प्रगतिशील साहित्य का ‘तुमड़ी’ राग

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– धीरेश सैनी

बद्री नारायण को यह पुरस्कार घोषित होने से पहले ही उनकी राजनीतिक लाइन के लिए प्रगतिशीलों में सहज स्वीकार्य माहौल बनाने का जिम्मा वामपंथी लेखकों के नेता ने ही उठा रखा था। जनवादी लेखक संघ के शीर्ष नेता और वाम संगठनों के बीच आइकन जैसी हैसियत वाले कवि राजेश जोशी ‘अच्छे कवि’ का ओछा बहाना बनाकर बद्री नारायण की प्रतिष्ठा के अभियान में लगे हुए थे। हिंदी प्रगतिशील साहित्य के सवर्ण संसार ने ‘एक अच्छे कवि को पुरस्कार’ के जुमले के सहारे उस ‘धर्म-संकट’ का झटके से हल निकाल लिया है जो आरएसएस-भाजपा के साये में जा चुके कवि बद्री नारायण को उनके कविता संग्रह तुमड़ी का शब्द के लिए 2022 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार की बधाई देने में आड़े आ रहा था। बद्री नारायण खुलकर संघ-भाजपा के पक्ष में जा चुके हैं। वह अपने लेखन में ही नहीं, बल्कि बयानों तक के जरिये अपनी इस ‘पक्षधरता’ का सचेत प्रदर्शन करते रहे हैं। उन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई तो इसे उनकी इस वैचारिक-राजनीतिक आस्था का अंजाम माना जाना स्वाभाविक है। आरएसएस की राजनीति के विरोध की मुद्रा वाले लेखकों में से बहुतेरों ने अपने बंधु की इस उपलब्धि पर उल्लास प्रकट करने में कोई संकोच नहीं दिखाया। बद्री नारायण की राजनीति और विचार को लेकर सवाल उठ रहे हैं, तो ‘श्रेष्ठ कविता को पुरस्कार’ का तूमार बांधने की कोशिश की जा रही है। राजनीतिक-वैचारिक पतन के लिए बद्री नारायण और उनके ‘प्रगतिशील’ प्रशंसकों की आलोचना करने वाले भी इस प्रचार पर अमूमन खामोश हैं। क्या वाकई बद्री एक अच्छे कवि हैं या कभी अच्छे कवि थे?

बद्री नारायण का पहला कविता संग्रह, ‘सच सुने कई दिन हुए’, 1994 में प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह की पहली ही कविता जो ‘निवेदन’ शीर्षक से थी, उसी पर बात करते हैं। ‘कविता के वृत्त के बाहर/बैठा हूं/मैं कविता का डोम’ पंक्तियों से शुरू हुई इस कविता में कवि मुझे शब्द छू लेने दो, मुझे भाव छू लेने दो जैसी बातें करता है और हे वेदुआ, हे निर्दयी, हे आलोचक मुझे जयकार बोलने दो जैसे जुमले के साथ कविता खत्म करता है। यह कथित कविता इस कवि और इस कविता को सहज स्वीकार करने वाले हिंदी के सवर्ण आलोचक जगत की निर्लज्जता और अश्लीलता के दस्तावेज की तरह है। जिन्होंने छुआछूत नहीं झेला और जिन्होंने एक बड़े तबके को अछूत घोषित कर प्रिविलेज हासिल किए, उन्हें खुद को अछूत बताने का चस्का बहुत होता है। तिवारी कवि मजे से खुद को कविता के वृत्त के बाहर बैठा कविता का डोम बता डालता है। कितनी हिंसा और बेशर्मी है! यह बात कई-कई तरह से भयानक है। एक तो यही कि तिवारी के मन में यह तय है कि डोम का स्थान वृत्त के बाहर ही होना है और उसे जयकार बोलनी ही है। दूसरे यह कि हम ही इस जातिवादी व्यवस्था के जनक और उत्पीड़क हैं और हम ही उत्पीडि़त होने का फैल भरने की कविताई भी कर लेते हैं। साहित्य की दुनिया के कब्जेदार भी हम ही हैं और इससे सताए हुए होने के दावे का आनंद भी हम ही ले लेते हैं। वह भी खुद को डोम बताकर। आश्चर्य नहीं कि एक तिवारी बद्री नारायण ने खुद को डोम बताया और दूसरे तिवारी अजय ने घोषणा कर दी कि ”कवि ने अपने संग्रह के निवेदन में ही हीरा डोम का वंश स्वीकार कर लिया है’’। (1994 में ही आई किताब समकालीन कविता और कुलीनतावाद में)

