Nepal Archives — समयांतर https://www.samayantar.com/tag/nepal/ विचार और संस्कृति का मासिक Tue, 29 Jun 2021 04:24:18 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.5.2 https://www.samayantar.com/wp-content/uploads/2020/03/cropped-Screen-Shot-2020-03-29-at-8.29.51-PM-3-32x32.png Nepal Archives — समयांतर https://www.samayantar.com/tag/nepal/ 32 32 लोकतांत्रिक प्रहसन https://www.samayantar.com/%e0%a4%b2%e0%a5%8b%e0%a4%95%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%82%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%b9%e0%a4%b8%e0%a4%a8/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%b2%e0%a5%8b%e0%a4%95%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%82%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%b9%e0%a4%b8%e0%a4%a8/#respond Fri, 25 Jun 2021 01:29:20 +0000 https://www.samayantar.com/?p=664 लगतार राजनीतिक अस्थिरता के परेशान नेपाली संविधान निर्माताओं ने इस तरह की व्यवस्था करने का प्रयास किया ताकि पांच वर्ष तक चुनाव की जरूरत ही न पड़े और कोई न कोई सरकार देश में मौजूद रहे लेकिन जो व्यवस्था स्थिरता के लिए बनाई गई थी वही अस्थिरता और अनिश्चितता का कारण बन रही है।

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– प्रेम पुनेठा

लगतार राजनीतिक अस्थिरता के परेशान नेपाली संविधान निर्माताओं ने इस तरह की व्यवस्था करने का प्रयास किया ताकि पांच वर्ष तक चुनाव की जरूरत ही न पड़े और कोई न कोई सरकार देश में मौजूद रहे लेकिन जो व्यवस्था स्थिरता के लिए बनाई गई थी वही अस्थिरता और अनिश्चितता का कारण बन रही है।

 

नेपाल में सरकार को बनाने और संसद भंग करने को लेकर विचित्र लोकतांत्रिक प्रहसन चल रहा है। लगता है प्रधानमंत्री खडग प्रसाद शर्मा ओली (केपी ओली) की सरकार, राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी और विपक्षी नेता सभी मिलकर देश में स्थापित नए लोकतंत्र की अर्थी निकालने पर तुले हैं। संविधान के नाम पर जिस तरह से सरकार बनाने और बिगाडऩे का कार्य किया जा रहा है वह संविधान को ही बेईमानी साबित करने कर रहा है। मई 22 को नेपाल की राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने पांच महीने में दूसरी बार संसद के निचले सदन प्रतिनिधि सभा को भंग कर दिया और नवम्बर में मध्यवधि चुनाव की घोषणा कर दी। इससे पहले दिसम्बर में प्रधानमंत्री ओली सरकार की सिफारिश पर राष्टपति ने प्रतिनिधि सभा को भंग कर दिया था और मई में चुनाव की घोषणा की थी। जिसे नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक मानते हुए संसद को बहाल कर दिया था। सबसे दुखद यह है कि यह लोकतांत्रिक प्रहसन उस समय चल रहा है जब देश में कोराना के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं और लोगों की बड़ी संख्या में मौत हो रही है। जब राजनीतिक नेतृत्व को एकजुट होकर कोरोना से लडऩा था वह सत्ता के लिए आपस में सर फुट्टवल कर रहा है। सत्ता के इस निर्लज्ज खेल ने नेताओं की प्रतिष्ठा और सम्मान को मिट्टी में मिला दिया है।

नेपाल में 1990 के बाद राततंत्र सहित बहुदलीय राजनीति शुरू हुयी लेकिन इस राजनीति में बहुत अधिक अस्थिरता देखने को मिली और कोई भी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। लगातार अस्थिरता ने उग्र वामपंथियों को निराश कर दिया और माओवादियों ने नव जनवाद के नाम पर सशस्त्र आंदोलन की शुरूआत कर दी, जिसे माओवादियों ने जनयुद्ध का नाम दिया। दस वर्ष चले इस युद्ध के बाद नेपाल में राजतंत्र की समाप्ति के बाद गणतंत्र की स्थापना हुयी। इसके दो वर्ष के बाद पहली संविधान सभा के चुनाव हुए जो संविधान निर्माण में सफल नहीं हुयी तो 2013 में दूसरी संविधान सभा का गठन हुआ और 2015 में संविधान का निर्माण पूरा हुआ। इसके बाद कई सरकारें बनीं और 2018 में चुनाव के बाद केपी शर्मा ओली ने प्रधानमंत्री बने और अभी तक उनकी ही सरकार चल रही है। पिछले तीस वर्ष में नेपाल में 16 सरकारें बन-बिगड़ चुकी हैं।

लगतार राजनीतिक अस्थिरता के परेशान नेपाली संविधान निर्माताओं ने इस तरह की व्यवस्था करने का प्रयास किया ताकि पांच वर्ष तक चुनाव की जरूरत ही न पड़े और कोई न कोई सरकार देश में मौजूद रहे लेकिन जो व्यवस्था स्थिरता के लिए बनाई गई थी वही अस्थिरता और अनिश्चितता का कारण बन रही है। इन्हीं संवैधानिक व्यवस्थाओं के कारण ओली एक अल्पमत की सरकार बनाये हुए हैं और लगभग छह माह से तानाशाहीपूर्ण तरीके से शासन कर रहे हैं।

नेपाली संविधान के अनुसार सरकार बनाने के लिए राष्ट्रपति सबसे पहले बहुमत प्राप्त दल को बुलाता है। किसी दल को बहुमत न होने पर दो या उससे अधिक दल के गठबंधन की सरकार बनाई जा सकती है और अंतिम स्थिति में राष्ट्रपति सबसे बड़े दल के नेता को प्रधानमंत्री बना सकता है और उसे तीस दिन के अंदर बहुमत सिद्ध करना होगा। यदि वह बहुमत न पा सके तब उसे संसद को भंग करने की सिफारिश करने का अधिकार होगा।

