जो विश्वविद्यालय अपने परिसर भारत में खोलने वाले हैं, उनके बारे में कुछ सवाल स्वभाविक रूप से सामने आ जाते हैं- क्या ये विश्वविद्यालय भारत की आवश्यकताओं के अनुकूल पाठ्यक्रम लागू करेंगे? या वे अपनी इच्छा से अपने पाठ्यक्रम अपनाएंगे? क्या इन परिसरों में पढ़ाने वाले अध्यापक विदेश से आएंगे या इनमें भारतीय अध्यापकों को भी पढ़ाने का अवसर मिलेगा? इन विश्वविद्यालयों में शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषाएं होंगी या भारतीय भाषाएं? इन परिसरों में शैक्षिक वातावरण भारतीय संस्कृति के अनुरूप होगा या वे विदेशी परिवेश को ही यहां साकार करेंगे? और भी बहुत सारे प्रश्न उठेंगे लेकिन यहां कुछ बातों पर विचार कर लेना आवश्यक है-

शिक्षाविद् धर्मपाल (द ब्यूटिपुऊल ट्री) का मानना कि अंग्रेजों के आने से पहले भारत के पास अपनी एक समृद्ध और व्यवस्थित शिक्षा पद्धति थी, जिसका ध्वंस ब्रिटिश सरकार ने किया। क्या भाजपा सरकार इन विदेशी विश्वविद्यालयों के द्वारा हमारी परंपरागत शिक्षा पद्धति को पुनर्जीवित करने का साहस दिखाएगी? क्या सरकार इन विश्वविद्यालयों को गांधी जी के विचारों के अनुकूल शिक्षा देने पर बाध्य कर सकेगी?

यहां एक और बात सामने आती है- यह माना जाता है कि भारत में शिक्षा प्राप्त लोग, जो विदेशों में जाते हैं, टैक्नोलोजी, स्वास्थ्य-शिक्षा, प्रबन्धन शिक्षा आदि क्षेत्रों में सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होते हैं। माना तो यह भी जाता है कि सिलिकान वैली पर भारतीय शिक्षितों का अधिकार है। नासा में शोधकार्य कर रहे वैज्ञानिकों में भारतीयों की संख्या पर्याप्त है। जब भारत के विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त कर युवक-युवतियां विदेशों में अपनी मेधा का कमाल दिखा रहे हैं, तो नए विदेशी विश्वविद्यालय यहां आकर क्या करेंगे?

हमारे देशवासी जो भारतीय विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त कर विदेशी भूमि पर अपनी धाक जमाए हुए हैं और यह हाल तो तब है जब भारत के विश्वविद्यालय बदहाल हैं।

उनमें न समय पर योग्य शिक्षकों की नियुक्तियां हो पा रही हैं और न उनकी अत:व्यवस्था (इन्फ्रास्ट्रक्चर) अराजकता से मुक्त हो पा रही है। भारत के हर तीसरे विश्वविद्यालय का कुलपति किसी न किसी तरह के भ्रष्टाचार में लिप्त पाया जा रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है। भारतीय विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति गुणवत्ता के आधार पर नहीं हो रही। बहुत दिन नहीं हुए जब जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर में एक ऐसे व्यक्ति की नियुक्ति हुई जिस पर पहले से ही रिश्वत लेने, हत्या करने, यौन उत्पीडऩ करने जैसे अनेक आरोप थे। अखबार में उनकी नियुक्ति के बाद इन आरोपों की खूब चर्चा हुई। किंतु उन्होंने कुलपति के रूप में अपना कार्यकाल सकुशल पूरा किया। इतना ही नहीं कुछ दिन बाद उन्हें दयानंद विश्वविद्यालय, अजमेर में कुलपति नियुक्त कर दिया गया और उन्हें तभी इस पद से हटाया गया जब उन्हें एक निजी संस्था के मालिक से संलग्नता (एफीलिएशन) के एवज में रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़ा गया। यह एक आश्चर्यजनक घटना थी कि वह व्यक्ति किसकी कृपा के बल पर दो-दो विश्वविद्यालयों में कुलपति नियुक्त हो सका?

ये तो हाल ही की बात है कि मोहनलाल सुखाडिय़ा विश्वविद्यालय, उदयपुर में नियुक्त कुलपति पर अनेक आरोप लगते रहे लेकिन प्रशासन की आंख तब खुली जब उन्होंने एक अविश्वसनीय कारनामा कर दिखाया। उन्हें गुरुकुल योजना के अंतर्गत सीकर में एक निजी विश्वविद्यालय खोलने की जांच के लिए संयोजक नियुक्त किया गया। उन्होंने और उनके साथ समिति के सदस्यों ने बिना एक बार भी सीकर गए और बिना तथ्यों का भौतिक सत्यापन किए सीकर में विश्वविद्यालय खोलने की अनुमति की अनुशंसा कर दी। इस घोटाले के खिलाफ जब राजस्थान विधानसभा में आवाजें उठीं तो प्रशासन की नींद खुली। कुलपति और समिति के सदस्यों को निलम्बित कर दिया गया। इन लोगों को इस अपराध के लिए क्या सजा मिली, किसी को पता नहीं? क्या इस अपराध के लिए कुलपति महोदय का निलम्बित होना या सेवा से मुक्ति पर्याप्त सजा थी? इतना जरूर हुआ कि कुलपति महोदय राजस्थान से अपने मूल प्रदेश उत्तर प्रदेश चले गए। वह कुलपति तो अपराधी था ही पर जिन्होंने उसकी रक्षा की, उनका तो बाल-बांका भी नहीं हुआ। अनेक बार ऐसा होता है कि विश्वविद्यालयों में किसी घोटाले के खिलाफ जांच समिति बनती है और जांच समिति जांच करती है और कुछ महत्वपूर्ण लोगों को दोषी पाती है। वह दोषी लोगों के विरुद्ध कार्यवाही की अनुशंसा करती है, लेकिन उस जांच को दबा दिया जाता है और दोषियों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं होती। न दोषियों को दण्ड मिलता है और न जांच की अनुशंसाओं पर कोई कार्यवाही होती है। यह सवाल कोई नहीं उठाता कि वह जांच बैठायी ही क्यों करायी गई?

हाल ही में राजस्थान तकनीकी विश्वविद्यालय, कोटा के एक प्रोफेसर लड़कियों के यौन शोषण के अपराध में पकड़े गए। उनके साथ दलाली का काम करने वाले उनके एक छात्र व छात्रा भी अभी जेल में हैं। जब पुलिस उनके कमरे की तलाशी लेने गई तो पता चला कि विश्वविद्यालय का संचालन तो उनके कमरे से ही हो रहा था। इस भ्रष्टाचार की परिणति क्या होगी अभी कुछ नहीं कहा जा सकता? पर यह चुपचाप होता रहा और लोग चुप रहे?

इस तरह की घटनाएं भारतीय विश्वविद्यालयों के परिसरों में घटित होना आम बात है। यह हाल तो उन विश्वविद्यालयों का है जो या तो केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं या राज्य सरकारों द्वारा चलाए जाते हैं। अब जरा उन निजी विश्वविद्यालयों की तरफ नजर डालते हैं जो पैसे के बल पर कुकुरमुत्ते की तरह पूरे देश में उग आए हैं। उनके परिसर आधुनिक सुख-सुविधाओं से सगिात हैं तथा उनके भवन भव्य और आलीशान हैं। उनके मालिक ही उनके प्रधान (पहले वे कुलपति कहलाते थे अब चेयरपरसन) हैं। उनकी शैक्षिक योग्यता क्या है इस ओर कोई ध्यान नहीं देता। इन विश्वविद्यालयों में किस प्रकार की शिक्षा दी जाती है, यह पता लगाना भी मुश्किल बात है। किंतु अखबारों में छपने वाले उनके बड़े-बड़े और आकर्षक विज्ञापन उनकी गुणवत्ता की झूठी घोषणा जरूर करते हैं। उन विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों से शुल्क आदि के नाम पर कितना पैसे लेकर शोषण किया जाता है, यह कोई नहीं जानता? इन विश्वविद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों को कितना वेतन मिलता है, यह भी किसी को पता नहीं? बेरोजगारी के दौर में शिक्षकों का जो शोषण हो रहा है उसका उत्तरदायी कौन है? निश्चय ही इन विश्वविद्यालयों में कार्यरत सभी शिक्षक यू.जी.सी. द्वारा निर्धारित योग्यताएं रखते हैं किंतु शायद ही किसी अध्यापक को यू.जी.सी. द्वारा निर्धारित वेतनमान मिलता हो?

किंतु इन शिक्षकों की वेदना को सुनने वाला प्रशासन में भी कोई नहीं है। मालिक तो बने ही शोषण के लिए हैं, जिनका काम परिसरों को भव्य व दिव्य बनाए रखना और मनचाहा पैसा वसूल करना है। इन विश्वविद्यालयों की अकादमिक स्थिति क्या है? इसकी झूठी सच्ची जानकारी इनके विज्ञापनों से ही मिल सकती है। जाहिर तौर पर ये विश्वविद्यालय किसी भी विषय में पीएच.डी. की डिग्री तक दे देते हैं। ”जब यह है कि जयपुर के एक पांच सितारा निजी विश्वविद्यालय में वैकल्पिक विषय के रूप में हिंदी विषय स्नातक स्तर पर भी नहीं है किंतु वह हिंदी में पीएच.डी. करवाते हैं। क्या कभी ये जांच हुई कि इस विश्वविद्यालय के पास हिंदी में शोध करवाने लायक कितनी सुविधाऐं हैं? किंतु उनके मालिकों के संबंध इतने ऊंचे लोगों तक हैं कि कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

इस बदहाली भरे माहौल में भाजपा सरकार विदेशी विश्वविद्यालयों के परिसर भारत में ला रही है तो उनका और वर्तमान विश्वविद्यालयों का क्या हाल होगा इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है? यदि इन विश्वविद्यालय के कुलपति बाहर आए तो वह इस देश का क्या भला करेंगे? वर्तमान कुलपतियों का बदहाल हमारे सामने है। यू.जी.सी. ने यह तय कर दिया है कि जिस व्यक्ति को प्रोफेसर के रूप में दस साल का शिक्षण अनुभव है, वही कुलपति हो सकता है। कॅरिअर एडवांस योजना के लागू होने के बाद विश्वविद्यालय में किसी भी तरह घुस जाने वाला व्यक्ति प्रोफेसर होने के लिए अभिशप्त है। यहां जो भी पंक्ति में खड़ा है, प्रोफेसर बन जाएगा और दस साल का अनुभव होते ही वह कुलपति के रूप में हर प्रकार की तिकड़म से कुलपति का पद पाने में सक्षम हो जाएगा। वह कुलपति के रूप में अपने विश्वविद्यालय को कोई अकादमिक नेतृत्व प्रदान कर सकेगा इसमें पूरा संदेह है?

