आंतरिक दुश्मनों की अंतहीन खोज से उभरे सवाल

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– सुभाष गाताडे

इतिहास इस बात की बार-बार ताईद करता है कि हर असमावेशी विचारधारा – जो खास समूह या तबके के अन्यायीकरण पर आधारित होती है – उसकी पूरी कोशिश उपरोक्त समूह या तबके को ‘मनुष्य से कमतर’ या ‘संहार योग्य’ बताने की रहती है। बीसवीं सदी का पूर्वाद्र्ध ऐसे संहारों के लिए कुख्यात रहा है, जिसमें सबसे अधिक सुर्खियों में रहा है यहूदियों का जनसंहार। हमारे अपने समय में भी आंतरिक दुश्मनों की खोज की कवायद जारी ही दिखती है, कभी ज्यादा भौंडे रूप में, तो कभी अधिक साफ-सुथराक्रत/सैनिटाइज्ड अंदाज में।

संघ परिवार के एक वरिष्ठ नेता अरुण कुमार – जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के बीच समन्वय का काम संभालते हैं – की हाल की बातें जो उन्होंने एक केंद्रीय मंत्री की मौजूदगी में कही, गौरतलब हैं। उनका यह व्याख्यान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंधित ‘शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास’ द्वारा नई शिक्षा नीति के संदर्भ में आयोजित कार्यक्रम में हो रहा था।

‘देश के सामने मौजूद प्रमुख चुनौती’ को रेखांकित करते हुए उन्होंने कुछ बातें कहीं। उनका कहना था कि ‘इस्लामिस्टों, ईसाई धर्म के प्रचारकों, सांस्कृतिक माक्र्सवादियों और गूगल, फेसबुक और ट्विटर जैसी वैश्विक टेक कंपनियों द्वारा निर्मित पारिस्थितिकी तंत्र’ भारत के सामने प्रमुख चुनौती है और इस पारिस्थितिकी तंत्र (इकोसिस्टम) को तोड़े बिना भारत विश्व में महाशक्ति नहीं बन सकता। उनका यह भी दावा था कि ये चारों शक्तियां आपस में गठजोड़ कर रही हैं ताकि ‘राष्ट्रवादी विचार का उत्थान न हो।1 कहने के लिए ये बातें बेहद सामान्य लग सकती हैं, लेकिन इस बात को मद्देनजर रखते हुए कि जनाब अरुण कुमार एक अहम जिम्मेदारी संभालते हैं और ये बातें कुछ संकेत भी देती दिखती हैं। क्या यह ‘भारत विरोधी पारिस्थितिकी तंत्र’ (इकोसिस्टम) के निर्माता कथित दुश्मनों के नाम पर असहमति रखने वाले विचारक, अकादमिक एवं तमाम अन्य तबकों को चिन्हित करने तथा उन्हें निशाना बनाने के लिए जमीन तैयार करने का मामला नहीं है?

क्या यह कहना गैरमुनासिब होगा कि एक तरह से दो अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों को तथा साथ ही साथ एक खास राजनीतिक विचारधारा को चिन्हित करते हुए की गई उनकी बातें ऐसे तत्वों के बारे में अनावश्यक पूर्वाग्रहों को बढ़ावा दे सकती हैं तथा साथ ही साथ वक्त बेवक्त उनको निशाना बनाते हुए हिंसा को प्रेरित कर सकती हैं।

याद रहे विश्लेषकों ने इस बात को नोट किया है कि किस तरह भारत में ‘जैसे-जैसे कानून का राज पीछे हटता जा रहा है’ एक नई ‘बहुसंख्यकवादी सहमति’ उभर रही है, जिसके तहत डा. आंबेडकर के जमाने के एवं संविधान के तहत मान ली गई तमाम बातें ऐसे तत्वों के विचारों एवं कार्यों से प्रतिस्थापित हो रही हैं जो मोदी राज में सत्ता पर नियंत्रण रखते हैं। 2

