दो समाजों की वापसी का अंतर

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कोई रूढि़वादी, यथास्थितिवादी या फिर सांप्रदायिक मान्यताओं वाला नेतृत्व किसी समाज का क्या कर सकता है, आज संभवत: इसका सबसे अच्छा उदाहरण अमेरिकी समाज है। यद्यपि संयुक्त राज्य अमेरिका में वर्तमान में रिपब्लिकन पार्टी सत्ता से बाहर है, पर वह किस तरह का नस्लवादी या यथास्थितिवादी दबाव किसी समाज पर बना सकती है, इसे अमेरिका से सीखा और समझा जा सकता है। आज यह समाज सिर्फ कालों के लिए ही चुनौतियों भरा नहीं है, बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए खतरनाक है जो रंग रूप मेंगोरा’ (योरोपीय नस्ल का) नहीं है, अपनी मान्यताओं में उदार और व्यवहार में सहिष्णु है।

 

ऐसे समाजों में, नार्डिक और सेक्सनों के, जैसा कि होता है, सबसे ज्यादा असुरक्षित और प्रताडि़त अगर कोई है तो वे हैं स्त्रियां और उसके बाद हैं बच्चे। विडंबना देखिए, ये वही बच्चे हैं जो दुनिया के सबसे ताकतवार देश संयुक्त राज्य अमेरिका में, उन बंदूकों के द्वारा हर दूसरे तीसरे दिन दर्जनों की संख्या में उन स्वचालित बंदूकों से मारे जा रहे हैं, जिन को स्वतंत्रता का अधिकार, कह कर बिना रोक-टोक के बेचा जा सकता है और उन्हें लेकर कोई भी घूम सकता है, और चूंकि हथियार है तो आत्मसुरक्षा के नाम पर जब खतरा महसूस करे सीधे चला सकता है। आप पूछ सकते हैं दुनिया के सबसे शक्तिवान देश अमेरिका में हर कोई इतना असुरक्षित क्यों है? क्यों इतनी अराजकता है कि कोई भी कहीं भी सुरक्षित नजर न आए? आखिर इनकी सरकार और पुलिस करती क्या है?

और देखिए दूसरी ओर अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय कह रहा है कि औरतों के गर्भ पर उनका अपना नहीं बल्कि समाज का अधिकार है, क्योंकि गोरों को बच्चे चाहिए। उनकी जनसंख्या अनुपात में घटती जा रही है और नस्लवादी परेशान हैं कि जल्दी ही उस संयुक्त राज्य अमेरिका में वे अल्पसंख्यक हो जाएंगे जिसे उन्होंने योरोप से जाकर अमेरिकी महाद्वीप के शांतिप्रिय मूलनिवासी रेड इंडियनों का नरसंहार कर हथियाया और जिसे अफ्रीकी महाद्वीप से गुलाम बनाकर लाए लोगों के श्रम से स्वर्ग बनाया है।

 

बंदूक का निजी अधिकार बनाम गर्भ का सार्वजनकीकरण

इसके पीछे है सिर्फ लाभ यानी वह धड़ा है जो गन लॉबी कहलाता है। जो बड़े पैमाने पर उस राजनीतिक दल यानी रिपब्लिकन पार्टी के चुनाव फंड में दान देता है और न्यायपालिका से लेकर नौकरशाही तक को प्रभावित करता है। यह अचानक तो नहीं है कि अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय कहे कि बंदूक रखने का अधिकार अमेरिकी नागरिक का मूल अधिकार है। मजे की बात यह है कि यह अधिकार मूलत: रेड इंडियनों को मारने और अफ्रीका से लाए गुलाम कालों को नियंत्रित करने के लिए औपनिवेशिक सरकार द्वारा गोरों को प्रदान किया गया था।

आधी सदी पहले के उस कानून को जिसके तहत महिलाओं को गर्भ रखने या न रखने का अधिकार दिया गया था, को जिस तर्क के तहत वर्तमान अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने खत्म किया है वह कुल मिलाकर स्त्रियों के अपने गर्भ बल्कि कहना चाहिए अपने शरीर पर अधिकार को ही खारिज करता है। असल में व्यवहारत: यह कानून देश की गरीब महिलाओं के लिए घातक साबित होगा जिन्हें अवांछित या अनचाहे गर्भ को भुगतना होगा, बल्कि वह उन्हें सामाजिक समानता की दौड़ में अपनी आर्थिक व शारीरिक स्थिति के कारण और भी अधिक बंदी बना देगा। अन्य शब्दों में विडंबना देखिए, यह स्त्रियों से अपने ही शरीर के अधिकार को छीन लेता है।