इसलिए प्रधानमंत्री और भाजपा सरकार को चाहिए कि विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में लाने से पहले वर्तमान में बदहाली झेल रहे इन विश्वविद्यालयों का तो कुछ कायाकल्प कर ले। अकादमिक भ्रष्टाचार की नई दुकानें खोलने से पहले पुरानी दुकानों की विधिवत मरम्मत जरूरी है। सपने देखना बुरा नहीं है, पर यहां हर सपना एक दु:स्वप्न में बदल जाता है। हमें इन दु:स्वप्नों से अपनी शिक्षा को तो बचाने का प्रयास करना ही चाहिए।

वैसे भी शिक्षण संस्थाओं की संख्या बढ़ाने से तो शिक्षा की गुणवत्ता का विकास सम्भव नहीं है। राजस्थान में केवल विधायकों को प्रसन्न करने के लिए छोटे-छोटे स्थानों पर कॉलेज खोल दिए गए हैं। ये ऐसे कॉलेज हैं जिनके पास न अपने भवन हैं, न अपनी प्रयोगशालाएं है, न पुस्तकालय हैं, न खेल के मैदान हैं, न जरूरी अध्यापक हैं फिर भी सरकार गर्व करती रहती है कि उसने उच्च शिक्षा का बहुत विकास किया है। इस संख्यात्मक विकास का क्या अर्थ है?

उधर शिक्षा के क्षेत्र में नकल माफियाओं तथा प्रश्न पत्र लीक माफियाओं का तंत्र जिस तरह विकसित हुआ है उसने प्रदेशों में कार्यरत लोक सेवा आयोगों, माध्यमिक शिक्षा परिषदों तथा विश्वविद्यालयों की विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। राजस्थान में 4 साल में कीरब 10 बार प्रश्न पत्र आउट हो चुके हैं। भले मुख्यमंत्री कहें कि इन माफियाओं में उनके मंत्री तथा अधिकारी शामिल नहीं है, किंतु इस तरह के बयानों से कुछ होने वाला नहीं है। रीट की परीक्षा हुई थी- यह पहला अवसर था जब राजस्थान की जनता ने परीक्षार्थियों की सुविधा के लिए भोजन, पानी, ठहरने की सुविधाओं की व्यवस्था अपने आप की, क्योंकि परीक्षार्थियों की संख्या अधिक होने के कारण उन्हें परीक्षा केंद्र दूर-दूर मिले थे। प्रदेश की जनता ने युवकों की पूरी सहायता की, यह उसकी संवेदनशीलता थी। पर प्रश्नपत्र आउट करने वाले तंत्र ने जनता की संवेदनशीलता पर पानी फेर दिया। उस घोटाले में तो मंत्रियों तथा अधिकारियों के नाम भी आये, कुछ गिरफ्तारियां भी हुई और कुछ अधिकारी बरखास्त या निलंबित किए गए। पर सब कुछ दब गया क्योंकि समर्थ लोग उसमें लिप्त थे। शासन को रीट की परीक्षा दुबारा करानी पड़ी।

विदेशी विश्वविद्यालयों के आगमन के बाद कहीं इन माफियाओं का तंत्र राष्ट्रीय से अंतरराष्ट्रीय न हो जाए, यह सम्भावना तो है ही और प्रशासन के समक्ष और भी भयानक समस्याएं आ सकती है। क्या इन सवालों पर पहले से विचार करना जरूरी नहीं है? शिक्षण संस्थाओं की संख्याओं के बढऩे के साथ दु:स्वप्नों की संख्या भी बढ़ेगी, हमें यह नहीं भूलना चाहिए। हम अपने युवकों को इन दु:स्वप्नों से कब तक दण्डित करेंगे?

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  • हरीश खरे

 

नरेंद्र मोदी के स्वाधीनता दिवस के भाषण को उनकी ही कसौटी पर कसें तो पाते हैं कि इस बार उन्हें इसमें कुछ ज्यादा मेहनत करनी पड़ी। एक अरब से ज्यादा जनता के ‘सपनोंÓ और ‘इच्छाशक्ति’ की रचनात्मक और उपचारात्मक ताकत का आह्वान करने में वह अतिरंजना का शिकार हो गए।

देश के सबसे भव्य सिंहासन लाल किले के मंच पर खड़े नरेंद्र मोदी इस स्वतंत्रता दिवस पर संयत दिख रहे थे। पिछले साल इसी दिन ताजा हासिल चुनावी जनादेश की आभा में 370 का तमगा अपने पहलू में दबाए वह दमक रहे थे। बीते एक साल के दौरान उनकी निगहबानी में बुरी तरह ठोकर खाकर गिरे इस अस्थिर देश की हकीकत से इस बार गाफि़ल रहना प्रधानमंत्री के लिए जाहिर है संभव नहीं रहा होगा।

इस 15 अगस्त को नरेंद्र मोदी जिस भारत के समक्ष खड़े थे, वह एक जबरदस्त आश्वासन की दरकार में था कि देश सुरक्षित और सक्षम हाथों में है। एक विदेशी ताकत हमारी सीमा में घुस आई थी। चैन की नींद में सोया देश अचानक घबरा कर उठा तो उसने पाया कि यथास्थिति को बहाल करने में हमारा नेतृत्व और फौजी जनरल बहुत कुछ नहीं कर पा रहे हैं। ऐसा लगा गोया 2014 से पहले की अशांत हवाओं में पूरे देश का दम घुट रहा हो।

इस स्वतंत्रता दिवस को यह धरती एक अदृश्य दुश्मन के हाथों भी तबाह है। एक जानलेवा वायरस जो जाने का नाम नहीं लेता। प्रधानमंत्री ने मार्च में महाभारत से जुमला उधार लेकर 21 दिनों में निर्णायक जीत का वादा कर दिया था। एक बार फिर उनकी बात खोखली साबित हुई। इसके उलट भारत आज कोरोना संक्रमित मरीजों के मामले में दुनिया में तीसरे स्थान पर पहुंच चुका है, केवल अमेरिका और ब्राजील हमसे आगे हैं। आज का भारत आर्थिक बदइंतजामी, हादसे और बेकसी का शिकार है। बहुत लंबा वक्त हुआ जब ऐसी पीड़ा यहां देखी गई थी। उन लाखों भारतीयों की अगर कोई बात नहीं कर रहा या करना नहीं चाह रहा, जिन्हें जबरन उनके गांवों की ओर धकेल दिया गया था तो इसका श्रेय कोरोना वायरस को जाता है जिसकी प्यास अभी बुझी नहीं है।

स्वतंत्रता दिवस से केवल दस दिन पहले प्रधानमंत्री अयोध्या के शिलान्यास समारोह में शामिल हुए थे। उनकी शिरकत ने देश के 20 करोड़ मुस्लिम नागरिकों को शक में डाल दिया था कि क्या भारत अंतत: अपने सेकुलर वादों और संकल्पों से मुंह मोड़ रहा है।

इन्हीं घटनाओं से मिलकर वह व्यापक संदर्भ बनता है जिसमें स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री का किरदार अतिरिक्त महत्त्वपूर्ण हो उठता है, चूंकि कोरोना वायरस महामारी की आड़ में उन्होंने लोकतांत्रिक जवाबदेही की किसी भी बाध्यता से खुद को किलेबंद कर लिया था।

प्रधानमंत्री के पास विकल्प थे : वह देश में मौजूद दरारों को और चौड़ा कर सकते थे, थोड़ा और नीचे उतरते, अपने जनाधार में संकीर्ण भावनाओं को और भड़काते या फिर कुछ भूल सुधार कर लेते। वह बेशक समझ रहे होंगे कि इस स्वतंत्रता दिवस पर बहुत कुछ दांव पर लगा था; उनकी सरकार के इकबाल पर गंभीर संदेह खड़े हो चुके थे और यह भी कि क्या उनकी सरपरस्ती में अब प्रेरक तत्व चुक गया है। यह देश खास तौर पर उनसे यह सुनना चाह रहा था कि क्या वह अपने नेतृत्व के सामान में कुछ बदलाव लाने में समर्थ हैं या नहीं।

आखिर में उन्होंने वही किया जो वह सबसे कुशलता से कर सकते थे : जुमलों के जखीरे में गहरे उतरकर बुरी तरह पस्त हिम्मत एक देश के उत्साह को बढ़ाना। उन्हें खुद उनकी ही कसौटी पर कसें तो हम पाते हैं कि इस बार उन्हें इसमें कुछ ज्यादा मेहनत करनी पड़ी। एक अरब से ज्यादा जनता के ‘सपनों’ और ‘इच्छाशक्ति’ की रचनात्मक और उपचारात्मक ताकत का आवाहन करने में वह अतिरंजना का शिकार हो गए। सदमे में पड़े देश को कुछ उम्मीद तो बंधानी ही थी, सो उन्होंने कह डाला कि कोरोना वायरस के तीन टीकों पर काम चल रहा है और वे आने ही वाले हैं।

लाल किले के मंच से मोदी जी ने ज्यादा वक्त अपनी सरकार की नीतियों और पहलों को बढ़ा-चढ़ा कर बताने में ही दिया, जैसा कि दोनों सदनों के संयुक्त सत्र में राष्ट्रपति के संबोधन के बाद प्रधानमंत्री अकसर अंत में किया करते हैं।

इन ‘उपलब्धियोंÓ को गिनाने में उनका स्वर काफी संयत था, जो इस बात की स्वीकार्यता था कि नारेबाजी से राजकाज नहीं चलता और अब भी ईंट से ईंट जोडऩे का बुनियादी काम बाकी है। ये छह साल तो केवल सुर्खियों के प्रबंधन में चले गए हैं। राजकाज बेशक तमाम भड़कीले आयोजनों से बहुत आगे की चीज है।

अपना गाल बजाने की यह हरकत तो प्रत्याशित थी ही, लेकिन इतना ही अहम वे बातें थीं जो प्रधानमंत्री ने नहीं कहीं। अव्वल तो हिंदुत्व का विजयोल्लास गायब रहा। उनके कई प्रशंसक इसी बात से सकते में होंगे कि उन्होंने नेहरूवादी गणराज्य की मौत का फतवा नहीं दिया; न ही उन्होंने हिंदू राजनीतिक समुदाय के जन्म का ऐलान किया। हो सकता है अगली चुनावी जंग के लिए उन्होंने अपना बारूद बचा लिया हो, लेकिन फिलहाल स्थिति यह है कि अल्पसंख्यकों को अस्वीकृत या अनचाहा महसूस नहीं होने दिया गया है। अनावश्यक सदमे से इस गणराज्य को बख्श दिया गया है।