इस स्थिति में देखा जाए तो 2017 के संसदीय चुनाव में नेपाली माओवादी और नेपाली एमाले ने मिलकर चुनाव लड़ा और बहुमत प्राप्त कर लिया। इसके नेता के तौर पर केपी ओली ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। यह कहा जाता है कि दोनों दलों के नेताओं पुष्पकमल दहाल प्रचंड और ओली के बीच ढाई ढाई साल के लिए प्रधानमंत्री पद पर रहने का समझौता हुआ था, हालांकि समझौता लिखित नहीं था। इसके बाद 2018 में माओवादी और एमाले का विलय हो गया और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के नाम से एक नया दल बनाया गया। माओवादियों और एमाले का विलय तो हो गया लेकिन एकीकरण नहीं हो पाया।

इसी बीच 2019 के शुरू से ही प्रचंड और ओली के बीच सत्ता संधर्ष शुरू हो गया। इसका प्रमुख कारण ओली का मौखिक समाझौता न मानना और सरकार और पार्टी को एकाधिकारवादी तरीके से चलाना था। ओली के काम काज के तरीके से एमाले के ही माधव नेपाल गुट ने प्रचंड से हाथ मिला लिया। इस स्थिति में ओली केंद्रीय समित और कार्यकारिणी मे अल्पमत में आ गए लेकिन कोई समझौता करने की जगह उन्होंने दिसम्बर में संसद को भंग करने की सिफारिश कर दी और राष्ट्रपति ने संसद को भंग कर नए चुनाव की तिथि अप्रैल और मई में तय कर दी।

नेपाल के विरोधी दलों और नागरिक समाज ने ओली के इस कदम को संविधान विरोधी बताया और इसके खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया। दूसरी ओर ओली सरकार के इस कदम को नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। फरवरी में नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय ने संसद भंग करने की घोषणा को निरस्त कर दिया और संसद को फिर से बहाल कर दिया। नेपाली संविधान केअनुसार प्रधानमंत्री को सीधे संसद को भंग करने का अधिकार नहीं दिया गया है इसके विपरीत एक प्रधानमंत्री के संसद में विश्वास खो देने पर भी सरकार बनाने के हर संभव प्रयास किए जाने की व्यवस्था है। इन व्यवस्थाओं में राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वह सरकार बनाने के लिए सबसे बड़े दल, दो या दो से अधिक दलों के गठबंधन को निमंत्रित करने या यहां तक कि कोई व्यक्ति राष्ट्रपति के पास दावा कर सकता है कि वह बहुमत वाली सरकार बना सकता है और यदि राष्ट्रपति इस बात से सहमत हों तो वह उसे प्रधानमंत्री नियुक्त कर सकता है लेकिन उसे तीस दिन में सदन में बहुमत सिद्ध करना होगा। इस स्थिति में पूरी संवैधानिक प्रक्रियाओं का पालन न किए जाने के कारण सुप्रीम कोर्ट द्वारा संसद को फिर से बहाल कर दिया गया।

संसद की बहाली के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने फरवरी में अपने एक अन्य फैसले में एमाले और माओवादी केंद्र के विलय को निरस्त कर दिया और संसद में दोनों राजनीतिक दलों के पृथक अस्तित्व को स्वीकार किया। सर्वोच्च न्यायालय के इन दो फैसलों ने संसद की बहाली के साथ ही प्रतिनिधि सभा में राजनीतिक दलों की स्थिति को परिवतर्तित कर दिया। नेपाली संसद के निचले सदन प्रतिनिधि सभा में 275 सदस्य हैं। इसमें से चार सीटें खाली हैं। नेकपा एमाले के सदस्यों की संख्या 121, माओवादियों की 49, नेपाली कांग्रेस की 61 और समाजवादी जनता पार्टी के सदस्यों की संख्या 32 है जबकि अन्य आठ सीटें निर्दलीय व छोटे राजनीतिक दलों के पास हैं। सदन में बहुमत की जादुई संख्या 136 है लेकिन कोई भी दल अपने स्तर पर बहुमत के आंकड़ों के पास नहीं है। इसलिए किसी न किसी की सहायता की जरूरत पड़ रही है। एमाले सबसे बड़ा दल तो था लेकिन उसके पास बहुमत का आंकड़ा नहीं था और ओली की सरकार अल्पमत में आ गई थी लेकिन नेकपा माओवादी ने जो 2017 में सरकार बनाने के लिए समर्थन का पत्र दिया था, उसके आधार पर ओली सरकार को तकनीकी तौर पर बहुमत हासिल था। माओवादी ने अपना समर्थन वापस ही नहीं लिया तो ओली सरकार को सदन में बहुमत सिद्ध करने की कोई जरूरत ही नहीं हुयी।

