पुरानी पेंशन योजना

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– जीतेंद्र गुप्त

भारतीय मीडिया स्वयं को भारतीय जनता का सबसे बड़ा शत्रु साबित करने में कोई मौका नहीं छोड़ता है। अकबर ‘इलाहाबादी’ अगर इस वक्त होते तो शायद वह भारतीय जनता को प्रतिरोध के लिए अखबार निकालने की जगह कोई और तजवीज सुझाते। जिंदगी और मौत का ऐसा खौफनाक खेल केवल हिंदुस्तानी अखबार ही कर सकते हैं।

हिंदुस्तान की आबादी का एक बड़ा हिस्सा इस समय इस संकट से दो-चार है कि वृद्धावस्था में उसका क्या होगा, क्योंकि अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में पिछली एनडीए सरकार ने सरकारी कर्मचारियों के लिए पेंशन का प्रावधान खत्म कर दिया था और उसकी जगह एक नई योजना ‘नई पेंशन योजनाÓ (एनपीएस) की शुरुआत की थी। यह योजना पूंजीवादी बाजार के अनुरूप थी, क्योंकि शेयर बाजार के जरिये इस तरह पूंजिपतियों के पास अतिरिक्त धन उपलब्ध हो पाने की संभावना पैदा हो पाई। नई पेंशन योजना के अंतर्गत सरकारी कर्मचारियों के वेतन और मंहगाई भत्ते की कुल रकम के 10 फीसदी में सरकार (नियोक्ता) 14 फीसदी (पहले यह 10 फीसदी ही थी) रकम का योगदान करती है और इस कुल रकम को विभिन्न पेंशन फंडों के जरिये शेयर बाजार में निवेश किया जाता है। सेवानिवृत्ति के बाद इसी धन से कर्मचारियों को पेंशन देने का प्रावधान किया गया है। अचरज की बात यह है कि इन पेंशन फंडों के संचालन और उसके प्रदर्शन को लेकर इन पेंशन फंड प्रबंधकों की कोई निश्चित जिम्मेदारी भी नहीं है। इस नई पेंशन योजना की पूंजीवाद समर्थक अर्थशास्त्रियों और प्रवक्ताओं ने बड़ी तारीफ की थी, लेकिन आज इस योजना के लगभग दो दशक पूरे होने वाले हैं, इसके नतीजे बहुत ही भयावह हैं। सेवानिवृत्त कर्मचारियों को इतनी भी मासिक पेंशन नहीं मिल पा रही है कि वे महीने के गैस सिलेंडर और बिजली के बिल का भुगतान कर पाएं।

हिमाचल प्रदेश और गुजरात चुनाव में सरकारी कर्मचारियों की इस दयनीयता का मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। हिमाचल प्रदेश में खासतौर से, क्योंकि वहां सरकारी कर्मचारियों की संख्या इतनी है कि यह चुनाव नतीजों पर बहुत गहरा असर डालने में सक्षम हैं। इसके अलावा राजस्थान और छत्तीसगढ़ के साथ झारखंड में राज्य सरकारों ने नई पेंशन योजना से स्वयं को अलग कर लिया है और पुरानी पेंशन योजना को लागू करने की विधिक स्वीकृति अपने यहां की विधानसभाओं से पा ली है। इन स्थितियों ने केवल भारतीय जनता पार्टी को परेशानी में नहीं डाल दिया है, बल्कि भारत के लंपट पूंजीवाद को गहरी चिंता में डाल दिया है। राजनीतिक कारणों से भारतीय जनता पार्टी इस मुद्दे पर कुछ बोलने से बचती रही है। लेकिन इस लंपट पूंजीवाद ने एक बार फिर से अपने बौद्धिकों को सक्रिय कर दिया है।