कुलीनतावाद, शहरी, किसान, ग्रामीण जैसी शब्दावली की ओट में सारे ब्राह्मणवाद और जड़ता को महिमामंडित करने में अजय तिवारी माहिर है, लेकिन असद जैदी को क्या हुआ था जो वह बद्री नारायण को सामाजिक अत:करण रखने वाला कवि घोषित कर रहे थे? इस कविता संग्रह में बद्री नारायण और उनकी कविता की शान में असद जैदी की जो टिप्पणी छपी थी, वह बद्री नारायण की इस कविता की अश्लीलता और पूरे संग्रह के खोखले पन को तो क्या ढक पाती, टिप्पणीकार की संवेदना और ईमानदारी को ही संदिग्ध बना देती है। ऐसे ब्लर्ब अक्सर अपने पट्ठे तैयार करने और अपनी ‘कॉन्स्टिटुएंसी’ बनाने के लालच में खूब लिखे जाते रहे हैं। इस विशुद्ध नकली कविता में असद जैदी देख लेते हैं- ”कोई नकली सेट नहीं है, न ऐसी सृष्टि जो सिर्फ कविता के लिए रची गई हो।‘’ इंतिहा यह कि वह ऐसे संग्रह में यह उम्मीद भी देख लेते हैं कि ”बद्रीनारायण भविष्य में जीवन में आशा-निराशा के उपलब्ध स्रोतों से परे जाकर सांस्कृतिक-सामाजिक संकट की तीव्रता और जटिलता को एक चुनौती और एक बुलावे की तरह स्वीकार करेंगे, क्योंकि वह उस संतुलन, विवेक और निश्चय के मालिक हैं जो कविता को मात्र एक संरक्षणात्मक क्रिया ही नहीं, एक आलोचनात्मक और परिवर्तनकामी कर्म बनाते हैं।‘’

बद्री नारायण का पहला कविता संग्रह आया था तो इससे दो बरस पहले बाबरी मस्जिद को गिराकर ब्राह्मणवादी फासीवाद का परचम लहराया जा चुका था और प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी तथा सामाजिक कार्यकर्ता इसे दर्ज करने और भविष्य की आशंकाओं से निपटने के लिए कार्य योजनाएं बनाने में मुब्तिला थे। बद्री नारायण इस सबसे निश्चिंत ऐसी फेक कविताएं रच रहे थे कि कविता में सामाजिक-वैचारिक और राजनीतिक सरोकार शामिल होने से परेशान रहने वाले कविताजीवी सुकून महसूस कर रहे थे। इसी संग्रह में उनकी बचकानी कविता ‘प्रेमपत्र’ शामिल थी जिसे राजेश जोशी वर्तमान साहित्य के कविता विशेषांक में छाप चुके थे और जिसे ‘उच्च शिक्षा’ और ‘साहित्य संस्कार’ रखने वाला हिंदी का अधकचरा विद्वान आज तक सीने से लगाए घूमा करता है। इस संग्रह की नकलीपन, यथास्थितिवाद और लिजलिजी भावुकता से भरी अधिकांश कविताएं इसी अधकचरे साहित्य-रसिकों के काम की हैं। ‘दुलारी धिया’ जैसी कविताओं में वही पुरानी ट्रिक है जिसमें एक स्त्री के जीवन की विडंबनाओं को लेकर खूब दया पैदा कर कविता तैयार कर उसे इसी सेवा के लिए इसी हाल में छोड़ दिया जाता है। कमाल यही है कि इन कविताओं में न यथार्थ को अपने वास्तविक रूप में आने दिया जाता है और न कहीं प्रतिरोध की छाया पडऩे दी जाती है। बाद के सालों में जब फासीवाद का शिकंजा और ज्यादा कसता गया तो इस कवि में यथार्थ और प्रतिरोध की चेतना विकसित हुई हो या जीवन के दूसरे पहलुओं को लेकर ही उसकी कविता परिपक्व हुई हो, ऐसा भी नहीं है। कुछ कविता लिखकर/ मैंने साध ली है/ प्रतिरोध करने की इच्छा/ धिक्कार है मुझे/ मेरी छोटी इच्छाओं को/ और उन्हें पूरा करने वालों को, जैसी और ज्यादा फर्जी बातें करते हुए या कहीं मुझी से फिर न लिख दी जाएं/इतिहास की दुर्दांत घोषणाएं/तानाशाहों की कहीं लिख न दी जाएं/ मुझी से आत्मकथाएं, जैसी लफ्फाजी करते हुए वह अपनी सही जगह पहुंच गया।