संसद बहाली के निर्णय में कहीं भी यह नहीं कहा गया कि ओली सरकार को फिर से बहुमत सिद्ध करना होगा। शायद सुप्रीम कोर्ट ने यह विचार किया होगा कि बहुमत का निर्णय सदन के अंदर ही हो तो बेहतर है। एक तरह से यह विचार लोकतांत्रिक व्यवस्था में शक्तियों के पृथकीकरण ‘सेपरेशन आफ पावरÓ के अनुरूप ही है और सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं को संसदीय प्रक्रियाओं में उलझाना नहीं चाहा होगा लेकिन सुप्रीम कोर्ट का एक अन्य काम संविधान की व्याख्या करना भी होता है, जो वह विभिन्न समय पर अपने निर्णयों के माध्यम से देता रहता है और ये निर्णय भविष्य के लिए एक परंपरा बन जाते हैं। यह निर्णय इसलिए भी जरूरी होते हैं क्योंकि राजनीतिक दल सत्ता के खेल में अपनी सुविधा के अनुसार व्यवहार करते हैं और सुप्रीम कोर्ट को एक तटस्थ अंपायर की तरह निर्णय देना होता है। संसद भंग करने के मामले में भी ओली सरकार अपनी सुविधा के अनुसार संविधान की व्याख्या कर रही थी। सुप्रीम कोर्ट के संसद बहाली के निर्णय में एक अधूरापन है। यदि सुप्रीम कोर्ट संसद बहाली के साथ ही सरकार को सदन में बहुमत सिद्ध करने को कहती तो स्थितियां काफी पहले साफ हो सकती थीं और एक असमंजस की स्थिति नहीं रहती।

 

राष्ट्रपति की भूमिका

पिछले पांच महीने में नेपाली राष्ट्रपति की भूमिका बहुत ही नकारात्मक दिखायी दी है। राष्ट्रपति पूरे देश का प्रतिनिधित्व करता है और उससे आशा की जाती है कि वह राजनीतिक दांवपेच से दूर तटस्थ तरीके से काम करेगा और सरकार की उन सिफारिशों को नहीं मानेगा जो संविधान के अनुरूप नहीं होंगी। यदि दिसम्बर और मई में राष्ट्रपति विद्या देवी के व्यवहार को परखा जाए तो उसमें जमीन आसमान का अंतर दिखायी देता है। दिसम्बर में केपी ओली की सरकार ने राष्ट्रपति के पास संसद को भंग करने की सिफारिश भेजी और उन्होंने उसे बिना बिना किसी असमजंस के स्वीकार कर लिया। बेहतर तो यह होता कि वह इस मामले में विधि विशेषज्ञों की राय लेतीं या इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की राय लेतीं कि क्या सरकार की यह सफारिश संविधान के प्रावधान के अनुरूप है या नहीं? यह इसलिए भी जरूरी है कि संविधान में सरकार बनाने के लिए धारा 75 में कई तरह की व्यवस्थाएं की हुयी हैं। लेकिन राष्ट्रपति ने ऐसा कुछ भी नहीं किया तो उन पर यह आरोप लगाए जा रहे हैं कि ओली के पक्ष मे निर्णय ले रही हैं चाहे इसके लिए उन्हें सविधान के विरोध में ही क्यों न जाना पड़े।

दूसरी बार मई में एक बार फिर ससंद को भंग करने में उन्होंने सही तरह से संविधान का पालन नहीं किया और विरोधियों को सरकार बनाने का मौका ही नहीं दिया। दस मई को ओली सरकार बहुमत नहीं पा सकी तो उन्होंने विरोधियों को मौका दिया लेकिन वे भी असफल रहे तो उन्होंने सबसे बड़े पार्टी के नेता के नाते फिर से ओली को प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया। ओली ने संसद भंग के सिफारिश के खिलाफ राष्ट्रपति ने विरोधी दलों और ओली को सरकार बनाने का फिर मौका दिया और जब दोनों अपने बहुमत के दावे में सांसदों की सूची लेकर राष्ट्रपति के पास पहुंचे तो उन्होंने किसी पर भी विश्वास न कर संसद भंग कर दी और चुनाव की घोषणा कर दी।

इस पूरी पक्रिया में ओली फिर से चुनाव तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने रहेगे। इस घटनाक्रम से यही आभास हो रहा है कि राष्ट्रपति भंडारी हर हाल मे ओली को प्रधानमंत्री पद पर बनाए रखना चाहती हैं, जिसकी ओर विपक्षी लगातार इशारा कर रहे हैं और उन पर तटस्थ न होने का आरोप लगा रहे हैं।

राष्ट्रपति के इस व्यवहार से परेशान विरोधी दल उनके खिलाफ महाअभियोग लाने की संभावनाओं पर विचार करने लगे हैं। अगर यह होता है तो यह सरकार और विपक्ष के बाद विपक्ष और राष्ट्रपति के बीच टकराव के तौर पर सामने आएगा। इधर, राष्ट्रपति दोबारा संसद भंग करने के निर्णय के खिलाफ विपक्षी दल एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट जाने की सोच रहे हैं। यदि ऐसा होता है तो एक बार फिर संसद का मामला अधर में लटक जाएगा और देश में ंसरकार को लेकर असमंजस की स्थिति रहेगी और देश में अल्पमत की सरकार होगी।

 

प्रतिष्ठा खोते नेता और दल

2017 में वामपंथयों को पूर्ण बहुमत मिलने के बाद भी जिस तरह से राजनीतिक दलों और नेताओं ने व्यवहार किया है उससे उनकी प्रतिष्ठा कम धुमिल नहीं हुई है। इस पूरे घटनाक्रम ने दिखाया है कि न तो राजनीतिक दलों के पास कोई विचारधारा है और न नेताओं के पास कोई प्रतिबद्धता या जनता के प्रति किसी तरह का समर्पण। हर राजनीति दल में प्रथम पंक्ति के नेताओं के पास केवल व्यक्तिगत एजेंडा है और वह है हर हाल में सत्ता को अपने हाथ में केंद्रित कर के रखना। इसको देखते हुए दूसरी ओर तीसरी पंक्ति के नेताओं ने भी अपने हितों को देखते हुए पार्टी के अंदर और पार्टी के बाहर अपनी निष्ठाएं बनाना और बदलना शुरू कर दिया है। हर पार्टी में नेताओं का काम अधिक से अधिक ताकत को अपने हाथों में बनाए रखना है।