18 नवंबर, 2022 के अपने संपादकीय में इंडियन एक्सप्रेस ने लिखा है, ”राजनीतिक दल पुरानी पेंशन योजना को बहाल करने की वकालत कर रहे हैं। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस…यह दुर्भाग्यपूर्ण है। तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए इस तरह के प्रस्ताव केवल थोड़े से ही मतदाताओं के लिए फायदेमंद है…इससे बहुत कठिनाई से अर्जित नीतिगत उपलब्धियों के लिए खतरा पैदा हो गया है।’’ इसके बाद संपादकीय जिक्र करता है कि किस तरह से नई पेंशन योजना में सदस्यों की संख्या लगातार बढ़ती गई है। ”अक्टूबर, 2022 के अंत में इस योजना में 23.3 लाख केंद्रीय सरकार के कर्मचारी और 58.9 लाख राज्य सरकारों के कर्मचारी शामिल हो चुके हैं। इसके साथ 15.92 लाख कर्मचारी कॉरपोरेट क्षेत्र की ओर से और 25.45 लाख असंगठित क्षेत्र की ओर से शामिल हुए लोग हैं।’’ यह आंकड़ा अखबार इस तरह से पेश करता है कि जैसे यह संख्या नई पेंशन योजना की अपार लोकप्रियता को बताती है। सच्चाई यह है कि 2004 के बाद सरकारी नौकरी में आने वाले हर एक व्यक्ति के लिए नई पेंशन योजना में शामिल होना अनिवार्य है। कॉरपोरेट क्षेत्र के लोगों द्वारा इस योजना में शामिल होने का कारण भी यही है कि इसके पहले उनके पास सामाजिक सुरक्षा के लिए कोई विकल्प ही नहीं था। वहीं, असंगठित क्षेत्र के लोगों के इस योजना से जुडऩे में सरकारी योजनाओं की भूमिका सबसे अहम है। अटल पेंशन योजना, प्रधानमंत्री पेंशन योजना, आदि सभी योजनाएं नई पेंशन योजना के नियोजन के लिए बनी संस्था के जरिये ही संचालित होती हैं और इसलिए इस संख्या का कम या ज्यादा होना लोगों की पसंद या नापसंद का मसला नहीं है।

इसके बाद संपादकीय तर्क देता है कि 2005 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने ही पीएफआरडीए के नियमन के लिए लोकसभा में विधेयक पेश किया था, ”लेकिन अब पुराने ढांचे की ओर कांग्रेस का लौटना यह दर्शाता है कि बहुत अधिक जरूरी सख्त नीतिगत मुद्दों को आगे बढ़ाने के लिए अर्जित सहमति समाप्त हो चुकी है।’’ इसके बाद यह कि विपक्षी दलों के लिए जनता में अपनी पहुंच बढ़ाने के लिए इस मुद्दे को आगे बढ़ाना सुविधाजनक है, लेकिन इसके वित्तीय परिणाम घातक होंगे। ”रिजर्व बैंक के अनुसार 2020-21 में राज्यों ने 3.86 लाख करोड़ रुपए पेंशन की मद के लिए निर्धारित किए।’’ मजे की बात है कि इसी अखबार ने 21 नवंबर को यह खबर प्रकाशित की कि बैंकों ने पिछले पांच सालों में 10 लाख करोड़ रुपए बट्टे खाते में डाल दिए और जिसमें से महज 13 फीसदी (1.32 लाख करोड़) ही वसूल हो पाए। यानी बट्टे खाते में डाली गई रकम पेंशन के लिए भुगतान की गई रकम से ढाई गुना ज्यादा है!