दिलचस्प यह है कि खुद को कविता के वृत्त के बाहर बैठा कविता का डोम बताने वाला कवि अपनी सामाजिक स्थिति के लिहाज से तो जन्मजात वृत्त के केंद्र में था ही, साहित्य की दुनिया में भी अपनी इसी जन्मजात योग्यता और चतुराई के बूते हमेशा केंद्र में ही रहा। अपने पहले ही संग्रह पर वामपंथी लेखकों के परस्पर विरोधी खेमों के सितारों से वाहवाही कराने से लेकर वामपंथियों की दखल वाले केदार सम्मान और शमशेर सम्मान हासिल करने वाले इस कवि को भाजपा के पक्ष में खुलकर खड़े हो जाने के बावजूद जिस तरह साहित्य अकादेमी पुरस्कार के लिए ‘प्रगतिशीलों’ से बधाइयां मिल रही हैं और मामूली कविता को प्रतिष्ठित करने की कोशिश में योगदान मिल रहा है, कोई अचरज की बात नहीं है। इस कवि का एक कारनामा यह भी था कि वंचित तबकों के राजनीतिक उभार के दिनों में वह वंचित तबकों की राजनीति का मददगार समाज-विज्ञानी होने की छवि का लुत्फ ले रहा था जबकि उसका लैंस सॉफ्ट हिंदुत्व वाला ही था। यह स्वाभाविक था कि उसे जब खुलकर खेलने का माकूल मौका मिला तो उसने एनएफएस की तलवार से वंचित तबकों के रोजगार के अधिकार को ही काट डाला। वंचित तबकों के आरक्षण पर तलवार चलाना वैसे भी सवर्णों में लोकप्रियता की पक्की गारंटी की तरह है। वंचितों के आरक्षण पर कैंची और सवर्णों को आरक्षण का मोदी सरकार का पैंतरा भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति से इत्तेफाक न रखने वाले सवर्णों को भी बड़ा रास आता है। इसी ब्राह्मणवादी फासीवाद के पाले हुए प्रगतिशील सवर्णों में बद्री को बधाई के लिए होड़ लगी हो तो यह कोई हैरानी की बात भी नहीं है। पुरस्कार हो या सजा, ऐसे मौकों पर ऐसी एकता का प्रदर्शन प्राय: किया ही जाता रहा है। इस कवि के एक बड़े पैरोकार अजय तिवारी को दिल्ली यूनिवर्सिटी में शोध छात्रा के यौन शोषण के केस में कोर्ट से दोषी करार दे दिए जाने के बावजूद उसके लिए सेफ पैसेज बनाने में भी यही एकता काम आई थी। यहां तक कि वामपंथी बुद्धिजीवियों के ही एक बड़े नायक रमेश उपाध्याय और उनकी बेटी संज्ञा उपाध्याय ने उसे अपनी पत्रिका के मंच पर प्रतिष्ठित कर हिमायतदारी का माहौल बनाने में मदद की थी।