चीन और पाकिस्तान का उनके भाषण में कोई जिक्र नहीं आया। इन छह वर्षों में देश को एक अज्ञात भय और जहरीले राष्ट्रवाद की खुराक पर पाला-पोसा गया है। चुनाव में इसके फायदे भी हुए हैं, लेकिन अब जाकर शायद इस बात का महीन अहसास हो कि चीनियों ने प्रधानमंत्री से निपटना सीख लिया है। प्रधानमंत्री इस बात को समझ गए होंगे कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ निजी कूटनीतिक कवायदों में उनके अतिरिक्त निवेश के चलते चीनी अब उनकी थाह ले चुके हैं और इसी के चलते देश को चीन के हाथों सैन्य शर्मिंदगी उठानी पड़ी है। अब गीदड़ भभकी शांत पड़ चुकी है।

समय-समय पर ‘राष्ट्रीय गौरव’ के आह्वान और हमारे सैनिकों के नियमित साहसगान को छोड़ दें तो ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी की सरकार अब इतना तो सुनिश्चित कर रही है कि टीवी चैनलों पर चीन के साथ टकराव का माहौल न बनने पाए। ”एलओसी टु एलएसी’’ का जुमला मोदी के लड़ाकू जनाधार को भले संतुष्ट न कर पाए, लेकिन प्रधानमंत्री के नेतृत्व का नया पैमाना अब यथार्थ और संतुलन के नए रास्ते पर टिके रहना होगा।

तीसरा महत्त्वपूर्ण काम उन्होंने घर में बैठे मध्यवर्ग के साथ अपने रिश्ते दुरुस्त करके किया। मध्यवर्ग को संबोधित इस भाषण में यह अहसास निहित था कि मंदिर का मुद्दा हो या योगी आदित्यनाथ की तर्ज वाला अराजक राजकाज और न्याय, इनकी अतिरिक्त खुराक हिंदू पेशेवर मध्यवर्ग को असहज कर सकती है जो दरअसल मनमोहन सिंह का जनाधार हुआ करता था और कांग्रेस से जिसके अलगाव ने ही नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के बतौर सम्मान दिलवाया है।

चुनावी गुणा-गणित से पार नरेंद्र मोदी की सरकार को यह समझना होगा कि ‘आत्मनिर्भर भारत’ की भव्य परियोजना जरूरी वैश्विक कौशल और प्रतिभाओं के बगैर हासिल नहीं की जा सकती और यह मध्यवर्ग से ही मिलेगा। इसलिए मध्यवर्ग को लुभाया जाना एक बड़ा सुधार है क्योंकि अब तक हिंदुत्व के झंडाबरदारों ने काफी गर्व के साथ उच्च शिक्षा और शोध के संस्थानों को बरबाद किया है। अब लगता है कि नरेंद्र मोदी को चाहने वाली भीड़ ‘हारवर्ड बनाम हार्डवर्क’ के जुमले के पीछे झूठ को महसूस कर पा रही है। मध्यवर्ग की मानसिकता को पकड़े बिना ‘न्यू इंडिया’ का नारा रूढ़ हो जाएगा।

नरेंद्र मोदी किसी उकसाने वाले नायक की भांति अपने नारों और आग्रहों को इतनी कुशलता से लोगों पर थोपते हैं जैसे लगता है कि वह सीधे राष्ट्र की कल्पना से निकल कर आया हो। छह साल के कार्यकाल के बाद हालांकि उनके पास अब ऐसे दुश्मन नहीं बचे हैं जिनसने निपटाना हो या पालतू बनाना हो। इसलिए अब वे पिछली सरकारों के किए या अनकिए का बहाना नहीं बना सकते।

अब सारा दारोमदार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ऊपर है कि वह गृहयुद्ध के मुहाने पर खड़े और डूबती अर्थव्यवस्था वाले इस देश को कैसे उबारें। छह साल के बाद यह देश इतना हक तो कमा ही चुका है कि उनसे कह सके कि वह अपने भीतर गहरे पैठी उग्रता से बाहर आवें और एक राजनीतिक दल के नेता से ज्यादा बड़ा बनें। इशारा तो उन्होंने कर ही दिया है।

 

अनु.: अभिषेक श्रीवास्तव

साभार : हिंदू,   समयांतर, सितंबर 2020

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प्रतीकों की धार्मिकता https://www.samayantar.com/%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%a4%e0%a5%80%e0%a4%95%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%a7%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a4%bf%e0%a4%95%e0%a4%a4%e0%a4%be/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%a4%e0%a5%80%e0%a4%95%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%a7%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a4%bf%e0%a4%95%e0%a4%a4%e0%a4%be/#respond Sun, 09 Aug 2020 03:49:29 +0000 https://www.samayantar.com/?p=342 हाजिया सोफिया: 'पवित्र ज्ञान’ और अपवित्र मंशा

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हाजिया सोफिया: ‘पवित्र ज्ञान’ और अपवित्र मंशा

  • पंकज बिष्ट

(फोटो: वारिधि बिष्ट)

जैसा कि नजर आ रहा था, तुर्की के राष्ट्रपति  ने इस्तंबूल स्थित हाजिया सोफिया  (तुर्की में अयासोफया) को न्यायालय के फैसले के साथ ही 10 जुलाई को मस्जिद घोषित कर दिया। डेढ़ हजार वर्ष पुराना बाइजेंटाइन वास्तुकला का यह अद्भुत नमूना, जो सदियों तक दुनिया की सबसे विशाल इमारतों में रहा है, यूनेस्को के विश्व धरोहर घोषित स्थलों में है। इस पर ईसाईयों और मुस्लमानों का अपनी अपनी तरह से दावा रहा है।  सन 1934 में मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने, जब वह देश को एक आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने में लगे थे, समाज के दो धर्मों के सतत टकराव के इस कारण को संप्रदायों की जगह सामूहिक धरोहर यानी संग्रहालय बना दिया था। यह ऐसा स्मारक है जिसे देखने हर साल लाखों लोग इस्तंबूल आते हैं। पिछले वर्ष ही हाजिया सोफिया देखने 37 लाख दर्शक आए थे।

दो वर्ष पहले की मेरी इस्तंबूल की स्मृतियों को हाजिया सोफिया के विवाद ने अचानक जगा दिया। पासपोर्ट बतलाता है कि हम यानी मैं ज्योत्स्ना और वारिधि तीन सितंबर की अल्ल सुबह निकले थे और दोपहर बाद इस्तंबूल में थे।

तुर्किश एयरलाइंस का जहाज विशाल था। तीन तीन सीटों की तीन पंक्तियों वाला, बोईंग 777। इकानमी क्लास में हमारी सीटें शुरू की ही दूसरी पंक्ति में, मध्य की कतार में, थीं। दांयी ओर मैं और ज्योत्स्ना थे और तीसरी सीट पर एक युवा सरदार जी। उन का साथी रास्ता छोड़कर खिड़की की ओर की पंक्ति में था, पर वे दोनों एक बड़ी अटैची हमारे ऊपर के कैबिन में डालने में लगे थे। काफी भारी थी। एक बार तो फिसलते फिसलते बची। समझो बच गए। बैठते ही सरदार जी ने कहा, यह पहली बार जहाज में बैठा है। मैं मुस्कराए बिना नहीं रहा, उनका इशारा अपने साथी के औघड़पन की ओर था।

टेक ऑफ में देर नहीं लगी। जहाज आसमान में स्थिर होते ही मैंने बातचीत शुरू कर दी, ”आप लोग इस्तांबुल जा रहे हैं?’’

उत्तर मिला, ”नहीं, ग्रीस।’’

मैं थोड़ा चकित हुआ। लगा सरदार जी हम से भी ज्यादा इतिहास प्रेमी हैं। दुनिया के साहित्य, संस्कृति, कलाएं, वास्तुशिल्प, राजनीतिक और दर्शन को जिस तरह यूनानी सभ्यता ने प्रभावित किया है, वैसा शायद ही और किसी संस्कृति ने किया हो। इतनी सारी बातें दिमाग में उस समय नहीं आईं थीं पर उनके आभास का दबाव ही ऐसा था कि मैं कुछ देर बोल ही नहीं सका।

सरदार जी मुश्किल से 30-32 के रहे होंगे, हल्के गंदुमी रंग के। मैं पूछे बिना नहीं रहा, ”क्या आप टीचर हैं?’’

उन्होंने एक बार मेरा मुंह देखा। शायद उन्हें प्रश्न पर कुछ आश्चर्य हुआ था। बोले, ”नहीं जी, हमारी तो खेती है।’’

सरदार जी के एक वाक्यीय उत्तरों ने मुझे खासा भ्रमित कर दिया था। वह मुझे छका नहीं रहे थे, बल्कि उस तरह की मासूमियत को अब देखने-समझने की शायद आदत ही नहीं रही है। सच यह था कि दिल्ली में आधी से ज्यादा सदी गुजारने के सौभाग्य ने मुझे कमसे कम व्यावहारिक पंजाबी में तो दक्ष कर ही दिया है, इसलिए संवाद जारी रखने में दिक्कत नहीं हो रही थी।  फिर वह पढ़े-लिखे तो थे ही। मैंने हार कर पूछ ही लिया, ”तो आप को इतिहास से प्रेम है। घूमने जा रहे हैं।’’

वह एक बार और ठहरे और अंतत: बोल ही दिया, ”हां जी, घूमने जा रहे हैं।’’

मैं समझ गया, मेरी बेमतलब ही उत्सुकता से पिंड छुड़ाने में वह कामयाब हो गए हैं। बाकी रास्ता गैर जरूरी खाने पीने और सोने में निकल गया।

इस्तांबुल  में उतरने से पहले मैंने फिर पूछा, ”यहां से जहाज बदलेंगे?’’

