India Archives — समयांतर https://www.samayantar.com/tag/india/ विचार और संस्कृति का मासिक Mon, 22 Jun 2020 01:47:14 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.5.2 https://www.samayantar.com/wp-content/uploads/2020/03/cropped-Screen-Shot-2020-03-29-at-8.29.51-PM-3-32x32.png India Archives — समयांतर https://www.samayantar.com/tag/india/ 32 32 काला पानी: विवाद के निहितार्थ https://www.samayantar.com/%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%b2%e0%a4%be-%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%80-%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a6-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%a4%e0%a4%be/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%b2%e0%a4%be-%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%80-%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a6-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%a4%e0%a4%be/#comments Mon, 22 Jun 2020 01:47:14 +0000 https://www.samayantar.com/?p=316 भारत नेपाल संबंध

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  • प्रेम पुनेठा

भारत और नेपाल के बीच सीमा तय करने के लिए 1816 में हुई सुगौली संधि के लगभग 204 साल बाद 2020 में भारत और नेपाल के बीच सीमा विवाद बहुत गंभीर हो गया है। नवंबर में भारत ने जम्मू-कश्मीर का विभाजन किया और नया राजनीतिक नक्शा जारी किया। इसमें पूर्व की तरह कालापानी को भारतीय सीमा के अंदर दिखाया गया था। इस पर नेपाल ने भारत के इस नक्शे पर आपत्ति की और कालापानी को विवादित क्षेत्र बताया। इसके बाद आठ मई को भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने पिथौरागढ़ जिले की धारचूला तहसील के ब्यास घाटी में 80 किलोमीटर सड़क मार्ग का उदघाटन किया। यह सड़क लिपूलेख दर्रे से चार किलोमीटर पहले तक ही जाती है। धारचूला से लिपूलेख दर्रे तक के मार्ग को कैलाश मार्ग भी कहा जाता है और यह भारत से कैलाश मानसरोवर को जाने के लिए पौराणिक और धार्मिक मार्ग माना जाता है। इस सड़क के निर्माण के बाद दिल्ली से लिपूलेख दर्रे तक दो दिन में पहुंचा जा सकता है।

इस पर नेपाल ने अपनी आपत्ति दर्ज की और भारत के काठमांडू स्थित राजदूत को बुलाकर विरोध दर्ज कराया। नेपाल का कहना था कि भारत ने 26 किमी सड़क उसकी जमीन में बनाई है। नेपाल के कुछ राजनीतिक संगठनों ने प्रदर्शन कर इसका विरोध करना शुरू कर दिया। भारत ने इस मामले को शांत करने के लिए कहा कि सड़क पिछले बीस साल से बन रही थी और पुराने पैदल रास्ते का ही विस्तार किया गया है। पूरी सड़क भारतीय क्षेत्र में है लेकिन नेपाल ने इसे स्वीकार नहीं किया। नेपाल ने नया नक्शा जारी कर दिया। इसमें कालापानी, लिपूलेख और लिंपियाधुरा को नेपाल में दिखाया गया। भारत ने नेपाल के नए नक्शे को अस्वीकार कर दिया है।

 

कालापानी का विवाद

गोरखा शासकों और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच 1814 में युद्ध शुरू हुआ और दिसंबर 1815 में दोनों के बीच संधि हुई जिसे मार्च 1816 में काठमांडू दरबार से स्वीकृति मिली। इसी संधि ने गोरखा राज्य और ब्रिटिश इंडिया के बीच सीमाओं का निर्धारण किया। इसके अनुसार काली नदी पश्चिम में दोनों राज्यों के बीच सीमा रेखा मानी गई और गोरखा शासकों ने अपने भूमि संबंधी दावे छोड़ दिए। काली नदी को सीमा रेखा तो माना गया लेकिन काली के उदगम का कोई स्थान निर्धारित नहीं किया गया। काली नदी का उदगम किसे माना जाए यही कालापानी के विवाद के मूल में है। नेपाल का दावा है कि 1860 से पहले के नक्शों में कालापानी का उदगम स्थान लिंपियाधुरा दिखाया गया है इसलिए लिंपियाधुरा ही काली नदी का उदगम है। नेपाल यहां से निकलने वाली जलधारा को काली नदी कहता है और इसे भारत में कुटी यांगटी कहा जाता है। कुटी यांगटी नदी कालापानी की ओर से आ रही जलधारा से गुंजी के पास मिलती है। इस तरह लिपूलेख-लिंपियाधुरा-गुंजी एक 385 वर्ग किमी का एक त्रिकोण बनता है, जिस पर नेपाल अपना दावा करता है। नेपाली दावे के विपरीत भारत का दावा है कि काली नदी का उदगम कालापानी है और ब्रिटिश नक्शों में भी यह दर्शाया गया है। लिंपियाधुरा से निकलने वाली धारा कुटी यांगटी है। इसलिए कालापानी और लिपूलेख काली नदी के पश्चिम में होने के कारण स्वाभाविक तौर पर भारतीय ही माने जाएंगे।

