भारत में समाजवाद के सौ साल

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– प्रकाश चंद्रायन

भारत में समाजवाद के वैचारिक प्रयोग के सौ साल हो चुके हैं। वाम, मध्य, दक्षिणपंथी, आदि सभी संगठन अपने-अपने समाजवाद के सहारे जनमानस में पैठ बनाते रहे। लगभग आठ दशकों तक जनता में इस शब्द और व्याख्या का प्रभावी असर रहा और समाजवाद की अनेक छटाएं दिखतीं रहीं। वैज्ञानिक समाजवाद, लोकतांत्रिक समाजवाद, संवैधानिक समाजवाद, क्रांतिकारी समाजवाद, गांधीवादी समाजवाद, बहुजन समाजवाद, आदि। इस वैचारिक शब्दावली की विविधता के मद्देनजर ब्रितानी समाजविज्ञानी सी.ई.एम.जोड ने कहा, ‘समाजवाद एक ऐसी टोपी है, जिसे कोई भी अपने अनुसार पहन लेता है।’ भारतीय समाजवादी आंदोलनों में यह प्रक्रिया बखूबी दिखती है। बावजूद इसके, गत चार दशकों से दुनिया और देश में यह चिंतन और प्रयोग कमतर होता गया है, जबकि विश्व पूंजीवाद बेलगाम रौंद रहा है। इस ठहराव में अब यह वैचारिक और प्रायोगिक सफरनामा अपने फलाफल के अवलोकन की मांग करता है।

 

रुसी क्रांति का अवदान

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में देखें, तो हासिल होता है कि वैचारिक प्रक्रिया के तहत समाजवाद को मार्क्सवाद ने प्रस्तुत किया। देशज संदर्भ में श्रमण, लोकायत और आजीवक परंपरा में भी देखा जाता है, लेकिन बीसवीं सदी में यह योरोपीय चिंतन परंपरा में विकसित हुआ। 1917 में रूसी बोल्शेविक क्रांति ने समाजवाद को केंद्रीय वैश्विक दर्शन और प्रयोग के तौर पर सशक्त तरीके से स्थापित किया। बोल्शेविकों की निर्णायक जीत पर अमेरिकी संवाददाता जॉन रीड ने अपनी बहुपठित और पठनीय किताब दस दिन जब दुनिया हिल उठी में लिखा, ‘आज से दुनिया दो भागों में बंटती है, एक समाजवादी दुनिया और दूसरी पूंजीवादी दुनिया।’ इस वैचारिक क्रांति की धमक पूरी मानवता ने सुनी। उसके बाद समाजवाद की समाज वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक गतिशीलता को थामना नामुमकिन हो गया।

उस वक्त भारतीय उपमहाद्वीप पर ब्रितानी साम्राज्य का निरंकुश शासन था। उसने समाजवादी क्रांति के वेग को रोकने के लिए एक ओर भारत को विश्वयुद्ध में इस्तेमाल किया, तो दूसरी ओर भारत रक्षा कानून का कठोरतम पालन किया। दंडात्मक कार्रवाई के बावजूद समाजवाद का प्रसार कहां रुकने वाला था। सर्वप्रथम इस विचार का प्रभाव विदेशों में सक्रिय भारतीयों पर पड़ा और वे सांगठनिक स्तर पर उभरने लगे।