पर सवाल है अमेरिका में रुढि़वादिता की जो लहर रुक नहीं रही है, उसके क्या कारण हो सकते हैं? यह प्रश्न इसलिए जरूरी है क्योंकि वहां प्रत्यक्षत: तो एक उदारवादी दल का शासन है और जिसके राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए फैसले से असहमति जताई है। कारण स्पष्टत: यह है कि पिछली सरकार और उसके राष्ट्रपति ने देश की सर्वोच्च संस्थाओं में, जो देश को दिशा देने में निर्णायक भूमिका निभाती हैं, ऐसे लोगों को नियुक्त किया था, जो अपनी सोच में अनुदार, रंगभेदी व परंपरावादी हैं। जो समानता पर मूलत: विश्वास नहीं करते और उदार से उदार नियमों को भी इस तरह व्याख्यायित कर सकने की क्षमता रखते हैं कि कोई देश और उस की जनता अपने दृष्टिकोण में जड़ बनी रहे और निहित स्वार्थों के साथ, धर्म, जाति, रंग और क्षेत्र के नाम पर मर मिटने को तैयार रहे। ऐसे दल और उनका नेतृत्व क्या कर सकता है, अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में रिपब्लिकन पार्टी के समर्थकों ने ह्वाइट हाउस पर हमला बोल कर क्या कर दिया था, इसे अमेरिका तो क्या दुनिया नहीं भूली होगी। वह सब यों ही नहीं हुआ था। उसका आह्वान खुद हारे हुए राष्ट्रपति ट्रंप ने किया था। वह लगभग तख्ता पलट जैसा ही था। समाचार है कि उन्होंने सुरक्षा एजेंसियों को आदेश दिया था कि उनके समर्थकों को सशस्त्र ह्वाइट हाउस जाने दें। इस सब के बावजूद याद रखिए कि ट्रंप की लोकप्रियता घटी नहीं, शायद बढ़ी ही है।

 

ट्रंप: पैसे की ताकत

ट्रंप स्वयं रुढि़वादी ही नहीं बल्कि एक बड़े पूंजीपति भी हैं जिनका एकमात्र उद्देश्य होता है लाभ कमाना। पैसे के बल पर कभी वह स्वयं और कभी अपने नुमांइदों के माध्यम से संविधान, अर्थव्यवस्था और कानून-व्यवस्था को नियंत्रित करते हैं। इसे वर्तमान भारतीय संदर्भ में स्पष्ट देखा जा सकता है। यह मानना भूल होगी कि पूंजीपति उदार होते हैं, अपने लाभ व हित के लिए वे दुनिया के निर्मम से निर्मम तानाशाह और अपराधी को समर्थन देने से नहीं हिचकते। इसे सिद्ध करने की जरूरत नहीं है।

यद्यपि भारत में स्थिति यथावत नहीं है, इस पर भी कई मायनों में अमेरिकी समाज से मेल खाती है। वहां जाति व्यवस्था नहीं है पर वहां योरोपीय हैं, जो स्वयं को किसी ब्राह्मण (आर्य)से कम नहीं समझते, काले और हेस्पियन हैं जो दलितों के समकक्ष हैं, एशियाई हैं जो लगभग भारतीय मध्यवर्ती जातियों जैसे हैं। यानी सत्ता से हाथ मिलाने को आतुर या जरूरत पडऩे पर कालों और हैस्पियनों के दमन में साथ देने के लिए तत्पर। यह अचानक नहीं है कि रिपब्लिकन जैसी पार्टी में भी भारतीय काफी हद तक एशियाई खासी बड़ी मात्रा में शामिल हैं। वे श्वेतों के पिछलग्गू हो सकते हैं पर कालों और हैस्पियनों के साथी और सहयोगी नहीं। और यह तब है जबकि भारतीय मूल की एक महिला आज वहां की उपराष्ट्रपति है। वैसे भी आज अमेरिका का आंतरिक संकट क्या है? कालों को सत्ता में बराबर की भागीदारी का हक देने से बचने का।

आज भारत जिस तरह के हिंदुत्व के उभार को देख रहा है उसकी जड़ में भी लगभग मिलता जुलता संकट है। वह है दलित और पिछड़ों द्वारा सत्ता में भागीदारी की मांग का जिसे अगड़ी जातियां, जिनका इन पर वर्चस्व राह है, किसी भी कीमत पर देने को तैयार नहीं हैं। निजीकरण, उदारीकरण, सरकारी नौकरियों को ठेके में देना, यहां तक कि शिक्षा और स्वास्थ्य आदि विषयों को भारत जैसे गरीब देश में निजी क्षेत्र को सौंपना, उन्हें मंजूर है। आखिर रिकॉर्ड बेरोजगारी, मंहगाई और गरीबी के बावजूद भाजपा का रथ महाराष्ट्र से असम तक यों ही सारे विरोधी दलों को रौंदता चला जा रहा है क्या?

