नैतिकता और विवेक का टूटता पुल

Share:

पिछले दिनों हुए राज्यों के चुनावों के परिणाम मात्र राजनीतिक हार-जीत के संदर्भ में न तो देखे जा सकते हैं और न ही समझे। विशेष तौर पर गुजरात के चुनाव परिणामों को तो राजनीति तक सीमित कर देना आत्मघाती दृष्टिहीनता साबित होगा। यद्यपि इस दौर में नैतिक शब्द लगभग अर्थहीन हो गया है, पर यह शंकास्पद है कि कोई समाज आधारभूत नैतिकता के बगैर ज्यादा देर, और दूर तक चल सकता है? ऐसा समाज या तो तानाशाही का रास्ता पकड़ेगा या फिर अराजकता का शिकार होगा। राजनीतिक दृष्टिहीनता और संकीर्णता अंतत: पूरे समाज के लिए घातक साबित होती है, लातिन अमेरिका से लेकर एशिया तक के एक नहीं अनेक देश, इसका उदाहरण हैं। इस बात का प्रमाण भी कि विवेकवान अल्पमत की अनदेखी और कथित राष्ट्र सुरक्षा की आड़, सत्ताधारियों के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष मनमानी का हथियार बनती हैं।

गुजरात के चुनाव परिणाम इसी संदर्भ में विशेष तौर पर ध्यान देने की मांग करते हैं, जहां प्रधानमंत्री ने अपनी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष उपस्थिति से प्रभाव डाला। महत्वपूर्ण यह है कि यह मसला मात्र एक राज्य के सामाजिक और राजनीतिक व्यवहार से ही नहीं जुड़ा है, बल्कि भारतीय गणराज्य की कई आधारभूत संस्थाओं और आदर्शों की प्रासंगिकता तथा वैधता भी इससे जुड़ी है। इसे इस संदर्भ में भी परखा और समझा जाना चाहिए कि समाज की विभिन्न संस्थाएं चाहे राजकीय हों, सरकारी एजेंसियां हों, जिन से देश केंद्र से लेकर राज्य, जिला और ग्रामीण स्तर तक जुड़ा होता है या फिर गैर सरकारी स्तर पर काम करने वाली महत्वपूर्ण संस्थाएं, जैसे कि मीडिया या बौद्धिक समुदाय अथवा नागरिक समाज (सिविल सोसायटी), इस संदर्भ में किस स्तर तक अपनी भूमिका निभाते हैं।

किसी लोकतंत्र की सुरक्षा, शांति और उसका भविष्य इस बात में निहित नहीं है कि उसके समाज का बहुमत कितना ताकतवर, आक्रामक और संपन्न है। बल्कि इस बात में है कि उसका अल्पसंख्यक हिस्सा किस हद तक स्वयं को सुरक्षित महसूस करता है। कहने की जरूरत नहीं है कि जर्मनी इसका उदाहरण है। देश को तबाह हिटलर के नेतृत्व में वहां के बहुसंख्यकों ने ही किया था। दूसरे शब्दों में नेतृत्व की भूमिका समाज के हर वर्ग को यह विश्वास दिलाना है कि उसकी हिस्सेदारी भी समाज में उतनी ही है जितनी कि किसी और तबके की है या हो सकती है।

