‘इतिहासकारों को खास नियमों और कायदों के मुताबिक चलना होता है’

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– इरफान हबीब से नरेन सिंह राव की बातचीत

 

हमारे समय के महत्वपूर्ण इतिहासकार और लिबरल आवाज, प्रोफेसर  इरफान हबीब विश्व में अपने अंतरदृष्टिपूर्ण इतिहास लेखन और मौलिक चिंतन के लिए जाने जाते हैं। 83 वर्षीय मार्क्सवादी अकादमिशियन प्रो. हबीब के लेखन ने उस भारतीय इतिहास को, जो औपनिवेशिक और राष्ट्रवादी इतिहासकारों के चंगुल में जकड़ा हुआ था, नई दिशा दी है। उनके लेखन ने इतिहास को देखने और समझने के हमारे नजरिए में आधारभूत परिवर्तन किया है। ऐसे समय में जब उनके साथ के सभी इतिहासकार देश की राजधानी के अकादमिक संस्थानों में जा कर बस रहे थे, वह अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) में ही रहकर  काम करते रहे। वह उन विरले इतिहासकारों और पब्लिक इंटलेक्चुअल्स में से हैं जिन्होंने अन्याय, शोषण, सांप्रदायिकता और धार्मिक कट्टरपंथ का विरोध किया। अपने छह दशक लंबे सार्वजनिक जीवन में प्रो. हबीब समाजवाद और लोकतंत्र के सपने को संजोकर जिंदगी को न्यूनतम जरूरतों और अत्यंत सादगी के साथ जीते रहे। युवा पीढ़ी के लिए शायद यह किसी सांस्कृतिक झटके से कम हो कि प्रो. हबीब आज भी साइकिल से ही एएमयू जाते हैं, जहां वह प्रोफेसर एमेरिटस हैं और वहां सारा दिन बेनागा काम करते हैं। प्रस्तुत है नरेन सिंह राव की इरफान हबीब के साथ एएमयू के इतिहास विभाग के उनके कक्ष में हुई लंबी बातचीत के मुख्य अंश। विशेष रूप से समयांतर के लिए लिया गया यह साक्षात्कार पत्रिका के फरवरी 2015 में प्रकाशित हुआ था।

 

प्रश्न: धर्मनिरपेक्षता के विचार को आप कैसे देखते हैं?

इरफान हबीब: दुनिया के संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता का एक अलग मतलब है और भारत में सुप्रीम कोर्ट ने जो माना है वह अलग है। जहां तक दुनिया में धर्मनिरपेक्षता का ताल्लुक है वह फ्रांस की क्रांति से निकली थी। जॉर्ज जैकब होलिओक ने 1851 में धर्मनिरपेक्षता को यह सोच कर परिभाषित किया कि इस जीवन में जो भी काम किए जाएं वे इंसान के सुधार के लिए हों। इसलिए नहीं हों कि अगले जीवन में भगवान हमको कोई लाभ दें। धर्मनिरपेक्षता का यह अर्थ है कि राज्य (स्टेट), शिक्षा औरअन्य सामाजिक कार्यों को अंजाम दे। इसमें यह जरा भी मतलब न हो कि धर्म क्या कहता है। बल्कि यह देखा जाए कि इंसान के लिए कौन-सी चीज बेहतर है। जैसे पुरुष और स्त्री में बराबरी होनी चाहिए, जो कि दुनिया के किसी भी धर्म में नहीं है। जहां शिक्षा में धर्म का कोई दखल न हो। यानी धर्मनिरपेक्षता का अर्थ यह हुआ कि राज्य (स्टेट) को धर्म से पूरी तरह से अलग कर दिया जाए। अगर आप जवाहर लाल नेहरू की जीवनी पढ़ें तो पाएंगे कि उनका भी यही विचार था। लेकिन राधाकृष्णन ने अपनी किताब रिकवरी ऑफ फेथ में यह लिखा कि भारत में धर्मनिरपेक्षता का तसव्वुर बिल्कुल अलग होना चाहिए, यहां यह होना चाहिए कि सभी मजहब बराबर हों। हम (हिंदुस्तानी) यह न मानें कि ईश्वर का कोई रूप नहीं है। और हम ‘अंसीन स्पिरिटÓ (अदृश्य शक्ति) में भी विश्वास रखें। जिसको सुप्रीम कोर्ट ने भी मान लिया। मेरे ख्याल में यह बहुत गलत फैसला है, क्योंकि धर्मनिरपेक्षता का तो वही मतलब होना चाहिए जिसे दुनियाभर की अदालतों और राजनीतिक दार्शनिकों ने माना है।

इसके मद्देनजर क्या हम भारत को एक धर्मनिरपेक्ष देश मान सकते हैं?