 

ब्यास घाटी का विभाजन

उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले की धारचूला तहसील में तवाघाट से लिपूलेख तक का क्षेत्र ब्यास घाटी कहलाता है। इसमें गुंजी से नीचे के इलाके को निचली ब्यास घाटी और इसके ऊपर के इलाके को ऊपरी ब्यास घाटी कहा जाता है। इस घाटी में रहने वाले रं जनजाति के लोगों को ब्यासी कहते हैं। ब्यासी लोग काली नदी के दोनों ओर रहते हैं लेकिन काली नदी को सीमा मानने के कारण ब्यास समुदाय विभाजित हो गया। इसके सात गांव काली के पश्चिम में होने के कारण भारत में और दो गांव तिंकर और छांगरू नदी के पूर्व में होने के कारण नेपाल में चले गए। दोनों ही ओर के ब्यासी समुदाय का मुख्य व्यवसाय तिब्बत से व्यापार था और भारत के लोग लिपूलेख दर्रे का और नेपाल के लोग तिंकर दर्रे का प्रयोग करते थे। नेपाली व्यापारी अपसी सुविधा से लिपूलेख दर्रे का प्रयोग भी करते थे क्योंकि यह सबसे सुविधाजनक दर्रा था और दोनों ओर के व्यापारियों की मंडी ताकलाकोट थी।

देशों की सीमाओं के निर्धारण में ब्यासी पहला समुदाय था जो दो देशों में विभाजित हो गया। इसका कारण ईस्ट इंडिया कंपनी के पास इस क्षेत्र के सही नक्शों का अभाव था। इस कारण ब्यास समुदाय को विभाजित होना पड़ा। यदि कंपनी के पास सही नक्शे होते तो काली नदी सीमा रेखा गर्ब्यांग होती और उसके ऊपर तिंकर नदी सीमा रेखा होती क्योंकि तभी ब्यास समुदाय को एक रखा जा सकता था। तिंकर नदी तिंकर दर्रे से निकलकर गर्ब्यांग के पास काली नदी से मिलती है। इसके दूसरी ओर छांगरू गांव है। हिमालय के इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले इतिहासकारों का भी मानना है कि ऊपरी ब्यास घाटी में काली की जगह तिंकर नदी को सीमा रेखा माना जाना चाहिए था लेकिन ऐसा हो नहीं पाया।

लिपूलेख के दर्रे को लेकर दो सौ वर्षों तक किसी तरह का विवाद भारत और नेपाल के बीच नहीं हुआ। इसका कारण यह था कि तिब्बत व्यापार करने वाले दोनों ओर के लोगों में सीमा को लेकर कोई विवाद नहीं था। ऊपरी ब्यास घाटी के विभाजन के बाद भी गुंजी और गर्ब्यांग के लोगों की जमीनें छांगरू गांव में थीं, इसके दस्तावेज वहां लोगों के पास माजूद हैं। खुली सीमा के कारण वे नदी पार जाकर खेती करते थे, पशुओं के लिए चारा लाने और यहां तक कि यारसा गम्बू के बुग्यालों (मिडोज या घास के मैदान) में भी जाते थे। यह स्थिति सन 2000 और उसके कुछ बाद तक रही थी।

 