पर जब नेतृत्व बहुसंख्यक वर्ग के अधिकारों और विशेषाधिकारों को बचाने तथा चिरस्थायी कर के देश और सत्ता पर एक छत्र वर्चस्व की महत्वाकांक्षा को पनपाता और पोसता है, तब वह अपने इरादों को साकार करने के लिए अक्सर ही कोई दुश्मन ढूंढ लेता है या इजाद करता है। भारतीय संदर्भ में सांप्रदायिक दल, जो अक्सर हिंदू अस्मिता को बचाने या इतिहास की ऐसी घटनाओं को आड़ बनाकर, जो कभी हुई थीं, या गढ़ी गईं हों, बिना संदर्भ के समाज के अस्तित्व के हौवे के तौर पर इस्तेमाल करता है, भूल जाता है कि हिंदू अस्मिता का सबसे बड़ा संकट उसका आंतरिक भेदभाव है, जिसने सदियों से धर्म की आड़ में जातीय दमन और शोषण की पराकाष्ठा के चलते अक्सर उसके एक बड़े हिस्से को धर्मपरिवर्तन के लिए मजबूर किया था और अगर अब भी समाज के इस बड़े हिस्से के अधिकार तथा सम्मान उसे नहीं मिले तो भविष्य में उसे इस विकल्प को अपनाने से रोका नहीं जा सकेगा। देश के बहुसंख्यक समाज की सबसे बड़ी चुनौती स्वयं उसके धर्म का जातिवाद है जिसे वह ‘हिंदुओं को खतरा’ उर्फ ‘देश को खतरा’ के हव्वे और हल्ले से पृष्ठभूमि पर धकेल देना चाहता है। ऐसा हो नहीं सकता। इतिहास को सरसरी तौर पर भी देखें तो भी समझ में आ जाता है कि हिंदू धर्म को असली खतरा सदा उच्च जातियों के अवसरवाद से ही रहा है। जिसके चलते इसने जमकर सत्ता के साथ भागीदारी की, यही धर्मपरिवर्तन का भी कारण रहा है। पर ये शक्तियां इन तथ्यों पर चर्चा करने को आसानी से तैयार नहीं होतीं हैं।

राजनीति को वृहत्तर सामाजिक संदर्भ में तो देखा, समझा और परखा जाना चाहिए, पर यह भी नहीं भुलाया जाना चाहिए कि स्वयं राजनीतिक स्वार्थपरता, अदूरदर्शिता, या फिर लापरवाही और अयोग्यता के दुष्परिणाम किस हद तक दूरगामी हो सकते हैं। विशेषकर हमारे जैसे समाज में जहां अशिक्षा का ही बोलबाला नहीं है, बल्कि विभिन्न सामाजिक असमानताएं विकटतम रूप में सक्रिय हैं।

गुजरात के चुनाव परिणाम प्रत्याशितता के बावजूद अपने परिणामों की नैतिकता में जिस हद तक अचंभित करने वाले हैं, उन्हें लोकतंत्र के लिए किसी भी रूप में अच्छा लक्षण नहीं माना जा सकता। ये परिणाम मतदाताओं की समझ और विवेक को लेकर शंका पैदा करते हैं।

 

एकछत्र नेता?

माना आज नरेंद्र मोदी गुजरात के एकछत्र नेता हैं, पर सवाल है कि क्या लोकतंत्र का काम कुल मिलाकर ‘एकछत्र’ नेता पैदा करना और उन्हें बढ़ावा देना है? हमें याद रखना चाहिए कि सम्मोहित करने वाले नेता अक्सर अपने चमत्कारिक ‘वक्तव्यों व कारनामों’ से ऐसा छद्म ‘नेरेटिव’ रचते हैं जिसमें जनता के सारे कष्टों और आपदाओं के लिए कोई एक सामाजिक वर्ग या कारक को ढूंढ कर उसे बलि का बकरा बनाया जा सके। वे अपने असंवैधानिक बल्कि आपराधिक कृत्यों पर पर्दा डालने के लिए अक्सर ही देशभक्ति का सहारा लेते हैं। अगर हम इस तरह की राजनीति और नेतृत्व स्वीकार करते हैं, इससे परे कुछ समझना और सोचना नहीं चाहते हैं, तो फिर इस पर आगे चर्चा करने का ही कोई मतलब नहीं है। पर हम चूंकि एक लोकतांत्रिक परंपरा की उपज हैं और उस व्यवस्था में विश्वास ही नहीं रहते हैं बल्कि उसके लिए प्रतिबद्ध भी हैं, इसलिए यह चर्चा जितनी हमारी प्रतिबद्धता का हिस्सा है, उतना ही कर्तव्य भी।

बात सओदाहरण होनी चाहिए। अहमदाबाद से लगभग ढाई सौ किमी पश्चिम में बसे शहर मोरबी को लेते हैं, जहां राज्य के चुनावों से सिर्फ एक माह पूर्व एक ऐसी घटना घटी जो राजनीतिक भ्रष्टाचार और प्रशासकीय लापरवाही का चरम उदाहरण थी। प्रश्न है कि आखिर किसी सरकार की भूमिका क्या है, अगर निष्पक्ष और भ्रष्टाचार विहीन प्रशासन देना नहीं है तो?

