आखिर ये माजरा क्या है

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– भूपेन सिंह

कॉरपोरेट मालिकाने वाला एनडीटीवी पत्रकारिता का कम, संस्कृति उद्योग का ज्यादा महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि पूंजीवादी नियंत्रण में जन संचार माध्यम ‘संस्कृति उद्योगÓ के तौर पर काम करते हैं। यहां व्यापारिक कंपनियां अपने फायदे के लिए संस्कृति का निर्माण करती हैं और उसे बेचती हैं। इस तरह के उद्योग जनता की चेतना को कुंद कर उन्हें निष्क्रिय उपभोक्ता में बदल देते हैं। मुनाफाखोर कॉरपोरेट मीडिया मालिकों में पत्रकारिता के उद्धारक तलाशना या तो निरी बेवकूफी है या फिर हद दर्जे की चालाकी।

गौतम अडानी ग्रुप के कब्जे ने न्यू डेल्ही टेलीविजन (एनडीटीवी) पर कई तरह की बहसों को पैदा किया है। ज्यादातर के केंद्र में उसका कॉरपोरेट ब्रांड और उसकी स्टार वैल्यू है। एनडीटीवी को वर्तमान सत्ता विरोधी मीडिया कंपनी मानने वाले दीवाने गमगीन हैं, तो विरोधियों में खुशी की लहर है। जबकि इस पूरे घटनाक्रम को ध्रुवीकृत बहस से बाहर निकलकर देखने की जरूरत है। यह कब्जा मुख्य रूप से भारतीय समाचार मीडिया मालिकाने की विसंगतियों और उसमें बढ़ते कॉरपोरेट एकाधिकार और संकेंद्रण (कॉन्संट्रेशन) की प्रवृत्तियों की ओर इशारा करता है। देश की आर्थिक-राजनीतिक स्थितियां इसके लिए सीधे जिम्मेदार हैं।

केंद्र की भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सरकार उग्र हिंदुत्व और खुले बाजार की अर्थव्यवस्था के कॉकटेल के साथ सामने आई है। ऐसे में कुछ विद्वान हिंदुत्ववादी आक्रामकता के खिलाफ बोलते हैं, तो अर्थनीतियों की विसंगतियों की अनदेखी करने लगते हैं। सिर्फ अर्थव्यवस्था पर फोकस करने वाले लोग आक्रामक हिंदुत्व की फासीवादी प्रवृत्तियों को नकारने लगते हैं। जबकि दोनों ही तरह के प्रयोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की आजादी के लिए खतरा बने हुए हैं।

भारतीय कॉरपोरेट पत्रकारिता के ज्यादातर हिस्से के सत्ता के सामने नतमस्तक होने की वजह से कई बार ब्रांड एनडीटीवी और उसके ब्रांडेड पत्रकारों को एक वैकल्पिक मॉडल के तौर पर पेश किया जाता रहा है। इसलिए कुछ लोग कंपनी के मालिकाने में बदलाव की प्रक्रिया को भारतीय पत्रकारिता पर खतरा बता रहे हैं। लेकिन एनडीटीवी के संस्थापक और प्रमोटर प्रणय रॉय और राधिका रॉय ने शुरुआती ना-नुकुर के बाद जिस तरह अडानी ग्रुप के सामने समर्पण किया है और अडानी ग्रुप की तारीफ की है, उससे यह भ्रम पूरी तरह खत्म हो जाता है।

गौतम अडानी की हिंदुत्ववादी सत्ता से करीबी रिश्ता किसी से छिपा नहीं है। यह बिल्कुल साफ है कि अडानी ने अपना व्यापारिक साम्राज्य इसी के संरक्षण में खड़ा किया है। आज यह शख्स एशिया का सबसे बड़ा अमीर बन चुका है। कुछ साल पहले तक हिंदुस्तान में जो जगिह अंबानी ग्रुप को हासिल थी, अब वह जगह अडानी ग्रुप ले चुका है। इसके लिए लोकतांत्रिक नियमों को ताक पर रखकर हर तरह से अडानी की विश्वविजय का रास्ता साफ किया गया है। अडानी के इतनी गति से आगे बढऩे के बावजूद अंबानी ग्रुप उसके खिलाफ कोई सीधा मोर्चा नहीं खोल रहा है, क्योंकि उसे मालूम है कि अडानी के खिलाफ कुछ भी बोलने का मतलब सीधे देश के प्रधानमंत्री को नाराज करना है। सरकार अगर अडानी को छूट दे रही है, तो बदले में अडानी ग्रुप भी कई तरह से सरकार चलानेवालों का कर्जा उतार रहा है। इस प्रक्रिया में दोनों का ही फायदा है।