‘ग्रेट गेम’:  पूर्वी छोर

उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में ब्रिटेन और फ्रांस में पूंजीवादी व्यवस्था का विश्व नेता बनने की होड़ थी लेकिन 1815 में नेपालियन की पराजय से फ्रांस की पूंजीवाद का विश्व नेता बनने की चाह समाप्त हो गई। लेकिन जल्दी की रूस ने ब्रिटेन को चुनौती देनी शुरू कर दी लेकिन रूस काला सागर और भूमध्य सागर के माध्यम से योरोप की एक ताकत बनना चाहता था और उसकी मंशा योरोप और भारत के बाजारों और संसाधनों पर कब्जा करने की थी पर1853 से शुरू हुए क्रीमिया युद्ध की पराजय और रूस पर थोपी गई शर्तों ने उसे काला सागर और भूमध्य सागर में कमजोर कर दिया। अब रूस के पास भारत तक पहुंचने के लिए एकमात्र रास्ता मध्य एशिया से होते हुए जमीनी रास्ता रह गया था। रूस और ब्रिटेन के बीच ग्रेट गेम का थिएटर अफगानिस्तान बन चुका था और उनके बीच अफगानिस्तान को लेकर संघर्ष शुरू हो चुका था। 1840 में ईस्ट इंडिया कंपनी और अफगानों के बीच पहला युद्ध हो चुका था और अंग्रेज अपनी समर्थक सरकार वहां बना चुके थे।

इस ‘ग्रेट गेम’ का केंद्र अफगानिस्तान जरूर था लेकिन इसका एक सिरा ब्रिटिश कालीन कुमाऊं और गढ़वाल भी था, जिसकी सीमाएं तिब्बत से लगती थीं। हिस्ट्री ऑफ उत्तराखंड फ्रॉम स्टोन एज टू 1949 में अजय रावत ने बताया है कि किस तरह उत्तराखंड ‘ग्रेट गेमÓ का हिस्सा किस तरह था। रूस को लगता था कि अगर वह जमीनी रास्ते से भारत पहुंचता है तो वह तिब्बत पार कर ही पहुंच सकता है। इसमें भी कुमाऊं और गढ़वाल के दर्रे उसके काम आ सकते हैं और उनमें भी लिपूलेख का दर्रा सबसे महत्त्वपूर्ण है। एक तो यह सबसे आसान दर्रा था और दूसरा यह गंगा के दोआब के सबसे पास था। ईस्ट इंडिया कंपनी की तिब्बत में शुरुआती दौर में कोई विशेष रूचि नहीं थी लेकिन वह इसे चीन और रूस के साथ एक ‘बफर स्टेट’ के तौर पर बनाए रखना चाहता था। लेकिन जब उसे रूस की रुचि तिब्बत में बढ़ती हुई दिखायी दी तो उसने कुमाऊं क्षेत्र के दर्रों की ओर ध्यान देना शुरू किया। इसके बाद ही ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में ब्रिटिश शासन ने तिब्बत के बारे में अधिक से अधिक जानकारी हासिल करने की कोशिश की। इसलिए जो इतिहासकार इस सिद्धांत के समर्थक हैं  कि इतना महत्त्वपूर्ण होने पर लिपूलेख का नियंत्रण नेपाली शासकों को देने का सवाल नहीं उठता था, भले ही ब्रिटेन के संबंध नेपाल के शासकों से बहुत अच्छे थे।

नेपाल और भारत के बीच सीमाओं का निर्धारण सुगौली की संधि रही है पर सीमाएं हमेशा वहीं नहीं रहीं जो 1816 में निर्धारित की गई थीं। अंग्रेजों से अपने संबंधों के चलते गोरखों ने 1857 के विद्रोह को कुचलने में उनकी मदद की थी और इसके बदले में 1860 में ब्रिटिश शासकों ने पश्चिमी तराई के चार जिले कंचनपुर, कैलाली, बर्दिया और बांके नेपाल को वापस कर दिए थे। इस क्षेत्र को 1816 की संधि के बाद से अंग्रेजों ने अपने पास रखा हुआ था। 1930 के दशक में जब शारदा डैम और नहर का निर्माण किया जा रहा था तो उसमें नेपाल का कुछ भूभाग डूब क्षेत्र में आ गया था तो इसके बदले में अंग्रेजों ने नेपाल को तराई के दो गांव दिए थे जो काली नदी और शारदा के दक्षिण में पड़ते हैं और इसी स्थान पर नेपाल अपना पहला ड्राई पोर्ट बना रहा है। इन सभी अवसरों पर नक्शों में आवश्यक संशोधन किया गया। इसके अलावा काली और शारदा के बहाव की धारा बदलती रहती है।