मोरबी में 30 अक्टूबर 2022 को 135 वर्ष पुराना मच्छू नदी पर बना झूला पुल दर्शकों के दबाव से टूट गया और इस दुर्घटना में कम से कम 135 लोग डूब कर मर गए। यह इस बात का भी संकेत है कि शहर में लोगों के मनोरंजन के लिए या तो जगहें हैं ही नहीं, अगर हैं भी तो सीमित हैं। पर इस मामले में मोरबी अपवाद नहीं है।

खैर यह पुल आठ वर्ष की मरम्मत के बाद पांच दिन पहले ही दीपावली के अवकाश के दौरान जनता के लिए खुला था। मरम्मत का काम इलैक्ट्रॉनिक घडिय़ां बनाने वाली कंपनी ओरेवा को दो करोड़ के ठेके पर मोरबी नगर पालिका ने दिया था। मरम्मत का यह काम 2008 से छोटे ठेकेदारों के माध्यम से ओरेवा द्वारा चलाया जा रहा था।

मोरबी नगर पालिका के अंतर्गत आने वाले इस पुल के टूटते ही और जो कुछ होना था वह तो हुआ ही, पुलिस ने भी फुर्ती से कुछ गिरफ्तारियां कीं। इसके अलावा भी छोटे-मोटे ठेकेदार बंद हैं, पर न नगर पालिका का कोई पदाधिकारी पकड़ा गया और न ही ओरेवा कंपनी के मालिक को छुआ गया। अब मामला अदालतों के हवाले है।

 

मोरबी: दुर्घटना के बाद

इस दुर्घटना के ठीक दो दिन बाद अपना गृह राज्य होने के कारण प्रधानमंत्री मोदी लाव-लश्कर के साथ मोरबी पहुंचे थे। दिल्ली और हिमाचल प्रदेश के बाद गुजरात विधान सभा के लिए मतदान एक व दो दिसंबर को हुए। जैसा कि विदित है भाजपा ने गुजरात में भारी मतों से जीत हासिल की। इस पर भी उत्सुकता तो थी ही, क्या मोरबी अपवाद होगा?

उत्सुकता इसलिए भी थी कि इस चुनाव क्षेत्र में एक भयावह हादसा हुआ था। यहां लक्ष्य राजनीतिक चुनाव परिणामों को ऐसे किसी त्रासद संदर्भ में समझने और व्याख्यायित करने का है जिसकी पृष्ठभूमि में इतने बड़े पैमाने पर राजनीतिक भ्रष्टाचार और लापरवाही हो। इसलिए भी कि हम जिस गणतंत्र में रहते हैं वहां माना जाता है कि जनता अपने प्रतिनिधियों का चुनाव उनके काम के और अपने विवेक के आधार पर करती है।

नवंबर के आखिरी दिनों में इस छोटे से शहर में हुई दुर्घटना ने एक पूरे शहर के हजारों लोगों का जीवन नर्क कर दिया था और जिसका असर देश के दूर-दूर के गांवों और कस्बों तक में हुआ। यह बात और है कि मरने वालों में प्रवासी मजदूर ज्यादा थे पर यहां के लोग भी कम नहीं थे। विशेषकर छोटे छोटे बच्चों और जवानों ने बेवजह जान गंवाई थी। ये बच्चे और जवान शहर के किसी भी घर के हो सकते थे। गुजरात के किसी भी कोने के हो सकते थे और थे भी। एक मायने में यह पुल का टूटना नहीं था बल्कि भ्रष्ट राजनीतिकों के कारनामों का विस्फोट था जिसका तानाबाना मोरबी से अहमदाबाद और दिल्ली तक जाता है। और जवानों की ही गिनती सबसे ज्यादा है।