एनडीटीवी लंबे अरसे से मोदी सरकार की आंखों की किरकिसी बना हुआ था। इस मीडिया कंपनी के कुछ प्रोग्राम सरकार को बिल्कुल रास नहीं आ रहे थे। जहां एक तरफ देश का ज्यादातर मीडिया संस्थान सरकार के सुर में सुर मिलाकर सरकारी कामों को लेकर ‘सकारात्मकता’ फैला रहे हैं, वहीं एनडीटीवी कुछ हद तक ‘चुनिंदा’ सवाल उठा रहा था। ऐसा नहीं कि संस्थान के मालिकों ने सरकार से समझौता करने की कोशिश नहीं की, लेकिन बात बन नहीं पाई। यही वजह है कि 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद सरकारी पक्ष एनडीटीवी पर निशाना साधता रहा है। उसके मालिकों के यहां सीबीआइ के छापे पडऩा और उन पर प्रवर्तन निदेशालय की तरफ से मनी लॉन्डरिंग का केस दर्ज होना, इसी का उदाहरण है (इंडियन एक्सप्रेस, 2017)। लेकिन ऐसा सिर्फ एनडीटीवी के साथ ही नहीं हुआ है। हिंदूवादी सरकार के दौर में अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरा कई गुना बढ़ गया है। प्रेस की आजादी के मामले भारत 180 देशों में से 150 वें नंबर पर पहुंच गया है। देश के अनगिनत गुमनाम पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर सत्ता की गाज गिरी है।

ऐसा भी नहीं है कि एनडीटीवी पर सिर्फ बदले की कार्रवाई हो रही थी और कंपनी ईमानदारी से काम कर रही थी। बीते सालों में इस पर नियम-कानूनों को तोडऩे के कई आरोप लगते रहे हैं। इसके चैनलों ने शुरुआत से ही उसूलों पर आधारित पत्रकारिता करने की आड़ में अपने व्यापार को आगे बढ़ाया। उसूलों की बात करना भी यहां बाजार में विश्वसनीयता और एक ब्रांड वैल्यू हासिल करने की रणनीति रही है। इसके चैनल एक अभिजात किस्म की कार्यप्रणाली के साथ सामने आते रहे हैं। सत्ता का आशीर्वाद हासिल करने के लिए इसके अंग्रेजी चैनल में ज्यादातर नौकरशाहों और प्रभावशाली लोगों की संतानों को ही नौकरी मिलती रही। कंपनी के हिंदी चैनल में भी ज्यादातर बड़े शहरों में पढ़े-लिखे, बहुसंख्यक, सवर्ण पुरुषों का ही बोलबाला रहा। चैनल ने लंबे अरसे में इनमें से कई लोगों की ब्रांडिंग एक स्टार के तौर पर करने में कामयाबी हासिल की।

कॉरपोरेट मालिकाने में चलने वाली मीडिया कंपनियों ने ब्रांडेड पत्रकारिता को बढ़ावा दिया है। उनके लिए समाचार, माध्यम और प्रस्तुतकर्ता सिर्फ बाजार में बिकने वाला एक ब्रांड है। हैरानी की बात नहीं कि अब कई पत्रकारिता के संस्थानों में संपादकों से महत्वपूर्ण ब्रांड मैनेजर होते जा रहे हैं। आम जनता, नागरिक के बजाय एक उपभोक्ता में बदल कर इन ब्रांडों का उपभोग करती है। इस तरह जनसंचार माध्यम समाज में उपभोक्तावाद को बढ़ावा देते हैं। पत्रकारिता आलोचनात्मक विवेक जगाने के बजाय उपभोग की एक वस्तु बन जाती है। ब्रांड आम जनता को भावनात्मक आधार पर अपना दीवाना बनाते हैं और रेटिंग बढ़ाकर हर तरह की भावनाओं और विचारधाराओं को बेच सकते हैं। इस तरह अक्सर वैकल्पिक विचार भी बाजार में बिकाऊ माल बन जाते हैं। एक कॉरपोरेट मीडिया कंपनी के तौर पर एनडीटीवी भी कभी इन प्रवृत्तियों से अछूता नहीं रहा।

 

ब्रांडेड पत्रकारिता और सितारावाद

आधुनिक समाजों में दृश्य माध्यमों के विकास ने दुनियाभर में सितारे पैदा किए हैं। भारत भी इससे अछूता नहीं है। पत्रकारिता में भी दृश्य माध्यमों के आने के बाद ब्रांडेड सितारे पैदा हुए हैं। चूंकि टेलीविजन में दर्शक एंकर या प्रस्तुतकर्ता को देखते हैं। इस तरह लगातार दिखने वाले व्यक्ति को समाज का बहुसंख्यक हिस्सा जानने लगता है। ये दृश्यात्मकता सितारे को एक खास तरह की सत्ता देती है (थॉम्पसन, 1995)। दुनियाभर के अध्ययन बताते हैं कि सितारों का एक खास तरह का मनोविज्ञान बनता है, उन्हें लगता है कि दुनिया का आदि और अंत उन्हीं पर टिका है। इस तरह की आत्ममुग्धता के चलते उनमें एक बड़बोलापन विकसित होता है। वे खुद को आम इंसान से बहुत अलग समझने लगते हैं। इस तरह उनकी तो आलोचनात्मकता खत्म होती ही है, वे जनता को भी अपनी दृश्यात्मक पहुंच के कारण भक्त में बदल देते हैं। इस तरह ब्रांडेड सितारावाद पत्रकारिता की कब्रगाह तैयार करने लगता है और सूचना देने वाला सूचना से बड़ा हो जाता है। समाचार मीडिया कंपनियां उनका फायदा उठाती हैं (क्लास और वैलब्रॉक, 2021)।