सत्ता को अपने हाथों तक सीमित करने का काम सबसे पहले और सबसे खतरनाक तरीके से केपी ओली ने ही शुरू किया। उन्होंने एक साथ प्रधानमंत्री और नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष का पद संभाल लिया। यह कहा जाता है कि माओवादी केंद्र के कामरेड प्रचंड और नेकपा एमाले के ओली के बीच एक समझदारी चुनाव के समय बनी थी कि दोनों ही व्यक्ति आधे-आधे समय के लिए प्रधानमंत्री रहेंगे। इसी आधार पर दोनों दलों का विलय भी हो गया था और इस एकीकृत नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के दो अध्यक्ष बनाए गए। लेकिन 2019 के शुरू से ही दोनों नेताओं के बीच मतभेद शुरू हो गए। ओली अब प्रधानमंत्री पद नही ंछोडऩा चाहते थे और न ही पार्टी का अध्यक्ष पद। ओली निहायत पद लोलुप हैं और उनका पूरा व्यवहार बहुत ही तानाशाहीपूर्ण है। वह किसी भी नेता को किसी स्तर पर साथ लेकर चलने के लिए तैयार नहीं हैं। आज संकट की इस घड़ी में ओली पशुपतिनाथ मंदिर में विशेष पूजा कर रहे हैं तो राम की अयोध्या नेपाल में खोज रहे हैं। यह किस तरह का कम्युनिस्ट व्यवहार है?

सरकार चलाने में भी उन्होंने एमाले के दूसरे नेताओं की उपेक्षा की और मनमर्जी से सरकार चलाने लगे। इससे उनकी अपनी पार्टी एमाले के माधव नेपाल और झलनाथ खनाल नाराज हैं। इन दोनों नेताओं का लक्ष्य ओली सरकार को गिराना है चाहे इसके लिए नेपाली कांग्रेस या माओवादी या किसी अन्य के साथ हाथ मिलाना पड़े। केपी ओली का तानाशाही पूर्ण रवैया भले ही इस संकट के लिए जिम्मेदार हो लेकिन माधव नेपाल, खनाल और वामदेव गौतम जैसे नेताओं का व्यवहार भी कोई वैचारिक आधार पर नहीं बल्कि व्यक्तिगत है। इन नेताओं ने न तो पार्टी से इस्तीफा देकर बाहर आकर चुनाव में जाने का साहस है और न ही ये पार्टी से अलग होकर नए सिरे से काम करने की सोच रखते हैं। राजनीतिक संकट का एक कारण इन नेताओं की यही असुरक्षा है।

माओवादी नेताओं का व्यवहार भी कहीं से वैचारिक नहीं है। सही तो यह है कि भूमिगत होकर सशस्त्र आंदोलन से संसदीय राजनीति का हिस्सा बनने के बाद प्रचंड ने सबसे अधिक समझौते किए। इसी का परिणाम यह है कि 2008 के माआवादी पार्टी के कई टुकड़े हो गए हैं और बाबूराम भट्टराय हो या मोहन किरन वैद्य अलग पार्टियों में हैं। माओवादियों की दूसरी लाइन के नेता राम बहादुर थापा उर्फ बादल या लेखराज भट्ट जैसे भूमिगत रहे माओवादी मंत्रीपद के लिए ओली के साथ खड़े हैं। यहां तक की माओवादी पार्टी से निकालने के बाद ओली ने इन लोगों को बिना संसद सदस्य के ही मंत्री बना दिया। संविधान के अनुसार कोई भी व्यक्ति बिना संसद सदस्य रहे छह माह तक मंत्री बना रह सकता है और अब ओली उन्हें चुनाव लड़ा रहे हैं। आज हालत यह है कि कल के एमाले नेता आज माओवादी पार्टी के साथ हैं तो कल के माआवादी आज एमाले के साथ। इस स्थिति में यह पूछना तो स्वाभाविक है तब जनयुद्ध के दौर के क्रांतिकारी और संशोधनवादी आज कहां खड़े हैं?

मधेसी पार्टी समाजवादी जनता दल में भी सत्ता के लिए अलग अलग लोगों के लिए वफादारियां हैं। राजेंद्र महतो का गुट ओली के प्रति वफादारी दिखा रहा है तो उपेंद्र यादव और बाबूराम भट्टराई की वफादारी ओली विरोधियों के साथ है। यहां भी न तो कोई वैचारिक आधार है और न ही मधेशियों के मुद्दों से कोई लेना देना। बात सिर्फ इतनी सी है कि किस पार्टी के साथ जाकर सत्ता की मलाई मिल सकती है।

 

राजशाही के लिए सहानुभूति

लोकतांत्रिक सरकारों के लगातार असफल होने और नेताओं के आपसी संघर्ष ने लोकतंत्र और गणतंत्र में लोगों की आस्था को कमजोर किया है। नवीनतम घटनाक्रम में पूर्ण बहुमत देकर भी वामपंथियों ने जो सत्ता के लिए निर्लज्जता का परिचय दिया है उससे वामपंथ की सार्थकता कम हुयी है । इस स्थिति में लोगों के बीच यह बात स्वाभाविक तौर पर जा रही है कि इस पूरी स्थिति में राजतंत्र में क्या खराबी थी। आखिर लोकतांत्रिक नेताओं का व्यवहार सामंतों से कम तो नहीं है। फिर राजतंत्र की समाप्ति के बाद भी नेपाली समाज के एक बड़े हिस्से में राजा और राजशाही के प्रति सहानुभूति रही है और यह समाज राजनीति, नौकरशाही, आर्थिक, सांस्कृतिक क्षेत्रों में अपनी प्रभावी उपस्थिति रखता है।