उल्लेखनीय है कि यह प्रभाव अनेक रूपों में पड़ा। रूसी-चीनी वैज्ञानिक समाजवाद के अलावा यह ब्रितानी फेबियन सोशलिज्म और जर्मन राष्ट्रवादी समाजवाद के बतौर भी आया। जाहिर है कि चीनी समाजवाद को छोड़कर ये सभी योरोपीय संदर्भ के थे। रूसी-चीनी समाजवाद सशस्त्र सर्वहारा वर्गसंघर्ष का प्रयोगकर्ता बना, लेकिन उनके विरोधी उन पर राज्य पूंजीवाद अपनाने और लोकतंत्र की अनदेखी का आरोप करते रहे। ब्रितानी फेबियन सोशलिज्म वैज्ञानिक समाजवाद और क्रांतिकारी परिवर्तन के विरुद्ध जनतांत्रिक समाजवाद और शांतिपूर्ण कल्याणकारी सुधारों का समर्थक बना। अमेरिका की ‘न्यू’ डील नीति भी इसी सिद्धांत पर टिकी रही, लेकिन जर्मन राष्ट्रवादी समाजवाद नाजीवाद में अपघटित हुआ। भारत में रूसी-चीनी मॉडल का आदर्श कम्युनिस्ट दलों ने लिया। ब्रितानी-अमेरीकी मॉडल का अघोषित असर जवाहरलाल नेहरू में दिखा, लेकिन उन पर रुसी आकर्षण भी बताया गया। कम्युनिस्ट उन्हें फेबियन सोशलिस्ट ही मानते रहे। दुर्योगवश जर्मन मॉडल ने सुभाष चंद्र बोस को प्रेरित किया।

भारत में वाम समाजवाद

भारतीय संदर्भ में यह ऐतिहासिक विकासक्रम सोवियत संघ के ही एक हिस्से ताशकंद (अब उज़्बेकिस्तान की राजधानी) में शुरू हुआ, जब 17 अक्टूबर, 1920 को कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना हुई। इस पार्टी के संस्थापकों में वैज्ञानिक समाजवाद से प्रेरित और लेनिन के सहयोगी मानवेंद्र नाथ राय थे। उनके छह सहयोगियों में उनकी पत्नी ईवलिना ट्रेंट राय, अबनी मुखर्जी और उनकी पत्नी रोजा फिंटीगोव, मोहम्मद अली, अहमद हसन, मोहम्मद शफीक सिद्दीकी और एम.पी.बी.टी. आचार्य थे। एम.एन.राय ने मैक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी भी बनाईं। अपने पहले प्रयोग से हटकर राय ने 1936 में रेडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी भी बनाई, जो औद्योगिक क्षेत्रों में सक्रिय थी। 1939 में एन. दत्त मजूमदार ने भारतीय बोल्शेविक दल भी बनाया था। कुछ स्रोतों के अनुसार, 1941 में अमेरिकी साम्यवाद से प्रभावित बोल्शेविक लेनिनिस्ट पार्टी भी बनी थी। अमेरिकी कम्युनिस्ट जे. लवस्टोन से जयप्रकाश नारायण भी प्रभावित थे। भारत में देशी तरीके से सत्यभक्त ने हसरत मोहानी के साथ 1 सितंबर, 1924 को भारतीय साम्यवादी दल की पहल की, लेकिन आधिकारिक तौर पर 26 दिसंबर, 1925 को कानपुर में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया/सीपीआई) की स्थापना हुई यानी कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से संबद्ध। भाकपा नाम से प्रसिद्ध इस दल ने कालक्रम में वैज्ञानिक समाजवाद के लिए सशस्त्र क्रांतिकारी और संसदीय, दोनों प्रयोग किए। तेलंगाना की सशस्त्र क्रांति में सैन्य दमन के बाद पार्टी ने संसदीय रास्ते से एकता और संघर्ष के साथ शांतिपूर्ण संक्रमण का प्रयोग आरंभ किया, जो आज तक जारी है। ऐतिहासिक तौर पर केरल में संसदीय रास्ते से पहली बार निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार बनी, जिसे नेहरू सरकार ने भंग कर दिया।