जो लोग दृश्य माध्यमों के प्रोडक्शन को जानते हैं उन्हें मालूम है कि स्क्रीन पर दिखाई देने वाले व्यक्तियों के पीछे कई लोगों की मेहनत लगी होती है। लेकिन सबसे ज्यादा नाम और दाम सिर्फ स्क्रीन पर आने वाला व्यक्ति ही ले जाता है। बैकग्राउंड में काम करने वाले व्यक्ति अक्सर अज्ञात ही रह जाते हैं। यही वजह है कि पत्रकारिता के बेहतर संस्थानों में सभी पत्रकारों को समान मौका देकर उनसे सभी तरह के काम करवाए जाते हैं। लेकिन जहां ब्रांड बनाना और मुनाफा कमाना पहला मकसद होता है उन संस्थानों में ऐसा नहीं होता है। मुनाफाखोर पत्रकारिता की वजह से देशभर के मीडिया संस्थानों में अनगिनत पत्रकार अलगाव की स्थितियों में काम करते हैं, लेकिन उन्हें एक बेहतर जीवन बसर करने लायक तनखवाह भी नहीं मिलती। जबकि सितारा पत्रकारों को अश्लील किस्म की तनख्वाहें दी जाती हैं।

ब्रांडेड सितारावाद कॉरपोरेट मीडिया की बाध्यता है। इससे बच पाना किसी के लिए भी आसान नहीं। वर्षों पहले जब एनडीटीवी अपने शुरुआती दौर में था और भारत में नई आर्थिक नीतियां लागू हो रही थीं, तो प्रणय रॉय ने दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स की मास्टरी छोड़कर एनडीटीवी का काम शुरू किया था। वह सरकारी चैनल दूरदर्शन पर निजी कार्यक्रम पेश करने लगे थे। ऐसे ही किसी कार्यक्रम में रॉय बजट के सरकारी पक्ष की वकालत कर रहे थे, तो इसने समाजवादी चिंतक किशन पटनायक (2004) को काफी निराश किया था। उन्होंने 1994 में ‘प्रोफेसर से तमाशगीर’ नाम का एक लेख लिखा और बताया कि किस तरह एक ठीक-ठाक कमाने वाला विद्वान प्रोफेसर मुक्त बाजार के लालच में प्रोफेसरी छोड़कर तमाशगारी बन जाता है। तब से अब तक प्रणय राय को पत्रकारिता के कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिले हैं। वह एनडीटीवी के पहले सितारे थे। बाद में कंपनी ने रवीश कुमार के साथ अर्णब गोस्वामी और राजदीप सरदेसाई जैसे, वाम-दक्षिण-केंद्र, हर तरह के विचारधारात्मक सितारे पैदा किए।

एनडीटीवी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में काम करने वालों में रवीश कुमार कई राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों के साथ सबसे बड़े ब्रांडेड सितारे बनकर उभरे थे। इसलिए एनडीटीवी पर अडानी के कब्जे की खबरों और रवीश कुमार के इस्तीफे के बीच उनके दीवाने कोरी भावुकता में सोशल नेटवर्किंग साइट्स में अजीब-अजीब प्रतिक्रियाएं देते नजर आए। कई लोग तो कहने लगे कि सेठ जब रवीश कुमार को नहीं खरीद पाया तो उसने चैनल ही खरीद लिया। पत्रकार करन थापर को दिए इंटरव्यू में खुद रवीश करते हैं कि अडानी ने सत्ता की सह पर एनडीटीवी का अधिग्रहण उनकी वजह के किया है। इस इंटरव्यू में वह अपने पूर्व मालिक प्रणय रॉय की तारीफ भी करते हैं। वह नाराजगी जताते हैं कि लोग इसे सामान्य कॉरपोरेट टेकओवर कह रहे हैं और उन्हें सिर्फ फुटनोट में जगह दे रहे हैं। इससे पता चलता है कि सितारे खुद के और अपने पसंदीदा कॉरपोरेट मालिकों के बारे में क्या सोचते हैं। ये कॉरपोरेट पूंजीवाद के अंतर्विरोधों को ही भारतीय पत्रकारिता का मुख्य अंतर्विरोध बताने की कोशिश भी है।