”नहीं, बस से जाएंगे।’’

”बसें में? ’’

मैं फिर चकराया।

”जी बार्डर तक जाएंगे, ’’

उन्होंने समझाया। इसके बाद कोई सवाल नहीं रह गया था।

बाहर निकलते हुए मैं ने अपने युवा साथियों को शुभकामनाएं दीं और हम टैक्सी स्टैंड की ओर बढ़ गए।

मुझे याद आया। इस्तांबुल  का आधा शहर एशिया में है और आधा योरोप में। यूनान तुर्की की सीमा लगी हुई है। योरोपीय महाद्वीप के दक्षिण पूर्व के प्रायद्वीप का तुर्की का यह हिस्सा भौगोलिक रूप से कुल तीन प्रतिशत है पर इस में जनसंख्या 14 प्रतिशत है। इस्तांबुल  से यूनानी सीमा सिर्फ 250 किमी की दूरी पर है जहां बस से साढ़े पांच छह घंटे में आराम से पहुंचा जा सकता है।

कई महीने बाद एक सुबह दिल्ली में अपने घर में बैठा संडे एक्सप्रेस पढ़ रहा था। अचानक एक लेख ने ध्यान खेंचा। शीर्षक तो याद नहीं पर लेख इस बात को लेकर था कि किस तरह से भारतीय श्रमिक अवैध रूप से यूनान और फिर योरोप में घुसने के लिए तुर्की का रास्ता अपनाते हैं। मुझे अचानक इस्तांबुल की यात्रा के अपने दोनों युवा साथी याद आ गए थे।

एयर पोर्ट में बाहर निकलते हुए मैंने नोट किया, हर जगह रोमन में लिखा है। सामान्यत: हम समझते हैं कि हर मुस्लिम देश में अरबी फारसी भाषा और लिपि चलती है, विशेषकर पश्चिमी एशिया में। जल्दी ही समझ में आ गया कि यहां भाषाएं दो हैं और लिपि एक। लिपि रोमन है और लिखा तुर्की में है। जैसे कि ‘अतातुर्क हवालीमानी’ के नीचे था अतातुर्क एयरपोर्ट। दिमाग में हिंदी कौंधी: अतातुर्क हवाई अड्डा। आएं, ये क्या, इसमें तो ‘हवा’ अपनी है! शब्द हिंदी से तुर्की में गया या तुर्की से हिंदी में आया? भारतीय शब्दों की बात करें तो उसमें अड्डा या अट्टा तो है पर हवा नहीं है। वायु, पवन, समीर आदि आदि जरूर हैं।  शब्दकोश देखें तो पता चलता है कि हवा अरबी है। यहां याद आए नहीं रहता कि पश्चिम एशिया में तीन बड़े धर्म इस्लाम, ईसाई (क्रिश्चनिटी) और यहूदी (जूडाइज्म) धर्म  का जन्म उसी भूमध्य सागर के पूर्वी तट पर हुआ, जिस के उत्तरी किनारे पर तुर्की है। यह भूला नहीं जा सकता कि धर्म, भाषा के प्रचार प्रसार में कम महत्त्वपूर्ण कारक नहीं होता।

यानी जहां से ‘हवा’ तुर्की में आया होगा वहीं से यह हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में आया।

सन 1928 तक तुर्की, अरबी-फारसी लिपि में लिखी जाती थी और यह आटोमन यानी उस्मानिया साम्राज्य के लिए ठीक थी पर आधुनिक तुर्की के लिए यह अपर्याप्त साबित हो रही थी। यह याद रखना जरूरी है कि दक्षिण पूर्वी योरोप के कई देशों में तुर्कों का लंबे समय तक राज रहा जो उस्मानिया साम्राज्य कहलाता था। उस्मानिया साम्राज्य तो खत्म हो गया पर योरोप का वह टुकड़ा जो यूनान से लगा है, तुर्की के पास रह गया। यहां के लोगों पर यूनानी प्रभाव रहा था और यह प्रभाव भाषा पर भी रहा ही होगा।

आधुनिक तुर्की के संस्थापक मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने शासन तंत्र में जो कई परिवर्तन किए उन में तुर्की की लिपि को बदलना भी था। यह बड़ा चुनौतीपूर्ण काम था। इसके लिए एक आयोग नियुक्त किया गया जिसने अरबी-फारसी लिपि की जगह लैटिन या रोमन अपनाने का सुझाव दिया इसके तहत लैटिन वर्णमाला में आवश्यक परिवर्तन किए गए। पर आयोग का मानना था कि नई लिपि को अपनाने में कम से कम पांच वर्ष लगेंगे। पर अतातुर्क जानते थे कि ऐसे संवेदनशील काम के लिए पांच साल जरूरत से बहुत ज्यादा हैं। क्यों कि अगर विरोध हो गया तो उसे संभालना मुश्किल होगा। उन्होंने आयोग की सिफारिश के समय को घटा कर तीन माह कर दिया और इस तरह  लिपि को बदल दिया।

हाजिया सोफिया

 

दिल्ली में तुर्क

पुरानी दिल्ली या कहिए फसीलवाली (दीवारवाली)दिल्ली में चारों ओर कई दरवाजे हैं। मेरे पहले बॉस केशव गोपाल निगम पुरानी दिल्ली के ही थे। वह जब भी पुराने शहर की बात करते उसे फसीलवाली दिल्ली ही कहा करते थे। यह शहर शाहजहां ने बसाया था। उसी फसील (दीवार) में दक्षिण की ओर तुर्कमान दरवाजा या तुर्कमान गेट है। संजय गांधी की कृपा से यह आपातकाल के दौरान खासा बदनाम हुआ था। दिल्ली के सौंदर्यीकरण के जुनुन में यहां कई घर उजाड़े गए थे।

बचपन में मैं तुर्कमान गेट के इस इलाके में अक्सर आया-जाया करता था। यहां हमारे एक संबंधी और परिचित रहते थे। जब भी मैं सीताराम बाजार से होता हुआ नई दिल्ली की ओर निकलता तो सोचा करता था कि इसका नाम तुर्कमान दरवाजा क्यों रखा गया होगा। जब पता चला कि यहां भारत की पहली मुस्लिम महिला शासक रजिया सुल्तान की कब्र है तो सोचा, हो न हो उन्हीं के सम्मान में होगा। रजिया तुर्की मूल की थीं। पर मैं गलत था। इस दरवाजे का नाम 13 वीं सदी के सूफी संत शाह तुर्कमान बयाबानी के सम्मान में रखा गया है। उनका यहां मजार है।

इस बात को लेकर मैं खासे भ्रम में था कि भारत में जिन तुर्कों का राज रहा वे इसी देश यानी तुर्की से आए थे। यह सोचना कोई गलत भी नहीं था। उनसे लगभग 14 सौ साल पहले सिकंदर तुर्की से एक हजार किमी और आगे याने पांच हजार किमी की दूरी के देश यूनान से भारत तक आया था।

पर मामला कुछ और ही था। दिल्ली में सत्ता स्थापित करनेवाले सभी तुर्क असल में अफगानिस्तान और उसके आसपास से ही आए थे। मोटे तौर पर तुर्क कोई एक नस्ल नहीं है बल्कि तुर्की भाषा बोलनेवाले लोगों का समूह माना जाता है जो मध्य एशिया से लेकर पूर्वी योरोप तक फैला हुआ है। इस में कई स्थानीय रंग हैं। इसलिए इसमें कई भाषाओं का प्रभाव भी है। इस्लाम के कारण अरबी-फारसी का विशेष प्रभाव है।

 

तुर्की और भारत: निकटता और दूरी

तुर्की भारत के संबंधों पर एक और बात याद आई। ओरहान पामुक की आत्मकथात्मक पुस्तक इस्तांबुल: मैमरीज ऑफ ए सिटी  2005 में आई थी। मूल तुर्की  में यह अंग्रेजी से दो साल पहले हतीरालाल वे सेहिर  शीर्षक से प्रकाशित हो चुकी थी। अब इस शीर्षक का हिंदी अनुवाद देखें  ‘इस्तांबुल: एक शहर की स्मृतियां’ । ‘सेहिर’ और ‘शहर’ को मिलाईये, है न एक ही शब्द । खैर छोड़िए, आगे बढ़ते हैं। इस किताब को मोटे तौर पर ऐसा आत्मकथात्मक संस्मरण कहा गया है जो ”गहन रूप से उदास करनेवाला’’ है। यह ”बास्फोरस जलडमरू मध्य (समुद्र की संकरी धारा, जो पृथ्वी के दो हिस्सों के बीच से गुजरती है,अंग्रेजी में ‘स्ट्रेट’ कहलाती है)और इस्तंबुल का एक दूसरेसे जुड़ा इतिहास है। इस्तंबूल के बीच से गुजरता बास्फोरस ही वह स्ट्रेट है जो इस शहर को दो महाद्वीपों के बीच बांटता है। पूर्वी छोर इस्तांबुल है तो पश्चिमी पर कस्तुनतूनिया उर्फ कांटेस्टिनोपोल।

रात की बाहों में- बास्फोरस पर पुल

 

आखिर ओरहान पामुक के संस्मरणों की उदासी क्या हो सकती है? यह निजी भी है और सामाजिक राजनीतिक भी।

इस किताब के लिखे जाने से लगभग दो वर्ष पूर्व  (2001 में) तुर्की में चुनाव जीत कर जो पार्टी आई उसका नाम था ‘न्याय और विकास दल’ (जस्टिस एंड डवलपमेंट पार्टी या एकेपी)। यह पार्टी मूलत: सांप्रदायिक राजनीति करती है।  इसकी स्थापना रिसप तैय्यिप एर्देगन ने की थी। वह 2002 से 2011 यानी तीन बार प्रधानमंत्री रहे और अब, 2014 से, देश के राष्ट्रपति हैं।

तीन साल पहले इतालवी दैनिक ला स्टैंपा  में पामुक का एक साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था। पीड़ा और क्षोभ से भरे इस साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, ”आज इस्तांबुल में जो हो रहा है, जहां मेरी स्मृतियों को बरबाद किया जा रहा है, वह मुझे पसंद नहीं है। आज यह ज्यादा संपन्न, लेकिन कम स्वतंत्र, शहर है। वास्तुशिल्प और अर्थव्यवस्था बदल गई है। पुराने मकान जो मुझे प्रिय हैं बर्बाद कर दिए गए हैं। इन लोगों ने उस इस्तंबुल को तबाह कर दिया है जो मेरा प्रिय था। मैं अक्सर पश्चिम (योरोप और अमेरिका ) में रहता हूं लेकिन इस्तांबुल ही मेरा घर है। आपके घर का पुनरोद्धार (रिनोवेशन) हो सकता है, इस पर भी वह रहेगा तो आपका ही घर, बदलेगा नहीं। लेकिन मैं वहां राजनीतिक रूप से नहीं रह सकता। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि पिछले चुनावों में आधे इस्तंबूल ने राष्ट्रपति रिसप तैय्यिप एर्देगन के विरोध में वोट दिया था। मैं अकेला नहीं हूं जो इस तरह सोचता है।’’

इधर पामुक ज्यादातर अमेरिका में रहते हैं, जहां वह पढ़ाते हैं।

उतरने की तैयारी की घोषणा हो चुकी थी और केबिन क्रू अपनी जगह बैठ चुका था। जहाज की गति के कम होते जाने से, खिड़की से दूर होने के बावजूद, टुकड़ों टुकड़ों में ही सही, हमें भी नीचे समुद्र नजर आने लगा था। अंदाज लगाना मुश्किल नहीं था कि हवाई अड्डा कहीं समुद्र के किनारे है। और था भी। वैसे भी तुर्की तीन ओर से समुद्र से घिरा है। और हर ओर इसके अलग अलग नाम हैं।

टैक्सी ने पूर्व की ओर रुख किया हुआ था।  दांए हाथ पर जो समुद्र नजर आ रहा था वह मारमारा कहलाता है। सड़क समुद्र के किनारे-किनारे चल रही थी। इस का नाम था कैनेडी रोड। निश्चय ही पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी के नाम पर होगी। दूसरे महायुद्ध के बाद से अमेरिका और तुर्की के घनिष्ठ संबंध रहे हैं और वह सोविय रूस के खिलाफ अमेरिका के नेतृत्व में बने नाटो और सेंटो जैसे संगठनों का भी अब तक सदस्य है।