इस बीच सोवियत संघ की घेराबंदी का पश्चिमी देशों का अभियान जारी रहा। सैन्य संगठन नाटो सक्रिय रहा। शीतयुद्ध अबाध रहा। घेराबंदी से निपटने के लिए सोवियत संघ ने हंगरी और चेकोस्लोवाकिया में सैन्य कार्रवाई की। क्यूबा, वियतनाम, चीन को विरादराना मदद जारी रखी। अफ्रीकी देशों के मुक्ति आंदोलनों का सक्रिय सहयोग किया, लेकिन पोलैंड के चर्च और लेक वालेसा के सॉलिडरिटी अभियान ने उसे कमजोर करना जारी रखा। अंतत: घेराबंदी कारगर हुई। सोवियत रूस का विघटन और पूर्वी यूरोपीय (वारसा) देशों में सत्ता परिवर्तन हुआ। पूंजीवादी दुनिया को चरम सफलता तब मिली, जब एक ओर यूगोस्लाविया का नामोनिशान मिटाया जा रहा था और दूसरी ओर जर्मनी का एकीकरण हो रहा था। इन सभी देशों से भाकपा का विरादराना संबंध था, इसीलिए भारतीय वाम पर इन घटनाओं का व्यापक असर पड़ा। इस दौरान पार्टी ने संविद, वाम मोर्चा, गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा मोर्चा का भी प्रयोग किया है, बावजूद इसके सैद्धांतिक तौर पर इनका समाजवाद, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, और वर्ग संघर्ष में विश्वास अटूट है। 1964 में चीनी साम्यवाद की ओर झुकाव के कारण भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) बनी, जिसे माकपा कहा गया। हालांकि, चीन में पूंजी केंद्रित राज्यवादी साम्यवाद के प्रयोग की चर्चा है। माकपा ने वाम जनवादी क्रांति पर जोर दिया और तीन राज्यों में सत्ता संभाली। इन दोनों दलों में सैद्धांतिक मतांतर के बावजूद समाजवाद के लिए कार्यकारी एकता है। भारतीय राजनीति में समाजवाद के प्रयोगधर्मा के तौर पर सबसे उल्लेखनीय नाम क्रांतिकारियों की 1928 में स्थापित हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का है, जिसने सशस्त्र क्रांति का रास्ता चुना। 1923 से हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के नाम से सक्रिय क्रांतिकारियों ने सोशलिस्ट और आर्मी शब्द जोड़ कर हिंसोरिआ (एचएसआरए) में नामांतरित किया। यह अराजकतावाद से समाजवाद की ओर प्रस्थान था। इस विरासत की दावेदारी के तहत भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) भी बनी, जिसे बीजिंग रेडियो ने वसंत का वज्रनाद कहा। इस धारा में कुछ सशस्त्र क्रांति तो कुछ संसदवादी रास्ते से समाजवादी व्यवस्था के लिए कई दशकों से सक्रिय हैं। भारतीय बोल्शेविक पार्टी, फारवर्ड ब्लाक, क्रांतिकारी समाजवाद पार्टी, सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर आफ इंडिया, लाल निशान पार्टी, आदि अनेक दल समाजवादी लक्ष्य के लिए बने। प्रयोग जारी हैं, लेकिन प्रभाव क्षेत्र सिकुड़ा है। नवाचार की तलाश भी जारी है। इन संगठनों के अवदान को नकारा नहीं जा सकता। 1920 से 2022 तक वाम संगठनों के समाजवादी आंदोलनों की छानबीन से स्पष्ट होता है कि मंजिल अभी नहीं मिली है। उत्पादक वर्ग के हितों को प्रमुखता दी गई है। नवपूंजीवाद, साम्राराज्यवाद और धार्मिक आतंकवाद ने समाजवाद को पीछे धकेला है। माकपा 1920 को, जबकि भाकपा 1925 को भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की शुरुआत मानती है। इस मान्यता से 2025 में शताब्दी वर्ष आएगा। इतनी लंबी अवधि में भी वाम एकता की कोशिश नहीं हुई, जबकि ये विपक्षी एकता के लिए हमेशा तत्पर हैं?