 

बदलता सामरिक महत्त्व

अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण भारत-चीन युद्ध से पहले तक इसका कोई सामरिक महत्त्व नहीं था क्योंकि तब तिब्बत से लगी सीमाएं शांत थीं। तिब्बत, नेपाल और भारत के इस मिलन बिंदु पर छह माह के व्यापार के अलावा कोई हलचल नहीं रहती थी। 1962 के बाद इस स्थान का भारत के लिए महत्त्व काफी अधिक बढ़ गया। तब भारत ने अपनी उपस्थिति को बढ़ाने का प्रयास किया। जब लगभग दो दशक के बाद भारत और चीन के बीच दोबारा संबंध सामान्य होने लगे तो 1981 में लिपूलेख दर्रे से कैलाश मानसरोवर यात्रा शुरू की गई और इसके एक दशक बाद 1992 में भारत-चीन सीमा व्यापार शुरू किया गया। इस बीच कैलाश यात्रा और सीमा व्यापार को देखते हुए भारतीय सैन्य बलों ने अपनी उपस्थिति प्रभावी कर दी। इसके बाद ही नेपाल में कालापानी इलाके को लेकर हलचल शुरू हो गई। इसका नेतृत्व नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियां करती रही हैं। नेपाली कम्युनिस्ट पार्टियों ने इसे नेपाली राष्ट्रवाद से जोड़ दिया। ये पार्टियां भारत को एक विस्तारवादी देश के तौर पर मानती रही हैं। 1992 में नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी एमाले कालापानी के मुद्दे पर सबसे मुखर थी और बाद में माओवादियों ने कालापानी के मुद्दे को जोर-शोर से उठाया।

2004 में नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला ने इसे भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सामने रखा और इस पर वाजपेयी ने इसका अध्ययन करने के बाद कार्यवाही का आश्वासन दिया लेकिन कोई कार्यवायी नहीं हुई। इसके बाद 2014 में इस मुददे के समाधान के लिए काम करने का वादा किया गया लेकिन कोई भी बात इस मामले में आगे नहीं बढ़ी। 2015 में भारत और चीन के बीच लिपूलेख दर्रे से व्यापार बढ़ाने को लेकर हुए समझौते का नेपाल ने विरोध किया था कि इस समझौते से पहले भारत और चीन ने नेपाल को विश्वास में नहीं लिया। इस मामले में चीन ने पहली बार दखल 2017 में डोकलाम विवाद के समय दिया। वर्तमान विवाद के समय चीन ने कहा कि कालापानी विवाद भारत और नेपाल के बीच का मामला है और दोनों को इसका समाधान करना चाहिए।

राजनाथ सिंह द्वारा कैलास मार्ग का उद्घाटन करने के बाद नेपाल की केपी शर्मा ओली सरकार पर अंदर और बाहर से कुछ करके दिखाने का दबाव काफी ज्यादा था इसलिए उसने कठोर प्रतिक्रिया ही नहीं की बल्कि संविधान संशोधन कर नया नक्शा पारित किया गया है। दरअसल नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर केपी ओली की स्थिति कमजोर हो रही है। पिछले दिनों दो विवादित विधेयकों को वापस लेने से ओली पर पद त्याग का दबाव बना हुआ था और इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए ओली सरकार ने कालापानी को सेफ्टी वॉल्व की तरह प्रयोग किया है और उग्र राष्ट्रवाद की भाषा का उपयोग कर पार्टी के अंदर और संसद के अंदर विरोधियों को अपने पीछे खड़ा कर लिया। लेकिन इससे स्थिति काफी जटिल हो गई है हालांकि नेपाली संसद में चर्चा के लिए यह विषय नहीं रखा गया इससे दोनों देशों को वार्ता के लिए माहौल बनाने का समय मिल गया है। सीमा विवाद को सुलझाने के लिए भारत और नेपाल दोनों को समझदारी से काम लेना चाहिए और जल्द से जल्द वार्ताएं शुरू करनी चाहिए। साथ ही किसी भी तरह के तनाव को बढ़ाने से बचना चाहिए। दस्तावेजों की जांच के बाद यह पता लगाना चाहिए कि वास्तविक स्थिति क्या है? और इसको कैसे सुलझाया जा सकता है?  n