बासफोरस स्ट्रेट के मुहाने से सड़क बांए मुड़ती है और टॉपकॉपी महल के दूसरी ओर गोल्डन हॉर्न क्रीक के संकरे गलियारे के साथ साथ बढ़ती है। बासफोरस स्ट्रेट दक्षिण के मारमारा समुद्र को उत्तर में काले सागर (ब्लैक सी ) से जोड़ता है। ब्रह्मपुत्र या मीकांग सी किसी विशाल नदी-सा बासफोरस संकरा होने के बावजूद व्यस्त जलमार्ग है जो एशिया और योरोपीय महाद्वीपों के बीच की विभाजक रेखा का भी काम करता है।

होटल के लिए हमें, कैनेडी रोड के मुडऩे से एक किमी पहले ही, बांयी ओर शहर में प्रवेश करना था। टैक्सी बाईं दिशा में मुड़ी और गलियों में थोड़ा इधर-उधर बल खाने के बाद एक होटल के सामने आकर खड़ी हो गई। होटल सामान्य-सा था। पर पूरा लकड़ी का बना हुआ। उसका प्रवेश द्वार किसी औसत दुकान जितना चौड़ा रहा होगा। जिसमें चढऩा उतरना स्पेनिश नाच फलेमेनको के एडिय़ों की ताल से उठनेवाले स्वरों का-सा आनंद देता था।

इलाका मध्यवर्गीय-सा लग रहा था। साफ सुथरा पर टिपिकल एशियाई शहर। लोग बाहर गली में बैठे बतिया रहे थे और बच्चे फुटबाल व साइकिल चलाने के खेल में मशगूल थे। जो बात ध्यान खींच रही थी वह यह कि कई चेहरों में योरोपीय या कहें यूनानी परछाई रह-रह कर झांक रही थी।  हमारे होटल जैसे ही दो छोटे होटल उसी पंक्ति में  आगे भी नजर आ रहे थे।

हम इस्तांबुल के योरोपीय हिस्से यानी कंस्टेटिनोपोल या कस्तुनतूनिया में थे। मुझे चिंता हुई कि यहां से शहर दूर होगा। पर यह देख कर सुखद आश्चर्य हुआ कि हम असल में शहर के उस हिस्से में थे जहां सबसे ज्यादा दर्शनीय चीजें थीं। अगर बांये नीली मस्जिद थी तो दायें हाजिया सोफिया और टॉपकॉपी महल।

 

नाटकीय सौंदर्यवाला शहर

टॉपकापी महल भारतीय अंग्रेजीदां लोगों को इसलिए याद रहता है कि उसमें हॉलिवुड की 007 श्रृंखला की फ्रॉम रशिया विद लव फिल्म की शूटिंग हुई थी। 1963 में बनी इस फिल्म के नायक शीन कॉनरी थे। जहां तक इस्तांबुल  में फिल्मों की शूटिंग का सवाल है तो उसका रिकार्ड खासा लंबा है विशेषकर हालिवुड की फिल्मों का। इसका कारण स्पष्टत: यहां की नाटकीय रूप से सुंदर दृश्यावली है। पर यहां बननेवाली सबसे महत्त्वपूर्ण फिल्म एलन पार्कर की 1978 में बनी मिडनाइट एक्सप्रेस कही जा सकती है जो एक ड्रग अपराधी के माध्यम से मारमारा के इमराली द्वीप की जेल की पृष्ठभूमि पर बनी है और वहां की जेल व्यवस्था की अमानवीयता का चित्रण है। फिल्म चोरी से शूट की गई थी। दुर्भाग्य से एलन पार्कर का 31 जुलाई को लंदन में देहांत हो गया।  इसी टापू में स्वतंत्र कुर्द की मांग करनेवाले आंदोलनकारी अब्दुल्ला ओचलान 1999 से लगातार बंद हैं। (देखें: कुर्दों का भविष्य और इमराली से पैगाम, समयांतर, नवंबर, 2011)।

‘बाइजेंटाइन’ अनजान शब्द नहीं था पर मेरी समझ में, सिवा इसके कि यह कोई भारी-भरकम योरोपीय क्लासिकल संस्कृति है, इससे ज्यादा कभी कुछ नहीं आया था।  इस्तंबूल के प्रति मेरा आकर्षण इसके वास्तुशिल्प या विशिष्ट भौगोलिक स्थिति के कारण इतना नहीं था, जितना कि इसलिए  कि कोई शहर किस तरह से दो संस्कृतियों, दो नस्लों और दो भौगोलिक पहचानों के बीच उपस्थित रह सकता है। इतिहास के प्रति अपनी सीमित समझ के कारण अगर मैं बाइजेंटाइन नहीं जानता था तो मैं ऑटोमन एंपायर भी नहीं जानता था कि वह उर्दू-हिंदी में उस्मानिया साम्राज्य कहलाता है। यह कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि बाइजेंटाइन और उस्मानिया दोनों साम्राज्यों की राजधानी आज का यही शहर था। बल्कि कहना चाहिए बास्फोरस के पश्चिमी तट का हिस्सा ही था।

बाइजेंस्टाइन रोम साम्राज्य का पूर्वी हिस्सा था जो रोमन साम्राज्य के पतन के हजार साल बाद तक चलता रहा था। इस शहर का नाम तीसरी सदी के रोमन सम्राट कांटेस्टाइन के नाम पर रखा गया था क्योंकि वही रोमन साम्राज्य की राजधानी को चौथी सदी के शुरू में रोम से हटाकर यहां लाया था और उसी के नाम पर यह हजारों साल तक कांटेस्टाइनोपोल कहलाता रहा।

 

हाजिया सोफिया और उसकी मीनारें 

पर जहां तक हाजिया सोफिया का सवाल है उसके महत्त्व को तो मैं उसे देख लेने के बाद भी नहीं समझ पाया था। या कहिए मैंने वहां से लौटने के बावजूद कभी उसके ऐतिहासिक सांस्कृतिक संदर्भों को जानने-समझने की खास कोशिश नहीं की थी। मेरे लिए वह एक विशाल मस्जिद ही थी जिसकी मीनारें देर से ही देखी जा सकती हैं। यद्यपि ये मीनारें अपनी तरह की विशिष्ट हैं, पेंसिल-सी नोकवाली असामान्य रूप से पतली-सी। इसीलिए मुझे उसमें इबादत करनेवाले अनुकरणीय रूप से उदार और सहिष्णु लगे थे। हां, कमाल पाशा और उनके उदार व आधुनिक विचारों के बारे में मेरी जानकारी थोड़ी बहुत जरूर थी।

इस्तांबुल एक आधुनिक शहर है। पश्चिम के किसी भी महानगर से टक्कर लेता। साफ-स्वच्छ और अनुशासित। यद्यपि आसपास कई मस्जिदें थीं इसके बावजूद यह आभास नहीं होता था कि हम किसी मुस्लिम बहुल देश में हैं। युवा-युवतियां हाथों में हाथ डाल घूम रहे थे, बहुत हुआ तो हिजाब नजर आ जाता था पर बुर्का तो हमने शायद ही कहीं देखा हो।

हमें होटल, से लगभग दो ढाई किमी की दूरी पर पूर्वी दिशा में जाना था जो हमारे ठहरने के स्थान से थोड़ी ऊंचाई पर था। मजेदार बात यह थी कि यह इलाका होटलों और बाजारों से भरा पड़ा है, खासा अपमार्केट और फैशनेबुल। मानो पर्यटकों के लिए चिह्नित हो।

हमें टॉपकॉपी महल तक जाना था और उसके विशाल प्रवेश द्वार के ठीक सामने वह गली थी जो बांये से घुमकर हाजिया सोफिया के दरवाजे पर पहुंचा देती है। अंदर जाना भारतीय रुपये के हिसाब से (लगभग एक हजार रुपये) खासा मंहगा था।

भीड़ को नियंत्रण में रखने के लिए चाहरदीवारी के साथ-साथ बनाई गई गली समकोण बनाती हुई विशाल भवन के प्रांगण में पहुंचाती है। जो भग्नावशेष नजर आ रहे थे उनमें  पत्थर के विशाल टूटे खंभे का ठूंठ सबसे अलग था। नजदीक से देखा तो उस पर खुदे यूनानी अक्षर नजर आए। स्पष्ट था कि इससे पहले भी यहां कुछ रहा होगा। वैसे भी मुख्यद्वार के बांयी ओर के किनारे पर रखे अवशेष साफ बता रहे थे कि वे कभी की कोई भव्य इमारत के रहे होंगे।

सच यह है कि इस ऑर्थोडाक्स क्रिश्चन गिरजाघर भवन का 1,500 साल पुराना इतिहास कम उथल-पुथल से भरा नहीं रहा है। इस जगह पर पहले भी दो हाजिया सोफिया रहे थे। पहला लकड़ी का सन 360 में बनाया गया बेसेलिका (शैली विशेष का चर्च) था, जो उपद्रवों में पूरी तरह जला कर नष्ट कर दिया गया था। इसके आधी सदी बाद सन 415 में जो दूसरा हाजिया सोफिया बना वह संगमर्मर का था। वह भी उपद्रवों की भेंट चढ़ गया। यानी वहां समेट कर रखे गए अवशेष उसी के थे। तीसरा और वर्तमान गिरजा सन 532 से बनना शुरू हुआ और 537 में तैयार हुआ। यह कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि इस्लाम के पैदा होने से लगभग दो सौ साल पहले इस चर्च का निमार्ण हो चुका था। अगर वर्तमान चर्च को लें तो भी वह सौ वर्ष पहले से बन कर यहां खड़ा था। सत्य यह है कि कम सके कम इस्तांबुल की बाद की सभी मस्जिदें हाजिया सोफिया के वास्तुशिल्प से प्रभावित हैं। चाहे वह नीली मस्जिद हो या सुल्तानिया मस्जिद।

खैर सन 558 में आए एक तूफान में इसके विशाल गुंबद का एक हिस्सा टूट कर गिर गया। उस दौरान हुई मरम्मत में गुंबद में कुछ परिवर्तन किए गए और कमोबेश उसके मूल रूप को बचा लिया गया। सन 989 में गुंबद फिर गिरा था पर फिर से संवार लिया गया। पर इसके इतिहास में सबसे विकराल उपद्रव1204 में चौथे क्रुसेड (धर्मयुद्ध) के दौरान हुआ गया जब कि कैथोलिक सिपाहियों (ईसाई धर्म के ही एक संप्रदाय) ने इसे जम कर लूटा और यहां से सोने-चांदी का सामान लूट कर ले गए। चरम यह हुआ कि एक वेश्या को लाकर उसे चर्च के प्रमुख के तख्त पर बैठा दिया गया।

हमने इसी अंतिम और वर्तमान हाजिया सोफिया में प्रवेश किया था, तब तक, मैं अपनी अनभिज्ञता या अक्षम्य लापरवाही के कारण इसे मस्जिद ही मान रहा था। वास्तव में तब यह म्यूजियम या संग्रहालय था। पर यह संग्रहालय कैसे बना, इस की कहानी कुछ और है।