मोरबी नगर पालिका के अंतर्गत आने वाले इस पुल पर जो हुआ था वह तो हुआ ही, चकित करने वाली बात यह है कि इस पूरी अनियमितता के लिए जो पकड़े गए वे ओरेवा कंपनी के मालिक नहीं, बल्कि दो मैनेजर, दो टिकट बेचने वाले और दो गार्ड  हैं। आज तक न मोरबी नगर पालिका का कोई पदाधिकारी पकड़ा गया है और न ही ओरेवा कंपनी का मालिक। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि इतने गंभीर मामले में, जिसे देखने देश का प्रधानमंत्री तक दौड़ा चला आया हो, पटेल साहब बेदाग हैं। अब ममला अदालतों के हवाले है।

 

मतदान और परिणाम

इस दुर्घटना के ठीक एक माह और दो दिन बाद गुजरात में मतदान हुआ। मोरबी जिले की सभी सीटों पर भाजपा की जीत हुई। वैसे भी भाजपा ने इस बार राज्य में रिकॉर्ड तोड़ सीटें हासिल की हैं। सवाल है क्या किसी मौत को भुलाने के लिए सिर्फ एक माह का वख्त काफी होता है? दूसरा सवाल है, आखिर आज तक क्यों ओरेवा का मालिक नहीं पकड़ा गया? क्या नरेंद्र मोदी का मोरबी आगमन सिर्फ पीडि़तों को सांत्वना देने के लिए हुआ था? या अपने समर्थकों को आश्वस्त करने के लिए? पर दोषियों को दंडित करने के लिए नहीं।

ऐसा लगता है गांधी के इस राज्य में (प्रकारांतर से देश में) यह अपवाद नहीं नियम हो गया है कि ‘पापी से नहीं पाप’ से घृणा करो। आजादी के बाद के सबसे भयावह दंगों के आरोपियों को भाजपा नेता और उस की सरकारें लगातार बचाने में लगी हैं। दूसरी ओर उन सभी अधिकारियों को, जो उन दंगों के दौरान अपना कर्तव्य निभाते रहे और अपराधिक गतिविधि में शामिल नहीं रहे, चुन-चुन कर दंडित किया जा रहा है। कई जेल में हैं। दूसरी ओर लगातार धर्म और संप्रदाय की आड़ में कुछ चुने नेताओं की जो महावीरीय छवि गढ़ी जा रही है वह देश को तानाशाही और सांप्रदायीकरण की ओर ले जा रही है। ये छवियां देश को अंतत: व्यापक अशांति के मुहाने पर पहुंचा कर ही दम लेंगी। यह इस बात का भी संकेत है कि तब किसी तरह की कोई जवाबदेही सत्ताधारी दल की नहीं रहेगी। कहा जाता है न ‘यथा राजा तथा प्रजा’।

 

‘प्रतिभाशाली परिवार’

इस बार भाजपा ने राज्य में 156 सीटें हासिल कर रिकार्ड कायम किया है। जीतनेवालों में एक डा. पायल कुलकर्णी भी हैं। इन्हें वर्तमान विधानसभा सदस्य बलराम थवाणी की जगह नरोदा पाटिया से टिकट दिया गया था। यह अहमदाबाद का वही इलाका है जहां 2002 में सबसे भयावह मारकाट हुई थी। 97 लोग मारे गए थे और न जाने कितने बेघर हुए थे। इस कांड में तत्कालीन महिला एवं बाल विकास मंत्री माया कोडनानी को, इत्तफाक से वह भी डाक्टर ही हैं, 28 वर्ष की कैद की सजा हुई थी पर 2018 में उन्हें गुजरात उच्च न्यायालय ने रिहा कर दिया। इसी कांड में आजीवन कैद की सजा पाने वालों में मनोज कुलकर्णी नाम के सज्जन भी शामिल थे। वह फिलहाल जमानत पर हैं। पायल कुलकर्णी इन्हीं की सुपुत्री हैं, जिन्हें 1,12,767 यानी 71.49 प्रतिशत वोट मिले हैं और जिनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी तक की जमानत जब्त हो गई।

इन की मां रेशमा कुलकर्णी पहले से ही भाजपा की पार्षद हैं।

क्या यह सब अनजाने में हो रहा है?

Visits: 270

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*