समयांतर, जून 2020

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कर्तव्यच्युत होती राज्य सत्ता https://www.samayantar.com/%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a4%b5%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a4%9a%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%81%e0%a4%a4-%e0%a4%b9%e0%a5%8b%e0%a4%a4%e0%a5%80-%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a5%8d%e0%a4%af/ https://www.samayantar.com/%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a4%b5%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a4%9a%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a5%81%e0%a4%a4-%e0%a4%b9%e0%a5%8b%e0%a4%a4%e0%a5%80-%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a5%8d%e0%a4%af/#respond Mon, 25 May 2020 02:09:50 +0000 https://www.samayantar.com/?p=278 अपने संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने गरीबों का खयाल रखने के लिए अमीरों का आह्वान किया और बंदी के दौरान प्रत्येक संपन्न परिवार से नौ गरीब परिवारों की मदद करने को कहा। यह संदेश बिलकुल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नजरिए से मेल खाता है, जहां राज्य के उपकरणों पर समाज भारी होता है। आरएसएस के विचारक दीनदयाल उपाध्याय ने पचास के दशक में ही राज्य निर्माण की नेहरूवादी अवधारणा के खिलाफ संघर्ष शुरू कर दिया था, जब आजादी के बाद केंद्र द्वारा शुरुआती सरकारी अस्पताल बनाए जा रहे थे।

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  • क्रिस्टोफर जैफरलॉट और उत्सव शाह

अपने संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने गरीबों का खयाल रखने के लिए अमीरों का आह्वान किया और बंदी के दौरान प्रत्येक संपन्न परिवार से नौ गरीब परिवारों की मदद करने को कहा। यह संदेश बिलकुल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नजरिए से मेल खाता है, जहां राज्य के उपकरणों पर समाज भारी होता है। आरएसएस के विचारक दीनदयाल उपाध्याय ने पचास के दशक में ही राज्य निर्माण की नेहरूवादी अवधारणा के खिलाफ संघर्ष शुरू कर दिया था, जब आजादी के बाद केंद्र द्वारा शुरुआती सरकारी अस्पताल बनाए जा रहे थे।

 

भारत में चल रहे मौजूदा लॉकडाउन की तुलना 2016 की नोटबंदी के दौर से की गई है। इसके कुछ वाजिब कारण हैं। प्रधानमंत्री ने देशभर को बंद करने की घोषणा अचानक ही की थी। समाज के लिए इसके निहितार्थ बहुत व्यापक हैं, खासकर गरीबों के लिए। उनके राजकाज की यह शैली जीएसटी को लागू करने के तरीके में भी सामने आई थी। यह सरकार के शीर्ष स्तर पर सत्ता के केंद्रीकरण को दिखाता है। यह इंदिरा गांधी के दौर की याद दिलाता है। फर्क बस इतना है कि सत्तर के दशक में सरकार के काम करने के तरीके से उलट मौजूदा सरकार में राज्य की भूमिका संकुचित होती देखी गई है।

एक अप्रत्याशित तरीके से 2014 वाला नरेंद्र मोदी का मोटो-मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस-फलित होता दिख रहा है। आज इसे तीन रूपों में पहचाना जा सकता है। पहला, समाज से कहा गया है कि वह अपना खयाल खुद रखे। अपने आखिरी संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने गरीबों का खयाल रखने के लिए अमीरों का आह्वान किया और बंदी के दौरान प्रत्येक संपन्न परिवार से नौ गरीब परिवारों की मदद करने को कहा। यह संदेश बिलकुल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नजरिए से मेल खाता है, जहां राज्य के उपकरणों पर समाज भारी होता है। आरएसएस के विचारक दीनदयाल उपाध्याय ने पचास के दशक में ही राज्य निर्माण की नेहरूवादी अवधारणा के खिलाफ संघर्ष शुरू कर दिया था, जब आजादी के बाद केंद्र द्वारा शुरुआती सरकारी अस्पताल बनाए जा रहे थे। सेवा भारती सहित संघ परिवार की सामाजिक कल्याण केंद्रित गतिविधियां इसी नजरिए पर काम करती हैं और यह मानकर चलती हैं कि धर्मार्थ कार्य कल्याणकारी राज्य को आंशिक रूप से अप्रासंगिक बना सकती है।