 

इबादतगाह में

 

जन्नत से होड़

यह 4 सितंबर 2018 की बात है।

निश्चय ही अंदर लोग थे पर इतने भी नहीं  कि कुछ देख ही न पाएं। अपने समय के क्रांतिकारी वास्तुशिल्प के कमाल इस गिरजाघर की 180 फिट ऊंची छत का मुख्य गुंबद चार छोटे गुंबदों में टिका है। अंदर मरम्मत और रंगाई पोताई का काम चल रहा था। लगभग आधे भाग में मचान लगा हुआ था और दर्शकों को धूल-धक्कड़ से बचाने के लिए सिंथेटिक कपड़े के लंबे पर्दे भी लटक रहे थे। जैसा कि सामान्यत: मस्जिदों और काफी हद तक गिरिजाघरों में होता है दांये बांये की दीवारें खाली थीं सिवा उन जालियों के जिन से रोशनी अंदर आ रही थी। सामने के गजपक्ष (एप्स) में एक महराब लगा हुआ था और उसके ठीक पहले, दांयी ओर बादशाहों के बैठने के लिए अलग से संगमर्मर का कक्ष था।

मेरी उदारता का कारण था।

हाजिया सोफिया की विशाल दीवारों पर लटके अरबी में लिखे गोल हरे बोर्डों, जिन्हें मैं कुरान की आयतें मान रहा था, पर वास्तव में जो अल्लाह,  हजरत मुहम्मद, पहले चार खलीफा, अबू बक्र, उमर, उस्मान और अली तथा उनके दो पोते हसन और हुसैन के नाम थे, के बावजूद भवन की अंदरूनी पहली मंजिल में बनी बालकनी की दीवारों पर कई मोज़ेक चित्र कृतियां नजर आ रही थीं। यही नहीं कि ये सामान्य चित्र थे, बल्कि ये ईसाई धर्म से संबंधित थे जैसे कि मदर मेरी, यीशू, ईसाई संत और राजा आदि।

पर मेरे ‘अज्ञान’ की पृष्ठभूमि है। यात्रा की सारी योजना वारिधि ने बनाई थी और बहुत ही सजगता व मेहनत से बनाई थी।

हाजिया सोफिया हमारे होटल से, एक हल्की की सी चढ़ाई के बाद, थोड़ा उत्तर की ओर ज्यादा दूरी पर नहीं था। हां, बीच में एक बाजार पड़ता था जो खासा खूबसूरत, चौड़ी सड़कों पर मंथर गति से चलनेवाला एलिटिस्ट बाजार था। यहीं के एक खुले भारतीय अंदाज वाले रेस्त्रां में नाश्ता पानी  करने लगे थे। हमने उसे इसलिए चुना की उसका एक वेटर इतना चतुर था कि उसने हमें पहचान लिया था और नमस्ते कह कर आमंत्रित किया था। हमारी भारतीयता का प्रचार असल में ज्योत्स्ना जी भरपूर तरीके से कर रही थीं।

 

उस्मानी साम्राज्य का आगाज

कांस्टेनटिनोपोल या कस्तुनतूनिया को, जो योरोपीय महाद्वीप का हिस्सा है, तुर्की शासक मोहम्मद द्वितीय ने1453 जीत कर उस्मानिया या ओटोमान साम्राज्य की नींव रखी और 1000 साल पुराने बाइजेंटाइन साम्राज्य को खत्म कर दिया था। अगर उसकी कलात्मक उपलब्धियों को छोड़ दें तो उस्मानिया साम्राज्य भी अपने उत्कर्ष काल में बाईजेंटाइन साम्राज्य की टक्कर का रहा है। तब इसके साम्राराज्य में पूर्वी योरोप, उत्तरी अफ्रीका और एशिया में फारस की खाड़ी तक क्षेत्र था। छह सौ साल बाद पहले विश्वयुद्ध के साथ इसका अंत हुआ।

जब मोहम्मद द्वितीय ने 1453 में  कस्तुनतूनिया में प्रवेश किया तो वह हाजिया सोफिया की इमारत की भव्यता से इतना प्रभावित हुआ कि उसने इसे तोड़ने की जगह मस्जिद में बदलना बेहतर समझा और इस तरह यह गिरजाघर मस्जिद बन गया। हमारे यहां भी जब बौद्धधर्म का अंत हुआ और हिंदू धर्म लौटा, बौद्ध मंदिरों को, यही नहीं कि बड़े पैमाने पर तोड़ा गया बल्कि उन्हें ज्यादा कुछ किए बिना हिंदू मंदिरों में तब्दील कर दिया गया। इसका सबसे बड़ा प्रमाण बोध गया का मंदिर है जिस पर हिंदुओं ने भी दावा किया हुआ हुआ है।

तब इस चर्च को मस्जिद बनाने के लिए जो परिवर्तन किए गए उनमें सबसे बड़ा यह था कि इसके गजपक्ष (एप्स) में मिनबार और मेहराब इस तरह जोड़े गए कि काबा यानी पूर्वकी ओर संकेत कर सकें।  दूसरा, गिरजे की दीवारों पर जो चित्र थे उन्हें हटाने या नष्ट करने की जगह उन्हें पोत दिया गया। पर सबसे बड़ा काम यह किया कि गजपक्ष के ठीक ऊपर मदर मेरी का बाल यीशू के साथ जो 13 फिट ऊंचा चित्र है, उसे यथावत रहने दिया गया।

इस तरह यह गिरजा 1453 से 1934 तक, लगभग पांच सौ साल, मस्जिद बना रहा। इस बीच दुनिया में सत्ता समीकरण बदला। योरोपीय देशों का उत्थान हुआ और उस्मानिया साम्राज्य पहले महायुद्ध के साथ खत्म हो गया। तुर्की में मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने सत्ता संभाली और देश को सल्तनत की जगह गणराज्य बना दिया। अतातुर्क अपने आधुनिक विचारों के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने देश को प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र बनाने के लिए कई सुधार किए। वह1923 से 1938 तक राष्ट्रपति रहे। उन्हीं परिवर्तनों में से एक हाजिया सोफिया का संग्रहालय बनाया जाना भी था। यह नहीं भूला जा सकता कि तुर्की का झंडा लाल है और इस्तांबुल में आज हरा रंग मुश्किल से ही दिखलाई देता है।

पहली मंजिल से नजर आता नजारा।

संभव है कि हाजिया सोफिया के संग्रहालय बनाए जाने में प्रतिकात्मकता रही हो पर यह नहीं भुलाया जा सकता कि यह ईसाई धर्म के एक संप्रदाय के लिए हजारों साल से बड़ा तीर्थ रहा है। अतातुर्क, जो स्वयं यूनान में पैदा हुए थे, के जीवनकाल में तुर्की में बड़े पैमाने पर यूनानी व अन्य ईसाई धर्मावलंबी थे। ये दंगों के शिकार हुए। इन लोगों के तथा यूनान व अन्य योरोपीय देशों से बड़े पैमाने पर मुस्लिम व ईसाई धर्मावलंबियों की अदला बदली हुई थी, जिससे तुर्की में ईसाईयों का प्रतिशत 17 से गिर कर 0.2 हो गया। निश्चय ही ये सारी बातें अतातुर्क के दिमाग में रही होंगी।

दूसरी बात दुनिया के मुसलमानों के लिए, जो इस समय कम से कम पश्चिम के निशाने पर हैं ही, इस मस्जिद का भावात्मक महत्त्व भी कम नहीं है। उस्मानिया साम्राज्य तीन महाद्वीपों में फैला हुआ था और दक्षिण पूर्वी योरोप का एक बड़ा हिस्सा छह सदी तक उसका हिस्सा रहा था। इस मामले में वह दुनिया का अकेला साम्राज्य कहा जा सकता है जिसने योरापीय ताकतों को हराया और वहां राज्य किया। पर ऐसे दौरों और स्थितियों में विवेक और समझ पैदा करने की जिम्मेदारी नेताओं की रहा करती है। देखना यह होता है कि वे अपने समाज को क्या दिशा दे रहे हैं। यानी उसे उदार बना रहे हैं या संकीर्ण?

 

दीवार पर बना बाइजेंटाइन काल का एक चित्र

इस संदर्भ में अंतिम बात यह है कि पिछले वर्ष इस संग्रहालय को देखने जो 37 लाख लोग आए थे उन में सभी धर्मों के लोग रहे होंगे। यानी तुर्की की बिगड़ती अर्थव्यवस्था के लिए पर्यटकों की यह संख्या कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। यही कारण है कि इसे पुन:मस्जिद बना दिए जाने के बाद तुर्की सरकार ने फैसला किया कि हाजिया सोफिया जनता के लिए, नमाज पढऩे के अलावा, खुली रहेगी। नमाज के दौरान चित्रों को ढक दिया जाएगा। बताया गया है कि मदर मेरी और बाल ईसा के उस चित्र पर भी यही नियम लागू होगा जिसे न तो मोहम्मद द्वितीय ने ढका और न ही उसके बाद के किसी अन्य बादशाह ने।

 

टॉपकॉपी रहस्य कथा 

हाजिया सोफिया के ठीक पीछे टॉपकापी महल है। निश्चय ही यह जिस जगह है वह प्राकृतिक रूप से बेहद सुंदर है और किसी पहाड़ी भव्य एस्टेट की याद दिलाता है जो एक एक सीढ़ी कर दूसरी ओर को उतरता है। एक तरह से यहां भी एक त्रिवेणी है जो मारमारा, बासफोरस स्ट्रेट और बांए गोल्डन हार्न के मिलने से बनती है। उस्मानी शासक यहां रहा ही नहीं करते थे बल्कि प्रमुख सरकारी कार्यालय भी इसी परिसर में थे। कहा जाता है कि कत्ल कर दिए जाने के डर से  सुल्तान कभी भी एक कमरे में नहीं सोते थे बल्कि हर रोज जगह बदलते रहते थे। और उसी हिसाब से रिहायशी मकानों की जटिलता भी थी।  इसी तरह उनके उठने बैठने आदि के अलावा बर्तनों के संग्रह भी थे जिसमें चीनी क्राकरी का कई सदियों का अमूल्य संग्रह भी देखा जा सकता था। वहां का जनानखाना या हरम, रखैलों का आवास, हमाम और जनखों के बारे में जानकारी कोई नई बात नहीं थी। वैसे भी इससे पहले हम राजस्थान के राजमहलों से लेकर बीजिंग के ‘प्रतिबंधित शहर’ तक के बारे  में इसी तरह की बातें देख सुन चुके थे।

हाजिया इरीन चर्च का भीतरी दृश्य

 

इस आहते में एक ऐसी बिल्ंडग भी नजर आई जो अपनी बनावट में बाकी महल से मेल नहीं खा रही थी। उसका वास्तुशिल्प दूर से हाजिया सोफिया का-सा आभास दे रहा था। उस भुतहा-से लग रहे भवन में घुसने के बाद पता चला कि वह वास्तव में हाजिया इरीन या संत इरीन गिरजाघर था। यह बाइजेंटाइन दौर का एक मात्र गिरजा है जिसे मस्जिद में नहीं बदला गया।

तोपकापी महल से बास्फोरस का एक दृश्य। बाएं से ज्योत्स्ना, लेखक और वारिधि

 

पर महल के इस आहते में मुझे सबसे ज्यादा मजेदार कुछ और ही लगा । वह था इसका नाम टॉपकॉपी। मैं चक्कर में था कि इसके पीछे न जाने कितनी तुर्की, कितनी यूनानी और कितनी अंग्रेजी भरी होगी। पर खोदा पहाड़, निकली चुहिया!

