संपादकीय
बरास्ता चंद्रमा, मानवता का भविष्य
ज्ञान-विज्ञान कोई स्थिर चीज नहीं है। ज्ञान का संबंध समाज से है और उसका विस्तार इस बात पर निर्भर करता है कि कोई समाज ज्ञान […]
डूबती दिल्ली
कहने की जरूरत नहीं है कि देश की स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह पूंजीपतियों के हाथों सौंपी जा चुकी है और इलाज यानी मानवीय पीड़ा, बड़े […]
भविष्य का अंधेरा
इस संपादकीय के लिखे जाने के बाद भी इस माह का एक दिन बाकी है। डर है कोई और अप्रिय समाचार न सुनने को मिले। […]
महत्वाकांक्षाओं का फंदा
सिविल सेवा परीक्षा परिणामों के घोषित हो जाने के दो दिन बाद की घटना है। देश की प्रतियोगी परीक्षाओं की कोचिंग के सबसे बड़े केंद्र, […]
‘झूलता पुल’ और भविष्य के संकेत
लगता है उच्च न्यायालय ने गुजरात सरकार को अंतत: ऐसा बहाना दे दिया है जिससे वह छह माह पहले मोरबी के ‘झूलतो पुल’ उर्फ झूलता […]
आगे जो रास्ता है
आखिर ऐसा क्यों है कि वामपंथी ऐसे दौर में, जब देश में बरोजगारी, किसानों में बढ़ता असंतोष, मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के लिए जीना मुश्किल […]
हिंदी लेखन की सीमाएं
लेखन में, विशेषकर रचनात्मक लेखन की स्वस्फूर्तता, से इंकार नहीं किया जा सकता, जो कई मामलों में अनुभवजन्य होता है। इसलिए यह लेखन वृहत्तर सामाजिक […]
नैतिकता और विवेक का टूटता पुल
पिछले दिनों हुए राज्यों के चुनावों के परिणाम मात्र राजनीतिक हार-जीत के संदर्भ में न तो देखे जा सकते हैं और न ही समझे। विशेष […]