दूसरे, संघ परिवार मानता है कि समाज को स्वनियमन के माध्यम से अपना ख्याल रखना चाहिए। ‘जनता कफ्र्यू ‘ इसी सोच का एक सूक्ष्म संस्करण और रूपक है। स्वनियमन का मतलब हालांकि स्वनियंत्रण यानी सेल्फ पुलिसिंग भी है। नागरिकता संशोधन विरोधी कानून के खिलाफ कार्यकर्ताओं को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सार्वजनिक रूप से नाम लेकर शर्मसार किए जाने और नागरिक सतर्कता को बढ़ावा दिए जाने में इसे देखा जा सकता है। यह सतर्कता गिरोह अपने शक के आधार पर केवल उन मुसलमानों की फिराक में नहीं रहते हैं जो गाय कटवाने जा रहे हों, बल्कि अब तो ये लॉकडाउन को भी अमल में लाने के काम में लगे दिख रहे हैं।

तीसरे, राज्य अब सार्वजनिक स्वास्थ्य और सार्वजनिक शिक्षा जैसे अहम क्षेत्रों से अपने पांव पीछे खींच चुका है। यह उदारीकरण की देन है। भारत सार्वजनिक स्वास्थ्य पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का 1.2 फीसद से कम खर्च करता है। देश में 1000 व्यक्तियों पर 0.7 बिस्तर हैं। इस मामले में इंडोनेशिया, मेक्सिको, कोलंबिया आदि भी भारत से बेहतर हैं। आश्चर्य कैसा कि सार्वजनिक स्वास्थ्य पर अल्पव्यय ने मध्य वर्ग के बीच निजी अस्पतालों की मांग को पैदा किया है। पिछले दो दशक में निजी अस्पताल कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं और आज स्थिति यह है कि देश के अस्पतालों में उपलब्ध कुल बिस्तरों में इनकी हिस्सेदारी 51 फीसद है। जाहिर है, इनमें से ज्यादातर गरीबों की जेब की क्षमता से बाहर हैं।

कल्याणकारी राज्य के सिकुड़ते जाने का लेना-देना वित्तीय बंदिशों से भी है। भारत का वित्तीय घाटा लगातार बढ़ रहा है और आज जीडीपी के करीब नौ फीसद तक पहुंच चुकी है (केंद्र, राज्यों और सार्वजनिक इकाइयों के घाटे को जोड़कर)। यह घाटा आंशिक रूप से हालिया आर्थिक सुस्ती के चलते हैं (पिछले दो वर्ष में आर्थिक वृद्धि दर सात फीसद से गिरकर 4.5 फीसद पर पहुंच गई है), जिसके कारण कर संग्रहण में भी गिरावट आई है।

आज भारत सरकार इसी कारण से समूची जनता के स्तर पर एक व्यापक राहत कार्यक्रम चला पाने की स्थिति में नहीं है। आर्थिक वंचितों की मदद के लिए वित्तमंत्री द्वारा घोषित 1.7 लाख करोड़ रुपए का आर्थिक पैकेज जीडीपी का महज 0.8 फीसद है, जो यूपीए सरकार के अंतर्गत मनरेगा कार्यक्रम के शीर्ष बजट के बराबर है। वित्तमंत्री के पैकेज में भले ही तमाम किस्म के प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण शामिल हैं, लेकिन घोषित राशि निराश करने वाली है। जनधन खाताधारक महिलाओं को 500 रुपए का हस्तांतरण या फिर मनरेगा की दिहाड़ी में 182 रुपए से 202 रुपए तक का इजाफा शायद बहुत मददगार साबित न हो, खासकर इसलिए कि अधिकांश मनरेगा मजदूरों के लिए फिलहाल काम ही उपलब्ध नहीं है। कुल मिलाकर वित्तमंत्री के आर्थिक पैकेज से यही समझ में आता है कि या तो सरकार अब भी समस्या की व्यापकता और गंभीरता को नहीं समझ पा रही है या फिर उसके पास आवश्यक संसाधनो का टोटा है।