असल में जरूरत से ज्यादा अंग्रेजी माध्यम से दुनिया-जहान के बारे में ज्ञान प्राप्त करने की एक दिक्कत यह है कि हम अक्सर वस्तुओं, स्थानों और घटनाओं के अपने संदर्भ खो देते हैं। दुर्भाग्य से हमारे साथ, जैसा कि ऑटोमन एंपायर को लेकर हुआ था, ठीक कुछ वैसा ही टॉपकॉपी के साथ भी हुआ। यानी उस्मान के ऑटोमान बन जाने का।

तो अब सुनिये टॉपकॉपी का रहस्य। यह टॉप नहीं ‘तोप’  है यानी टॉपकापी का अर्थ हुआ तोपवाला महल। इस महल के मुख्य द्वार पर एक तोप लगी हुई है। हो सकता है तोप मूलत: तुर्की, अरबी या फारसी का शब्द हो पर अब यह सभी भारतीय भाषाओं का है फिर चाहे वह उर्दू हो, हिंदी हो या फिर संस्कृत।

खैर तोपकापी में और चाहे जो हो, लेकिन जिसने मुझे अभीभूत कर दिया और इस यात्रा को अविस्मरणीय, वह था उसके परिसर में पीछे की ओर का पुरातात्विक संग्रहालय। इस संग्रहालय का विशेषकर बाइजेंटाइन काल का संग्रह स्तब्ध कर देनेवाला है। इसमें ईसा पूर्व नवीं सदी से लेकर छह सदी तक की वस्तुओं का संग्रह है। सच बात यह है कि संग्रहालय के बारे में विस्तृत बात कर पाना मेरे सामथ्र्य के बाहर है।  जो थोड़ा बहुत में इधर उधर हाथ पैर मार कर बता सकता हूं तो भी यह जगह उसके लिए नहीं है। फिलहाल अकेले इस संग्रहालय को देखने के बाद यह तो बता ही सकता हूं कि पश्चिमी एशिया के बड़े क्षेत्र पर हेलेनिक और बाइजेंटाइन संस्कृति के होने के प्रमाणों को नकारा नहीं जा सकता।

 

सेफो का चेहरा 

जो भी हो इसके संग्रह में सिकंदर का संगमर्रर का ताबूत या सार्कोफेगस तथा मूर्ति, रंगीन टाइलों से बनी शेर की तस्वीर जो इश्तारा के दरवाजे पर थी, यूनानी देवता ज़ीयस के मंदिर के हिस्से, बुद्धि और प्रतिभा की देवी एथेना की मूर्ति के

ज्ञान बुद्धि की देवी एथेना। ऊपर: एफ्रोडाइट की मूर्ति, दूसरी ईस्वी सदी। 

 

अलावा एक महत्त्वपूर्ण मूर्ति यूनानी कवियत्री सेफो (ईपू 603-570) के सर की है। सेफो समलैंगिक थी। उसकी कुछ ही कविताएं मिलती हैं जिसमें  ‘ओड टु एफ्रोडाइट’ (काम की देवी के नाम) लगभग पूरी है। सेफो की मूर्ति तत्कालीन उदारता का भी प्रतीक मानी जा सकती है।

कवियत्री सेफो का शीर्ष। ऊपर: आर्टेमिस की मूर्ति।

 

अचानक समझ में आया कि बाइजेंटाइन या उसकी उसकी पूर्वज हेलनिस्ट का पश्चिमी कलाओं और कला दर्शन में इतना महत्त्व क्यों है। यह इस बात का भी प्रमाण है कि इस्लाम के आने से पहले वहां जो सभ्यता और संस्कृति थी, उसकी ऊंचाईयां छूना किसी भी अन्य संस्कृति के लिए संभव नहीं हो पाया है। इस्लामिक वास्तुकला और शिल्प की बात छोडि़ए, इसने भारतीय मूर्तिकला भी गहरे प्रभावित किया है। गांधार से लेकर मथुरा तक की मूर्तिकला में इस प्रभाव को स्पष्ट देखा जा सकता है। बुद्ध के घुंघराले बाल किस की याद दिलाते हैं? भारत से बुद्धधर्म के साथ यह  मध्य और पूर्व एशिया भी पहुंची।

शल्मानासेर तृतीय, ईसा पूर्व 9वीं सदी। ऊपर: राजा बासी, ईसा पूर्व 9वीं सदी ग्रीक

 

धर्मांध और धर्म के अखाड़ेबाज

धर्मांध या धर्म का सत्ता के लिए इस्तेमाल करनेवाले क्या कर सकते हैं, इसका आखिरी नहीं बल्कि एक खराब उदाहरण संभवत: बमियान है जहां बुद्ध की डेढ़ हजार वर्ष पुरानी दो विशालकाय प्रतिमों को हमारी आंखों के सामने सन 2001में तालिबानों ने तोप से उड़ा दिया था।

सिर्फ तीन महीने पहले समयांतर के मई अंक के आवरण पर एक सुंदर युवती का चित्र छपा था। (दुर्भाग्य से उस अंक का लॉक डाउन के कारण सिर्फ ऑन लाइन संस्करण ही जारी हो पाया।) इस 28 वर्ष की युवती का नाम था हेलिन बोलेक जिसका 288 दिन की भूख हड़ताल के बाद तीन अप्रैल 2020 को निधन हुआ। हेलिना लोकप्रिय संगीत टोली (म्यूजिक बैंड) ‘ग्रुप योरूम’ की गायिका थी। यह समूह समानता, बंधुत्व, उदारता और विवेक के पक्ष में गीत गाता था। (चुकाना होगा जो कर्ज है जिंदगी का तुम्हें: राजेंद्र भट्ट, समयांतर मई 2020) तुर्की सरकार ने इसकी लोकप्रियता से डर कर इस पर पाबंदी लगा दी। इसके सदस्यों ने कोई रास्ता न देख विरोध में भूख हड़ताल शुरू कर दी। ये लोग भोजन नहीं करते पर सिर्फ तरल पदार्थ पीते रहते हैं और इस तरह से अपने विरोध को खींचते हैं। हेलिना के बाद सात मई को इसी ‘ग्रुप’ के भूख हड़ताल में बैठे एक और सदस्य इब्राहिम गौकसेक का 323 दिन की भूख हड़ताल के बाद देहांत हुआ है। यानी यह विरोध लगभग एक वर्ष से चल रहा है।

इसी तरह तुर्की में जहां कुर्दों की संख्या 15 से 20 प्रतिशत मानी जाती है,के दमन का लंबा इतिहास है। इसी समुदाय का एक स्वतंत्रता सेनानी अब्दुल्ला ओचलान 1999 से मारमारा के इमराली द्वीप में बंद है। (देखें: कुर्दों का भविष्य और इमराली से पैगाम:  उस्मान खान,समयांतर, नवंबर, 2019)। मिडनाइट एक्सप्रेस की पृष्ठभूमि इसी जेल की है।

 

कैसा संयोग?

जुलाई के दूसरे सप्ताह में हाजिया सोफिया को लेकर जो हो रहा था जैसे सब मानो दैवीय संयोग से हो रहा था। या कहें ईश्वर के आदेश से।

अदालत का फैसला दोपहर बाद जैसे ही आया राष्ट्रपति का आदेश आने में देर नहीं लगी।  शायद ही किसी अदालत के फैसले पर किसी देश की सरकार ने इतनी तेजी से अम्ल किया हो। कुछ ही मिनट बाद आध्यादेश के माध्यम से हाजिया सोफिया को संग्रहालय से तत्काल मस्जिद बना दिया गया। पहले से ही बाहर खड़ी भीड़ ने अल्लाहो अकबर के नारे लगाने शुरू कर दिए।

यह दस जुलाई की बात है। उस दिन शुक्रवार था। यानी जुम्मा; मुस्लिमों के हिसाब से शुभ दिन।  आध्यादेश ने हाजिया सोफिया को 80 वर्ष बाद फिर से मस्जिद में तब्दील कर दिया था। आध्यादेश के साथ ही ट्वीटर पर राष्ट्रपति एर्दोगन ने लिखा था ‘हायिरली ओलसन’: यानी मुबारक।

अदालत का फैसला इस तथ्य पर आधारित था कि हाजिया सोफिया फतेह सुल्तान मेहमत हान फाउंडेशन की संपत्ति है और सिर्फ मस्जिद के लिए ही रजिस्टर्ड है। इसलिए तत्कालीन राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल अतातुर्क का इस मस्जिद को संग्रहालय बना देने का 1934 का फैसला गलत था।

अदालत का इससे कोई सरोकार नहीं था कि उसके फैसले ने उस आधुनिक राष्ट्र की चूलें हिला दी हैं जिसकी स्थापना मुस्तफा कमाल पाशा ने रखी थी। उनका 80 वर्ष पहले लिया गया यह फैसला मूलत: तुर्की को एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने की दिशा में  एक ठोस कदम था। पर आज स्थितियां इस हद तक उलट चुकी हैं कि इस अरबी दुनिया के इस उदार गणतंत्र के संस्थापक को ही गलत सिद्ध कर दिया गया है।

यह जिस तरह से हुआ वह अपने आप में राष्ट्रपति एर्दोगन की मंशाओं को लेकर कई तरह की शंकाएं पैदा करता है। यह मांग चार वर्ष पहले एक अनजान से सांस्कृतिक संगठन ने की थी। उसने मुकदमा किया कि देश के कई स्मारकों को मस्जिद बनाया जाए। इस सूची में बेजेंटाइन दौर की सबसे महत्त्वपूर्ण इमारत हाजिया सोफिया सहित कई स्मारक शामिल हैं। इस्तांबुल स्थित तीन स्मारकों को पहले ही मस्जिद बनाया जा चुका है। इसमें ईसाईयों के धार्मिक महत्त्व का चोर मठ भी शामिल है। हाजिया सोफिया इस श्रृंखला में चौथा है।