 

लोकतांत्रिक समाजवाद

दूसरी धारा लोकतांत्रिक समाजवाद के बतौर आई। इस धारा के सिद्धांतकारों ने मार्क्सवाद से ही वैज्ञानिक समाजवाद का पाठ सीखा, लेकिन क्रियात्मक रास्ता गांधीवाद का लिया। वैज्ञानिक समाजवादियों का मत था कि मार्क्सवाद वर्ग संघर्ष और गांधीवाद वर्ग सहयोग पर आधारित है, इसलिए दोनों में मूल अंतर्विरोध है। बावजूद इसके लोकतांत्रिक समाजवादियों ने अहिंसक प्रतिरोध, सिविल नाफरमानी और संसदीय भागीदारी का रुख किया। पहले यह धारा कांग्रेस के भीतर फूटी और 19&4 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के रूप में सक्रिय हुई। इसके पूर्व 19&1 में बिहार और 19&& में पंजाब में सोशलिस्ट पार्टी बन चुकी थी, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर कांसोपा ने पुरजोर दस्तक दी। कांसोपा का नेतृत्व बहुचर्चित बौद्धिक नेताओं का महासंगम था, जिनमें नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, अच्युत पटवर्धन, मीनू मसानी, युसूफ मेहरअली, अशोक मेहता, आदि का समावेश था। इनमें अधिकांश मार्क्सवादी थे, विशेष तौर से नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया। नरेंद्र देव ने सोशलिस्ट पार्टी और मार्क्सवाद, लोहिया ने मार्क्स, गांधी और समाजवाद और जयप्रकाश नारायण ने समाजवाद क्यों? नामक पुस्तकें लिखीं थीं। जेपी ने अपनी किताब के एक अध्याय में गांधी को पूंजीवाद का दलाल लिखा था और स्पष्ट किया था कि समाजवाद का एक ही रूप एक ही सिद्धांत है और वह है मार्क्सवाद। यही किताब पढ़कर ई.एम.एस.नंबूदरीपाद मार्क्सवादी हुए और कांसोपा में आए थे। 1936 में कम्युनिस्ट भी कांसोपा में शामिल हुए थे, लेकिन 1939 में यह कहते हुए अलग हो गए कि सोशलिस्ट पार्टी नौजवानों को कम्युनिस्ट होने से रोकने के लिए बनी है। 1942 में तो समाजवादी भारत छोड़ो आंदोलन के अगुआ हो गए और कम्युनिस्ट विरोधी। कांसोपा राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल रह कर सक्रिय रही, लेकिन 1948 में सरदार पटेल द्वारा दोहरी सदस्यता अमान्य करने के बाद कांसोपा ने कांग्रेस शब्द हटाकर सोशलिस्ट पार्टी नाम लिया। जेबी कृपलानी की किसान मजदूर प्रजा पार्टी के विलय के बाद इसका नाम प्रजा सोशलिस्ट पार्टी हुआ। 1952 के आमचुनाव में पराजय के बाद नेतृत्व में निराशा के कारण अनेक नेता निष्क्रिय होने लगे, हालांकि 1954 में केरल में प्रसपा के पत्तम थानु पिल्लै के मुख्यमंत्रित्व में कांग्रेस समर्थित सरकार बनी, लेकिन त्रावणकोर में गोलीबारी के विरुद्ध नैतिक तौर पर इस्तीफा मांगने के मुद्दे पर राममनोहर लोहिया पार्टी से अलग हो गए। उनका कहना था कि लोकतंत्र में जनता पर गोलीचालन अनैतिक है।