इस बंदी के दौरान सबसे ज्यादा मार उस 40 फीसद से ज्यादा भारतीय कार्यबल पर पड़ी है जो लघु और मध्यम उद्यमों (एसएमई) में रोजगाररत है। यह राहत पैकेज उनकी स्थिर लागत को कवर नहीं करता है, जो कुल लागत का 30 से 40 फीसद पड़ता है। इसके चलते इन उद्यमों को लागत में कटौती करनी पड़ रही है। उसके लिए ये मजदूरों की छंटनी कर रहे हैं, जो वैसे भी लॉकडाउन में बेकार हो जाते हैं। भारत में 50 करोड़ से ज्यादा संख्या वाले गैर कृषि कार्यबल का 94 फीसद हिस्सा असंगठित क्षेत्र में रोजगाररत है। ये बिना किसी अनुबंध के काम करते हैं और ट्रेड यूनियनें भी इन्हें कवर नहीं करती हैं। इसीलिए इन मजदूरों की छंटनी करना आसान हो जाता है। यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। वास्तव में, इस दौरान असंगठित क्षेत्र के ज्यादातर श्रमिकों  से इस बहाने रिहाइश खाली करने को कह दिया गया कि वे सेहत के लिए खतरा पैदा कर रहे  हैं।

समाज के सर्वाधिक कमजोर तबकों का संकट केवल वित्तीय नहीं है। यह लॉकडाउन इस तरीके से लागू किया गया है कि इसने उन्हें पहले ही कमजोर कर दिया है। जन वितरण प्रणाली के अंतर्गत जितनी अतिरिक्त खाद्य सामग्री बांटे जाने की जरूरत है उसे कई राज्यों में कम आंका गया है। इस मामले में केरल अपवाद है और दूसरे राज्यों के लिए मॉडल का काम कर सकता है।

गरीब और कमजोर आदमी को महफूज रखना राज्य और निजी क्षेत्र के लिए जिम्मेदारी का मसला है, कोई धर्मादा कार्य नहीं। प्रवासी मजदूरों को अपने हाल पर छोड़ दिया जाना और उन्हें गांव लौटने को बाध्य करना केवल कोरोना वायरस के फैलाव में काम आएगा। इस संदर्भ में शहरी और ग्रामीण गरीबों को मदद के प्रावधानों में साफ अंतर बरता जाना चाहिए ताकि गरीबों के बीच संसाधनों का आवंटन बेहतर तरीके से हो सके।

भारत में आर्थिक हालात खतरनाक हैं। बैंकों पर एनपीए का बोझ पहले से ही है। सरकारों ने बीते वर्षों के दौरान इस मसले को गहराने ही दिया है। भारत में कर्ज और जीडीपी का अनुपात पहले से ही ज्यादा है। यह 69 फीसद है, जो ब्राजील को छोड़कर ज्यादातर उभरते हुए देशों से ज्यादा है। यह स्पष्ट संकेत है कि वित्तीय अनुशासन और दूसरे किस्म की अराजकताएं यहां कदमताल कर रही थीं। यह एक अप्रत्याशित दौर है, जैसा कि पिछले हफ्ते रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा था, और इसीलिए कल्याणकारी राज्य को यहां हरकत में लाने के लिए भारत को और पैसे उधार लेने होंगे।

वक्त आ गया है कि सरकार कल्याणकारी राज्य के अहम क्रियाकलापों को बहाल करे। सरकार को केंद्र में मैक्सिमम गवर्नेंस के नाम पर पैदा किया गया सत्ता का केंद्रीकरण कम से कम करना चाहिए और मिनिमम गवर्नमेंट के बजाय गरीबों और वंचितों की मदद ज्यादा से ज्यादा करनी चाहिए।

साभार इंडियन एक्सप्रेस,

समयांतर अप्रैल, 2020

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