तुर्की की सत्ता पर पिछले 18 वर्षों से एर्दोगन की एके पार्टी का कब्जा है। वह 11 वर्ष तक प्रधानमंत्री रहे और फिर उन्होंने संविधान में परिवर्तन कर के खुद को राष्ट्रपति बना लिया और सत्ता को पूरी तरह से अपने हाथ में ले लिया है। दूसरे शब्दों में वह लगभग तानाशाह बन चुके हैं। वह स्वयं को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं और इस बात को साफ नकारते हैं कि वह देश पर इस्लामिक मूल्य थोप रहे हैं। उनका तर्क होता है कि वह तुर्कों के अपने धार्मिक अधिकारों को खुलकर अभिव्यक्त करने के पक्ष में हैं।

पर मसला इतना ही नहीं है। वह पिछले कई वर्षों से देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को बदलने में लगे हैं। उन्होंने 2013 में औरतों के सरकारी संस्थानों में, सेना, पुलिस और न्यायपालिका को छोड़कर, हिजाब पहनने पर लगी पाबंदी को खत्म कर दिया था। एर्दोगन ने स्त्री-पुरुष के विवाह के बाहर के संबंधों को अपराधिक करने की भी कोशिश की थी जिसमें वह सफल नहीं हो पाए।

पत्थर पर उकेरे शेर

 

वह नारीवाद के विरोधी तो हैं ही परिवार नियोजन के भी खिलाफ हैं। उनका मानना है कि स्त्री और पुरुष को बराबर का नहीं माना जा सकता।

इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि वह कई बार सार्वजनिक तौर पर हाजिया सोफिया को मस्जिद में बदलने की मंशा अभिव्यक्त कर चुके थे। सवाल यह है कि यह व्यक्ति आखिर क्यों तुर्की की समानता, धर्मनिरपेक्षता और आधुनिकता की परंपरा को खत्म करने पर उतारू है? ऐसे दौर में जब कि पूरी इस्लामिक दुनिया आधुनिकता और रुढि़वादिता के दबाव में चरमरा रही है।

स्पष्ट तौर पर एर्दोगन की मंशा किसी भी कीमत पर सत्ता पर बने रहने की है, साथ ही यह भी नहीं भुलाया जा सकता कि वह स्वयं मुस्लिम रुढि़वादिता की देन हैं। पिछले चार चुनावों में उन्हें जो सफलता मिली उसके पीछे धर्म, पाप्युलिस्ट वायदे और मंहगाई व बेरोजगारी का न बढऩा रहा है। सौभाग्य से वह शुरू में अर्थव्यवस्था को स्थिर करने में सफल रहे थे और विकास की दर 4.5 प्रतिशत की गति से बढ़ रही थी। पर पिछले छह वर्ष से यह बिगड़ती जा रही है।

पिछले वर्ष तो मंहगाई 20 प्रतिशत पर पहुंच गई थी और आज बेरोजगारी की दर 15 प्रतिशत है। इसके राजनीतिक दुष्परिणाम सामने भी आने लगे हैं। इस वर्ष मार्च में हुए स्थानीय निकायों के चुनावों में तो एर्दोगन की पार्टी  देश भर में जीत गई पर सब बड़े महानगरों इस्तांबुल, अंकारा और इज़मीर में हार गई।

विशेषकर इस्तांबुल में तो बाकायदा नाटक हुआ। एक करोड़ 60 लाख की आबादी वाले इस शहर में पार्टी की बहुत कम मतों से हुई पराजय पर एर्दोगन को विश्वास ही नहीं हुआ। वह स्वयं इस महानगर के मेयर रह चुके हैं और उसी के बाद सत्ता में आए थे। उनकी पार्टी ने आरोप लगाया कि चुनावों में धांधली हुई है और इस आरोप पर 23 जून को दोबारा चुनाव किए गए। इस बार एकेपी की हार और बुरी हुई।  विजेता दल सीएचपी ने एकेपी से नौ प्रतिशत ज्यादा वोट पाए। असल में एकेपी का वोट मूलत: एनातोलियाई क्षेत्र के कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों में है। इसके अलावा रूढि़वादी जनता का इसे समर्थन मिलता है।

सुल्तान अहमद मैदानी (पार्क) में स्थित हिप्पोहोरोम

 

किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है कि एर्दोगन मूल रूप से परंपरावादी हैं। एर्दोगन के पिता कोस्टगार्ड थे। वे पांच भाई-बहन हैं। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा इस्लामिक स्कूल में पाई  और पढ़ाई के दौरान से ही वह इस्लामिक गतिविधियों में शामिल हो गए थे।वह वक्ता जबर्दस्त हैं जो उन की बड़ी खासियतों में से है।

2014 में वह राष्ट्रपति बने। 2017 के एक विवादास्पद जनमत संग्रह में उन्होंने राष्ट्रपति के रूप में बहुत सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिए और इसके बाद सरकारी पदों से उन सब को बाहर कर दिया जो उन्हें असुविधाजनक लगे।  2016 में तख्ता पलट के एक प्रयत्न में वह बाल बाल बचे पर उसके बाद देश में जो दमन हुआ वह अभी भी जारी है। बताया जाता है कि इस असफल तख्तापटल में 240 लोग मारे गए थे। पर तब से अब तक 50 हजार लोग जिनमें सैनिक, पत्रकार, वकील, पुलिस अधिकारी, अकेदमिक लोग तथा कुर्दिश राजनीतिक शामिल हैं, जेलों में बंद हैं। यही नहीं ढ़ेड लाख सरकारी कर्मचारियों को इस दौरान नौकरी से निकाला जा चुका है। इसमें उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं के हाथ होने की भी बात मानी जाती है।

एर्दोगन सत्ता में बने रहने के लिए स्पष्ट तौर पर तुर्की को इस्लामीकरण की ओर ले जा रहे हैं और जैसे जैसे उनके राजनीतिक संकट बढ़ रहे हैं तुर्की के सेक्युलर और लोकतांत्रिक ढांचे के लिए खतरा बढ़ रहा है।

 

भारत बनाम तुर्की

भारतीय राजनीतिक स्थिति और तुर्की में इधर लोग समानता ढूंढने लगे हैं।

अप्रैल 2017 में जब तुर्की के राष्ट्रपति दो दिन की भारत यात्रा पर आए तो जर्मन टीवी दूश्चेवेले ने एक मजेदार टिप्पणी की : ”…एर्दोगन और मोदी में कई समानताएं हैं। दोनों की दक्षिणपंथी धार्मिक राष्ट्रवादी हैं जो विशाल बहुसांस्कृतिक लोकतंत्र और उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को चलाते हैं। दोनों नेता अपनी सामान्य पृष्ठभूमि, धार्मिक संगठनों के साथ संबंध और निजी भक्ति को खूब उछालते हैं।’’

एर्दोगन का परिवार आर्थिक रूप से कमजोर था और उन्होंने बचपन में इस्तांबुल में लेमनेड (नींबू वाला मीठापानी बेचा था)। पर राजनेता एर्डोगन ने अंकारा में विशाल राष्ट्रपति भवन बनवाया है। यह 48 करोड़ 20 लाख डालर (लगभग 4000 करोड़ रुपये) की कीमत से बना यह एक हजार कमरों का ‘अक सराय’ (श्वेत महल) व्हाइट हाउस और के्रमलिन से भी बड़ा है।

यहां याद किया जा सकता है कि भारतीय प्रधानमंत्री भी नई दिल्ली में सेंट्रल विस्टा कहलाए जानेवाले क्षेत्र का पुननिर्माण करने की प्रतिक्रया में हैं। 20 हजार करोड़ के इस पुनर्निमाण में प्रधानमंत्री आवास भी होगा। हो सकता है यह अक सराय जितना बड़ा न हो पर तीनमूर्ति भवन या उससे भी सुंदर तो हो ही सकता है।

सन 2017 में जब एर्दोगन भारत आए थे तब अखबारों में मुस्तफा कमाल पाशा के साथ भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू को भी याद किया गया था। आधुनिक तुर्की के निर्माता के बारे में नेहरू के इन उदगारों को  उस दौरान उद्धरित किया गया था: ”कमाल अतातुर्क या कमाल पाशा उस दौरान चाहे जिस नाम से मैं उन्हें जानता था, वह जवानी के दौरान मेरे हीरो थे। उनके महान सुधारों के बारे में पढ़कर में बहुत प्रभावित हुआ था। अतातुर्क ने तुर्की को आधुनिक बनाने की प्रक्रिया में जो प्रयत्न किए थे मैं उनका जबर्दस्त प्रशंसक था। उनकी सक्रियता, हिम्मत और कभी न थकने का जनता पर जबर्दस्त प्रभाव पड़ा । वह एशिया में नए युग के लोगों में थे। मैं आज भी उनका जबर्दस्त प्रशंसक हूं।’’

यह सर्वविदित है कि एर्दोगन धार्मिक विचारों के प्रतिक्रियावादी नेता हैं। नेहरू को उस दौरान याद करने का स्पष्ट कारण भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा एर्दोगन का भव्य स्वागत था।

गत माह अंग्रेजी अखबार द हिंदू  ने ‘म्यूजियम टु मॉस्क’ (‘संग्रहालय से मस्जिद’, 13 जुलाई 2020) शीर्षक संपादकीय छापा। स्पष्ट है कि इसमें तुर्की के इस कदम की आलोचना थी। दो दिन बाद इसी अखबार ने भारत में तुर्की के राजदूत साकिर ओज़कान तोरुनलार का एक पत्र छपा। इसमें हाजिया सोफिया को संग्रहालय से मस्जिद बनाए जाने को सही ठहराते हुए लिखा गया था: ” अयासोफिया को मस्जिद बनाया जाना देश के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को कोई बड़ा झटका नहीं है। यह काउंसिल आफ स्टेट्स, (देश की सर्वोच्च प्रशासनिक अदालत) है, के द्वारा एकमत से लिया गया निर्णय था। यह भारतीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 9 नवंबर, 2019 को बाबरी मस्जिद/अयोध्या मंदिर के मामले में एकमत से लिए निर्णय से अलग नहीं था। इनमें से किसी  भी निर्णय का हमारे लोकतंत्रों के धर्मनिरपेक्ष चरित्र से कोई लेना देना नहीं है।’’

परोक्ष रूप से ही सही राजदूत महोदय ने भारत और तुर्की को एक ही पायदान पर खड़ा कर दिया है। इस में शक है कि एक मुस्तफा कमाल अतातुर्क की परंपरा को संभाले है तो दूसरा जवाहर लाल नेहरू की!

ऐसे समय में जब कि भारत कोरोना से प्रभावित देशों में सबसे ऊपर पहुंच चुका है, प्रधानमंत्री मोदी अयोध्या जाकर इसे एक नियोजित राजनीतिक उद्देश्य से जोड़ते हुए राम मंदिर का शिलान्यास कर चुके हैं।

 

नोट: इस लेख में मूल्यवान सलाह के लिए लेखक  प्रो. खालिद अशरफ का आभारी है।

दिनांक: 2 अगस्त को अद्यतन किया गया।

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