 

कॉरपोरेट मालिक बनाम पत्रकार

एनडीटीवी के सितारों के साथ ही इसके संस्थापक मालिक प्रणय रॉय की पत्रकारिता एक बार फिर चर्चा में आ गई है। लेकिन यह सवाल आज भी मुंह बाये खड़ा है कि क्या कोई कॉरपोरेट मालिक, पत्रकार भी बन सकता है? मालिक का काम मुनाफा कमाना है और पत्रकार का काम पत्रकारीय मूल्यों के तहत काम करना। क्या इन दोनों पेशों में हितों का टकराव नहीं है? इसलिए ब्रांड एनडीटीवी की भक्ति में डूबने से पहले दो पल ठहरकर विचार करने की जरूरत है। अगर किसी को लगे कि कॉरपोरेट मालिक भी पत्रकार बन सकता है, तो वह प्रणय रॉय पर पिछले तीन दशकों में लगे भ्रष्टाचार के अनगिनत आरोपों का अध्ययन कर सकता है। फिलहाल उन्होंने विपरीत परिस्थितियों को समझते हुए एक मोटी रकम लेकर इन आरोपों से निजात पाने में ही भलाई समझी है।

कॉरपोरेट मालिकाने वाला एनडीटीवी पत्रकारिता का कम, संस्कृति उद्योग का ज्यादा महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि पूंजीवादी नियंत्रण में जन संचार माध्यम ‘संस्कृति उद्योग’ के तौर पर काम करते हैं (अडॉर्नो और होर्खाइमर, [1944] (2002)। यहां व्यापारिक कंपनियां अपने फायदे के लिए संस्कृति का निर्माण करती हैं और उसे बेचती हैं। इस तरह के उद्योग जनता की चेतना को कुंद कर उन्हें निष्क्रिय उपभोक्ता में बदल देते हैं। मुनाफाखोर कॉरपोरेट मीडिया मालिकों में पत्रकारिता के उद्धारक तलाशना या तो निरी बेवकूफी है या फिर हद दर्जे की चालाकी।

 

मालिकों के खेल

एनडीटीवी की शुरुआत प्रणय रॉय और राधिका रॉय ने मिलकर 1988 में की थी। शुरुआत में कंपनी दूरदर्शन के लिए ‘वर्ल्ड दिस वीक’ प्रोग्राम बनाया करती थी। लेकिन 1991 में नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के साथ ही एनडीटीवी भी धीरे-धीरे एक बड़ी मीडिया कंपनी में तब्दील होती चली गई। टेलीविजन में विदेशी निवेश की इजाजत मिलने के साथ ही कुख्यात अंतरराष्ट्रीय मीडिया मुगल रूपर्ट मुर्डॉक के स्टार ग्रुप के साथ एनडीटीवी ने समझौता किया और एनडीटीवी ने 1998 में देश का पहला चौबीस घंटे का समाचार चैनल, स्टार न्यूज, शुरू किया। पांच साल का यह समझौता खत्म हुआ तो एनडीटीवी ने 2003 में हिंदी और अंग्रेजी में खुद अपने चैनल एनडीटीवी 24&7 और एनडीटीवी इंडिया शुरू किया। शेयर मार्केट में लिस्टेड होने के बाद 2004 में एनडीटीवी खुद में पूरी तरह एक मीडिया बिजनेस कॉर्पोरेशन बन गया (कौशिक, 2015)। तब से आज तक यह भारतीय मीडिया बाजार का बड़ा ब्रांड बना हुआ है, जिसे अब अडानी ग्रुप नियंत्रित करेगा।

राधिका रॉय और प्रणय रॉय दंपति के नाम पर बनी एनडीटीवी की एक मुख्य प्रमोटर कंपनी आरआरपीआर होल्डिंग्स प्राइवेट लिमिटेड ने विश्वप्रधान कमर्शियल प्राइवेट लिमिटेड (वीसीपीएल) से 403 करोड़ का लोन लिया था। अडानी ग्रुप ने पहले वीपीसीएल का अधिग्रहण किया, फिर ऋण न चुका पाने पर आरआरपीआर पर कब्जा कर लिया। आरआरपीआर प्राइवेट लिमिटेड के 29.2 फीसदी शेयर अडानी ग्रुप की तरफ से खरीद लिए जाने के बाद रॉय दंपति ने भी प्रमोटर कंपनी से इस्तीफा दिया। इसके बाद पत्रकार रवीश कुमार ने भी अपना इस्तीफा दे दिया था (हिंदुस्तान टाइम्स, 2022)। ऐसी स्थिति में प्रणय रॉय और राधिका रॉय के पास एनडीटीवी प्राइवेट लिमिटेड के 32.3 फीसदी के संयुक्त शेयर बचे थे। अडानी ग्रुप ने आरआरपीआर के 29.2 और ओपन ऑफर से 8 फीसदी शेयर हासिल कर कुल 37.4 फीसदी शेयर कब्जा कर लिया। लेकिन घटना का असली पटाक्षेप तब हुआ जब शुरुआत में ना-नुकुर कर अपने रेट बढ़ा रहे रॉय दंपति ने अडानी के सामने पूरी तरह समर्पण कर दिया। उसने अपने 27.3 हिस्सेदारी बेचकर सिर्फ 5 फीसदी शेयर अपने पास रखने का ऐलान किया और अडानी ग्रुप के लिए 69.7 हिस्से के साथ एनडीटीवी में मेजॉरिटी शेयर होल्डर बनने के रास्ते साफ हो गए।