इस अंतर्संघर्ष के कारण सांस्कृतिक मार्क्सवादी माने जाने वाले नरेंद्र देव बुद्ध, मार्क्स और गांधी का समन्वय करते हुए अकादमिक क्षेत्र में चले गए। जयप्रकाश भूदान-सर्वोदय के शरणागत हुए। साम्यवादियों की आलोचना थी कि ओहायो विश्वविद्यालय में पढ़े जेपी पर अमेरिकी समाजवाद और जर्मनी में शिक्षित लोहिया पर जर्मन समाजवाद का असर था, जबकि इस तर्क से तो बंगाल के अनेक अभिजन कम्युनिस्टों पर ब्रितानी समाजवाद का असर रहा होगा, क्योंकि वे लंदन में पढ़ते थे। सोशलिस्ट भी भाकपा को रूसी बगल ब’चा कहते रहे। लोहिया समाजवादी संघर्ष में प्रयोगशील रहे और गांधीवाद के साथ देशज समाजवाद को विकसित किया। वह खुद को सरकारी, मठी नहीं कुजात गांधीवादी कहते थे। जाति, लिंग, वर्ग, वर्ण, भाषा, शस्त्र भेदों से रहित समाज की अवधारणा रखी। सप्तक्रांति, जेल-फावड़ा-वोट, सिविल नाफरमानी, राजकीय-आर्थिक-दिमागी समानता, भारत-पाक-महासंघ, विश्व पंचायत, चौखंबाराज, आदि की कार्यनीति देश के समक्ष रखी। समता संगठन और लोहिया विचार मंच के एक समारोह में जेपी ने कहा कि लोहिया की सप्तक्रांति ही संपूर्ण क्रांति है, क्योंकि संपूर्ण क्रांति अस्पष्ट थी। लोहिया ने संसोपा सहित अनेक जुझारू अनुषंगी संगठन बनाए। उनका सोशलिस्ट इंटरनेशनल से भी जुड़ाव था। उन्होंने अंग्रेजीपरस्त संसद की भाषा हिंदी में बहस कर बदल दी। यह उनका देसीपन था, लेकिन दूसरा प्रयोग विवादास्पद रहा। उन्होंने कांग्रेसी एकाधिकार खत्म करने के लिए गैर-कांग्रेसवाद, साझा न्यूनतम कार्यक्रम और संविद सरकार का सूत्र रखा। इसके तहत दक्षिणपंथी जनसंघ और वामपंथी दलों के साथ सरकारें बनीं, लेकिन हितों के टकराव के कारण प्रयोग विफल हुआ। इसी दौरान लोहिया का निधन हुआ और आगे की लोकतांत्रिक समाजवादी राजनीति कभी एक कदम आगे, कभी दो कदम पीछे होने लगी। लोहियाविहीन संगठन व्यक्तिवाद में फंसता गया।

 

कांग्रेस और भाजपा के समाजवाद

आमचुनाव में हार के बाद लोकतांत्रिक समाजवादियों में निराशा और बिखराव के बावजूद जनमानस में आकर्षण देख कर 1957 के आवड़ी अधिवेशन में कांग्रेस ने समाजवादी ढंग का समाज का संकल्प लिया, जबकि प्रधानमंत्री नेहरू ने अमेरिकी योजना व्यवस्थापक डॉ. सोलोमन ट्रोन की ‘न्यू डील’ और मिश्रित अर्थव्यवस्था को लागू किया था। अमेरिकी मॉडल न्यू डील के तहत पंचवर्षीय योजना, बड़े बांध और सामुदायिक विकास को आधार बनाया गया। राजकीय समाजवाद कांग्रेस का लोकलुभावन कदम था। इसे आगे बढ़ाते हुए 1964 के भुवनेश्वर अधिवेशन में लोकतंत्रात्मक समाजवाद को दुहराया गया। 1967 में लोहिया की गैर-कांग्रेसवादी गोलबंदी के कारण कांग्रेस नौ राज्यों में हार गई। इसके बाद 1969 में इंदिरा गांधी ने अंदरुनी सत्ता संघर्ष से निबटने के लिए बैंकों के राष्ट्रीयकरण और प्रिवी पर्स समाप्ति को समाजवादी कदम के तौर पर पेश किया। आगे 1975 के सत्ता संकट से उबरने के लिए लागू आपातकाल में स्थगित संवैधानिक अधिकारों के बीच संविधान की उद्देशिका में समाजवादी शब्द जोड़ा गया। यह जनता में समाजवाद की चाहत के दोहन की पहल थी। बाद में रास्ता बदलते हुए 1991 में नई अर्थनीति के तहत वैश्विक अर्थव्यवस्था का पुर्जा बनने के उपरांत कितना समाजवाद धरातल पर बच गया है! इस तरह मध्यमार्गी कांग्रेस ने गांधीवाद से मिश्रित अर्थव्यवस्था, सरकारी समाजवाद, गरीबी हटाओ, बीस सूत्री कार्यक्रम, नई अर्थनीति, विश्व पूंजीवाद तक का सफर कर लिया है और गांधी के अंतिम जन को मनरेगा समाजवाद की अनोखी भेंट दी है। जाहिर है कि समाजवाद कांग्रेस की मूल अवधारणा में नहीं था। जनाकांक्षा के तहत उसने यह आवरण लिया था।