इस संपादकीय का सबसे त्रासद पक्ष अंत में निकाला गया निष्कर्ष है। इसके अनुसार, ”इन पेंशनों का बोझ भविष्य की पीढिय़ों पर पड़ेगा।’’ कितना शानदार और अर्थपूर्ण इतिहासबोध है! यानी पेंशन पाने वाले कर्मचारियों के श्रम की कोई भी सामाजिक भूमिका नहीं थी। ऐसा लगता है कि उन्हें दी जाने वाली पेंशन उनके श्रम का प्रतिदान नहीं, बल्कि राज्य की ओर से दिया जाने वाला ‘दान’ मात्र है! यदि इसी तर्क का अनुकरण किया जाए तो मनुष्यों को अपने बच्चे ही नहीं पालने चाहिए, क्योंकि उनके पालने-पोसने पर किया जाने वाला खर्च भविष्य के बीस-पच्चीस सालों तक अनुत्पादक रहने वाले वर्ग पर किया जाता है और यह खर्च उत्पादक वर्ग पर यह बोझ की तरह है? नैतिकताविहीन पूंजीवाद इसी तरह की तार्किकता का अनुकरण करता है। इस लंपट पूंजीवाद की कट्टर समर्थक मार्गेट थैचर ने इसीलिए कहा था कि अब समाज जैसी कोई चीज शेष नहीं है, यदि कुछ शेष है तो वह व्यक्तिवाद है।

 

‘बैड इकानामिक्स?’

इस संपादकीय के प्रकाशन के महज एक दिन बाद अखबार में ‘व्हाई द ओल्ड पेंशन स्कीम इज बोथ बैड इकनोमिक्स एंड वैड पॉलिटिक्स’ शीर्षक लेख प्रकाशित होता है। इसमें भी वही सारे तर्क दोहराए गए हैं जिनका जिक्र संपादकीय में किया गया था। बस एक बात का जिक्र न तो संपादकीय करता है, न ही यह लेख कि नई पेंशन स्कीम में बाजार के छल के शिकार कर्मचारियों के प्रति किसकी जिम्मेदारी है? उन वृद्धों के प्रति किसकी जिम्मेदारी है जिन्हें बच्चों के जेब खर्च से भी कम मासिक पेंशन मिल रही है? जीवन की सुविधाएं तो दूर की बात दवाइयों का खर्च भी पेंशन से पूरा नहीं पड़ रहा है?

इंडियन एक्सप्रेस में इस तरह के मत की अभिव्यक्ति भारत की जनता के लिए आघात की तरह है क्योंकि इस अखबार ने सत्ता के प्रतिरोध की परंपरा को किसी न किसी तरह से जिंदा रखा था, शायद वे दिन खत्म हो गए हैं। इसी का परिणाम है कि नई पेंशन योजना के जो सदस्य हैं, योजना के मूल्यांकन में उनके प्रश्नों का कोई महत्व नहीं है। इस बात के कोई मानी नहीं है कि यदि यह योजना ‘अच्छी राजनीति, अच्छी अर्थव्यवस्था’ का प्रतीक है, तो हमारे नीति-निर्माता इस योजना के सदस्य क्यों नहीं हो जाते हैं (विधायिका और न्यायपालिका के सदस्य इस योजना में शामिल नहीं है)? यदि यह योजना इतनी प्रभावशाली है, तो लगभग दो दशक बीतने को हैं सरकार क्यों नहीं योजना के प्रदर्शन को लेकर श्वेतपत्र जारी करती है?

इस योजना में बदलाव को लेकर कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करने की जरूरत नहीं है। कांग्रेस ने पिछले चुनाव में ही देश की व्यापक आबादी की सामाजिक सुरक्षा को लेकर ‘न्याय योजना’ का वादा किया था, जिसके लिए पार्टी ने बहुत अधिक बौद्धिक और आर्थिक तैयारी की थी। इसी तरह से पेंशन योजना को लेकर कांग्रेस पार्टी की अपनी बौद्धिक और आर्थिक तैयारी होगी और इसे जाने बिना बेवजह कांग्रेस को बुरी रोशनी में दिखाना ‘बुरी राजनीति’ है।