हम एक स्तर पर तो कह सकते हैं, लेकिन इसमें खतरा बहुत है। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने राधाकृष्णन की व्याख्या को मानकर, संविधान में जो लिखा है उसको बदल दिया। मसलन, मैं आपको याद दिलाता हूं कि हमारे संविधान में यह लिखा है कि किसी भी सरकारी संस्थान, कॉलेज, यूनिवर्सिटी या स्कूल में या किसी भी अन्य संस्थान में जिसे सरकार से मदद मिलती हो या जिसे सरकार मान्यता देती है, उसमें धर्म की शिक्षा अनिवार्य नहीं हो सकती। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के इस आर्टिकल (अनुच्छेद) को ही पूरी तरह रद्द कर दिया और कह दिया कि धर्म की शिक्षा भी जरूरी है। और अब ये (सत्ताधारी) कह रहे हैं कि सभी धर्मों की शिक्षा बराबर दी जाए! यह कैसे हो सकता है? यह तो मुमकिन ही नहीं है। जब पहली बार भाजपा सत्ता में आई थी तो उसने इसी का सहारा लेकर पूरे एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम को बदल कर रख दिया और हर जगह धर्म की शिक्षा लागू कर दी गई। अब जब फिर से वही (भाजपा) सरकार सत्ता में आई गई है तो गालिबन फिर से ऐसा ही होगा।

अगर हम भाजपा के इसी एजेंडे पर बात करें, जिसमें शिक्षा के भगवाकरण के तहत समाज विज्ञान को, इसमें खासतौर से इतिहास मुख्य है, विरुपित कर पेश करते हैं, प्रचारित करते हैं। स्कूली बच्चों के दिमाम में बैठाते हैं। इसको हम कैसे देख सकते हैं। इसके किस तरह के दुष्परिणाम देखे जा सकते हैं और भविष्य में क्या हो सकते हैं?

देखिए जब वे धर्म की शिक्षा दे रहे हैं तो इतिहास (अनुशासन)के अलावा भी दे रहे हैं। पिछली बार इनकी बनाई जो पाठ्य पुस्तकें थीं उनमें देवी-देवताओं के तमाम किस्से दे दिए थे।  छिट-पुट कहीं एक-आधा मुसलमान या ईसाई संत के बारे में कुछ जानकारी थी। यह अनुपात 10 : 2 का था। यह इतिहास तक ही सीमित नहीं है। इतिहास में ये लोग यह बताने की कोशिश करते हैं कि हमारा इतिहास बहुत पुराना है और हम दुनिया के तमाम देशों से बहुत आगे थे। जैसे कि आर्य भारत से ही गए थे! अब ये लोग यह भी कह रहे हैं, मैंने अभी अखबार में देखा है, कि हमने ही सारी दुनिया को आबाद किया है। आर्य अफ्रीका से नहीं बल्कि भारत से गए थे! यह तो ऐसा इतिहास है कि जिसे सुनकर दुनिया के लोग हम पर हंसेंगे। क्योंकि हम यह कह रहे हैं कि दुनिया के सारे देशों का इतिहास गलत है और हम जो कह रहे हैं वह ही सही है। हमारे पास न तो कोई प्रमाण है और न ही कोई साक्ष्य! लेकिन हैं हम ही सही! मैंने हाल ही में प्रकाशित जर्नल ऑफ इंडियन साइंस को देखा, जिसमें एक वैज्ञानिक का बड़े इत्मीनान से कहना है कि फलां संस्कृत टेक्स्ट (ग्रंथ) 5000 ईसा पूर्व (ई.पू.)लिखा गया। जबकि हकीकत यह है कि यह मुमकिन ही नहीं है। क्योंकि न तो उस जमाने में तांबा मालूम था, न लोहा, न सीसा और न ही ऐसी कोई और धातु। ये लोग यह भी कहते हैं कि उस जमाने में रसायन विज्ञान की फलां किताब लिखी गई थी। जब विज्ञान के जर्नल में वैज्ञानिक ऐसी बातें लिख सकते हैं तो क्या नहीं हो सकता। यह सब काफी लंबे समय से चला आ रहा है, इतिहास को बिल्कुल गलत तरीके से पढऩा।

वाकणकर (विष्णु श्रीधर वाकणकर) जैसे पुरातत्वविद्, जो कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े थे, वह ऋग्वेद की तारीख 8000 ई.पू. देते थे। जिसका अर्थ यह हुआ कि वह ऋग्वेद की तारीख को दस हजार वर्ष पहले मानते हैं। ऋग्वेद में तांबे का जिक्र है, जो कि दुनिया के इतिहास में 4,500 ई.पू. से पहले कहीं नहीं मिलता। तो कैसे ऋग्वेद 5000 ईसा पूर्व या 8000 ईसा पूर्व में हो जाएगा। कुल मिलाकर ये सब झूठी बातें हैं। लेकिन जब इसकी शिक्षा दी जाएगी तो आदमी को बेवकूफ बनाना बहुत आसान होगा।

इधर जिस तरह से इतिहास को दुष्प्रचारित किया जा रहा है क्या इसे हम नॉनहिस्ट्री (गैरइतिहास) नहीं कहेंगे? ये लोग दावा करते हैं कि यह भी एक प्रकार का इतिहासलेखन (हिस्ट्रिओग्रॉफी) है। उसी प्रकार से जैसे मार्क्सवादी इतिहास लेखन होता है।