इस सौदे में रॉय दंपति को कम से कम 810 करोड़ रुपए मिलने का अनुमान है। दोनों ने खुशी-खुशी पैसा लेकर इसे ‘कंस्ट्रक्टिव डील’ बताया। उन्होंने यह भी कहा कि गौतम अडानी ने उनके सारे सुझाव मान लिए हैं और उम्मीद जताई कि अडानी के नेतृत्व में एनडीटीवी लगातार तरक्की करेगा। इस कॉरपोरेट सौदेबाजी के बाद अडानी नियंत्रित एएमजी मीडिया नेटवर्क लिमिटेड (एएमएनएल) इस कब्जे से राष्ट्रीय मीडिया पर कब्जे की दौड़ में काफी आगे बढ़ चुका है। इस डील के बाद सवाल उठ रहा है कि अडानी ने ओपन ऑफर में छोटे शेयरधाराकों को जिस दर से भुगतान कि यथा उसकी तुलना में राय दंपत्ति को काफी बड़ी रकम देने पर सहमति हुई है(द टेलीग्राफ 24 दिसंबर 22)। स्पष्ट है कि राय दंपत्ति के लिए पत्रकारिता की बजाय अपना मुनाफा ज्यादा मायने रखता है।

जो लोग रॉय दंपति को कॉरपोरेट मालिक नहीं बल्कि भारतीय पत्रकारिता के उद्धारक समझ रहे थे, वे चाहें तो इस घटना से सबक ले सकते हैं। पत्रकारिता के इन महानायकों ने मोदी सरकार के सबसे करीबी बिजनेस मैन को अपनी मीडिया कंपनी बेचकर शुद्ध रूप से एक व्यापारी की भूमिका निभाई है। इन्हें मोदी के खासमखास व्यापारी के हवाले एनडीटीवी को करने में कोई बुराई नजर नहीं आई। जानने वाले जानते हैं कि रॉय दंपति पत्रकारिता की आड़ में हमेशा ही घाघ व्यापारी रहे हैं।

शुरुआत से ही एनडीटीवी के प्रभावशाली लोगों और सरकारों के साथ करीबी रिश्ते रहे हैं। यही वजह है कि एनडीटीवी के पहले चैनल की शुरुआत तत्कालीन प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल के कार्यालय में और पच्चीसवीं सालगिरह राष्ट्रपति भवन में मनाई गई थी। बिना राजनीतिक नजदीकी के इस तरह के कार्यक्रम करना संभव नहीं। एनडीटीवी पर दूरदर्शन के जमाने से ही भ्रष्टचार और आर्थिक हेराफेरी के कई आरोप लगते रहे हैं और कई बार मामले कोर्ट तक भी पहुंचे। कुछ साल पहले कृष्ण कौशिक (2015) ने कैरेवान पत्रिका में एनडीटीवी की पोल खोलते हुए एक लंबा शोधपरक लेख लिखा था। इसके अलावा आरएसएस के जुड़े अय्यर ने भी एनडीटीवी फ्रॉड्स : द रेड कार्पेट नाम से एक किताब लिखी है जिसमें बीते दशकों में प्रणव रॉय पर लगे आरोपों और सीबीआइ रिकॉर्ड को आधार बनाया गया है। अब बहुसंख्यक शेयर सत्ता के प्रिय अडानी के हवाले करने के बाद रॉय दंपति को भ्रष्टाचार के आरोपों से भी निजात मिल सकती है।

मीडिया का मालिकाना पत्रकारिता को सीधे प्रभावित करता है। यह बात और है कि उसकी चालाकियां आम जनता की समझ में आसानी से नहीं आती हैं। कॉरपोरेट मालिकाने पर सवाल उठाने का मतलब यह नहीं कि पत्रकारिता को सरकारी नियंत्रण में दे दिया जाए। सरकारी नियंत्रण में वह सीधे सरकारी गुणगान का माध्यम बन जाती है और पत्रकारिता का मूल मकसद सत्ता से सवाल पूछना पीछे छूट जाता है। यही वजह है कि कॉरपोरेट मीडिया कंपनीयां हमेशा समाचारों पर सरकारी नियंत्रण का डर दिखाती हैं। लेकिन अपने व्यापारिक हितों के लिए अंदरखाने सरकार के सामने समर्पण कर देती हैं।