इस ‘बुरी राजनीति’ का एक उदाहरण 25 नवंबर को एक्सप्रेस में ही प्रकाशित एक और खबर है, जिसमें योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया को यह कहते उद्धरत किया गया है कि पुरानी पेंशन योजना सबसे बड़ी ‘रेवड़ी’ है। अहलूवालिया भी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय नौकरशाही के सदस्य रहे चुके हैं और नव-उदारवादी विचारधारा के कट्टर समर्थकों में हैं। मनमोहन सिंह की सरकार में ऐसे लोगों की संख्या बहुसंख्या में थी, लेकिन अब यह बात साफ होती जा रही है कि कांग्रेस नवउदारवादी नीतियों की ‘वास्तविकता’ समझ पा रही है और पार्टी अब वह हर एक नीतिगत परिवर्तन कर रही है जो नव-उदारवादी नीतियों के घातक सामाजिक प्रभाव को कम कर सके। अहलूवालिया (और नई पेंशन योजना के समर्थक बौद्धिकों) के लिए सामाजिक कल्याणकारी काम ही ‘रेवड़ी’ प्रतीत होते हैं, लेकिन कॉरपोरेटों के माफ किए गए ऋण, करों पर दी गई छूट ऐसे लोगों को शायद राज्य की जिम्मेदारी प्रतीत होती होगी।

भारतीय मीडिया के संचालक भारतीय उद्योगपति और सेठ हैं। इसलिए उनके आर्थिक हितों के लिए वैचारिक ताना-बाना बुनने का काम भारतीय मीडिया करता है। जनता के वास्तविक और उचित मुद्दे प्राय: अखबारों से दूर ही रहते हैं। सुनिश्चित और सुरक्षित पेंशन 60 साल के बूढ़े व्यक्ति के लिए केवल आर्थिक सुरक्षा का मसला ही नहीं है, बल्कि यह उनके गरिमामय जीवन के लिए अनिवार्य है। लेकिन इस विशिष्ट मानवीय पक्ष को नजरअंदाज करके भारतीय अखबार संभवत: सबसे बड़ा अमानवीय काम कर रहे हैं। इन अखबारों का तर्क है कि पेंशन जैसी सामाजिक सुरक्षा पाने वाले लोग कुल श्रम शक्ति का लगभग दस फीसदी हैं। इस तरह से देश की संपत्ति का बड़ा हिस्सा केवल दस फीसदी लोगों पर कैसे खर्च किया जा सकता है! मानी यह कि जहां सामाजिक सुरक्षा का विस्तार किया जाना चाहिए यानी सभी को पेंशन की सुविधाएं दी जानी चाहिए, उसके बदले दस फीसदी से पेंशन सुविधाएं छीनकर सभी को ‘समान’ बनाया जा रहा है!

 

सामाजिक सुरक्षा का विरोध

भारतीय मीडिया पेंशन जैसी सामाजिक सुरक्षा को खत्म करने के लिए जिम्मेदार राजनीतिक पार्टी (भाजपा) को कहीं भी प्रश्नांकित नहीं करती। इसके बजाय इंडियन एक्सप्रेस एक अन्य खबर के जरिये यह जतलाने की कोशिश करता है कि इस मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी में वैचारिक विभाजन हो रहा है। 19 नवंबर को ही प्रकाशित एक और रिपोर्ट में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता को उद्धरत करते हुए कहा गया कि कांग्रेस पार्टी में इस मुद्दे पर चर्चा नहीं हुई और उचित था कि पहले कांग्रेस कार्यसमिति में इस मुद्दे पर सहमति पा ली जाती (वैसे यह लिखा गया कि वरिष्ठ नेता बेनाम रहना चाहते हैं)। यह भी तर्क को सिर के बल खड़ा करने जैसा है। छत्तीसगढ़ और राजस्थान में पुरानी पेंशन को लेकर निर्णय पहले ही लागू हो चुका है। इसका तो यही नतीजा निकलता है कि कांग्रेस पार्टी वैचारिक स्तर पर पुरानी पेंशन योजना के समर्थन में है। ऐसे में अब इस मामले में चर्चा और कांग्रेस कार्यसमिति में सहमति का प्रश्न केवल भ्रम पैदा करने से ज्यादा कुछ नहीं है।