कोई ऐसा नहीं कह सकता। इतिहासकारों को खास नियमों और कायदों के मुताबिक चलना होता है। हर इतिहास लेखन इन नियमों-कायदों पर टिका होता है। जो चीजें इसके मुताबिक ठीक नहीं बैठतीं वे इतिहास नहीं हो सकतीं। यह बिल्कुल गलत ख्याल है कि इतिहास में आप जो चाहें कह दें। यह जरूर होता है कि साक्ष्य इधर का भी है और उधर का भी, तब आपको तय करना होता है। लेकिन ऐसी चीजें बहुत महदूद (सीमित) हैं। इनकी सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इतिहासकारों में इनको साथ देनेवाला कोई मिलता ही नहीं। बस कुछ पुरातत्ववेत्ता हैं। वे ऐसी कोशिशें करते रहते हैं जो कि पुरातत्व विज्ञान के उसूलों के खिलाफ हैं। जैसे यह साबित करने की कोशिश कि भारत में लोहा बहुत पहले से मौजूद था। अब तक तो यह मालूम था कि लोहा 800 ई.पू. में इस्तेमाल हुआ। आप  साबित करना चाहते हैं कि यह 2000 ई.पू. ही इस्तेमाल होना शुरू हो गया था। पर अभी तक इन्हें ऐसा कोई पुरातत्वविद् नहीं मिला जो कि यह कह दे कि लोहा 4000 ई.पू. इस्तेमाल में आ गया था! लेकिन इसे साबित करने की कोशिशें चल रही हैं। ऐसी कोशिशें (दुनिया में) और जगह भी चलती रहती हैं, लेकिन हर जगह दूसरे पुरातत्वविद् भी होते हैं जो कहते हैं कि यह सब गलत है, बेहूदा है। और ऐसे पुरातत्वविद् हिंदुस्तान में भी हैं।

इनके (हिंदुत्ववादी) साथ एक मसला यह भी है कि जो इतिहासकार राजनीतिक रूप से भाजपा में हो सकते हैं वे भी इस सब को ( इस तरह के इतिहासलेखन को) नहीं मान सकते। मैं अक्सर कहता हूं कि ये सारे लोग आर.सी. मजूमदार का जिक्र करते रहते हैं, पर जिस तरीके से मजूमदार ने प्राचीन भारत पर लिखा है, अगर उसे एनसीईआरटी की पाठ्य पुस्तकों में दे दें तो कम से कम मुझे कोई ऐतराज नहीं होगा…।

यानी उनके दक्षिणपंथी होने के बावजूद और उनकी व्याख्याओं से असहमतियों के बाद भी आपको एतराज नहीं होगा?

 जी बिल्कुल, मुझे ऐतराज नहीं होगा क्योंकि मजूमदार दक्षिणपंथी उन अर्थों  में हैं जहां उनसे असहमतियों की गुंजाइश है। उनका इंटर्पि्रटेशन (व्याख्या) हमेशा हिंदुत्व समर्थक था। वह गांधीजी के सख्त खिलाफ थे। लेकिन जब उनसे कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने यह कहा कि वह यह लिख दें कि आर्य भारत से गए थे और यहां नहीं आए थे तो उन्होंने एक साहब का लिखा कि ये शामिल तो किया लेकिन यह कहकर शामिल किया कि यह बिल्कुल गलत है। मजूमदार  सबसे पहले एक इतिहासकार हैं। अगर उनका इतिहास मान भी लिया जाए, सिवाय इसके कि गांधीजी की जो बुराई की है और हिंदू महासभा की तारीफ की है, तो हम इसे इतिहासलेखन कह सकते हैं।

इसी संदर्भ में अगर हम एरिक हॉब्सबॉम के इस कथन किहिस्ट्री इज ओपियम ऑफ नेशनलिज्म’ (‘इतिहास राष्ट्रवाद का अफीम हैÓ) को हिंदुत्ववादी ताकतों के राष्ट्रवाद के संदर्भ में देखें तो क्या लगता है? हॉब्सबॉम यह भी कहते हैं कि हर राष्ट्रवाद को विगत में एक ऐसे यूटोपिया की तलाश होती है जिसे वह महिमामंडित करके पुनरुत्थान की बात करता है। हिंदुत्ववादी संगठन भी इसी तरह प्राचीन भारत को स्वर्ण युग बताते हुए आर्य संस्कृति को सिंधु सभ्यता से जोड़ते हैं। इसे आप कैसे देखते हैं?