 

कॉरपोरेट संस्कृति और लोकविमर्श

पत्रकारिता का काम लोकतंत्र में नागरिकों को सही सूचना देने के साथ ही उनके बीच खुली बहस को बढ़ावा देना है। सही सूचना मिलने पर ही सही जनमत बन सकता है और गलत काम करने पर सत्ता को कटघरे में खड़ा किया जा सकता है। इसीलिए पत्रकारिता को लोकविमर्श (पब्लिक स्फेयर) का एक अहम प्लेटफॉर्म माना जाता है (हैबरमास,1989)। लेकिन जिस तरह झूठी सूचनाओं को समाचार के तौर पर पेश करने का चलन बढ़ा है। एजेंडा सेटिंग के माध्यम से गैर-जरूरी मुद्दों को जरूरी, और जरूरी मुद्दों को गैर-जरूरी बनाया जा रहा है। उससे कॉरपोरेट मीडिया का बच पाना मुश्किल है। पत्रकारिता को बड़े बिजनेस कॉरपोरेशन की दया पर छोड़ देना इसकी हत्या करना है। इसलिए कॉरपोरेट मीडिया पर जितना संभव हो सके लगाम लगाना जरूरी है।

आजादी के बाद से ही भारतीय मीडिया का मालिकाना सवालों के घेरे में रहा है। पहले भी टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स जैसे मीडिया घरानों के मालिकाने के मीडिया से इतर हितों की वजह से इसे कभी जूट प्रेस तो कभी आयरन प्रेस कहा जाता था। पहले और दूसरे प्रेस आयोग ने भी इस तरह के मालिकाने पर चिंता व्यक्त की थी। लेकिन उदारीकरण की हवा चलने के बाद मीडिया मालिकाने के रहे-सहे नियमों को भी ढीला कर दिया गया। आज हालात ये हैं कि देश के सबसे बड़े उद्योगपति मीडिया में पैसा लगाकर उस पर कब्जा करने जा रहे हैं। अंबानी की तरफ से नेटवर्क 18 का अधिग्रहण और अडानी द्वारा एनडीटीवी का अधिग्रहण, उसी की अगली कड़ी है। अगर इन दोनों विशालकाय अंतरराष्ट्रीय कॉरपोरेशनों को मीडिया बाजार में खुला छोड़ दिया गया, तो बहुत जल्दी ये पूरे देश के अधिकांश मीडिया को पूरी तरह कंट्रोल कर रहे होंगे। तब सारी सूचनाएं और विचार इनकी मर्जी से ही जनता तक पहुंच पाएंगी। मालिकाने के संकेंद्रण से मीडिया में सूचना और विचारों की विविधता खत्म होती जाती है (बैगडिकियान, 2004)।

भारत में मुख्य तौर पर दो तरह से कॉरपोरेट मालिकाने की प्रवृत्तियां देखने को मिल रही है। पहला सिर्फ मीडिया में ही काम करने वाले कॉरपोरेट सभी तरह के मीडिया में कब्जा करने की तरफ बढ़ रहे हैं। दूसरा, किसी और व्यापार में अकूत संपत्ति के मालिक कॉरपोरेशंस मीडिया पर कब्जा कर रहे हैं। जिस कंपनी के मीडिया के अलावा अन्य व्यापारिक हित हैं उन्हें दुनिया के कई देशों में मीडिया में निवेश करने की इजाजत नहीं होती। इतना ही नहीं सिर्फ मीडिया के क्षेत्र में काम कर रही कंपनी को भी एक से ज्यादा मीडिया में आउटलेट में निवेश करने (क्रास मीडिया होल्डिंग) की इजाजत नहीं होती। इससे भी विभिन्न मीडिया आउटलेट्स पर एक ही कंपनी का नियंत्रण बढ़ जाता है। किसी ठोस नियम के अभाव में भारत में दोनों तरह की प्रवृत्तियां बढ़ती जा रही हैं। एनडीटीवी कल भी क्रास मीडिया होल्डिंग वाला बिजनेस कॉरपोरेशन था और आज भी बिजनेस कॉरपोरेशन है। फर्क इतना है कि अब ये सत्ता का संरक्षण प्रात्त कई व्यापारिक हितों वाले एक शख्स के सीधे नियंत्रण में आ चुका है।

संकेंद्रण और एकाधिकार की प्रवृत्तियां बाजार में प्रतिस्पर्धा नहीं लाती, बल्कि छोटे खिलाडिय़ों को पूरी तरह नेस्तानाबूत कर देती हैं। कॉरपोरेट पूंजीवाद की यह स्वाभाविक परिणति है। इस स्थिति पर लगाम लगाने के लिए कोई राजनीतिक पहलकदमी देखने को नहीं मिलती है। देश में प्रभावी राजनीतिक अर्थशास्त्र से एक बात साफ होती है कि जब तक कॉरपोरेट संस्कृति का बोलबाला रहेगा तब तक जनचेतना को विकसित कर पाने वाला लोकविमर्श चल पाना मुश्किल रहेगा।