इस बीच नेपाल के अंतिम राजा ज्ञानेंद्र की सक्रियता काफी बढ़ी है और हरिद्वार में आयोजित कुंभ में ज्ञानेंद्र को संत समाज की ओर से नेपाल के महाराजा के तौर पर ही स्वीकार किया गया। अगर नेपाल में लोकतांत्रिक सरकारें इसी तरह से काम करती रहीं तो राजशाही के लिए समर्थन बढ़ता ही रहेगा और कोई आश्चर्य नहीं होगा कि राजशाही समर्थक ताकतों से राजनीतिक दल गठबंधन की ओर बढ़ जाएं। पूर्व में ऐसा हो भी चुका है।

लोकतंत्र का जो प्रहसन नेपाल में राजनेता ओर राजनीतिक दल खेल रहे हैं उसकी भारी कीमत वहां की जनता को चुकानी पड़ रही है। पूरा विश्व इस समय कोरोना की चपेट में है और नेपाल की हालत और भी ज्यादा खराब है क्योंकि गरीब देश होने के कारण यहां स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा काफी खराब है। शहरों में ही सुविधाएं नहीं है तो गांवों की क्या बात की जा सकती है। फिर अन्य देश भी उसकी सहायता के लिए आगे नहीं आ पा रहे हैं। नेपाल के पास एक सुविधा भारत आकर स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठा लेने की थी लेकिन इस समय स्वयं भारत की ही स्वास्थ्य व्यवस्था कोरोना के कारण बददतर हालत में है और स्वयं भारतीय नागरिकों के लिए कम पड़ रही हैं। इसलिए यह रास्ता भी बंद है। इसके अलावा नेपाल और भारत के बीच आवागमन काफी सीमा तक बाधित है और केवल आपातकालीन स्थिति में ही एक देश से दूसरे देश जाने की अनुमति कुछ ही स्थानों से है।

जब राजनेताओं का सारा ध्यान इस बात पर केंद्रित हो कि सरकार बनेगी या जाएगी तब नागरिक सुविधाओं को बढ़ाने की ओर किसी का ध्यान नहीं है। फिर कोरोना के कारण काफी बड़ी संख्या में नेपाली नागरिक वापस घर आये हैं और उनके पास कोई काम ही नहीं है। सरकारें उनको किसी तरह से मदद पहुंचा पाने में असफल रही है। एक तो संसाधनों का अभाव है और ऊपर से राजनीतिक अस्थिरता ने समस्या को बढ़ाया ही है।

एक नवोदित लोकतंत्र को बेहतर तरीके से चलाने का दायित्व समाज के हर वर्ग का है विशेष तौर पर संस्थाओं का जिसमें राजनीतिक दल, नागरिक समाज, न्यायपालिका, चुनाव आयोग, नौकरशाही, राष्ट्रपति और सरकार का, क्योंकि ये संस्थाएं हैं और लोकतंत्र तभी सही तरीके से चल सकता है जब संस्थाएं मौजूद हों और मजबूत हों। संविधान लागू होने के बाद पहले चुनाव में बनी सरकार और इन संस्थाओं पर गुरूतर दायित्व है कि वे व्यवस्था को पटरी पर रखें। इस तरह की लगातार असमंजस और अस्थिरता की स्थिति समाज को अलगाववाद जैसे किसी बड़े संकट में डाल सकती है, जो बहुत असंभव नहीं है।

परइसबीचकाघटनाक्रमकईगुनाचिंताजनकहै।

नेपाल के अखबार काठमांडू पोस्ट में एक कार्टून छपा है जिसमें प्रधानमंत्री केपी ओली के सिर पर पूर्व नेपाली राजा का मुकुट रखा हुआ है और उनकी कोट की जेब में राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी नजर आ रही हैं। यह नेपाल की वर्तमान दशा को दिखाने के लिए काफी है। कार्यवाहक प्रधानमंत्री ओली ने चार जून को कैबिनेट का पुनर्गठन करते हुए 12 नए सदस्यों को शामिल कर लिया और तेरह पुराने मंत्री हटा दिए। नए सदस्यों में दस केवल मधेशी लोगों की जनता समाजवादी पार्टी है। इसके साथ ही तीन नए उप प्रधानमंत्री बना दिए। यह विचारणीय है कि जब चुनाव की घोषणा हो चुकी हो तो कैसे मंत्रिपरिषद का पुनर्गठन किया जा सकता है। यह सारी प्रक्रिया तो नयी सरकार के गठन के बाद होनी चाहिए। नियमानुसार तो संसद भंग हो चुकी है और इस कार्यवाहक सरकार का काम केवल नए चुनाव कराना और सरकार के प्रतिदिन के काम करना है। वह कोई भी नीतिगत निर्णय नहीं ले सकती।

नेपाल में एक लंबे संघर्ष के बाद संविधान लागू हुआ है। इस समय सरकारें और संस्थाएं जो भी कार्य करेंगी वह एक प्रथा और परंपरा के तौर पर संविधानवाद का भाग बन जाएंगी, जिनके प्रकाश में अदालतें निर्णय दिया करेंगी। यदि इस समय एकाधिकार वादी तरीके से और अविवेकपूर्ण निर्णय लिए गए तो यह भविष्य के लिए घातक होेगे। यह नेपाल के न्यायप्रिय और लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास रखने वाले नागरिकों का दायित्व है कि वे संघर्ष से प्राप्त संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करे और यह भी देखना होगा कि संवैधानिक संस्थाएं जैसे कि सर्वोच्च न्यायालय, चुनाव आयोग अपनी जिम्मेदारी कैसे निभाते हैं।