हॉब्सबॉम जिसे राष्ट्रवाद कहते हैं जहां दो कौमों की लड़ाई हो, दो राष्ट्रों की लड़ाई हो। जिसमें एक अपनी बढ़ाई करने की कोशिश करता है, दूसरे को नीचा दिखाकर। लेकिन हमारा राष्ट्रवाद या एशिया के दूसरे मुल्कों का जो राष्ट्रवाद था वह साम्राज्यवाद के खिलाफ था। इसीलिए आप देखते हैं कि न हिंदू महासभा और न ही मुस्लिम लीग कभी अंग्रेजों के खिलाफ किसी भी संघर्ष में शामिल हुई। यानी इसको राष्ट्रवाद या हिंदू राष्ट्रवाद कहना भी एक तरह से गलत है। क्योंकि हमारे जो राष्ट्रीय आंदोलन की अवधारणा (कॉन्सेप्ट) थी वह अंग्रेजों के खिलाफ लडऩे की थी। इसलिए जो हिंदू महासभा सिर्फ मुसलमानों का मुकाबला करती है और जो मुस्लिम लीग सिर्फ हिंदुओं का मुकाबला करती है वह कभी राष्ट्रवादी हो ही नहीं सकती। मूल परिभाषा से ही नहीं हो सकती। जैसा हमें पाकिस्तान से भी सीखना चाहिए, पाकिस्तान के प्रमुख अखबार डॉन में एक साहब ने लिखा कि हमारी बड़ी दिक्कत यह है कि जब हम अपना (पाकिस्तान) नेशनल मूवमेंट देखते हैं तो वह हाकिमों (शासकों) के कभी विरुद्ध नहीं हैं। वह महकूमों (शासितों) के विरुद्ध है मतलब रिआया के विरोध में है। इसमें तो कोई बात नहीं बनती। न उसमें जेल जाना है और न कुछ करना है! सिर्फ चिल्लाना है! यही हाल हिंदू महासभा का था। हुकूमत अंग्रेज कर रहे थे और वे लड़ मुसलमानों से रहे थे! जाहिर है कि यह राष्ट्रवाद नहीं है। इतिहास में कांग्रेस की जो तारीखें लिखी गई हैं उसमें इस किस्म की बेवकूफी भरी बात नहीं है। मसलन, ताराचंद की मशहूर किताब ‘द हिस्ट्री ऑफ द इंडियन पीपुल्स’  और ‘इन्फ्लूअन्स ऑफ इस्लाम ऑन इंडियन कल्चर’, जो कि मूलत: राष्ट्रवादी इतिहासलेखन था या खुद पंडित नेहरू की ‘ग्लिम्प्सेस ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री’  को अगर देख लें तो उनसे बड़ा राष्ट्रवादी कौन हो सकता है।

हमें यह भी जानना चाहिए कि जो दूसरों  से नहीं सिखता वह कभी क्रिएटिव (रचनात्मक) नहीं हो सकता। अनुकरण (इमिटेशन) क्रिएशन के लिए बहुत जरूरी है। यह कहना कितनी बेवकूफी की बात है कि हमने यूनानियों से नहीं सिखा, फारसी और अरबी खगोलविद्या (एस्ट्रॉनॉमी) से कुछ नहीं सिखा, अंग्रेजों से कुछ नहीं सिखा। क्या तुमने अंग्रेजों से नहीं सीखा? कैसे नहीं सिखा अंग्रेजों से! यह तो बेवकूफीभरी बात है। अगर आप इस तरह की बात करते हैं तो अपने आपको बेवकूफ ही सिद्ध करते हैं। असली राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में तो ऐसा कहीं नहीं था। बल्कि यह कहा गया कि सिविल लिबर्टी (नागरिक स्वतंत्रता) की अवधारणा हमने फ्रांसीसी क्रांति से ली। इसे राजा राममोहन राय तक कहते थे। राष्ट्रीय स्वाधीनता  एक अलग चीज है और राष्ट्रीय उन्माद (नेशनल फर्वर) दूसरी चीज। तो मेरा जो तसव्वुर है उसमें मैं न तो हिंदू महासभा को और न ही मुस्लिम लीग को राष्ट्रवादी मानता हूं।

आधुनिक राष्ट्र के मूल्यों के संदर्भ में सांप्रदायिकता, जिसका जबरदस्त उभार हमारे समाज के हर क्षेत्र में दिखाई दे रहा है, कैसे लें?

यह तो मानना पड़ेगा कि जहां भी धर्म होता है वहां बंटवारा होता है। इसी तरह जातिवाद से भी बंटवारा होता है। और ऐसी तमाम चीजों से समाज बंटता ही है। ऐसे में हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि हम एक ऐसा सेक्यूलरिज्म कायम कर सकें जहां धर्म का प्रभाव कम से कम हो। और दूसरा इतिहास को सच्चाई और ईमानदारी के साथ पेश करें। यानी जो तथ्य हैं वही इतिहास में लिखे जाएं। हम ऐसे इतिहास से ही कुछ सीख सकते हैं। अगर हम सिर्फ शेखी करते रहें और मूंछों पर ताव देते रहें तो फिर हम क्या सीख सकते हैं? हमें सोचना चाहिए कि अंग्रेजों ने भारत जैसे देश पर क्यों कब्जा कर लिया? लेकिन हमने अपनी गलतियों से कुछ नहीं सीखा। अगर हम अपनी आने वाली पीढिय़ों को यह नहीं बताएंगे कि कैसे हमने उस जमाने की न तकनीक सीखी, न ही लड़ाई का तरीका सीखा और न ही विज्ञान सीखा तो हमारे बच्चे अपने भविष्य का सामना कैसे करेंगे? भारत में 1500 ईस्वी के आसपास ही योरोपीय आने शुरू हो गए थे, पर हमने उनसे कुछ नहीं सीखा। उन्होंने हमारी जबान सीखी, लेकिन हमने उनकी जबान नहीं सीखी ! हमें यह भी सोचना पड़ेगा कि संस्कृत में हमने भूगोल (जियोग्राफी) पर क्यों कुछ नहीं लिखा। चीनी यहां आए और उन्होंने भारत के बारे में लिखा। हमारा इतिहास पूरा ही नहीं हो सकता अगर ह्वेन त्सांग ने कुछ नहीं लिखा होता। हमारा इतिहास पूरा ही नहीं हो सकता अगर मेगस्थनीज न हों। इसी तरह से हमने दूसरे देशों को कुछ क्यों नहीं दिया? जब तक हम अपनी कमजोरियों को नहीं देखेंगे तब तक अपने आप को नहीं बदल सकते। यह उसी तरह है जैसे कि एक आदमी के लिए याददाश्त जरूरी होती है। मसलन मैं एक दफा बिना देखे सड़क पार कर रहा था और मेरे बिल्कुल पास से होकर एक मोटर निकल गई। मैं डर गया। अब मैं हमेशा देख कर चलता हूं। अगर मेरी याददाश्त ही न हो तो मैं कोई काम ही नहीं कर सकता। इसी तरह से एक राष्ट्र के लिए भी इतिहास होता है। कुल मिलकर मतलब यह कि जहां तक संभव हो हमारी याददाश्त सही होनी चाहिए और कम-से-कम जान बूझ कर खुद तो अपने लिए झूठी बातें न याद रखें। इसी तरह राष्ट्र (नेशन) को भी करना चाहिए कि अपना इतिहास सही रखे ताकि उससे हम सीखें।