इसी तरह की मुद्रा दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी ने 6 अप्रैल 1980 में ली थी। इसके पूर्व गैर-कांग्रेसवाद के तहत 1967 में संविद सरकारों में शामिल होकर और संपूर्ण क्रांति की लहर पर सवार होकर जनसंघ ने मुख्यधारा में अपना विस्तार किया। 1977 में जनसंघ का विलय जनता पार्टी में हुआ, लेकिन इस प्रयोग की विफलता के बाद वह भाजपा के रूप में अवतरित हुई और गांधीवादी समाजवाद को लक्ष्य घोषित किया, जिसका आधार हिंद स्वराज को बताया गया। पांच सूत्री कार्यक्रम लिए गए- 1.राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय एकात्मकता, 2.लोकतंत्र, &.सामाजिक-आर्थिक विषयों पर गांधीवादी दृष्टिकोण, 4. सकारात्मक पंथनिरपेक्षता एवं सर्व पंथ समभाव और 5. मूल्य आधारित राजनीति।

इसे दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद का सार बताया गया। इसके बाद अनेक राज्यों में कई बार और केंद्र में चार बार भाजपा की सरकारें बनीं, जो कठोर प्रशासनिक केंद्रीकरण, निरंतर सामाजिक-धार्मिक ध्रुवीकरण, अंधाधुंध आर्थिक-औद्योगिक एकाधिकारीकरण, सनातनी संस्कृतिकरण और दरिद्रीकरण को बढ़ाती रही। 2014 के बाद गांधीवादी समाजवाद का स्मृति लोप किया गया और गांधी नफरत के निशाने पर लाए गए। ‘विचार नवनीत’ के शस्त्रागार से सारे हथियार निकाले गए और गांधीवादी समाजवाद के मुखौटे फेंक कर एकलवादी चेहरा उजागर किया गया, जो भयावह है। कौन यकीन करेगा कि भाजपा का गांधी, गांधीवाद और गांधीवाद समाजवाद में विश्वास है? सबसे बड़ा संहार धरातल पर हुआ है कि कांग्रेस के श्रमजीवी मनरेगा को भाजपा के राशनजीवी लाभार्थी में अपघटित कर दिया गया है। भारत का भूख सूचकांक गिरता जा रहा है और अमीरों की अमीरी उ’च सूचकांक छू रही है। यही दो सरकारी समाजवादों का फलाफल है। आमजन का ऐसा हाशियाकरण अभूतपूर्व है।

 