अद्यतन  6 जून 2021

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काला पानी: विवाद के निहितार्थ https://www.samayantar.com/%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%b2%e0%a4%be-%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%80-%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a6-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%a4%e0%a4%be/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%b2%e0%a4%be-%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%80-%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a6-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%a4%e0%a4%be/#comments Mon, 22 Jun 2020 01:47:14 +0000 https://www.samayantar.com/?p=316 भारत नेपाल संबंध

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  • प्रेम पुनेठा

भारत और नेपाल के बीच सीमा तय करने के लिए 1816 में हुई सुगौली संधि के लगभग 204 साल बाद 2020 में भारत और नेपाल के बीच सीमा विवाद बहुत गंभीर हो गया है। नवंबर में भारत ने जम्मू-कश्मीर का विभाजन किया और नया राजनीतिक नक्शा जारी किया। इसमें पूर्व की तरह कालापानी को भारतीय सीमा के अंदर दिखाया गया था। इस पर नेपाल ने भारत के इस नक्शे पर आपत्ति की और कालापानी को विवादित क्षेत्र बताया। इसके बाद आठ मई को भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने पिथौरागढ़ जिले की धारचूला तहसील के ब्यास घाटी में 80 किलोमीटर सड़क मार्ग का उदघाटन किया। यह सड़क लिपूलेख दर्रे से चार किलोमीटर पहले तक ही जाती है। धारचूला से लिपूलेख दर्रे तक के मार्ग को कैलाश मार्ग भी कहा जाता है और यह भारत से कैलाश मानसरोवर को जाने के लिए पौराणिक और धार्मिक मार्ग माना जाता है। इस सड़क के निर्माण के बाद दिल्ली से लिपूलेख दर्रे तक दो दिन में पहुंचा जा सकता है।

इस पर नेपाल ने अपनी आपत्ति दर्ज की और भारत के काठमांडू स्थित राजदूत को बुलाकर विरोध दर्ज कराया। नेपाल का कहना था कि भारत ने 26 किमी सड़क उसकी जमीन में बनाई है। नेपाल के कुछ राजनीतिक संगठनों ने प्रदर्शन कर इसका विरोध करना शुरू कर दिया। भारत ने इस मामले को शांत करने के लिए कहा कि सड़क पिछले बीस साल से बन रही थी और पुराने पैदल रास्ते का ही विस्तार किया गया है। पूरी सड़क भारतीय क्षेत्र में है लेकिन नेपाल ने इसे स्वीकार नहीं किया। नेपाल ने नया नक्शा जारी कर दिया। इसमें कालापानी, लिपूलेख और लिंपियाधुरा को नेपाल में दिखाया गया। भारत ने नेपाल के नए नक्शे को अस्वीकार कर दिया है।

 

कालापानी का विवाद

गोरखा शासकों और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच 1814 में युद्ध शुरू हुआ और दिसंबर 1815 में दोनों के बीच संधि हुई जिसे मार्च 1816 में काठमांडू दरबार से स्वीकृति मिली। इसी संधि ने गोरखा राज्य और ब्रिटिश इंडिया के बीच सीमाओं का निर्धारण किया। इसके अनुसार काली नदी पश्चिम में दोनों राज्यों के बीच सीमा रेखा मानी गई और गोरखा शासकों ने अपने भूमि संबंधी दावे छोड़ दिए। काली नदी को सीमा रेखा तो माना गया लेकिन काली के उदगम का कोई स्थान निर्धारित नहीं किया गया। काली नदी का उदगम किसे माना जाए यही कालापानी के विवाद के मूल में है। नेपाल का दावा है कि 1860 से पहले के नक्शों में कालापानी का उदगम स्थान लिंपियाधुरा दिखाया गया है इसलिए लिंपियाधुरा ही काली नदी का उदगम है। नेपाल यहां से निकलने वाली जलधारा को काली नदी कहता है और इसे भारत में कुटी यांगटी कहा जाता है। कुटी यांगटी नदी कालापानी की ओर से आ रही जलधारा से गुंजी के पास मिलती है। इस तरह लिपूलेख-लिंपियाधुरा-गुंजी एक 385 वर्ग किमी का एक त्रिकोण बनता है, जिस पर नेपाल अपना दावा करता है। नेपाली दावे के विपरीत भारत का दावा है कि काली नदी का उदगम कालापानी है और ब्रिटिश नक्शों में भी यह दर्शाया गया है। लिंपियाधुरा से निकलने वाली धारा कुटी यांगटी है। इसलिए कालापानी और लिपूलेख काली नदी के पश्चिम में होने के कारण स्वाभाविक तौर पर भारतीय ही माने जाएंगे।

 

ब्यास घाटी का विभाजन

उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले की धारचूला तहसील में तवाघाट से लिपूलेख तक का क्षेत्र ब्यास घाटी कहलाता है। इसमें गुंजी से नीचे के इलाके को निचली ब्यास घाटी और इसके ऊपर के इलाके को ऊपरी ब्यास घाटी कहा जाता है। इस घाटी में रहने वाले रं जनजाति के लोगों को ब्यासी कहते हैं। ब्यासी लोग काली नदी के दोनों ओर रहते हैं लेकिन काली नदी को सीमा मानने के कारण ब्यास समुदाय विभाजित हो गया। इसके सात गांव काली के पश्चिम में होने के कारण भारत में और दो गांव तिंकर और छांगरू नदी के पूर्व में होने के कारण नेपाल में चले गए। दोनों ही ओर के ब्यासी समुदाय का मुख्य व्यवसाय तिब्बत से व्यापार था और भारत के लोग लिपूलेख दर्रे का और नेपाल के लोग तिंकर दर्रे का प्रयोग करते थे। नेपाली व्यापारी अपसी सुविधा से लिपूलेख दर्रे का प्रयोग भी करते थे क्योंकि यह सबसे सुविधाजनक दर्रा था और दोनों ओर के व्यापारियों की मंडी ताकलाकोट थी।