आज के दौर में जो सांप्रदायिकता है, उसकी तुलना औपनिवेशिक भारत और मध्यकालीन भारत से की जाए तो हम क्या फर्क पाते हैं?

जब आप किसी एक धर्म को मानते हैं तो अक्सर दूसरे धर्म को बुरा और गलत ही समझते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या आप अपने धर्म के सभी लोगों को एक समझते हैं? एक दौर में हिंदुस्तान एक ऐसा मुल्क था जहां दोनों, हिंदू और मुसलमान, साथ-साथ रहते थे। जहां पहली बार एक मुस्लिम राष्ट्र या एक हिंदू राष्ट्र की कल्पना तब हुई जब भारत में राष्ट्र की अवधारणा आई। मैं अक्सर कहता हूं कि भारत के लिए देशप्रेम तो उसी वक्त होगा जब आप दूसरे मुल्कों को भी देख कर आएं। सबसे पहले जो देशभक्त हुए उन्होंने वतन की तारीफ में लिखा है। मसलन, अमीर खुसरो ने फारसी में ‘नुह-सिफिर’ में लिखा है कि हिंदुस्तान एक बहुत अच्छा मुल्क है। ब्राह्मण बहुत अक्लमंद होते हैं। संस्कृत बहुत अच्छी जबान है, वगैरह-वगैरह। कहने का मतलब यह है कि नई अवधारणाएं आने के साथ चीजें बदलती हैं।

जब हमें दूसरे देशों में दिलचस्पी नहीं थी तो हमें उनके बारे में कुछ मालूम नहीं था, ऐसे में देशभक्ति कैसे विकसित हो पाती? देशभक्ति तो रिलेटिव (तुलनात्मक) होती है। जब अंग्रेज राज के साथ रेलवे और प्रेस आया तो यह सब तय हुआ कि हिंदू सब एक हैं, ब्राह्मण से लेकर दलित तक। हालांकि पूरी तरह नहीं। लेकिन बहरहाल एक हैं।

आपका मतलब है कि सांप्रदायिकता इससे पहले कहीं देखने को नहीं मिलती?

नहीं, इस रूप में नहीं कि जहां हिंदू और मुसलमान दो बड़ी ताकते हैं और वे एक-दूसरे के खिलाफ खड़ी हैं। उस दौर में पूर्वाग्रह मिलता है।

इस पूर्वाग्रह की जड़े कहां से शुरू होती हैं?

यह पूर्वाग्रह तो हमेशा से मौजूद रहा है। इसका जिक्र ‘चचनामा’ में मिलता है जो कि ‘राजतंरगिणी’ से भी पहले लिखा गया था और जिसमें सिंध के शासकों का इतिहास मिलता है। जब अरब के लोग यहां आए तो ब्राह्मणों ने कहा कि वे तो गाय का गोश्त खाते हैं और चंडाल हैं। जैसे अल-बरुनी कहते हैं कि ब्राह्मणों ने कहा है कि अगर कोई शख्स हिंदू से मुसलमान हो जाए तो वह फिर वापस नहीं आ सकता क्योंकि उसने तो अपने सारे धार्मिक संस्कार ही छोड़ दिए हैं। यह ग्यारहवीं शताब्दी की बात है। और मुसलमान यह समझते थे कि ये (हिंदू) काफिर हैं और बुतपरस्त हैं। यह नहीं कहा कि इनमें जातिवाद है क्योंकि हरेक यह समझता था कि समाज में ऊंच-नीच तो होती है और इनके यहां इस किस्म की ऊंच-नीच है। उस दौर में यकीनन यह कहीं नहीं था कि एक तरफ हिंदू खड़े हैं और दूसरी तरफ मुसलमान।

यानी इस तरह का विद्वेष (ऐनमॉसिटी) नहीं था?