समाज और राजनीति की तरह प्रगतिशील साहित्य की दुनिया के सवर्ण वर्चस्व की महिमा को समझने वाले जानते हैं कि वामपंथी सितारों की दखल के दौर में भी साहित्य अकादेमी भयानक घपलों का अड्डा रही है। वैसे भी यह पुरस्कार द्विजों के लिए ही आरक्षित रहता आया है। समयांतर ने जनवरी, 2019 अंक में ‘साहित्य अकादेमी या द्विज साहित्य अकादेमी ?’, शीर्षक से लेख में साहित्य अकादेमी पुरस्कार पाए हिंदी साहित्यकारों की सूचीमय उनकी जाति के साथ प्रकाशित कर दी थी, तो खासी बौखलहटा मची थी। पंकज चौधरी की कविता ‘हिंदी कविता के इस द्विजवादी प्रदेश में आपका प्रवेश दंडनीय है’, भी इस मौके पर बारहा याद आ रही है।

जाहिर है कि एक पहलू यह है कि यह सवर्णों का आपसी मसला है और यह भी कि इस वक्त बद्री नारायण को यह पुरस्कार दिया जाना ‘तर्कसंगत’ है। भयानक यह है कि बद्री नारायण को बधाई देने के बहाने फासिज्म के साथ गलबहियां करने का प्रगतिशील लेखकों का लालच फूट-फूट पड़ रहा है। शर्मनाक यह है कि बद्री नारायण को यह पुरस्कार घोषित होने से पहले ही उनकी राजनीतिक लाइन के लिए प्रगतिशीलों में सहज स्वीकार्य माहौल बनाने का जिम्मा वामपंथी लेखकों के नेता ने ही उठा रखा था। जनवादी लेखक संघ के शीर्ष नेता और तीनों ही वाम संगठनों के बीच आइकन जैसी हैसियत वाले कवि राजेश जोशी ‘अच्छे कवि’ का ओछा बहाना बनाकर बद्री नारायण की प्रतिष्ठा के अभियान में लगे हुए थे। उनका संगठन और दूसरे वाम लेखक संगठन व तमाम बड़े प्रगतिशील साहित्यकार स्थिति की भयावहता को जानते हुए भी चुप्पी साधे रहे। छुटपुट विरोध के स्वर उठे, तो एक लंबे अभ्यास का इस्तेमाल करते हुए सारा जोर उन्हें चुप कराने में लगाया गया। लेकिन, इसकी छाया जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय सम्मेलन पर भी थी और जलेस से जुड़े लोगों को भी उम्मीद थी कि कोई साफ रास्ता अख्तियार किया जाएगा। राजेश जोशी के साथ मुर्दनगी भरे चेहरों के साथ जिन लेखकों के चित्र उस सम्मेलन से वायरल हुए, उनमें से एक जवरी मल पारख जरूर इस मसले पर एक स्पष्ट नाराजगी व प्रतिरोध का स्टैंड लिए हुए हैं। बाकी, आज भी या तो चुप हैं या फिर राजेश जोशी व उनके कैम्प के बद्री प्रेम पर सवाल उठाने वालों को ही डपटने में लगे हुए हैं।