देशों की सीमाओं के निर्धारण में ब्यासी पहला समुदाय था जो दो देशों में विभाजित हो गया। इसका कारण ईस्ट इंडिया कंपनी के पास इस क्षेत्र के सही नक्शों का अभाव था। इस कारण ब्यास समुदाय को विभाजित होना पड़ा। यदि कंपनी के पास सही नक्शे होते तो काली नदी सीमा रेखा गर्ब्यांग होती और उसके ऊपर तिंकर नदी सीमा रेखा होती क्योंकि तभी ब्यास समुदाय को एक रखा जा सकता था। तिंकर नदी तिंकर दर्रे से निकलकर गर्ब्यांग के पास काली नदी से मिलती है। इसके दूसरी ओर छांगरू गांव है। हिमालय के इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले इतिहासकारों का भी मानना है कि ऊपरी ब्यास घाटी में काली की जगह तिंकर नदी को सीमा रेखा माना जाना चाहिए था लेकिन ऐसा हो नहीं पाया।

लिपूलेख के दर्रे को लेकर दो सौ वर्षों तक किसी तरह का विवाद भारत और नेपाल के बीच नहीं हुआ। इसका कारण यह था कि तिब्बत व्यापार करने वाले दोनों ओर के लोगों में सीमा को लेकर कोई विवाद नहीं था। ऊपरी ब्यास घाटी के विभाजन के बाद भी गुंजी और गर्ब्यांग के लोगों की जमीनें छांगरू गांव में थीं, इसके दस्तावेज वहां लोगों के पास माजूद हैं। खुली सीमा के कारण वे नदी पार जाकर खेती करते थे, पशुओं के लिए चारा लाने और यहां तक कि यारसा गम्बू के बुग्यालों (मिडोज या घास के मैदान) में भी जाते थे। यह स्थिति सन 2000 और उसके कुछ बाद तक रही थी।

 

‘ग्रेट गेम’:  पूर्वी छोर

उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में ब्रिटेन और फ्रांस में पूंजीवादी व्यवस्था का विश्व नेता बनने की होड़ थी लेकिन 1815 में नेपालियन की पराजय से फ्रांस की पूंजीवाद का विश्व नेता बनने की चाह समाप्त हो गई। लेकिन जल्दी की रूस ने ब्रिटेन को चुनौती देनी शुरू कर दी लेकिन रूस काला सागर और भूमध्य सागर के माध्यम से योरोप की एक ताकत बनना चाहता था और उसकी मंशा योरोप और भारत के बाजारों और संसाधनों पर कब्जा करने की थी पर1853 से शुरू हुए क्रीमिया युद्ध की पराजय और रूस पर थोपी गई शर्तों ने उसे काला सागर और भूमध्य सागर में कमजोर कर दिया। अब रूस के पास भारत तक पहुंचने के लिए एकमात्र रास्ता मध्य एशिया से होते हुए जमीनी रास्ता रह गया था। रूस और ब्रिटेन के बीच ग्रेट गेम का थिएटर अफगानिस्तान बन चुका था और उनके बीच अफगानिस्तान को लेकर संघर्ष शुरू हो चुका था। 1840 में ईस्ट इंडिया कंपनी और अफगानों के बीच पहला युद्ध हो चुका था और अंग्रेज अपनी समर्थक सरकार वहां बना चुके थे।

इस ‘ग्रेट गेम’ का केंद्र अफगानिस्तान जरूर था लेकिन इसका एक सिरा ब्रिटिश कालीन कुमाऊं और गढ़वाल भी था, जिसकी सीमाएं तिब्बत से लगती थीं। हिस्ट्री ऑफ उत्तराखंड फ्रॉम स्टोन एज टू 1949 में अजय रावत ने बताया है कि किस तरह उत्तराखंड ‘ग्रेट गेमÓ का हिस्सा किस तरह था। रूस को लगता था कि अगर वह जमीनी रास्ते से भारत पहुंचता है तो वह तिब्बत पार कर ही पहुंच सकता है। इसमें भी कुमाऊं और गढ़वाल के दर्रे उसके काम आ सकते हैं और उनमें भी लिपूलेख का दर्रा सबसे महत्त्वपूर्ण है। एक तो यह सबसे आसान दर्रा था और दूसरा यह गंगा के दोआब के सबसे पास था। ईस्ट इंडिया कंपनी की तिब्बत में शुरुआती दौर में कोई विशेष रूचि नहीं थी लेकिन वह इसे चीन और रूस के साथ एक ‘बफर स्टेट’ के तौर पर बनाए रखना चाहता था। लेकिन जब उसे रूस की रुचि तिब्बत में बढ़ती हुई दिखायी दी तो उसने कुमाऊं क्षेत्र के दर्रों की ओर ध्यान देना शुरू किया। इसके बाद ही ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में ब्रिटिश शासन ने तिब्बत के बारे में अधिक से अधिक जानकारी हासिल करने की कोशिश की। इसलिए जो इतिहासकार इस सिद्धांत के समर्थक हैं  कि इतना महत्त्वपूर्ण होने पर लिपूलेख का नियंत्रण नेपाली शासकों को देने का सवाल नहीं उठता था, भले ही ब्रिटेन के संबंध नेपाल के शासकों से बहुत अच्छे थे।