जी हां, आज की तरह की दुश्मनी नहीं थी। जैसे विजयनगर के शासक अपने आपको हिंदूराय सुलतान कहते थे यानी वे सुलतान जो हिंदू रायों के ऊपर हों। यहां वे अपने आपको हिंदू नहीं समझ रहे हैं। अपने अधिनस्थों रायों को हिंदू कह रहे हैं। चौदहवीं शताब्दी में यह पदवी आरंभ हुई थी। जाहिर है, उनका यह कॉन्सेप्ट (अवधारणा) नहीं था कि सुलतान होना कोई बुरी बात है। मुसलमानों का नाम है। हमें तो महाराजा कहना चाहिए। यह भी देखते हैं कि 19वीं शताब्दी के आखिर में हिंदी-उर्दू विवाद शुरू हुआ। जैसे कि गांधीजी ने लाला लाजपत राय को लिखे एक खत में कहा था कि आप बहुत सख्त उर्दू बोलते हैं, आप थोड़ी-सी हिंदी सीख लीजिए, जैसे कि मैं उर्दू सीख रहा हूं। तो उनका (लाजपत राय) उत्तर था, मैं कभी नहीं सीखूंगा। मेरी जबान तो उर्दू ही रहेगी। उन्हें यह बिल्कुल ख्याल नहीं था कि उर्दू मुसलमानों की जबान है। लाला लाजपत राय देवनागरी ठीक से नहीं पढ़ पाते थे। वह बड़ी तकरीरें उर्दू में ही करते थे। जिसमें अरबी और फारसी के खूब लफ्ज होते थे। उन्होंने यह भी कहा था कि तुलसीदास ने भी अरबी और फारसी के लफ्ज इस्तेमाल किए हैं। तुलसीदास को आप धार्मिक कह सकते हैं लेकिन सांप्रदायिक नहीं।

इधर मिथकों को लगातार व्यवस्थित तरीके से इतिहास बनाकर बड़े पैमाने पर पेश किया जा रहा है। इसका जवाब इतिहास एक  अनुशासन के तहत कैसे दे सकता है?

इतिहास की अपनी पद्धतियां (मैथड्स) होती हैं जिन्हें दुनियाभर में स्वीकारा जाता है। एडवर्ड सईद जैसे लोग जिस सिद्धांत (डॉक्ट्रिन) की बात करते हैं वह इतिहास के लिए बहुत ही खतरनाक है। वह कहते हैं कि हिंदुस्तान के यथार्थ का चित्रण सिर्फ हिंदुस्तानी ही कर सकता है और मुसलमानों का यथार्थ सिर्फ मुसलमान ही लिख सकता है। आखिर यह कैसे हो सकता है? इंग्लैंड का इतिहास अगर रूसी विद्वान नहीं लिखते तो अंग्रेजों के सामंतीकाल का अध्ययन इतना अच्छा नहीं हो पाता। उसी तरह हंगरी के इतिहासकार गोल्डजायर न होते तो इस्लामिक इतिहास पूरी तरह निर्मित ही नहीं हो पाता।

यानी हर देश के इतिहास को दूसरे लोग भी पढ़ते-लिखते हैं और वह काम बहुत महत्त्वपूर्ण होता है, क्योंकि वे नई नजर के साथ चीजों को देखते हैं। इसीलिए इतिहासलेखन चाहे चीन का हो या भारत का, उसके लेखन के तरीके एक ही होते हैं।

जैसे कि अगर .एल. बैशम नहीं होते तो शायद भारत के इतिहासलेखन को नई दिशा नहीं मिल पाती।

बिल्कुल ठीक है। यही नहीं हिंदुस्तान में तो अंग्रेजों का बहुत ज्यादा योगदान (इतिहास के संदर्भ में) है। हमें मालूम ही नहीं होता कि अशोक नाम का कोई राजा भी हिंदुस्तान में हुआ था। राष्ट्रीय आंदोलन में अशोक और अकबर का नाम कांग्रेस हमेशा एक साथ लेती थी। तिलक ने तो यह तक कहा था कि अगर मैं उत्तर भारत में पैदा हुआ होता तो शिवाजी नहीं अकबर मेरा हीरो (नायक) होता। खैर अकबर का इतिहास तो हमें मालूम था, उस जमाने की फारसी तारीखों के जरिए। लेकिन अशोक के बारे में तो हमें बिल्कुल ही नहीं मालूम था। वह तो अंग्रेजों ने हमें बताया कि अशोक भी ऐसा था, जिसकी वजह से अब हम दुनियाभर में कह पाते हैं कि अशोक कितना बड़ा, उदार और खुले दिमाग वाला शासक था। अगर अंग्रेजों ने इसका अध्ययन नहीं किया होता तो क्या हम यह कह पाते? अंग्रेजों ने हमें इस्लामिक इतिहास के जरिए यह भी बताया कि अरब वैज्ञानिकों की क्या भूमिका थी। अरे भाई, जब तक आप विज्ञान नहीं जानेंगे तब तक आपको कैसे पता होगा कि क्या बात सही है और क्या गलत है। वही लोग तो अरबी वैज्ञानिकों के बारे में बता पाएंगे जिन्हें विज्ञान की समझ हो। आप यूं ही तो अंदाजा नहीं लगा सकते। अगर आप यही समझ रहे हैं कि सूरज ही दुनिया के चारों तरफ घूम रहा है तो आप क्या अंदाजा लगाएंगे कि उन्होंने (वैज्ञानिकों) क्या कहा था या आर्यभट्ट के खोज की क्या महत्ता है।

मैं यह इसीलिए पूछ रहा हूं क्योंकि जिस तरह से दक्षिणपंथियों के द्वारा मिथक को इतिहास बनाकर लगातार अवाम पर थोपा जा रहा है उसमें तथ्यों पर आधारित वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला इतिहास अवाम तक उस तरह  नहीं पहुंच पा रहा है जिस तरह उसे पहुंचना चाहिए।