हाल-फिलहाल में वाम लेखक संगठन ऐसे संकट से बार-बार गुजरे हैं और उनके नेता प्रतिगामी साबित हुए हैं। जन संस्कृति मंच अपने नए अध्यक्ष के रूप में रवि भूषण को चुनकर तो सवालों में आया ही था, उसके शीर्ष नेता अशोक भौमिक ने ‘विश्वरंग’ के मंच पर अपनी सेवाएं देने का सिलसिला भी जारी रखा। संतोष चौबे और उनके विश्वरंग की राजनीति के जग-जाहिर होने के बावजूद उनके लिए प्रगतिशीलों का लालची समर्पण उनकी बदनामी का सबब रहा है। इस बार विवेक अग्निहोत्री को मंच दिए जाने को लेकर सोशल मीडिया पर विरोध के कुछ स्वर उठे, तो प्रगतिशीलों के बीच फिर खलबली का माहौल रहा। इसी बीच ‘आज तक’ के लिटरेचर फेस्टिवल में प्रगतिशीलों की उपस्थिति भी सवालों के घेरे में आई। राजेश जोशी और अरुण कमल जैसे लेखकों ने फासिस्ट मंचों पर भागीदारी के सवालों को नकार कर वहां अपनी उपस्थिति से ‘प्रेरणा’ देने का सिलसिला जारी रखा। विडंबना देखिए कि राजेश जोशी जैसे लोग अपने तमाम कारनामों के बावजूद सवालों से परे हैं, लेकिन अदनान कफील दरवेश जैसा कोई युवा कवि खुद को ऐसे आयोजन से अलग कर लेता है तो सब के सब उसी पर टूट पड़ते हैं। हिंदी सवर्ण साहित्य ऐसे मौकों पर अक्सर ‘हिंदू राष्ट्र’ जैसा ही व्यवहार करता है और किसी मुसलमान या दलित पर टूट पडऩे के लिए तत्पर रहता है। अदनान के साथ ऐसा व्यवहार पहली बार नहीं था। जाहिर है कि शानी हों या असद जैदी या फिर अदनान कफील दरवेश प्रगतिशील सवर्ण दुनिया में उन्हें इन्हीं स्थितियों से दो-चार होना पड़ता है जो हिंदी की दुनिया में फैली सांप्रदायिकात को चिन्हित करने और इस बारे में अपनी बात को बिना संतुलन साधे कहने का साहस करते हैं। यह भी कमाल था कि जब अदनान को निशाने पर लिया जा रहा था तो देवी प्रसाद मिश्र को आदर्श की तरह प्रचारित किया जा रहा था कि उन्होंने ‘आज तक’ के फेस्टिवल में जाने की स्वीकृति देने के बाद यह पता चलने पर कि बातचीत में रोहित सरदाना को शामिल रहना है, अपना नाम वापस ले लिया था। गोया, सरदाना के बिना वह मंच सेकुलर हो जाता हो या सरदाना के ‘आज तक’ में भर्ती होने से पहले वहां वही भयानक उन्माद प्रसारित न होता रहा हो, या देवी ने स्वीकृति देते हुए ऐसी कोई शर्त रखी हो कि उनसे बातचीत के लिए किसी रवीश कुमार को आयातित किया जाएगा। पिछले वर्षों में ऐसा बार-बार हुआ है कि मंगलेश डबराल से लेकर देवी प्रसाद मिश्र तक या राजेश जोशी से लेकर आलोक धन्वा और अरुण कमल तक ऐसे मंचों पर जाने के लिए निकल पड़े हों और विरोध खड़ा होने पर इनमें से कई को अपने नाम वापस लेने पड़े हों। अरुण कमल इस बार के साहित्य अकादेमी के निर्णायकों में भी शामिल थे। अपनी कविताओं में ब्राह्मणवादी-फासीवादी प्रतीकों और फासिस्ट मंचों के साथ राह बनाए रखने में माहिर अरुण कमल को भी उनके सवर्ण साथी वामपंथी-कम्युनिस्ट-प्रगतिशील ही पुकारते रहे हैं। बहरहाल, खामोशी साधे बैठे पुरोधा प्रातिबद्ध प्रगतिशील लेखकों के लिए बद्री नारायण की ही एक पंक्ति पेश करना बेहतर रहेगा- पुरखो! कुछ तो कहो/इस गाढ़े वक्त में

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