हाशिया का समाजवाद

समाजवाद के विभिन्न प्रयोगों का दावा वृहत्तर हाशिया का सशक्तिकरण था, लेकिन हाशिया समाज के एक अग्रणी नायक और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के संस्थापक डॉ. भीमराव आंबेडकर का मानना था कि लोकतंत्र में समता आधारित राज्य समाजवाद ही विकल्प है, जिसमें उत्पादन के सारे स्रोतों पर राज्य का नियंत्रण हो। यह तभी संभव है जब राज्य पर उत्पादक शक्तियों का अधिकार हो, यही सैद्धांतिक आधार तो वैज्ञानिक समाजवादियों का भी है। दूसरी व्याख्या द्रविड़ आंदोलन के अगुआ ई.वी.रामास्वामी नायकर की है। वह मानते थे कि अर्थव्यवस्था और श्रम व्यवस्था पूरी तरह धर्म और जाति की अपरिवर्तनीय संरचना पर टिकी है, इसलिए इन्हें नष्ट किए बिना समाजवाद असंभव है। वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक समाजवादियों का अंतिम लक्ष्य मेहनतकश जनता का उत्पादन के स्रोतों पर अधिकार रहा, लेकिन वे सिर्फ संसदवाद में रम गए और संघर्ष कम हो गया। बावजूद वैज्ञानिक समाजवादियों ने अपनी पहचान नहीं छोड़ी, लेकिन लोकतांत्रिक समाजवादियों ने पहचान को छोड़ दिया। छठे दशक तक दोनों के लाल झंडे पर उत्पादक वर्ग के प्रतीक चिन्ह होते थे। नारे लगते थे – धन और धरती बंट के रहेगी/जब तक भूखा इंसान रहेगा, धरती पर तूफान रहेगा/बोल मजूरो हल्ला बोल, बोल किसानो हल्ला बोल/जमीन किसकी, जो जोते उसकी/लाल किले पर लाल निशान, मांग रहा है हिंदुस्तान, आदि। बाद के दशकों में ये नारे धीमे पडऩे लगे। वाम दलों ने झंडे और चिन्ह तो नहीं छोड़े, लेकिन सोशलिस्ट दलों ने झंडे-चिन्ह तो बदले ही, सिद्धांतों को भी छोड़ सिर्फ सत्ता समीकरण साधने लगे। दलीय पहचान का भी विलोप किया। अखिल भारतीय दल को लोहिया के वंशधरों ने तार-तार कर दिया। दल के मजदूर, किसान, युवा, महिला, बुद्धिजीवी, कर्मचारी सहित अन्य संगठनों को निष्क्रिय किया गया। लोहिया पीछे हो गए और मंडल का पूरा नहीं सिर्फ एक सूत्र आगे, जबकि विशेष अवसर का सिद्धांत लोहिया ने दिया था। मंडल की अन्य सिफारिशों को लागू करने का कोई राजनीतिक प्रयास समाजवादियों ने नहीं किया। गैरबराबरियों से लड़ाई ठहरती गई और पूंजीवादी विश्व व्यवस्था पर खामोशी छा गई। सोपा-प्रसोपा-संसोपा-भाक्रांद-भालोद-जनता पार्टी-दमकिपा-जनता दल-जदयू-राजद-लोजपा, आदि नामांतरणों से गुजरती हुई सत्ता में भागीदारी तक सिमट गई। लोहिया और चरण सिंह को देशज कहा गया, लेकिन उनकी धारा रुक गई। सप्तक्रांति आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों से कोई सरोकार नहीं है, इसलिए इनके जनाधारों को कहीं दक्षिणपंथी, तो कहीं मध्यपंथी हथिया रहे हैं। जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी कहने वाली बहुजन समाज पार्टी मेहनतकश बहुजनों को आर्थिक आधार नहीं दे सकी। विशेष अवसर के सिद्धांत के तहत आदिवासी, दलित और पिछड़ा वर्ग को शिक्षा और सेवा में आरक्षण तो दिया गया, लेकिन जब सरकार ही अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों और कॉरपोरेट के समक्ष निजीकरण के लिए झुक गई है, तब आरक्षण प्रभावहीन होना ही है। जरुरत उत्पादन के स्रोतों और आर्थिक संसाधनों पर वंचितों के अधिकार का है। इसलिए सक्षम विवेक सम्मत विकल्प ही वांछित है। प्रतिकूलताएं वैचारिक प्रवाह में आती हैं, लेकिन कोई विचार समाप्त नहीं होते, अपना पुनराविष्कार कर लेते हैं।

 