सारा मामला संसाधनों पर टिका होता है। मसलन, पिछली दफा भाजपा के सत्ता में आने के बाद जिस तरह राजपूत साहब (जे.एस.) के जरिए एनसीईआरटी में सब कुछ बदलकर रख दिया गया। उसके बाद भारतीय इतिहास कांग्रेस ने एक कमेटी बनाई, जिसका मैं भी एक सदस्य था। इस कमेटी के तहत एनसीईआरटी की पाठ्य पुस्तकों के जवाब में उनकी एक-एक बात को सिलसिलेवार गलत साबित करते हुए अपने सीमित संसाधनों के मुताबिक दो हजार पुस्तिका छापी, जो कि सारी की सारी बिक गईं। लेकिन उससे ज्यादा संसाधन तो हमारे पास थे नहीं। हमारी इस पुस्तिका के जवाब में उन्होंने जो कुछ गलत बातें कहनी थीं वो पचास हजार कॉपियां मुफ्त में बांटकर कह दीं। वे तो मुफ्त बांट सकते हैं, लेकिन हम नहीं बांट सकते हैं। यहां यह भी बता दूं कि उनकी ये पचास हजार कॉपियां करदाताओं के खर्चे पर बंटी थीं। राज्य के संसाधनों का हम उस तरीके से तो सामना नहीं कर सकते। लेकिन हमारी कोशिश यही होनी चाहिए कि हम जहां तक भी पहुंच पाएं वहां तक पहुंच कर अपनी बात कहें।

अभी भी कई लोग हैं जो अपने-अपने स्तर पर इस तरह के इतिहास को छापकर अवाम तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। मसलन, ‘हिस्ट्री ऑफ टेक्नोलॉजी’, ‘हिस्ट्री ऑफ मिडीवल टेक्नोलॉजी’ जैसी कईं किताबें छापी जा चुकी हैं। और यह कोशिश पूरी तरह से जारी है। जैसे कि मैं डॉ. ताराचंद और पंडित नेहरू की किताबों का जिक्र कर रहा था, मेरी काफी असहमतियां होने के बावजूद मैं यह कहूंगा कि ये कम से कम काफी इनसाइटफुल इतिहास तो है ही। इसके अलावा अगर हम एनसीईआरटी की रामशरण शर्मा, सतीश चंद्र और बिपिन चंद्रा की लिखी हुई किताबों की बात करें तो यकीनन ये हर लिहाज से बहुत अच्छी किताबें थीं, जिनको इन्होंने (भाजपा) हटा दिया।

इसी संदर्भ में अगर मैं अर्जुन देव की ‘वर्ल्ड हिस्ट्री’ का जिक्र करूं तो वह बहुत ही उम्दा किताब है। मुझे एक जर्मन स्कॉलर ने इसके बारे में कहा था कि अगर यह किताब जर्मन भाषा में अनुवाद हो जाए तो इसे जर्मनी के स्कूलों में पढ़ाया जा सकता है। तो क्या हमारे यहां कभी यह नहीं बताया जाएगा कि अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और स्पेनिश अमेरिका का इतिहास और संस्कृतियां क्या-क्या हैं। क्यों कभी हमारे यहां इसे नहीं पढ़ाया जा सकता?  इस शिक्षा की बड़ी अहम भूमिका है। मैं उनसे (जर्मन स्कॉलर) क्या कहता कि हमारे यहां तो ज्यादार स्कूल बोर्डों ने यह कह दिया कि अफ्रीका और लैटिन अमेरिका को पाठ्यक्रम से निकाल दो! और अब उन्होंने (एनसीईआरटी) उसमें से चीन को भी निकाल दिया है। बताइए कि अगर दुनिया के इतिहास में से चीन गायब हो जाए तो वह क्या इतिहास होगा? अक्सर यहां (भारत में) यह तर्क देकर कि बच्चों पर बहुत ज्यादा पढ़ाई का बोझ पड़ता है, ये सब चीजें पाठ्यक्रम से हटा देते हैं। ये लोग यह नहीं समझना चाहते कि अगर वे ये सब (लैटिन अमेरिका और अफ्रीका का इतिहास) निकाल देंगे तो भारत के लोगों का नजरिया ही बदल जाएगा। और इसका परिणाम यह होगा कि अफ्रीका से नफरत पैदा होगी। कुल मिलाकर यह सब बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है।

एक तबके द्वारा लगातार दुष्प्रचारित किया जाता है कि भारत में इस्लाम के आगमन के बाद मुस्लिम शासकों ने हिंदुओं का तलवार के दम पर व्यापक पैमाने धर्मांतरण किया। अब उनकी घरवापसी की बात हो रही है। क्या भारत के मध्यकाल के इतिहास में ऐसा देखने को मिलता है?