लोग इस बात को भी नोट कर रहे हैं कि सहजीवन में नृशंस ढंग से की गई एक हत्या – जिसके तहत एक मुस्लिम युवक ने अपनी हिंदू पार्टनर की न केवल हत्या की, बल्कि लाश को ठिकाने लगाने के लिए उसके तमाम टुकड़े किए – जिसकी सख्त से सख्त सजा उसे मिलनी चाहिए, जैसी घटना भी बहुसंख्यकवादी संगठनों के प्रचार, मुख्यधारा के चैनलों की एकांगी प्रस्तुतियां एवं सोशल मीडिया में फैलाई जा ही बातों के जरिये समुदाय विशेष को निशाना बनाने के लिए इस्तेमाल की जा रही है। एक व्यक्ति का अपराध उसके समूचे समुदाय को कटघरे में खड़ा करता दिख रहा है।

एक ऐसे समय में जबकि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले मुल्क में ‘धर्म संसदों’ के जरिये अन्य तबकों के संहार के आह्वान किए जा रहे हों, या उन्हें अपने ढंग से पूजा तक करने के हक से वंचित करने के लिए तरह तरह की तरकीबें रची जा रही हों; समुदाय विशेषों के खिलाफ नफरती बातें कहना आम हो चला हो, जिसके चलते क्या भारत भी अगले ऐसे संहार की जगह बनेगा, ऐसी चिंताए प्रकट की जा रही हों। 3 इस पृष्ठभूमि में सत्ता के करीबी केंद्रो से प्रस्तुत ऐसी बातें निश्चित वातावरण को अधिक विषाक्त कर सकती हैं, मामले को अधिक गंभीर बना सकती हैं।

वैसे वे सभी जो संघ परिवार की सक्रियताओं पर या उनके अग्रणियों के समय-समय पर प्रस्तुत विचारों पर पैनी नजर रखते हैं, उन्हें जनाब अरुण कुमार के वक्तव्यों में संघ के दूसरे सरसंघचालक रहे माधव सदाशिव गोलवलकर द्वारा लिखी किताब बंच आफ थॉटस (जिसे विचार सुमन नाम से संघ से हिंदी में प्रकाशित किया गया है) में ‘आंतरिक दुश्मनों’ को चिन्हित करते हुए कही गई बातों की झलक अवश्य मिल सकती है।

गोलवलकर की यह विवादास्पद किताब मुसलमानों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों को ‘आंतरिक खतरे’ के तौर पर चिन्हित करती है। यह याद कर सकते हैं कि ‘आंतरिक खतरे’ से जुड़ा अध्याय – जिसके तीन उपभाग भी हैं – किस तरह शुरू होता है: (मूल अंग्रेजी से लेखक द्वारा अनूदित)

”दुनिया के तमाम मुल्कों के इतिहास का यह दुखद सबक है कि देश के अंदर के प्रतिकूल तत्व, बाहरी आक्रांताओं के तुलना में, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अधिक बड़ा खतरा बनते हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि राष्ट्रीय सुरक्षा का यह पहला सबक हमारे देश में लगातार भुला दिया जाता रहा है, जबसे ब्रिटिश यहां से विदा हुए हैं।‘ (पेज 176, बंच आफ थॉटस, गोलवलकर, साहित्य सिंधु प्रकाशन, 2000)।

एक क्षेपक के तौर पर यह भी बता दें कि गोलवलकर की यह किताब संविधान, आरक्षण तथा भारत के स्वाधीनता संग्राम और उसके अग्रणियों के बारे में तमाम सारे विवादास्पद बातें कहती है, जो किसी अन्य चर्चा का विषय हो सकता है।

यह वही गोलवलकर हैं जिनके प्रकट विचारों से संघ की असहजता बढऩे के बार-बार संकेत मिलते रहते हैं, जिनके द्वारा लिखी तथा 1939 में प्रकाशित वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड शीर्षक किताब उनके मूल विचारों का जानने का और अवसर देती है। जानने योग्य है कि 77 पेज की उपरोक्त किताब गोलवलकर ने तब लिखी थी जब संघ के संस्थापक सदस्य डॉ. हेडगेवार ने उन्हें सरकार्यवाह के तौर पर नियुक्त किया था। ‘गैरों’ के बारे में यह किताब इतना खुल कर बात करती है या जितना प्रकट रूप में हिटलर द्वारा यहुदियों के नस्लीय शुद्धीकरण के सिलसिले को अपने यहां भी दोहराने की बात करती है कि संघ तथा उसके अनुयायियों ने खुलेआम इस बात को कहना शुरू किया है कि वह किताब गोलवलकर की अपनी रचना नहीं है बल्कि बाबाराव सावरकर की किन्हीं किताब राष्ट्र मीमांसा का गोलवलकर द्वारा किया गया अनुवाद है।