अधिरचना पर प्रभाव

संक्षेप में समाजवाद के विविध वैचारिक प्रयोगों ने चढ़ाव-उतार के बावजूद अधिरचना (सुपर स्ट्रक्चर) पर व्यापक रचनात्मक प्रभाव डाला। कला-साहित्य, संस्कृति-संगीत, नाटक-फिल्म को प्रभावित किया। लोकतांत्रिक समाजवादियों के नव सांस्कृतिक संघ, परिमल और संगमनी, आदि की सक्रियता रही। वाम समाजवादियों के प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन नाट्य संघ ने विविध रचनात्मक विधाओं को समृद्ध किया। अनेक रचनाकार राष्ट्रीय फलक पर मानक बने और पाठकों-दर्शकों को आधुनिक विचारबोध और नया भावबोध दिया। नाटकों-फिल्मों में नवाचार आया। अपनी-अपनी वैचारिक धुरियों पर रचनाशीलताएं गतिमान रहीं। नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा, जन संस्कृति मंच, आदि अनेक छोटे -छोटे संगठनों ने भी स्तरीय योगदान किया। वैचारिक शिविर बने और शीतयुद्ध भी हुए। कतिपय अवसरवाद और कॅरियरवाद भी आता रहा। शीतयुद्ध के क्रम में वाम बुद्धिजीवियों ने टिप्पणी की कि लोहिया के मरने के बाद लोहिया की बौद्धिक विधवाएं दर-दर भटक रहीं हैं, लेकिन उस भटकाव में भी श्रीकांत वर्मा ने मगध जैसी काव्यकृति दी, जो सत्ता और व्यवस्था की नियति का एक्सरे है। यह सच है कि लोहिया के राजनीतिक वंशधरों को शायद ही किशन पटनायक, सच्चिदानंद सिन्हा, केशवराव जाधव, मस्तराम कपूर, सुब्बन्ना और ओमप्रकाश दीपक जैसे चिंतकों के नाम याद हों, जिन्होंने उस वैचारिकी को आगे बढ़ाया। बहुजन समाजवादियों को भी बौद्धिक संगठनों बामसेफ और दलित पैंथर के सरोकारों से शायद ही कोई वास्ता हो, लेकिन चिंतक रावसाहब कस्बे, कांचा आइलैया आदि का योगदान अन्यतम है। एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि कांग्रेस और भाजपा को छोड़कर लगभग अन्य सभी बुद्धिजीवियों ने मंडलनीत आरक्षण का समर्थन किया, लेकिन रचना में मार्क्सवादी-लेनिनवादी वरवरा राव ने ही उस पर उल्लेखनीय लंबी कविता लिखी। अरुंधति रॉय और आनंद तेलतुंबड़े ने भी विमर्श को प्रखर कर लोक बुद्धिजीवी की पक्षधरता में योगदान किया। वाम बौद्धिक संगठन अपने-अपने दलीय दायरे में तो सक्रिय रहे हीं, साझा तौर पर भी पहलकदमी करते रहे हैं। वामेतर बौद्धिक संगठनों की धारणा है कि वाम बौद्धिक संगठनों के दायरे तंग हैं। वाम रचनाकारों पर उत्पादक वर्ग से अलग पश्चिमी विमर्श और शहरी मध्यवर्गीय विषय वस्तुओं का प्रभाव भी खूब पड़ा। इसके बावजूद साहित्य, फिल्म, संस्कृति और कलाओं का कोई क्षेत्र नहीं है, जहां वाम गतिविधियों ने गहरी छाप न छोड़ी हो। फेहरिस्त के लिए विस्तार चाहिए। अंतिम जन को लक्षित कर गांधीवादी बुद्धिजीवी भी अपनी धुरी और परिधि में सदा चिंतनरत रहे हैं। नेहरुवियन बौद्धिक भी मोर्चाबंद रहे हैं। वैचारिक पत्रकारिता में भी यह रचनात्मक संघर्ष चलता रहा है। ये सभी अब सोशल मीडिया में भी उपस्थित हैं। ये अवदान स्मरणीय हैं। देश को सौवें वर्ष में भी समाजवाद का इंतजार है।

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