जहां तक मुगलकाल का सवाल है, शासकों ने जुल्म करने पर मुसलमान किसानों और हिंदू किसानों में कोई फर्क नहीं किया। टैक्स की वसूली में तो उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को ही कोई रियायत नहीं दी। जहां तक धर्मांतरण का सवाल है तो उसमें उनकी कोई दिलचस्पी ही नहीं थी। उन्होंने कहीं कोई जबरदस्ती धर्मांतरण नहीं किया। औरंगजेब ने उन जमींदारों को बस कुछ इनाम वगैरह दिए जो मुसलमान हो गए। इससे ज्यादा किसी को कोई ईनाम नहीं दिया। मथुरा इलाके के वृंदावन को लें तो वह मुगल अनुदान से है। टोडरमल के दिए हुए बड़े अनुदान को जहांगीर ने शासकीय अनुदान (इंपीरियल ग्रांट) बनाया। और यह तो आपको मालूम ही है कि औरंगजेब ने भी मंदिरों को छुआ तक नहीं और न ही कभी अनुदान वापस लिया। तो यह सारा इतिहास तो आपके सामने है।

लोगों ने निजी तौर पर धर्म परिवर्तन किया। अगर जमीनों की वल्दियत देखें तो ऐसे कई उदाहरण पाएंगे जहां बेटा मुसलमान है और बाप का नाम हिंदू है। कई मामलों में यह भी देखेंगे कि बाप का नाम मुसलमान है और बेटा हिंदू है और हिंदू रस्म अदा कर रहा है। नाम अपने बाप का देता है। हालांकि उनके बीच शादी-ब्याह के बारे में ज्यादा पता नहीं चलता। जैसा कि मैंने एक जगह लिखा भी है कि जाति व्यवस्था हिंदुस्तानी समाज में बहुत ही रूढ़ और स्थिर थी, जबकि धर्म गतिमान था। लेकिन दलितों की तरफ तो मुसलमानों का भी वही रवैया था जो ब्राह्मणों का था। हालांकि, अकबर ने जरूर एक साहब (दलित) को खिदमत राय का खिताब दिया था! अब आप इस खिताब को देखिए! रुतबा तो राय का दिया, लेकिन आगे खिदमत लगा दिया!

जिस तरह सेघर वापसीजैसे कार्यक्रम चल रहे हैं

देखिए, ये लोग सांप्रदायिकता बढ़ाने के लिए ऐसा करते हैं, क्योंकि इनके लिए  मुद्दा यह नहीं है कि वे मुसलमान को हिंदू बनाना चाहते हैं, बल्कि मुस्लिम दुश्मनी उनका मुद्दा है। धर्म दो चीजों से बनाए जाते हैं। एक तो जन्नत जाने का ख्याल होता है। अगर वह मुसलमान होगा तो जन्नत में जाएगा। मैं आपको एक कहानी बताता हूं। शरीयत में यह है कि आप बच्चे को कन्वर्ट (धर्मांतरण) नहीं कर सकते। निजामुद्दीन औलिया के एक मुरीद थे, जिनका नाम था अमीर हसन। वह अमीर खुसरो के दर्जे के शायर थे। वह ऑफिसर थे। दक्खन के अभियान पर गए। वहां लूट मार के बाद एक बच्ची मिली तो उसको इनके (अमीर हसन) नौकर ने खरीद लिया। उसके बाद उसके मां-बाप उनके पास आए और बच्ची वापस मांगने लगे। नौकर ने इंकार कर दिया और कहा कि मैंने तो इसे मुसलमान बना दिया है। इस पर अमीर हसन ने उसे (बच्ची) फिर से खरीदा और उसे उसके मां-बाप को वापस कर दिया। अब उनको यह लगा कि यह मैंने क्या कर दिया, वो तो जन्नत में जाती अगर मुसलमान हो जाती, मगर अब तो वो काफिर होकर दोजख में जाएगी। वह इतने परेशान हुए कि निजामुद्दीन औलिया के पास पहुंचे। वह भी कोई बहुत बड़े सहिष्णु तो थे नहीं। उन्होंने कहा, नहीं, ग़ुलाम को छोडऩा बहुत बड़ा सवाल है। अल्लाह मियां कि तरफ से उसे बहुत फायदा होगा, लेकिन उसे क्या फायदा होगा? …(हंसते हुए) उसे तो काफिर बना दिया! निजामुद्दीन औलिया ने इनके (हसन के) इत्मीनान के लिए कह दिया कि उसे भी फायदा होगा। तो ये जो पुराने मानक थे, जैसे मुस्लिम नियम भी थे, वे ऐसे थे कि आपस में रह सकें।

अब जैसे ब्लैस्फेमी (ईश-निंदा) है। पाकिस्तान में यह हिंदुओं और ईसाइयों पर लागू हो रही है। लेकिन यह (ब्लैस्फेमी) तो उन पर लागू ही नहीं हो सकती। ईश-निंदा की जो सजा है वह सिर्फ मुसलमान को ही मिल सकती है। मसलन, अकबर के समय में एक ब्राह्मण को इसीलिए मार दिया गया क्योंकि साबित हो गया कि उसने रसूल को बहुत बुरा-भला कहा था। इस पर मौलवी जमा हुए। भाई लोग यह माने बैठे होंगे कि अकबर की भी यही राय होगी। इस पर अकबर ने पूछा कि बताओ, अबू हनीफा ने कहां लिखा है कि ईश-निंदा की सजा हिंदुओं को हो सकती है। यह सजा काफिर को नहीं दी जा सकती। इसीलिए हम तो कहते हैं कि अगर मध्य काल का इस्लाम आ जाए तो शायद ज्यादा बेहतर हो।

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