पुरानी पेंशन योजना को लेकर इंडियन एक्सप्रेस नवउदारवादी व्यवस्था के समर्थक दूसरे बौद्धिक के साथ स्वयं एक ‘पार्टी’ में तब्दील हो गया है और बार-बार भारतीय अर्थव्यवस्था की दुहाई देते हुए पुरानी पेंशन योजना को देशहित में नहीं बताती है। इस तरह से एक बार फिर से वह क्लासिकल सवाल सामने आ जाता है कि ‘देश’ की मतलब क्या है? इस जवाब हमेशा की तरह ‘देश की जनता’ है। देश की जनता का हित ही देश-हित कहलाता है, न कि उद्योगपतियों का हित देशहित कहलाता है।

नई पेंशन योजना को लेकर भारतीय मीडिया में जिस तरह की बहसें चल रही है, वे एकतरफा हैं और जानबूझकर तथ्यों को छिपाती हैं (एक्सप्रेस का उदाहरण दिया ही जा चुका है)। लेकिन यदि इस विषय पर गंभीर अध्ययनों की ओर ध्यान दें, तो पाएंगे कि पुरानी पेंशन योजना न केवल नागरिकों के हित में है, बल्कि व्यापक स्तर पर देश की अर्थव्यवस्था के हित में भी है। रोहित आजाद और इंद्रनील चौधरी ने अपने गंभीर विश्लेषण में इसी तथ्य को दर्शाया है (द हिंदू, 18 अक्टूबर, 2022)।

रोहित आजाद और इंद्रनील चौधरी ने ओईसीडी के एक अध्ययन का हवाला दिया है, जिसमें दर्शाया गया है कि 2008 के वैश्विक आर्थिक ध्वंस में रात की रात में धनी देशों में पेंशन फंड में से 5 ट्रिलियन डॉलर डूब गए। इस तरह से शेयर बाजार पर निर्भर पेंशन महज लॉटरी की तरह है। यह महज सट्टा है और नागरिक आबादी की गाढ़ी कमाई को बाजार की अंध-शक्तियों के हाथों में सौप देने के समान है।

पुरानी पेंशन योजना के खिलाफ एक दूसरा तर्क राज्य पर पडऩे वाले वित्तीय बोझ के रूप में दिया जाता है। यह कहना सही नहीं है कि राज्य पर पेंशन का बोझ उसके बजट के 25 फीसदी के बराबर है। ऐसा भ्रमोत्पादक इसलिए है क्योंकि इस गणना में राज्य की करों से होने वाली आमदनी के उसके दूसरे हिस्सों को इसमें शामिल नहीं किया जाता है। जरूरी है कि राज्य के राजस्व को बढ़ाने का प्रयास किया जाए, न कि पेंशन जैसे सार्वजनिक कल्याणकारी कामों के लिए कम पैसे खर्च किए जाएं।

कर और सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के मामले में भारतीय राज्य जी-20 और ब्रिक्स देशों में सबसे निचले पायदानों में है। भारत में कर से प्राप्त होने वाले तीन में दो रुपए अप्रत्यक्ष कराधान के जरिये प्राप्त होते हैं। इसका मतलब है कि यहां गरीब और अमीर, सभी पर उनकी आर्थिक हैसियत पर ध्यान न देते हुए कराधान किया जाता है। सचाई में उसूल तो आनुपातिक कराधान का होना चाहिए। यदि अमीरों की आय ज्यादा है, तो उन पर कर भी अधिक लगाया जाना चाहिए। इस तरह से ढेरों संभावनाएं मौजूद हैं कि जिससे भारत की जनता के उस वर्ग तक भी पेंशन योजना का प्रसार किया जा सकता है जो असंगठित क्षेत्र में है, लेकिन इसके लिए ‘सच्ची देशभक्ति’ की जरूरत होगी। ‘झूठी देशभक्ति’ तो महज एक नारा है जो केवल और केवल कॉरपोरेटों के हितों को पूरा करता है।

अंत में केवल यही कहा जा सकता है कि पूंजीवादी मीडिया भारत की जनता का दोस्त नहीं रह गया है, बल्कि यह उनके पक्ष में काम करता है जो भारतीय जनता के दुश्मन हैं।

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