 

योरोपीय ज्ञान हिंदू परंपरा

पर यहां एक फर्क है। वह है आधुनिक ज्ञान विज्ञान और साहित्य संस्कृति का, जिसका विकास योरोप में हुआ है और संयुक्त राज्य अमेरिका में वही परंपरा योरोपियों के साथ पहुंची है। इसी परंपरा ने न्यूटन, हीगल, कांट, शेक्सपीयर, माक्र्स, लेनिन, मेरी क्यूरी, सात्र्र, बोउवा, कींस, टालस्टॉय, एमिल जोला, कामू, आइंस्टाइन, डी सिक्का, चैपलिन, जैसे लोग हुए और जिनकी पंरपरा आज भी आगे बढ़ रही है।

भुलाया नहीं जा सकता कि हमें गुलाम बनाने वाले ब्रिटिश लोगों में ऐसे लोग भी थे जिन्होंने हमें अपने ही इतिहास से परिचित करवाया। क्या हम विलियम जोंस, जेम्स प्रिंसेप, एलेक्जेंडर कन्हिंगम, राबर्ट गिल और मैक्स मूलर जैसे लोगों को भूल सकते हैं? इन के बगैर हमें पता चलता कि दुनिया के इतिहास का सबसे महान राजा कौन था? अशोक कौन था और मौर्य वंश क्या था?

योरोप में पनपी और विकसित हुई आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की परंपरा को योरोपीय लोग ही अमेरिका ले गए। उन्होंने ही कल्याणकारी राज्य को यथार्थ किया, मजदूर संघों को अंजाम दिया, न्यूनतम मजदूरी की धारणा को जन्म दिया और महिलाओं और पुरुषों की लैंगिक दूरी को अस्वीकार किया। आज इलैक्ट्रानिक्स से लेकर अंतरिक्ष विज्ञान तक सब कुछ आखिर किस की देन है?

उनके पास विज्ञान मात्र उपकरण या प्रयोगशालाओं तक ही सीमित नहीं है। दुनिया के सर्वश्रेष्ठ स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय वहीं हैं। दुनिया के दस श्रेष्ठतम विश्वविद्यालयों में से पांच अमेरिका में हैं, बाकी पांच योरोप में। हमारे देश के एक भी विश्वविद्यालय का नाम इस सूची में नहीं है। सारी दुनिया से प्रतिभाएं क्या यूं ही उस दूसरी दुनिया में जमा होती हैं? हमारी श्रेष्ठ प्रतिभाएं लगातार पलायन कर रही हैं, गायत्री स्पिवाक और अकील बिलग्रामी से लेकर सुंदर पिचाई तक न जाने कौन-कौन किस-किस विद्या में निपुण भारतीय वहां सेवारत हैं और अपनी अपनी सफलताओं पर वे तो मुग्ध हैं ही, क्या हम इन सफलताओं पर कम मुग्ध हैं? क्या आप को लगता है ये प्रतिभाएं कभी लौटेंगी, इस देश और समाज को बनाने संवारने? जो काम करने का आकर्षण, सुविधाएं और सम्मान वहां उन्हें हासिल है वे उसे छोड़ेंगे? इसलिए उस समाज में जो क्षमता, लोच और सामथ्र्य है उसके चलते वे इस संकट से, जिसे एक मूर्ख शासक और विवेकहीन न्यायाधीशों ने खड़ा कर दिया है, उन्हें उबरने में देर नहीं लगेगी। पर सवाल है हमारा क्या होगा?

हम उन्हें सिर्फ नए गिरमिटिया मजदूर उर्फ ‘मैन पावरÓ स्पलाई करनेवाले बन कर रह जाएंगे। जिस गति से हमारी शिक्षण संस्थाओं का पतन हो रहा है हम सिर्फ कुली, चाहे आधुनिकतम तकनीकी के ही सही, पैदा करने की स्थिति में रह जाएंगे। ‘आशा’ करनी चाहिए वे भी उसी तरह राम भक्त होंगे जिस तरह दो सौ साल पहले के देश छोडऩे वाले गिरमिटिया थे।

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