यह एक विडंबना ही है कि भारत में जब भी कोई पार्टी में विपक्ष में होती है तो वह मीडिया के सत्ता की तरफ रुझान की आलोचना करती है। लेकिन जब खुद सत्ता में आती है तो खुद उसी तरह मीडिया को प्रलोभन और धमकाने का काम करती है। यह बात और है कि वर्तमान सरकार ने मीडिया नियंत्रण के पुराने सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं और देश का अधिकतर कॉरपोरेट मीडिया वॉचडॉग की वजाय लैपडॉग बन गया है। उदार लोकतंत्रों में बाजार के खतरों से पत्रकारिता को बचाए रखने के लिए ही पब्ल्कि ही सर्विस मीडिया की अवधारणा सामने आई है। जिसमें मीडिया को सरकारों और व्यावसायिक कॉरपोरेशंस का नियंत्रण से दूर रखा जाता है। इसी विचार को ध्यान में रखते हुए भारत में भी प्रसार भारती एक्ट के तहत स्वतंत्र मीडिया बनाने की कोशिश हुई, लेकिन कांग्रेस से लेकर बीजेपी तक हर किसी ने स्वायत्त मीडिया कभी बनने नहीं दिया।

 

आजादी दया से नहीं मिलती

किसी भी लोकतंत्र में बिना अभिव्यक्ति की आजादी के पत्रकारिता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अवधारणा ‘मार्केटप्लेस ऑफ आइडियाज’ की उदारवादी अवधारणा से ली गई है (बेकर,1989)। जिसका मूल उदारवादी अर्थनीति में खुले बाजार की अवधारणा से जुड़ता है। यानी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के पैरोकारों ने शुरुआत में माना था कि बाजार में खुली प्रतिस्पर्धा के बाद जो सबसे बेहतर होगा वह निकल कर आएगा। लेकिन अनगिनत धंधों में जुटे विशालकाय बिजनेस कॉरपोरेशन के विकास, संकेंद्रण और एकाधिकार की प्रवृत्तियों ने यह बात गलत साबित कर दी है। मुक्त बाजार में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा नहीं, बल्कि बड़े कॉरपोरेशन साम-दाम-दंड-भेद अपना छोटी कंपनियों पर कब्जा कर लेते हैं। इस तरह कॉरपोरेट, व्यापार के लिए ही नहीं बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए भी खतरा बन जाते हैं।

पत्रकारों और प्रेस की आजादी किसी कॉरपोरेट मालिक की दया से नहीं बच सकती। जो सितारे एनडीटीवी पर अडानी के कब्जे के बाद शहीदाना भाव ओढ़े हुए हैं, अगर उन्होंने हमेशा मालिक को मालिक समझा होता और आम पत्रकारों के साथ मिलकर अपने अधिकारों के लिए संगठन बनाया होता तो उन्हें इस्तीफा नहीं देना पड़ता। वे नए मालिकों के सामने भी तन कर खड़े हो जाते। यह बात में ध्यान रखनी जरूरी है कि मालिकों से दया में मिली स्वतंत्रता कभी स्वतंत्रता नहीं होती। उसे कभी भी छीना जा सकता है। मालिक सब को समान अवसर नहीं दे सकते। मालिक हमेशा कुछ गिने चुने पत्रकारों पर ही कृपा बरसाकर उन्हें अपना गुलाम बना लेते हैं। मतलब साफ है कि सिर्फ लोकतांत्रिक तरीके से मिले अधिकार ही पत्रकारीय स्वतंत्रता को बनाए रख सकते हैं।

बीते सालों में एनटीडीवी ने कितने ही पत्रकारों की छंटनी की। चैनल कॉरपोरेट स्पॉन्सर्ड प्रोग्राम चलाते रहे। चैनल की सैलेब्रिटी पत्रकार बरखा दत्त नीरा राडिया टेप केस में अंबानी और टाटा जैसे बड़े कॉरपोरेट का काम आसान करती नजर आई। एनडीटीवी का मैनेजमेंट और सारे सितारे उसके साथ खड़े हो गए। तब कंपनी अंबानी के पैसे से चल रही थी (कौशिक, 2015)। एनडीटीवी प्रबंधन के मनमानेपन और भ्रष्टाचार की अनगिनत घटनाएं हैं, लेकिन एनडीटीवी के ब्रांडेड सितारे कभी मालिक के खिलाफ चूं तक नहीं बोले। सितारों की आलोचना का खतरा उठाते हुए भी ये बातें कही जानी जरूरी हैं।