दिलचस्प बात है कि इस मामले में उपलब्ध सारे तथ्य इसी बात की ओर इशारा करते हैं कि इस किताब के असली लेखक गोलवलकर ही हैं। खुद गोलवलकर 22 मार्च, 1939 को इस किताब के लिए लिखी गई अपनी प्रस्तावना लिखते हैं कि प्रस्तुत किताब लिखने में राष्ट्र मीमांसा ‘मेरे लिए ऊर्जा और सहायता का मुख्य स्रोत रहा है।‘ मूल किताब के शीर्षक में लेखक के बारे में निम्नलिखित विवरण दिया गया है : ”माधव सदाशिव गोलवलकर, एम. एस्सी. एल.एल.बी. (कुछ समय तक प्रोफेसर काशी हिंदू विश्वविद्यालय)।‘’ इसके अलावा, किताब की भूमिका में, गोलवलकर ने निम्नलिखित शब्दों में अपनी लेखकीय स्थिति को स्वीकारा था :

”यह मेरे लिए व्यक्तिगत संतोष की बात है कि मेरे इस पहले प्रयास – एक ऐसा लेखक जो इस क्षेत्र में अनजाना है – की प्रस्तावना लोकनायक एम.एस. अणे ने लिखकर मुझे सम्मानित किया है।‘’ (वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड गोलवलकर की भूमिका से, पेज 3)।

गोलवलकर के प्रकट विचारों से संघ की असहजता की बात को खुद मोहन भागवत ने स्वीकारा था।

वर्ष 2018 में देश के एक अग्रणी अखबार ने उन दिनों राजधानी दिल्ली में संघ की तरफ से आयोजित तीन दिवसीय व्याख्यानमाला की चर्चा के दौरान खुद भागवत के हवाले से इस बात का संकेत दिया था। उपरोक्त व्याख्यानमाला संघ की तरफ से एक किस्म का आउटरीच प्रोग्राम था, जिसमें संघ परिवार के बारे में लोगों को अवगत कराने के लिए संघ के बाहर के विद्वानों, कार्यकर्ताओं यहां तक कि विदेशी राजनयिकों को भी बुलाया गया था।

अपने इस व्याख्यान में संघ सुप्रीमो भागवत ने बंच ऑफ थॉट्स अर्थात विचार सुमन के नए संशोधित संस्करण लाने की बात कही थी, उनका तर्क स्पष्ट था कि ‘जहां तक विचार सुमन का सवाल है, उसका प्रत्येक वक्तव्य पर समय एवं परिस्थिति का संदर्भ उजागर होता है, गोलवलकर के कालजयी विचारों को एक ऐसे लोकप्रिय संस्करण में लाना चाह रहे हैं ताकि उनकी उन टिप्पणियों को हटाया जाए जिनका फौरी/तात्कालिक संदर्भ हो और हम उन बातों को अक्षुण्ण रख रहे हैं, जो दूरगामी महत्व की हैं। आप को इस किताब में ‘मुसलमान दुश्मन है’ यह टिप्पणी नहीं मिलेगी’ (मूल अंग्रेजी से लेखक द्वारा अनूदित)

निश्चित ही गोलवलकर के चिंतन की यही वह तंग नजरी और उसमें छिपा मनुष्य द्वेष है कि रामचंद्र गुहा जैसे लिबरल विद्वान भी उन्हें ‘नफरत का गुरु’ कहने में संकोच नहीं करते।२

संघ सुप्रीमो भागवत अच्छी तरह जानते थे कि एक नए कलेवर के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए गोलवलकर द्वारा प्रस्तुत मानवद्रोही समाधानो का प्रकट ऐलान बहुत महंगा पड़ सकता है। इसका मतलब कत्तई यह नहीं है कि वह व्यवहार में गोलवलकर के चिंतन से दूरी बनाने की बात कर रहे हैं।

गोलवलकर को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रणनीति स्पष्ट है, सार्वजनिक तौर पर उन्हें ‘भुला’ दिया जाए और व्यवहार में उनकी ‘अंतर्वस्तु’ को पूरी तरह से लागू किया जाए।

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