नेपाल और भारत के बीच सीमाओं का निर्धारण सुगौली की संधि रही है पर सीमाएं हमेशा वहीं नहीं रहीं जो 1816 में निर्धारित की गई थीं। अंग्रेजों से अपने संबंधों के चलते गोरखों ने 1857 के विद्रोह को कुचलने में उनकी मदद की थी और इसके बदले में 1860 में ब्रिटिश शासकों ने पश्चिमी तराई के चार जिले कंचनपुर, कैलाली, बर्दिया और बांके नेपाल को वापस कर दिए थे। इस क्षेत्र को 1816 की संधि के बाद से अंग्रेजों ने अपने पास रखा हुआ था। 1930 के दशक में जब शारदा डैम और नहर का निर्माण किया जा रहा था तो उसमें नेपाल का कुछ भूभाग डूब क्षेत्र में आ गया था तो इसके बदले में अंग्रेजों ने नेपाल को तराई के दो गांव दिए थे जो काली नदी और शारदा के दक्षिण में पड़ते हैं और इसी स्थान पर नेपाल अपना पहला ड्राई पोर्ट बना रहा है। इन सभी अवसरों पर नक्शों में आवश्यक संशोधन किया गया। इसके अलावा काली और शारदा के बहाव की धारा बदलती रहती है।

 

बदलता सामरिक महत्त्व

अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण भारत-चीन युद्ध से पहले तक इसका कोई सामरिक महत्त्व नहीं था क्योंकि तब तिब्बत से लगी सीमाएं शांत थीं। तिब्बत, नेपाल और भारत के इस मिलन बिंदु पर छह माह के व्यापार के अलावा कोई हलचल नहीं रहती थी। 1962 के बाद इस स्थान का भारत के लिए महत्त्व काफी अधिक बढ़ गया। तब भारत ने अपनी उपस्थिति को बढ़ाने का प्रयास किया। जब लगभग दो दशक के बाद भारत और चीन के बीच दोबारा संबंध सामान्य होने लगे तो 1981 में लिपूलेख दर्रे से कैलाश मानसरोवर यात्रा शुरू की गई और इसके एक दशक बाद 1992 में भारत-चीन सीमा व्यापार शुरू किया गया। इस बीच कैलाश यात्रा और सीमा व्यापार को देखते हुए भारतीय सैन्य बलों ने अपनी उपस्थिति प्रभावी कर दी। इसके बाद ही नेपाल में कालापानी इलाके को लेकर हलचल शुरू हो गई। इसका नेतृत्व नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियां करती रही हैं। नेपाली कम्युनिस्ट पार्टियों ने इसे नेपाली राष्ट्रवाद से जोड़ दिया। ये पार्टियां भारत को एक विस्तारवादी देश के तौर पर मानती रही हैं। 1992 में नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी एमाले कालापानी के मुद्दे पर सबसे मुखर थी और बाद में माओवादियों ने कालापानी के मुद्दे को जोर-शोर से उठाया।

2004 में नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला ने इसे भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सामने रखा और इस पर वाजपेयी ने इसका अध्ययन करने के बाद कार्यवाही का आश्वासन दिया लेकिन कोई कार्यवायी नहीं हुई। इसके बाद 2014 में इस मुददे के समाधान के लिए काम करने का वादा किया गया लेकिन कोई भी बात इस मामले में आगे नहीं बढ़ी। 2015 में भारत और चीन के बीच लिपूलेख दर्रे से व्यापार बढ़ाने को लेकर हुए समझौते का नेपाल ने विरोध किया था कि इस समझौते से पहले भारत और चीन ने नेपाल को विश्वास में नहीं लिया। इस मामले में चीन ने पहली बार दखल 2017 में डोकलाम विवाद के समय दिया। वर्तमान विवाद के समय चीन ने कहा कि कालापानी विवाद भारत और नेपाल के बीच का मामला है और दोनों को इसका समाधान करना चाहिए।

राजनाथ सिंह द्वारा कैलास मार्ग का उद्घाटन करने के बाद नेपाल की केपी शर्मा ओली सरकार पर अंदर और बाहर से कुछ करके दिखाने का दबाव काफी ज्यादा था इसलिए उसने कठोर प्रतिक्रिया ही नहीं की बल्कि संविधान संशोधन कर नया नक्शा पारित किया गया है। दरअसल नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर केपी ओली की स्थिति कमजोर हो रही है। पिछले दिनों दो विवादित विधेयकों को वापस लेने से ओली पर पद त्याग का दबाव बना हुआ था और इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए ओली सरकार ने कालापानी को सेफ्टी वॉल्व की तरह प्रयोग किया है और उग्र राष्ट्रवाद की भाषा का उपयोग कर पार्टी के अंदर और संसद के अंदर विरोधियों को अपने पीछे खड़ा कर लिया। लेकिन इससे स्थिति काफी जटिल हो गई है हालांकि नेपाली संसद में चर्चा के लिए यह विषय नहीं रखा गया इससे दोनों देशों को वार्ता के लिए माहौल बनाने का समय मिल गया है। सीमा विवाद को सुलझाने के लिए भारत और नेपाल दोनों को समझदारी से काम लेना चाहिए और जल्द से जल्द वार्ताएं शुरू करनी चाहिए। साथ ही किसी भी तरह के तनाव को बढ़ाने से बचना चाहिए। दस्तावेजों की जांच के बाद यह पता लगाना चाहिए कि वास्तविक स्थिति क्या है? और इसको कैसे सुलझाया जा सकता है?  n

समयांतर, जून 2020

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