सितारे हमेशा एक फैनडम (भक्तिवाद) पैदा करते हैं। फैन उनके खिलाफ कुछ नहीं सुनना चाहते। ब्रांडेड और सितारा पत्रकारिता के कई रूप हो सकते हैं। वो सांप्रदायिकता जैसे मुद्दों के पक्ष में या खिलाफ हो सकती है। लेकिन जब भी मालिक के हित आएंगे वो चुप हो जाएगी। इसलिए कॉरपोरेट मालिक की दया से मिली आजादी अधिकारों से मिली आजादी का विकल्प नहीं हो सकती। इन जटिल स्थितियों के बीच भी उम्मीद की बात यही है कि कॉरपोरेट पूंजीवाद और हिंदुत्व के खिलाफ पत्रकारिता और लोकतंत्र को बचाने की लड़ाइयां जारी हैं। आज भी वैकल्पिक सूचनाएं और विचार ज्यादातर देश के कोने-कोने से निकलने वाली छोटी पत्रिकाओं और गैर व्यावसायिक वेबसाइट्स में जिंदा हैं। कॉरपोरेट पत्रकारिता की चमक-दमक और पहुंच की तुलना में सीमित संसाधनों से चलने के बावजूद पत्रकारिता की असल लोकतांत्रिक भूमिका ये ही निभा रहे हैं।

कॉरपोरेट समाचार माध्यम चाहे वैकल्पिक मुद्दों के नाम पर कितना ही बड़ा ब्रांड बन जाएं और कितने ही सितारे पैदा कर लें, व्यापारिक हितों के पार सोच पाना उनके लिए मुश्किल है। मुख्यधारा के कॉरपोरेट मीडिया में किसी वजह से जनता की बात आ जाए तो वो बोनस है। लेकिन बोनस मिलने पर कॉरपोरेट पत्रकारिता की जय-जयकार करने की जरूरत नहीं है। क्योंकि रेटिंग और विज्ञापनों पर निर्भर कॉरपोरेट मीडिया में बेईमानी करने की संरचनागत बाध्यता है। सही नियम-कानून हों और पत्रकारों की सुरक्षा के लिए पत्रकार संगठन मजबूत हों तो वे मालिकों पर सही पत्रकारिता करने के लिए कुछ हद तक दबाव बना सकते हैं। अगर उदारवादी लोकतंत्र कानून का राज है तो कम से कम इसे हासिल करने की कोशिश की जानी चाहिए। 

 

संदर्भ:

  1. अडॉर्नो, थियोडोर और होर्खाइमर, मैक्स [1944] (2002) : डायलेक्ट्स ऑफ एनलाइटेनमेंट:फिलॉसफीकल फ्रेग्मेंट्स ; स्टैनफोई यूनिवर्सिटी प्रेस।
  2. बैगडिकियान, बेन (2004): द न्यू मीडिया मॉनोपॉली, बोस्टन, बेकॉन
  3. बेकर, सी. एडविन (1989), ह्यूमन लिबर्टी एंड फ्रीडम ऑफ स्पीच, न्यूयॉर्क: ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस।
  4. हैबरमास, यूर्गेन (1989), द स्ट्रक्चरल ट्रांसफॉर्मेशन ऑफ द पब्लिक स्फैयर:एन एन्क्वारी इनटू कटेगरी ऑफ बुर्जुआजी सोसायटी, केम्ब्रिज, एमए : एमआइटी प्रेस।
  5. द हिंदुस्तान टाइम्स (2022): ‘गौतम अडानी बिकम्स एनडीटीवी’ज बिगेस्ट शेयरहोल्डर ऑफ्टर ओपन ऑफर’, 5 दिसंबर।
  6. इंडियन एक्सप्रेस (2017) ‘ईडी फाइल्स मनी लॉन्डरिंग केस अगेंस्ट एनडीटीवी ग्रुप’, 7 जुलाई।
  7. कौशिक, कृष्ण (2015). ‘द टैम्पेस्ट: हैव राधिका एंड प्रणय रॉय अंडरमाइंड एनडीटीवी?’ कैरेवान, 1 दिसंबर।
  8. क्लास, निना और वैलब्रॉक, क्रिश्चियन-मैथियास (2021), ‘व्हैन जर्नलिस्ट बिकम स्टार्स: ड्राइवर्स ऑफ ह्यूमन ब्रांड इमेज एंड देयर इंफ्लूएंस ऑन कन्जूमर इंटेशंस’, जर्नल ऑफ मीडिया इकॉनोमिक्स 32(3):1-21।
  9. पटनायक, किशन (2000): विकल्पहीन नहीं है दुनिया, दिल्ली: राजकमल प्रकाशन
  10. द टेलीग्राफ कोलकाता (2022), एनडीटीवी: अनईज ओवर अडानी प्राइस टु प्रणय एंड राधिका रॉय, 26 दिसंबर
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